क्यू आर कोड
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मिंटू का आठ साल का लड़का बीमारा था। दशहरे का कलश स्थापना हो चुका था। लेकिन, दुकानदारी बहुत ठप चल रही थी। वो मेले ठेले में घूम - घूम कर बैलून- फोकना बेचता है। जब से सावन लगा था। तब से ही पूरा का पूरा सावन और भादो निकल गया था। लेकिन कहीं से पैसा नहीं आ रहा था। हाथ बहुत तँग चल रहा था। ये सावन भादो और पूस एक दम से कमर तोड़ महीने होते हैं। बरसात में कहीं आना जाना नहीं हो पाता। पूस खाली खाली रह जाता है। कोई नया काम इस महीने लोग शुरू नहीं करते। किसने बनाया ये महीना। ये काल दोष। खराब महीना या अशुभ महीना। पेट के ऊपर ये बातें लागू नहीं होती। पेट को हमेशा खुराक चाहिए। मिंटू को पेट से अशुभ कुछ भी नहीं लगता। पेट नहीं मानता शुभ अशुभ ! उसको खाना चाहिए। उसको दिन महीने साल से कोई मतलब नहीं है। मनहूस से मनहूस महीने में भी पेट को खाना चाहिए। पेट को कहाँ पता है कि ये मनहूस महीना है। शुभ - महीना है। या अशुभ महीना? काश ! कि पेट को भी पता होता कि सावन - भादो और पूस में काम नहीं मिलता है। इसलिये पेट को भूख ना लगे। लेकिन पेट है कि समय हुआ नहीं कि उमेठना चालू कर देता है । उसको नहीं पता कि मुँबई-दिल्ली में बरसात में काम बँद हो जाता है। काम ही नहीं रहता तो मालिक भला क्योंकर बैठाकर पैसे देगा। सही भी है। वो भी दो महीने से बैठा हुआ है। भर सावन और भादो । लिहाजा ग्राहक का लस नहीं है, बाजार में। मानों कि बाजार को जैसे साँप सूँघ गया हो। बरसात तो जैसे तैसे निकल गई थी। बी.पी. एल . कार्ड से पैंतीस किलो आनाज मिल जाता था। अनाज के नाम पर मिलता ही भला क्या है। रोड़ी बजरी मिले चावल। तिस पर भी पैंतीस किलो की जगह कोटे वाला तीस किलो ही अनाज देता है। पाँच किलो काट लेता है।
एक दिन मिंटू विफर पड़ा था।
गुड्डू पंसारी पर खीजते हुए बोला -" क्या भाई तुम लोगों का पेट सरकारी कमाई से नही भरता क्या ? जो हम गरीबों का आनाज काट लेते हो। इस गरीबी में हम घर कैसे चला रहे हैं। हम ही जानते हैं। "
गुड्डू पंसारी टोन बदलते हुए बोला -" अरे यार हम लोग तुमको गरीबों का हक मारने वाले लगते हैं , क्या ? जो ऐसा बोल रहे हो। ये जो टेंपो -ट्रैक्टर से आनाज बी. पी. एल. कार्ड धारियों को बाँटते हैं। इसका भाड़ा एक बार में तीन हजार लगता है। सरकार हम लोगों को बाँटने के लिये अनाज जरूर देती है। लेकिन, ट्रैक्टर - टेंपो का किराया , गोदाम तक माल पहुँचाने के लिये ठेले का भाड़ा , थोड़े देती है। "
" तब काहे देती है , अनाज हम गरीबों को। जब तुमलोग पैंतीस किलो में से भी पाँच किलो काट ही लेते हो। और भाई तुम भी भला क्यों अपनी जेब से भरते हो। जब इस बिजनस में घाटा है। तो छोड दो ना ये बिजनस । "
" अरे , भाई तुमको नहीं लेना हो तो मत लो। काहे चिक- चिक करते हो। बी. पी. एल. कार्ड़ से जरूर पैंतीस किलो मिलता है। लेकिन इस रूम का भाड़ा। ये जो लाइट जलती है। उसका बिल।फिर सामान तौलने के लिये आदमी रखना पड़ता है। और तुमको तो पता है। इस बी. पी. एल .कार्ड के आ जाने से सब लोग राजा बन गया है। दशहरा के बाद दीपावली आने वाली है। कल नीचे धौड़ा में दु गो मजदूर खोजने गये थे। दीपावली पर घर की पुताई करने के लिए। तुम्हारे नीचे धौड़ा के दो मजदूरों को पूछा। बोले दो ठो रूम है। और एक ठो बरंडा है केतना लेगा। ई हराम का पैंतीस किलो चावल खा- खाकर ये लोग मोटिया गया है। दोनों मजदूर ताश खेल रहे थे। अव्वल तो टालते रहे। बोले कि अभी भादो का महीना है। अभी पँद्रह बीस दिन से हमलोग कहीं बाहर काम करने नहीं गये हैं। बदन बुखार से तप रहा था। अभी भी बदन-हाथ बहुत दर्द कर रहा है । उनको फुसलाकर चौक पर चाय पिलाने ले गया। चाय पी लिये। फिर भी टालते रहे। सोचा होगा गरजू है। समझ गये गुड्डू पंसारी आज काम पड़ा है, तो गधे को भी बाप बना रहा है।
जानते हो हमको क्या जबाब दिया। बोला एक रूम का तीन हजार लेंगे। दो ठो रूम और बरंडा का कुल मिलाकर सात हजार लेंगें। करवाना है करवाओ। नहीं तो छोड़ दो। इस बी. पी. एल .के अनाज ने लोगों को कोढ़िया बना दिया है। दिनभर ताश और मोबाइल में रील्स देखते और बनाते हुए बीत रहा है ।अभी तो सरकार हर गरीब घर में दीदी योजना में रूपया दे रही है। एक परिवार में अट्ठारह साल और अट्ठारह साल से अधिक उम्र के लोगों को हजार दो हजार रूपया
हर महीना मिल रहा है। हर महीने लोग खाते में पैसा ले रहें हैं। इससे मुसीबत और बढ़ गई है। कटनी रोपनी में मजूर नहीं मिल रहें हैं। अभी इस दुकान के लड़के को जो रखा है। वो मेरे दूर के साढू का लड़का है। तीन सौ रूपये रोज के दे रहा था। रोज की मजदूरी ।तो इधर महीने भर से ये और मेरा दूर का साढू मुँह फुलईले था। बोला साढू भाई रिश्तेदारी अपनी जगह है। लेकिन हमारा लड़का तोरा कोटा में बेगारी काहे खटेगा। आज लेबर कुली का हाजिरी भी सात - आठ सौ है। तो हमरा लड़का बेगारी काम करने थोड़ी आपके यहाँ गया है। कम से कम पँद्रह हजार महीना उसको खिला पिला कर दीजिए। नहीं तो गुजरात से उसको बीस हजार महीना काम के लिये रोज फोन आ रहा है। बोलियेगा तो भेजेंगे। नहीं तो आपके यहाँ जैसा ढेर काम पड़ा है। हमरे लड़का के यहाँ। ऊ तो रिश्तेदारी है, आपके साथ। नहीं तो हमारे घर में खुद की बहुत लँबी- चौड़ी खेती है l अब आप ही बोलिये गली के इस टुटपूँजिये दुकान का किराया चार हजार रूपया है। पंखा - लाइट बत्ती का डेढ़ - दो हजार रूपये का बिल आता है। दो ठो गोदाम रखें हैं । उसका छ: हजार अलग से दते हैं। सब मिलाकर जोड़ियेगा तो मेरा इसमें बचता उचता कुछ नहीं है। ऊ तो बाप दादा के समय से राशन- पानी और कोटे का काम चल रहा है। इसीलिए खींच - खाच के चला रहे हैं। नहीं तो एक रूपया किलो का कोटे का चावल बेचकर गुजार हो चुका होता। ऊ तो चौक पर एक होटल है। और ये राशन की दुकान है। जिसमें हेन तेन छिहत्तर आइटम रखे हैं। तब जाकर बहुत मुश्किल से कहीं चला पा रहें हैं। नहीं तो कितने लोगों ने जन वितरण प्रणाली की दुकान को बँद कर दूसरा तीसरा बिजनस कर लिया। "
गुड्डू पंसारी बहुत मक्कार किस्म का आदमी है। बी. पी. एल . चावल में पहले तो पैंतीस की जगह तीस किलो चावल देता ह़ै। बी. पी. एल का बढिया वाला चावल निकालकर सस्ते वाला चावल बाँटता है । जो चावल एक रूपये किलो का होता है। उसको चालीस पचास रूपये किलो बेचता है। अव्वल तो दुकान खोलता ही नहीं। आजकल करके टरकाता रहता है। कई बार इसकी शिकायत ब्लाॅक के सी. ओ., बी. डी. ओ. से भी की गई । लेकिन सब के सब चोर हैं। ये गुड्डू पंसारी सबको पैसे खिलाता रहता है।
मिंटू ने मुआयना किया। बारिश कब की खत्म हो गई थी। आसमान में धूप भी खिल आई थी। उसको कुछ आशा जग गई। कई दिनों से लगातार बारिश ने नाक में दम कर रखा था। बाहर निकलन मुश्किल हो रहा था। दो दिन वो उसी शाॅपिंग माॅल के आसपास में ही भटकता रहा था। एक दिन एक खिलौना बिका था। उस दिन, दिन भर बारिश होती रही थी। दस बारह घँटे वो इधर उधर भटकता रहा था। लेकिन उस दिन पता नहीं कैसा मनहूस दिन था। कि एक ही खिलौना पूरे दिन भर में बिका था। घर में बी. पी. एल का चावल था। उसको डबकार किसी तरह माँड भात खाया था। उसके अगले दो-तीन दिन भी वैसे ही कटे थे। गीला मड-भत्ता खाकर। पेट है तो खाना ही पड़ेगा। पेट की मजबूरी है।
" ए फोकना वाले ये कुत्ता कितने का दिया। " पीछे से किसी महिला ने आवाज लगाई।
" ले , लो ना सत्तर रूपये का एक है ,बहन। "
" हूँह इतना छोटा कुत्ता। और वो भी प्लास्टिक का। ठीक से बोलो। तुमलोगों ने तो लूटना चालू कर दिया है। "
" क्या लूट लूँगा बहन। सत्तर रूपये में बंगला थोड़ी बन जायेगा। तुम भी कमाल करती हो। "
" ले लो पैंसठ लगा दूँगा। "
" नहीं - नहीं चालीस की लगाओ। दो लूँगी। "
" चालीस में तो नुकसान हो जायेगा , बहन। अच्छा चलो तुम दो के सौ रुपये दे देना। "
" नहीं भैया इतने ही दूँगी। प्लास्टिक के खिलौने का भी भला इतना दाम होता है। देना है तो दो। नहीं तो मैं कहीं और से ले लूँगी। "
मिंटू के पास एक ग्राहक देखकर खुद्दन और पोपन जोर-जोर से अपने मुँह में फँसे हुए बाजे को बजाने लगे।
मिंटू को लगा वो ना देगा। तो हो सकता है। खुद्दन और पोपन दे दें। बेकार में बारह बजे बोहनी हो रही है। वो भी होते - होते रह जाये।
" ले लो बहन चलो , पचास का ही ले ल़ो। दो निकालो सौ रुपये। "
खुद्दन ने मिंटू और उस औरत की बातें सुन ली थी।
खुद्दन मुँह का बाजा बजाना छोड़कर चिल्लाया -" खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो। पचास के दो। "
औरत ने गरजू समझा -" बोली , पचास के एक नहीं दो दोगे। तब लूँगी। "
" छोड़ दो बहन , मैं नहीं दे सकता। उस खुद्दन से ही ले लो। वही पचास के दो दे सकता है। मेरे बस की बात नहीं है। मैंं, आपको खिलौने नहीं दे सकता। "
महिला खुद्दन के पास गई। मोल तोल किया। फिर वापस मिंटू के पास आ गयी।
" सही - सही लगालो भईया। खुद्दन पचास के दो दे रहा है। लेकिन उसके कुत्ते की सिलाई खराब है। धागा बाहर निकला हुआ है। नहीं तो खुद्दन से ही ले लेती। "
पोपन महिला और मिंटू के करीब सरक आया था। उसने भी दो तीन दिन से कुछ नहीं बेचा था। बरसात में तो लोग निकल ही नहीं रहे थे। पोपन के बच्चे भी घर में भूख से बिलबिला रहे थे।
पोपन ने आवाज दी -" बढिया खिलौने , छोटे बड़े हर तरह के खिलौने। सस्ते बढ़िया खिलौने। खिलौने ले लो खिलौने । पचास के दो खिलौने । "
महिला पोपन की तरफ मुड़ी। लेकिन फिर आधे रास्ते से लौट गई।
मिंटू से बोली -" लगा दो पचास के दो खिलौने । तुमसे ही ले लूँगी। "
मिंटू खीज गया। उसने सोचा इस बला को किसी तरह टाला जाये। मुस्कुराते हुए बोला -" दो बहन तुम पचास रूपये ही दे दो। "
महिला ने फोन निकाला -" लाओ अपना क्यू आर कोड दो। "
"क्यू आर कोड। "
" हाँ , पैसे किसमें लोगे। मोबाइल नंबर बताओ। उसमें डाल दूँगी। आजकल पैसे लेकर कौन चलता है। लाओ दो जल्दी करो। मुझे जाना है। "
" क्यू आर कोड तो नहीं है। मैं मोबाइल नहीं रखता। "
" आँय। "
" इस डिजीटल युग में भी ऐसे लोग हैं। जो मोबाइल नहीं रखते। अच्छा तुम्हें अपना या अपने किसी परिचित या किसी रिश्तेदार का मोबाईल नंबर या खाता नंबर याद है। उसमें ही डाल देती हूँ। "
" मेरे पास कोई बैंक का खाता नहीं है। हम गरीब लोग हैं l आज खाते हैं , तो कल के लिये सोचते हैं। हमारा वर्तमान ही नहीं होता है। तो भविष्य कैसा ? हाँ हमारा अतीत जरूर होता है। लेकिन बहुत ही खुरदरा होता है, बहन l बहन , हम बँजारे लोग हैं। हमारा ये काम सीजनल होता है। महीने -दो- महीने दुर्गापूजा , दीपावली, छठ तक हम लोग ये प्लास्टिक के खिलौने बेचते हैं। फिर कारखाने में लौट जाते हैं। वहाँ काम करने लगते हैं। "
" लो ,तुम यहाँ हो स्वीटी। मैं तुम्हें माॅल के इस कोने से उस कोने तक ढूँढ़ता फिर रहा हूँ। " ये आदमी उस महिला का पति जैसा लग रहा था।
" अरे , आप आ गये। देखिये इसके पास मोबाइल भी नहीं है। मुझे पेमेंट करनी है। और क्यू आर कोड भी नहीं है, इसके पास। इस डिजीटल होती दुनिया में ऐसे - ऐसे लोग भी हैं। सचमुच बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसे लोगों को देखकर मुझे। आज भी ऐसे लोग हैं, हमारे देश में। हमारा देश ऐसे लोगोंं के चलते ही बहुत पीछे है। छोड़ो मैं भी किन बातों में पड़ गई। ये यू. पी. आई. नहीं ले रहा है। पचास का नोट दो। दो खिलौने लिये है इससे। है, तुम्हारे पास पचास रूपये , खुल्ले। "
महिला के पति ने जेब से पर्स निकाला। और खोज- खाजकर कहीं से ढूँढ़ -ढाँढ़कर पचास का नोट निकालकर दे दिया।
फिर , उस महिला से बोला -" ऐसे तो कम-से-कम तुम मत इसको बोलो। बहुत से लोग हैं। जिनके पास मोबाइल खरीदने तक के पैसे नहीं है। और मोबाइल खरीद भी लें। तो डाटा कहाँ से भरवायेंगे। सब लोग तो सक्षम नहीं ना होते। "
महिला -" डिस्कसटिंग मैन । "
मिंटू समझ नहीं पाया।
महिला अपने पति से बोली - " अर्णव के जन्मदिन पर आपने क्या लिया। "
पति ने पाॅलीबैग से एक मिंटू के साइज से थोड़ा सा बड़ा साइज का एक कुत्ता निकालकर दिखाया।
" अरे वाह ये तो बहुत प्यारा है। अर्णव बहुत खुश हो जायेगा। "
" कितने का लिया। "
" अरे छोड़ो जाने दो। "
" बताओ ना। "
" ढाई सौ का। "
महिला की नजर मिंटू से एक बार मिली । लेकिन महिला ज्यादा देर तक मिंटू से आँख ना मिला सकी।
मिंटू के चेहरे का भाव कुछ यूँ था। मानो कह रहा हो। कि हम शाॅपिंग माॅल वालों की तरह नहीं ठगते ।
" देख लिया , बहन। हमलोग आपको ठगते नहीं। बस पेट पालने के लिए ही खिलौने बेचते हैं। कहाँ पचास के दो कुत्ते। और कहाँ ढाई सौ का एक ! " मिंटू के स्वर मे़ व्यंग्य था।
महिला मिंटू का सामना बहुत देर तक ना कर सकी l। दौड़कर गाड़ी में जाकर बैठ गई।
पति , मिंटू से -" अच्छा यंगमैन चलता हूँ। फिर मिलेंगे। "
मिंटू मुस्कुराया।
उस औरत के जाते ही मिंटू के सारे खिलौने बिक गये। और छ: सात सौ रूपयों की अच्छी खासी बिक्री हो गयी थी । वो दोपहर में खाना खाने के लिये अपने घर जाने लगा। तभी उसको ख्याल आया कि कुछ सौदा भी घर लेकर जाना है। वो गुड्डू के यहाँ जाना चाहता था। लेकिन उस बेईमान आदमी को याद करते ही उसका मन अंदर से घृणा से भर उठा ।
वो जीतू के यहाँ चला गया। और बोला भाई जीतू -" आटा कैसे दिए। "
" तीस रूपये किलो। "
" सरसों तेल ? "
" एक सौ अस्सी रूपये किलो। "
" अरे भाई , क्यों लूट मचा रखी है। अभी सप्ताह भर पहले ही तो डेढ़ सौ रूपये किलो था। फिर अचानक से आज एक सौ अस्सी रूपये किलो कैसे हो गया? भला एक सप्ताह में इतना दाम बढ़ता है । "
." एक सप्ताह छोड़ दो भाई। यहाँ रोज दाम बढ़ रहे हैं। "
" और रहड की दाल का क्या भाव है ? "
" एक सौ साठ रूपये किलो l "
मिंटू ने मन -ही मन-हिसाब लगाया। अगर एक किलो सरसों का तेल , एक किलो आटा , और एक किलो दाल ली जाये तो तीन चार सौ रूपये तो ऐसे ही निकल जायेंगे। छुटकु बीमार है। पहले उसको डाॅक्टर के पास दिखला लेना चाहिए। फिर राशन के बारे में विचार किया जायेगा।
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"सर्वाधिकार सुरक्षित
महेश कुमार केशरी
C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो
बोकारो झारखंड
पिन 829144
(2)कहानी
बदलाव
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" मयंक आ रहा है। उससे पूछो उसके लिए क्या बनाऊँ। फिश करी , हिल्सा मछली , या चिकन करी , या मटन बोलो दीदी। उसको क्या पसंद है ? उसको तो नाॅनवेज बहुत पसंद है ना ? चिकेन करी बनाऊँ। " कादंबरी ने हुलसते हुए मोनालिसा से पूछा।
" अभी मयंक तो तेरे पास अगले सप्ताह ही जायेगा, ना । तुमने इतनी जल्दी भी तैयारी शुरु कर दी। अभी उसके पापा का सीजन का टाईम है। कोई ठीक नहीं है। मयंक जाये - जाये। ना भी जाये नानी के पास। अभी मयंक के पिताजी से बात नहीं हुई है। "
" फिर भी दीदी। "
" ठीक है, मैं इनसे बात करके देखती हूँ। मान गये तो ठीक। नहीं तो मयंक को जब छुट्टी होगी। तो देख आयेगा नानी को। और तुमसे भी मिल लेगा। "
" माँ ,बीमार है दीदी। और तुमको तो पता है कि नानी मयंक को कितना स्नेह या दुलार करती है। बेचारी को कितनी आशा है कि मयंक और तुमलोग उससे मिलने आओगे। और फिर तुम लोगों को तो घर -द्वार , काम-काज और , बाल - बच्चों से कभी फुर्सत नहीं मिलती है ना। ये सब तो जीवण भर लगा ही रहेगा। आखिर , माँ-बाप को चाहिए ही क्या ? उसकी औलादें बूढ़ापे में आकर उसका हाल - चाल लें। लेकिन किसको कहाँ समय और फुर्सत है। सब लोग दुनियादारी में व्यस्त हैं। और माँ- बाप उनकी तरफ टकटकी लगाये ताक रहें हैं। सोचते हैं कि बच्चों को फुर्सत होगी तो एक नजर उनको आकर देख लेंगे। माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ माँगते थोड़ी हैं। बस इतना चाहते हैं। कि वे उनका हाल - चाल ले लें। थोड़ा बहुत करीब बैठकर बातचीत ही कर लें। इतना ही उनके लिया बहुत है। खैर , मैं तुमसे बहुत छोटी हूँ । तुमको भला क्यों समझा रही हूंँ ? तुम भी तो बाल - बच्चों वाली हो। तुम्हें भी तो भला इसकी समझ होगी। " कादंबरी का गला भींगने लगा था। भावुक तो मोनालिसा भी हो गई थी। वो भी तो जड़ और निपट गँवार हुई जाती है। इस घर और गिरस्ती के फेर में। आखिर क्या करे वो भी। सुबह की उठी -उठी रात कहीं ग्यारह-बारह बजे तक उसको आराम मिलता है। फिर घर में चार - पाँच बजे से ही खटर-पटर चालू हो जाती है। बीस - पच्चीस साल इस घर गिरस्ती को जोड़ते हुए दिन पखेरू की तरह उड़ गये। मयंक के पापा को दुकान जाने में देरी हो रही थी।
वो बैठक से नाश्ते के लिये आवाज लगा रहे थे।
" अरे नाश्ता बन गया हो तो दे दो। मुझे जल्दी से निकलना है। अगर देर होगी तो कह दो। बाहर जाकर ही कर लूँगा। " नरेश जी की आवाज मोनालिसा के कानों में पड़ी। ये आवाज फोन के स्पीकर से कादंबरी क़ो भी सुनाई पड़ी।
कादंबरी बोली -" दीदी, मयंक को फोन दो ना। उससे ही पूछ लेती हूँ। उसको जन्मदिन पर क्या खाना पसंद है। "
" हाँ ,ये ठीक कहा तुमने। देती हूँ मयंक को फोन। ठीक भी रहेगा। मौसी समझे और मयंक समझे। मम्मी को भला क्या मतलब। लेकिन , सुनो मैं ठीक -ठाक तो नहीं कह सकती। लेकिन , मयंक के पापा भी अगर हाँ कहेंगे। तभी मैं मयंक को तुम्हारे पास उसके जन्मदिन पर उसको भेजूँगी। तुम्हें
तो पता है। सर्दियों के मौसम में गद्दे- कंबल और रजाई की बिक्री दुकान में कितनी बढ़ जाती है। दो- तीन आदमी अलग से रखने पड़ते हैं।बाबूजी से हाँलाकि कुछ नहीं हो पाता। तब भी वो गल्ले पर बैठते हैं। दो -तीन लोग हर साल हम लोग बढ़ाते हैं।लेकिन काम हर साल जैसे बढता ही चला जाता है। "
" काम कभी खत्म होने वाला नहीं है , दीदी। आदमी को मरने के बाद ही फुर्सत मिलती है। दीदी मयंक को फोन दो ना । "
मोनालिसा ने मयंक को आवाज लगायी -" बेटा मयंक मौसी का फोन है। "
मयंक चहकते हुए किचन में आकर कादंबरी से बात करने लगा -" हाँ, मौसी। "
" तुम आ रहे हो ना अगले सप्ताह। उस दिन तुम्हारा जन्मदिन भी है। बोला खाने में क्या बनाऊँगी। चिकन करी , मीट या मछली, । "
" जो तुम्हें अच्छा लगे मौसी बना लेना। "
कुछ ही दिनों में सप्ताह खत्म होकर वो दिन भी आ गया। जिस दिन मयंक को मौसी के यहाँ जाना था। मयंक ने सुबह की बस ली थी। रास्ते भर वो आज के खास दिन को वो याद करके रोमांचित हो रहा था। सब लोगों ने उसको बधाई संदेश भेजा था। दोस्तों ने। माँ - पापा बड़े भइया और लोगों ने भी। दादा -दादी ने भी उसके लालाट को चूमा था। उसको आशी दीदी ने तो निकलते समय उसकी आरती करी थी। उसको रोली का टीका और अक्षत लगाया था। और फिर उसको यात्रा में निकलने से पहले उसके मुँह में दही- चीनी खिलाकर विदा किया था। दोस्तों से भी उसको बधाई संदेश सुबह से मिलते आ रहे थे। वो सुबह उठकर सबसे पहले दादा- दादी के कमरे में गया था। जहाँ उसने अपने दादा दादी से आशीर्वाद लिया था। और उसके बाद उसने माँ - पापा का आशीर्वाद पैर छूकर लिया था। सब लोग बड़े खुश थे। नाश्ते में उसने खीर - पुडी , और मिठाई खाई थी। ठंड की सुबह धूप भी बहुत मीठी - मीठी लग रही थी। घर के सब लोगों ने उसकी यात्रा सुखद और शुभ हो इसकी कामना की थी। दरअसल वो अपनी मौसी से मिलने और अपनी नानी को देखने के लिए शहर जा रहा था। उसकी नानी बीमार चल रही थी। नानी को बडा मन था। कि मरने से पहले वो मयंक को एक बार देख लें। वो मयंक के माँ से बार बार कहतीं की मेरी साँसों का अब कोई आसरा नहीं है। ज्यादा दिन बचूँ - बचूँ ना भी बचूँ। इसलिए मयंक को और तुम लोगों को एक बार देख लूँ। तुम मयंक को एक बार मेरे पास भेज दो। और समय निकालकर एक बार तुम लोग भी आकर मुझसे मिल लो। पता नहीं कब मेरा समय पूरा हो जाये। मयंक की सेवा उसकी नानी ने बचपन में खूब की थी। नानी से मयंक को कुछ खास लगाव भी था। वो अपने ननिहाल में सबसे छोटा भी था। बस चल पड़ी थी। खिड़की से खूबसूरत मीठी धूप मयंक के चेहरे पर फैल रही थी। कत्थई स्वेटर पर धूप पड़कर मयंक के शरीर को एक अलहदा से सुकून पहुँचा रही थी। अभी उसका सफर भी बहुत लंबा था। मीठी धूप और स्वेटर की गर्मी ने मयंक को अपने आगोश में ले लिखा था। मयंक अपने बचपन में चला गया था । उसका ननिहाल, उसके गाँव के घर में नानी छोटे - छोटे चूजे पालती थी। नन्हें - नन्हें चूजे एक दूसरे के पीछे भागते तो मयंक उनको हुलस कर देखता। वो अपनी थाली की रोटी और कभी चावल के टुकड़े नानी और माँ - मौसी से छुपाकर उन चूजों को खिला देता। उसके शहर वाले घर में एक मछलियों से भरा पाॅट था। उसमें मछलियों को तैरते देखता तो उसे बड़ा अच्छा लगता। देखो लाल वाली मछली आगे तैरकर काली वाली मछली से आगे बढ़ गई है। औरेंज वाली मछली कैसे बहुत धीरे -धीरे चल रही है। अचानक से बस कहीं झटके से रूकी और मयंक की नींद खुल गई। उसका स्टाप आ गया था। मयंक बस से नीचे उतरा। तो उसको वही छोटे- छोटे चूजे और पाॅट की मछलियों की याद आने लगी। एक बारगी वो बड़ा होकर भी अपने बचपन को याद करने लगा। उसको वो आगे - पीछे भागते रंग - बिरंगे चूजे बहुत प्यारे लगते थे। उसको पाॅट की रंग - बिरंगी और एक दूसरे के आगे -पीछे भागती हुई मछलियाँ भी बहुत भाती थी। वो सोचने लगा आज कितना शुभ दिन है। आज उसका जन्मदिन है। और आज वो उन चूजों को उन रंग - बिरंगी मछलियों को खायेगा। अपने जन्मदिन पर वो किसी की हत्या करेगा। इस शुभ दिन पर। नहीं - नहीं वो ऐसा बिल्कुल नहीं करेगा। वो आज क्या कभी भी अब किसी जानवर की हत्या केवल अपने खाने -पीने के लिये कभी नहीं करेगा। नहीं -नहीं ऐसा वो बिल्कुल भी नहीं करेगा। बल्कि आज क्या वो आज से कभी- भी जीव की हत्या नहीं करेगा। चूजों के साथ - साथ उसे नानी भी याद आ गयी। वो कुछ सालों पहले एक बार नानी से मिला था। नानी के पैर अच्छे से काम नहीं कर रहे थे। वो बहुत धीरे - धीरे बिलकुल चुजों की तरह चल रही थी। रंग- बिरंगी मछलियों की तरह रेंग रही थी।
मयंक के आँखों के कोर भींगने लगे। उसने रूमाल निकालकर आँखों को साफ किया।
फिर फोन निकालकर कादंबरी मौसी को लगाया -" मौसी , आप पूछ रही थीं ना कि मैं , मेरे जन्मदिन पर क्या खाऊँगा। "
" हाँ , मयंक तुम इतने दिनों के बाद हमारे घर आ रहे हो। तुम्हारी पसंद का ही आज खाना बनेगा। तुम्हारे मौसाजी ,मछली या चिकन लेने के लिए निकलने ही वाले हैं। बोलो बेटा क्या खाओगे ? आज तुम्हारी पसंद का ही खाना बनेगा। "
" मौसी मेरी बात मानोगी। आज मेरा जन्मदिन है। और मैं अपने जनमदिन पर किसी की हत्या नहीं करना चाहता। और अपने ही जन्मदिन क्यों बल्कि किसी के जन्मदिन पर भी मैं किसी की हत्या करना या होने देना पसंद नहीं करूँगा। आज से ये मैं प्रण लेता हूँ। कि, कभी भी अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी जीव - जंतु की हत्या नहीं करूँगा। "
दूसरी तरफ कादंबरी सकते में थी। उसको कोई जबाब देते नहीं बन रहा था।
उसने फिर से एक बार मयंक को टटोलने की गरज से पूछा-" अच्छा ठीक है। आज भर खा लो। तमको तो पसंद है ना नानवेज। अपने अगले जन्मदिन पर अगले साल से मत खाना। "
" नहीं मौसी। मैनें आज से ही प्रण लिया है। कि मैं अब अपने स्वाद के लिये किसी जीव की हत्या नहीं करूँगा। "
" ठीक है , तब क्या खाओगे ? "
" खीर - पूड़ी ..। "
" ठीक है , तुम घर आओ , नानी से मिलो। तुम्हारे लिये खीर पुड़ी बनाती हूँ।"
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सर्वाधिकार सुरक्षित
सर्वथा मौलिक और अप्रकाशित
महेश कुमार केशरी
C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो
बोकारो झारखंड
पिन 829144
(3)कविता
भटियारीन लड़की और उसकी देह की गंध
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एक बार मैं जँगल में भटक गया था ..
जिस समय वो भटियारीन मिली थी..
मैं शाम को भटका था ..उस जँगल में ..
जहाँ वो भटियारीन मुझे ..मिली थी
ढलते सूरज के साथ अँधेरा बढ़ने लगा था ..
भटियारीन बोली बाबू जँगल बहुत घना है
और रात में खूँखार भी हो जाता है ..
भेंड़िये, शेर , चीता सब जँगल में घूमते हैं ..
रात को यहीं रूक जाओ.वो रात बहुत काली थी l ..
सिगड़ी धुँआ रहा था ..भटियारीन लड़की मछली
पका रही थी ..
मैनें पूछा तुम क्या करती हो ..उसने झाड़ियों के
पीछे एक छोटी सी नाव दिखाई
बोली इससे ही
मुसाफिरों को इस पार से उस पार ले जाती हूँ. .
मेरी माँ बहुत गरीब थी
मेरे पिता मुझे , मेरे भाई
बहन को छोड़कर सालों पहले चले गये ..
जिस दिशा में पिता आखिरी बार गये थे ..माँ ,
पिता को ढूँढ़ने सालों जाती रही ..
लेकिन, पिता
नहीं लौटै ..लेकिन माँ ,उन्हें रोज ढूँढ़ने वहाँ जाती
थी ..!
कुछ दिनों बाद वहाँ पिता की लाश मिली थी ..
लेकिन, माँ ने यह कहकर नकार दिया ..था , कि
नहीं ये तेरे पिता ..नहीं हो सकते ...
एक दिन
पिता का इंतजार करते- करते माँ भी चल बसी ..
वो लाश मेरे पिता की ही थी ..
बावजूद इसके मेरी माँ ,मेरे पिता को ढूँढने रोज जाती थी ..
मैं , और मेरे भाई बहन रोज ये सवाल बार - बार
माँ से पूछते कि पिता कब आयेंगे. .?
लेकिन
माँ हर बार यही कहती की एक ना एक दिन
जरूर तुम्हारे पिता उसी जगह से वापस आयेंगें
जहाँ से वो गुम हुए थे ..
सचमुच बच्चों को ये बताना बहुत मुश्किल होता है
कि तुम्हारे पिता अब कभी नहीं आयेंगे ..!
ऐसा माँ ने कभी नहीं कहा
माँ की आँखे पथरा गईं थी ..
लकिन , माँ के आँखों से आँसू कभी नहीं
निकले ..
माँ रोयेगी तो बच्चे भी रोने लगेंगे ..
फिर इस नदी की तरह का ही वेग उठेगा
जिसमें माँ की आँखे भी बरसने लगेगी ...
मछली जब बन गई तो उसने मुझे सखुए के
दोनों में खाने को दिया
मछली स्वादिष्ट थी ..
सामने सखुए के पत्तल मे भात सखुए के दोने
से ढककर रखा था ..
लड़की भात भी खा रही
थी ..
मुझसे पूछा - पहाड़ी चावल का भात
.खाओगे ..? ..मेरा जूठन भी है ..मैं दिनभर
जँगल में चलते हुए भूख और थकान से निढाल
हो गया था ...
मैनें हाँ में सिर हिलाया ..
मैं ,
भटियारीन लड़की की जूठन और पहाड़ी भात खा
रहा था ....
रात अब अलसाने लगी थी
शायद रात का वो
तीसरा पहर था l
भटियारीन का दर्द उभर आया
दिन भर चप्पू चलाते - चलाते मेरा शरीर
थक जाता है ..इसलिये महुआ चुनती हूँ
और शराब बनाती हूँ. .पिओगे महुए की शराब ..!
भटियारीन हुलस रही थी !
उसने मिट्टी के बर्तन में भरा
शराब मेरे ग्लास में
उड़ेल दी ...
मैं , और वो भटियारीन लड़की
सारी रात शराब पीते रहे ..
लड़की बोली देखो मेरे पास पैसे नहीं हैं ,
मेरे बालों में सफेदी आने लगी है..
रौशनी में भटियारीन लड़की का चेहरा रूँआसा
हो गया था ..
झींगुरों की शोर एक संगीत पैदा कर रही
थी ..
भटियारीन लड़की की आँखों में आँसू झिलमालाने
लगे..
मैनें कहा मैं उम्र में तुमसे बहुत छोटा हूंँ...
भटियारीन लड़की मानने को तैयार नहीं थी ..
उसकी छातियाँ आवेग से ऊपर-नीचे हो रही थीं !
शराब की तरह उसके शरीर में एक मादक गँध
थी ..
मैं उस मादक गँध में बहुत भीतर धँसता चला
गया ..
.उसकी धड़कनों को मैं सुन रहा था ..
और रात वहीं ठहर ग ई थी !
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महेश कुमार केशरी
C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो
बोकारो झारखंड
पिन 829144