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सोमवार, 23 दिसंबर 2024

राचर


एकठोक नानकुन गांव है। ए गांव ह बिहड़ जंगल के बीच म बसे हावय। न रोजगार के साधन, न बिजली, न सड़क, अउ न ही काकरो घर पक्की नइहे। तभो ले इंहा के निवासी मन ह हांसी सुखी ले अपन जिनगी व्यतित करत हावय। अइसने एक परिवार हावय सुकारू राम के। घर म डोकरा डोकरी अउ जवान लईका सुकारू। सुकारु के दाई ददा नइहे, सुकारू जब नान्हे लईका रिहिस तेन बेरा के एकर दाई ददा के देहावसान हो गे रिहिन। सुकारू घर के पाछू कोती के जमीन ल चातर करके सुघ्घर साग भाजी उगाए अउ ओ साग भाजी ल गाँव म म घूम घुमके बेचे अउ सुघ्घर अपन अउ अपन परिवार के लालन पोसन करत है। सुकारू के बबा ज्यादा सियनहा होगे रिहिन हे त कुछु बुता काम नई कर पाए, बस ओहा एकेच ठोक बुता म लगे राहय घर के राचर बनाय म, राचर ल हमन घर के सुक्छा घेरा हरय कही सकथन काबर घर के इही रूंधना (राचर) के सेती बाहिर के गाय-गरू, कुकर माकर, कुकर बिलई, अरहा बरहा जईसे अब्बड़ अकन जीव जंतु मन घर म घूस नई पाए। पहिली जमाना के घर म ए राचर अउ रुंधना के अब्बड़ महत्ता रिहिस हे। बबा के तबीयत कभू बने नई राहय त सुकारू ल काहय कि राचर के ओदे मुड़ा ह पोंडा होगे हे रे जा तो ओमा कुछु बाँस अउ ठोसहा लकड़ी ल बांध के ओ पोंड़ा ल सुधार देबे कहिके। सूकारू ल ए खेती बाढ़ी के बुता म असकटासी लागेब धर लिस खेती बाढ़ी म ओला ज्यादा आमदानी नई होवथे कहिके, बाहिर शहर चल दिन कमाय खाये बर। डोकरा डोकरी मन अब्बड़ मनइसे कि झन जा रे नाती बेटा शहर डाहर तंय ह चल देबे त हमर देखभाल कोन करही कहिके, फेर सुकारू ह ए कहिके कि में तो महीना महीना म आवत जावत रहूँ कहिके बाहिर शहर कोती कमाये खायेबर चल दिन। जब सुकारू घर मा राहय त रातकुन ओहा सुते के पहिली राचर के मुंही ह खुल्ला तो नइहे कहिके एकबेरा देख लेवय, रुँधना कभू भंग भंग ले खुल्ला राहय त ओला रूंध के सुत जावय।

एक दिन रतिहा कुन का राचर ह भंग भंग ले रिहिसे कि रूंधना ह बने नई रूंधाय नई रिहिस कि का ते जंगली सुवर जेन ल स्थानिय भाखा म बरहा कहिथे तेन ह खुसर गे डोकरी दाई ह देखिस त ओहा लउठी जल धर के ओला खेदारे के प्रयास करिस फेर उही

दर्मियान बरहा ह ओला घायल कर दिस, डोकरी दाई चिल्लाए बर लगगे ओला सुनके बबा ह लउठि धर के आइसे ओला भगाए के प्रयास करिन फेर उही प्रयास म डोकरा बबा तको घायल होगे। कुछ दिन बाद डोकरी दाई के देहांत होगे। अब डोकरा बबा अकेल्ला होगे अऊ अपन नाती सुकारू के सुरता करत हे, अउ काहत हे तंय ह संग म रहितेस रे त ए घटना ह नई होतिस। घायल होयेके बाद से डोकरा बबा के तबीयत तको सल्लग खराब होवेब लगगे। अब पहिली जइसन राचर के मरम्मत नई हो पात हे जबले सुकारू घर ले बाहिर गेहे। डोकरा बबा खटिया म सुते सुते घर के

राचर के हालात ल देखत हे, अउ सुकारू के सुरता करत मन म काहत हे कि तंय रहितेस त हमर घर के सुरक्छा घेरा हमर रूंधना हमर राचर ल बने बनातेस सुधारतेश् रे। सुकारु शहर म अइसे रच बस गे हे कि ओहा जबले घर के सुरक्छा घेरा रुन्धना, राचर ले बहिर निकले हे तबले एको बेरा अपन दाई बबा के आरो लेबर नई आहे। आज डोकरा बबा घर के टुटहा राचर ल देखत अपन नाती सुकारू के सुरता लमात हे। 


✍️✍️ गणेश्वर पटेल ✍️✍️

ग्राम- पोटियाडीह

जिला- धमतरी( छ ग)

दो सीटों से चुनाव



आयाराम ने गयाराम से कहा,"भैया सुना है दो सीटों से चुनाव लड़ना प्रतिबंधित हो सकता है।गयाराम अपना सिर पकड़ कर बैठ गया।आयाराम ने कहा,"क्या हुआ भैया चक्कर आ गया क्या?गयाराम ने कहा,"हाँ भाई अगर ऐसा होगा तो हमारा क्या होगा।हार जीत तो लाटरी की तरह है।लाटरी खरीदने वाले एक नहीं दो चार दस लाटरी खरीदते हैं शायद कोई लाटरी का नम्बर आ जाए बस यही तो है दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले किसी न किसी सीट से चुनाव जीतने की आशा रखते हैं।आज के जमाने में भय किसको नहीं है।अपने भविष्य को लेकर हर कोई चिंतित रहता है।एक सीट से नहीं सही दूसरे सीट से तो जीतेंगे ही।और अगर दो सीटों से जीतेंगे तो एक को छोड़ देंगे।लेकिन लड़ेंगे दोनों सीटों से ही चुनाव।वैसे निडर व्यक्ति ही एक सीट से चुनाव लड़ते हैं ,दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले डरपोक और उनके दल वाले भी महाडरपोक होते हैं।वैसे सीएम पीएम का चुनाव लड़ने वालों को ही दो सीटों से टिकिट दिए जाते हैं।एक सीट से टिकिट पाने में एड़ी- चोटी के जोर लगाने पड़ते हैं।दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले वीआईपी होते हैं।दल वाले खुद उन्हें कहते हैं इज़्ज़त का सवाल है वीआईपी महोदय दो सीटों से चुनाव लड़ो तभी जीतोगे नैया पार होगी।अन्यथा पार्टी की शाख़ डूब जाएगी।

वैसे भी विद्यार्थी एक डिग्री डिप्लोमा के भरोसे नहीं रहते।डिग्री डिप्लोमा का अम्बार लगा देते हैं।किसी भी सर्टिफिकेट के जरिए कोई भी रोजगार मिल जाए।बेरोजगारों की तरह नेता भी दो सीटों से चुनाव लड़ना चाहते हैं।अगर अनुमति मिल जाए दो से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने को सैकड़ो अभ्यर्थी मिल जाएं।लेकिन चिंता की बात है आने वाले समय में एक ही सीट से चुनाव लड़ने का अवसर मिलेगा।सच में क्या होगा समझ नहीं आ रहा है।क्या-क्या नियम बनाए जा रहे हैं।दो सीटों से चुनाव लड़ने के लिए पैसों की जरूरत कुछ ज्यादा होती है मगर फ़ायदा तो एक ही सीट से होता है।भाई दो रथों को तो एक साथ हाँक नहीं सकते।आया राम ने कहा," गया राम इस बार मैं जिस सीट से चुनाव लडूँगा आप वहाँ से चुनाव मत लड़ना नहीं तो मेरा क्या होगा।गयाराम ने कहा,"अभी प्रतिबंध नहीं लगा है।आप दो सीटों से चुनाव लड़ लेना।आया राम बातें सुन कर हँसने लगा।गयाराम भी ठहाके लगाने लगा।

राजकिशोर धिरही

गिरगिट एक रंग अनेक


(1)

गिरगिट सड़क पर

अपनी रंग बदल डाली

बिना जीवन को भोगे

कम उम्र में मृत्यु को पा ली

यह आत्महत्या का मामला नहीं है

यह उसके आदतन रंग बदलने का परिणाम है

(2)

गिरगिट को मुझसे प्रेम हो गया है

पिछले माह से मेरे घर आना नहीं छोड़ रही है

मुझे बाद में पता चला

अगले माह पंचायत चुनाव है

उनका घर आना प्रेम नहीं चुनाव का परिणाम है

(3)

मुझे बचपन से पता है

गिरगिट मौसम विज्ञानी है

उन्हें पानी गिराने को बोलते थे

तो वे हाँ में सिर हिलाते थे

बाद में पता चला

उसका हाँ में हाँ मिलाना काम है

यह नेताओं के संगति का परिणाम है

(4)

गिरगिट ही पहले डायनासोर हुआ करते थे

अत: डायनासोर खत्म नहीं हुआ है

गिरगिट उनका नया अवतार है

सतयुग के पहले की बात है

मानव और डायनासोर में भयानक युद्ध हुआ

हमेशा की तरह मानव जीता

उसके नस्ल को छोटा करने के लिए

डायनासोर को एक छोटे से कमरे में बंद कर दिया

उन्होंने अपना आकार बदल लिया छोटा किया

मगरमच्छ बन गया

मगरमच्छ अपनी लड़ाई जारी रखा

चाहे कुछ भी हो जाए

जीतेगा तो हमेशा मानव  ही

और मानव जीत गया

उसे बक्सा के अंदर बंद कर दिया

मगरमच्छ ने फिर आकार बदल लिया

फिर गिरगिट का नया अवतार हुआ

उसने आकार के साथ-साथ रंग बदलना सीख लिया 

आज तक जिन्दा है

यह मानव का बोनसाई से प्यार का परिणाम है

(5)

गिरगिट 

बड़े से बड़े कारनामे करता है

एक देश का धन-दौलत लूटकर

दूसरे देश में जा बसता है

वहाँ जाकर खूब मजा करता है

यह उसकी अति अमानवीय वायवीय आकांक्षा का परिणाम है


-सीताराम पटेल 'सीतेश'

ददा ए देवता ए


सबो दुःख ल सह के सुख ला बहाटथे,

अपन घर परिवार ल एक म तो सांटथे।

रोवत रहथे ओहर मन म भीतरे-भीतर,

पर आघू मा देखाय बर ओ हर हांसथे।।


लइकामन के गोड म नई गढ़े दे कांटा,

बरसत पानी मा बन जाथे हमर छाता।

जेला पता रह थे भाव दार आउ आंटा,

आजकल के लइकामन कहथे ग पापा।।


ददा हर ग हमर ब सबों दुःख ल सहथे,

रुपिया पैइसा कमाय ब बाहर म रहथे।

अक्केला घर, परिवार के पालन करथे,

अपन लोग लइकामन ब सब ले लड़थे।।


हमन ला पढ़ा, लिखा के इंसान बनाथे,

अपन जिनगी भर के कमाई ल लुटाथे।

अपन बुढ़ापा बर कुछु ल नई बचात हे,

सिरिफ हमर भविष्य ल तो सजावत हे।।


भले अपन ह पहिरे रहथे चिथरा,फटहा,

पर लइकामन बर पैंठ,कुरथा सिलवाथे।

भले अपन हर खाथे दिन मा एकेच बार,

पर लइका मन ला भर-भर पेट खवाथे।।


पता ही नई चलिस कब आइस बुढ़ापा,

आऊ निकल गे दिन उकर सब जवानी।

अइसन हो थे हमर 'ददा' के जिन्दगानी,

लिखत लिखत थक जाबो उकर कहानी।।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

✍️ ईश्वर "भास्कर"/ग्राम-किरारी  

जिला-जांजगीर चांपा छत्तीसगढ़।

बेटी के सुरता



एक  गांव म डोकरी अउ डोकरा रईथे ओकर एको झन लोग लईका नई रहाय फेर बुढत काल म माता रानी ओकर मन ऊपर दया करथे अऊ डोकरी ह गरु पांव हो जथे ऐक दिन डोकरी ह डोकरा ल कईथे चलना माता रानी के आशीर्वाद ले हमर गोद ह भरगे त ओकरे खुशी म मंदिर म माथ नवा के आ जातेन कहिके अपन गोसईया ल मना डारथे डोकरी के बात तो टाल नई सकय ओकर खुशी म आपन खुशी हे कहिके दोनों परानी सुघ्घर म माता रानी के दरबार म जाथे अऊ विधि विधान ले पुजा पाठ करथे।जब मंदिर ले घर आए बर निकलथे त अईसने म ओकर पेट के पीडा सुरू हो जथे ओकर प्रसव पीड़ा ल देख गोसईया सुरहीन ल अपन घर म बुला के लाथे अईसे तईसे ऊकर घर म देवी के रुप म बेटी जनम होथे फेर महतारी ह प्रसव पीड़ा के मरे ओकर सरीर ह बुरा तरीका ले कमजोर हो जथे जेकर परभाव नानचुन लईका ऊपर देखे ल मिलथे बेटी ल पर्याप्त मात्रा म महतारी के सात धार के गोरस नई मिल पाए अऊ लईका हर भगवान ल प्यारा हो जथे ।ओती डोकरा बबा दिन-ब-दिन बेटी गवाय के दुःख म अपन जिनगी ल बिताथे एक दिन रात म दोनों झन जलपान करके भितरी कुरिया म जाके सुत जथे जईसे अधरतिया के बेरा होथे ओईसने म ओकर सपना ओकर बेटी आके कहिथे बाबू मोर नाव म मंदिर बनवाबे तब मोर आत्मा ल संतोष मिल जही कहिके चल देथे  जईसे बिहिनीया होथे सबो बात ल अपन बाई ल बता देथे दोनों परानी मिल के अपन लागानी जमीन म मंदिर निर्माण करा के विधि विधान ले पंडित ल नेवता देके सुघ्घर प्राण प्रतिष्ठा करवाथे जेन आज के समय म भव्य रुप म नवरात्र परब म जोत जवारा बोहथे। अऊ धार्मिक आस्था केन्द्र के रुप म प्रसिद्ध हावे। 



~ खुमान सिंह भाट 

     ब्लॉक - गुरुर 

   जिला-  बालोद

नोनी माई



बिहनिया के जाड़ अउ उवत बेरा के रउनिया तापे  म बड़ आनंद हे l उही बेरा गली म झोला लटकाये अउ कनिहा म तीन साल के नोनी ल पाये एक महिला निकलीस l आज के समय म भीखमंगीन कहना घलो गलत हे l दान बर घलो किंजरत रहिथे  "शनि देवता बर तेल चघा दे " कहत l

उही मेऱ आइस जेन मेऱ सब रउनिया लेवत रहेन l  

"बाबू जी 

मोर लइका ल माई शक्ति दे हे l हमन ल सुन के अचरज होइस l  ले नानकुन लइका के आड़ म धंधा l ढोंग ढचरा बाढ़त जात हे l

" लइका के आड़ म सब धंधा होवत हे मांगे जांगे के l  रमउ बोल परिस l 

चमत्कारी नोनी हे " पुछेव l

वोहर कहिस वोइसने समझ ले बाबू l "

"वो कइसे बता?"

वो बताइस -" मोर नोनी के मुड़ म तीन बेर अपन हाथ ला फेरही  तीन महीना के भीतर ओकर कोनो काम अटके हे बन जही l हाथ फेरत नोनी कुछ बोल दिही तभे l"

"का बोलथे तेमा "

"येला बोले ल नई आवय  फ़ेर जेकर  भाग्य दिखथे  ओला जान डर थे l" 

" त का कुछ दे ये पड़थे "

"कुछु नहीं एक पाकिट तेल भर म l"

"ले जा जा,आघू जा,माई 

तोर बूता ला तहीं जान.. I "

"नानकुन नोनी ए  देवी माई ए बाबू l" 

रमेसर तैयार होगे l दुकान ले  खरीद के ले आइस एक पाकिट तेल कहिस "ले माई "i

वोहर कहिस -"पाकिट ल धर के घुमा ओकर बाद ओकर मुड़ी म हाथ ला फ़ेर l"

रमेसर ओइसने करिसl नोनी तीसर घ के फ़ेर म "मई ईं दो "l 

रमेसर ला ख़ुशी होइस मोर काम बनगे l नोनी माई के मुँह ले निकलगे l

कुछ दिन के बाद पता चलिस l

ओ महिला के नोनी के मुड़ी म बचपन ले अंदरूनी  ले  खराब हे l ओकर इलाज खातिर  बिचारी तेल इकठ्ठा करके ओला बेचके रुपिया सकेलत रहिस l पइसा मांगे म सब तिरिया जथे  l  कोन पइसा दिही आज के ठग जग के समे म l दया  अउ दानी दूनो ला धोखा l काकर ऊपर का  भरोसा करबे?  बने के बेरा लुका जथे l कहे भर के मैनखे?

इलाज खातिर इही तरीका अपना के घर घर देवी माई आवत हे l 

"नोनी माई  "ला किंजारत हे गली गली l 

अपन शक्ति ला देखा ना माई 

कहत रहीगेव l


मुरारी लाल साव 

कुम्हारी

कुकुर पोसवा समाज


          सामाजिक नवाचार के नीत यहू हे कि घर के मोहाटी मा उँचहा नसल के कुकुर बँधे होना। कुछ नहीं तौ देसी खर्रू कुकुर ला डेहरी रखवार बना। अतको नइ कर सके माने वर्ग विभाजन के क्रम मा गरीबी रेखा के निचे वाले क्रम मा फेंके जाबे। समाज मा इज्जत पाना हे तौ कुकुर पोस। अउ यहू चेत रहे कि निँगती मोहाटी मा कुकुर ले सावधान के तख्ती लटके मिलना चाही। मान ले कुकुर नइ भी हे तभो झझक तो रही कि इहाँ कुकुर रथे। कुकुर रहिके घलो नइ भूँकिस तब समझ ले कि वो अपन कुत्ताईपना ला अपन स्वामी ला सउँप देय हे। अइसे भी घर बँगला के ठसन शान सौकत रूआब  ला देख के पता चलि जाथे कि इहाँ कुकुर ही रथे। शुद्ध शाकाहारी मन खटिया मा परे बाप के दवा लाने बर भुला सकथे फेर कुकुर के आहार लाने बर नइ भूले। एक झन हास्य कवि कुकुर पोषक ला कहि दिस कि, तोर कुकुर बढ़िया हे जी, कहाँ ले लाने हावस। कुकुर पोषक जोरहा गुर्राके किहिस तँय एला कुकुर झन बोल ये मोर बेटा असन हे। बतकड़ू कवि फेर एक ठन गोली दाग दिस अउ कहि दिस कि कुकुर तोर बेटा असन हे  तौ तोर बेटा काकर असन हे?

         सच तो इही हे कि कुकुर ला लइका असन पाले पोसे जावत हे, अउ लइका कुकुर बरोबर गली मा बिना सीख अऊ संस्कार के घुमत हे। बिना देख रेख के लइका बेँवारसपना मा गली के होके रहिगे हे। ये मन सरकारी पानी चघाके नाली सैया के सुख भोगत हें। एकर ले मान सम्मान मा कटौती नइ होवय। नाक तो तब कटथे जब मोहाटी मा कुकुर नइ बँधे मिले।

       कुकुर आदमी के सँग रहिके आदमीपना सीखत हे। अउ आदमी कुकुरपना ला। ओइसे भी आदमी ला कुकुर चरित्र अपनाए मा जादा दिक्कत नइ होवय। वो एकर सेती कि आज के परिधान मा मनखे हर दूसर मनखे के सुभाव मा कुत्तागिरी ला देखा सीखी मा सीख जाए रथे।

        मनखे चोर डाकू लुटेरा ले डरे। अब कुकुर ले डरथें। एक इही जीव तो हे जे मनखे अउ पशु के बीच के सभ्यता मा समानता लाथे। जेकर ले ईमानदारी अउ वफादारी के परिभाषा बाचे हे। बजार के बिसाय दस रुपिया के तारा उपर भरोसा हे फेर परोसी उपर नइये। कुकुर उपर भरोसा हे फेर हजार रुपिया के तनखाधारी चौकीदार उपर नइ रहय। सुविधा सम्पन्न मानवीय विकास यात्रा के डहर मा चलत कुकुर सभ्यता मा आके डेरा डारे हावन। हबकना भूँकना गुर्राना हम इही कुकुर मन ले सीखे हावन। ये अलग बात हे कि विज्ञान चन्दा मा चल दिस अउ हम तर्कशील होके नव राति चतुर्थी मनाए बर चंदा परची धरके मोहाटी मोहाटी किँजरत हावन। हमर कोती के रावन ला मारे बर घलो चंदा देना परथे। उपासना अउ जगराता तक ले घलो हमर कुकुरपना के निवारण नइ हो पावत हे। जौन रैबीज वैक्सीन तइयार हे अब काम नइ आवे। अब ये दू पाया मन अतका जहरीला होगे हें कि काटे के तो बात छोड़ गुर्रा दिहीं ओतके मा संक्रमण बगर सकते। तब अइसन मा डब्ल्यू एच ओ ला आवेदन देके सचेत करवा देना उचित समझथौं। जेकर ले नवा वैक्सीन के खोज चलत रहय।

     हमरो पारा मा एक ठन सम्मानित आदरणीय जी रथे। जेकर खसुवाहा होय के कारण अतके हे कि ये खसमाड़ू ह हर पंचवर्षीय मा मालिक बदलत रथे। एकर ले साफ हे कि वो स्वामी भक्त नइये। अपन ईमानदारी वफादारी ला चौपाया मन ला धरा देय हे। कर्तव्यनिष्ठ कर्मठ अउ जुझारूपन ले स्वामीभक्ति देखातिस  गुर्राये हबके के काम करतिस ते कम से कम सरपंच तो बने के संभावना तो रतिस।

         जेकर मा दम होथे वोमन चौपाया के सँगे सँग दू पाया घलो पोस के राखथें। इही पोसवा मन मा वो सब गुण भरे रथे जेकर ले कुकुर के इज्जत होथे। इन मन ला तोर हमर नुकसान से मतलब नइ रहय। मालिक के आदेश मिलत भर के रथे, फेर तो ये मन मालिक के जुट्ठा नमक खाय के करजा उतारे मा देरी नइ करे अउ शांति पारा के शांति ला भंग करके भगदड़ मचाके मालिक के साख बचाथें। अइसन बेरा मा मर कटगे तब नाम ला सहीद मनके सुचि मा जोड़वाए बर बाचे दू पाया मन धरना तो कर ही सकथें। कुकुर देव के मंदिर एकलौता बालोद जिला के मालीघोरी मा ही काबर रहय। आस्था के घंटाघर तो अबड़ बनत हे, फेर मालीघोरी के मंदिर कस भरोसा के चिनहा प्रतिक बर एक ठन एतिहासिक काम तो घलो होना चाही।

        आज हमर समाज ला कुकुर के बहुते जरुरत हे। नाम इज्जत अउ रुआब के साख बचाना हे तौ कुकुर पोसना जरूरी हे। हम ये नइ कहन कि  कुकुर चौपाया ही होय। बिना पट्टा सँखरी वाले घलो चलही।

       गाय सड़क मा हे अउ कुकुर बेडरूम मा, मनखे के लइका कुपोषित होवत हे अउ कुकुर दूध मलाई मा सनाय रोटी बिस्कुट खावत हे। पाठ भर पूरा पार करके लइका मन पैदल इस्कुल जावत हे, कुकुर कार मोटर के सँग हवाई जहाज तक मा सफर करत हे। कुकुर पोसवा समाज कुकुर ला गोदी मा लेय के जगा ओतके खरचा मा कोनो गरीब के लइका ला गोद ले लेतिस ते देन दिन येमन कुकुरगति के होही वो दिन हो सकथे मुखाग्नि तो नहीं कंधा देय बर खड़े मिलतिस। फेर हमला तो कुकुर पोसवा समाज के नाक साख ला बचाके ये परम्परा ला आगू पीढ़ी तक ढकेलना हे, कि हम उचहा दरजा के कुकुर पोसवा समाज के पोषक आवन। 


राजकुमार चौधरी "रौना"

टेड़ेसरा राजनांदगांव।

वोट के जाहा



बोकरा भात, कुकरा अंडा करी, मछरी खाहा।

चुनई गीत, बड़ मजा के गाहा, झंडा उठाहा।। 

सत्ता के डोरी, तुँहरे हाथ हावे, कोन्हो ला चाहा।

तुमन देव, तुमन भगवान, जेला सराहा।।


फोकट पाहा, जेला चहिहा खाहा,भंडारा आहा।

पाँच सलिहा, हवय ए परब, गंगा नोहाहा।।

भई-बहिनी, दई-ददा तुमन, वोट दे जाहा।

जीभ लालची, कीमत अनमोल, झन बेचाहा।।


मनखे तौरें, उछलत नदिया, दारु बोहाहा।

पाँचसलिहा, बिन पनही पाँव, धुर्रा सनाहा।।

अब्बड़ भाग, निरगुन देवता, रेंग के आहा।

घर मुँहटा, हाथ जोर के माँगे, मुचमुचाहा।।


बड़ हाँकही, फेंकही उत्ता धुर्रा, झन ठगाहा।

रुपया पैसा, बाँटे ओनहा मला,झन लोभाहा।।

भाला बंदूक, धरही हथियार,झन डराहा।

झन लुकाहा, वोट लुका के डाला, हक ला पाहा।।


-सीताराम पटेल 'सीतेश'

जग ले सर्ग नंदावत हे


जम्मों रुखराई ठुड़गा अब,

                     हरियर पेड़ कटावत हे।

सुख दे दिन अब सपना संगी,

                    जग ले सरग नँदावत हे।।


पेड़ लगाबो मिल के हम सब,

                     पर्यावरण बचाबो अब।

लइका जइसे सेवा करबो,

                 तभे सुखी रह पाबो अब।।

बरसा कइसे होही भइया,

                     बादर घलो सुखावत हे।

जम्मों रुखराई ठुड़गा अब,.............


बर-पीपर अउ आमा-अमली,

                  गहना हावय भुइयाँ बर।

सुरताये बर इही ठिकाना,

                     जाँगर के पेरइया बर।।

बिन रुखवा के सबो डोंगरी,

                   बंजर बन चिकनावत हे।

जम्मों रुखराई ठुड़गा अब,..............


जीव जन्तु के आज बसेरा,

                 मनखे दिन-दिन टोरत हे।

जघा-जघा मा पर्वत घाटी,

                     ढेला पथरा फोरत हे।।

कुआँ बावली नरवा तरिया,

                   बँधिया घलो अँटावत हे।

जम्मों रुखराई ठुड़गा अब,..............

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रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

विडंबना



गाँव गली मा बिकट मिलत हे मोल,

पानी पाउच,डिस्पोजल,चिकन,रोल!

तंत्र,मंत्र,यंत्र मा बोले बोली अनमोल,

ऊपर ले खाल्हे तक पूरा हावे झोल!!


एक डाहर दारू बंदी योजना चलात हे,

चुनाव दरी घर _घर पिए बर बलात हे!

सरकारी भट्टी ले कोचिया कर  कइसे,

पहुंचीस मोला समझ  नई  आवत हे!!


मतदानदरी अतेक पइसा,दारू,कपड़ा, 

कोन सागर मंथन ले निकल के आथे!

जम्मो पार्टी बाँटत _बाँटत थक जाथे, 

फेर फोकट वाले के कहां सुसी बुता थे!!


जात, धर्म, भाषा, फिरका, देवी देवता,

सबके बोली खुले आम इही लगा थे!

जांगर वाले मन चल देते अपन डेरा मा, 

अनपढ़ मन मुड़ धर के खूब पछता थे!!


गुटखा,बीड़ी, सिगरेट, शराब गांजा तम्बाकू,

तन मन धन ला लुट डरिन अलकहा डाकू!

समय राहत ले जाग जावव झन होवव बेकाबू,

जेन कोनो मोर बात मानही जरूर बढ़ी आगू!!


                       तुलेश्वर कुमार सेन 

                       सलोनी राजनांदगांव

ग़रीबी के नाड़ी दोष


लड़की खोजे ल निकले रहेन

                         हमन ह एक ठिन गाँव म|

चार सियान ह बैठे रिहिस, 

                            पिकरी पेड़ के छाँव म||


मेंहा कहेंव भतीजा चल,

                           इहि बबा मन ल पूछथन|

बड़े जबर गाँव हे चल,

                           काकरो घर म खुसरथन||


 में कहेंव तुंहर गाँव के चेतलग,

                      कोनो नोनी हमला बता देतेस|

कदे पारा म वोकर घर हे,

                       बबा चल न तेहा देखा देतेस||


सगा घर गेन ताहन जी,

                        नोनी लोटा म दिस हे पानी|

चहा पियत-पियत बबा पुछीस,

                      लड़का के जम्मो राम कहानी||


तै का बुता करथस बाबू,

                            अउ पढ़े हस कोन क्लास|

हमर बेटी एम.ए.करे हे,

                        नौकरी वाला के हावय आस||


अजी कोन तोर कुल,गोत्र हे,

                        अऊ कईसन के तोर जात हे|

हमन  गाड़ा भर खेती वाला,

                         बता तोर कतेक औकात हे||


अईसन सगा हमला नी चाहि,

                           जेन ह रहे फकत कंगला|

हमर बेटी उहि घर म जाहि,

                     जेकर कर रहि मोटर,बंगला||


बने चीज बस हावय त,

                             जम्मो गुण ल मिला लो|

लड़का ह बने दिखत हे,

                         अपन घर देखे ल बला लो||


बबा के गोठ सुन के संगवारी, 

                           मोर तरवा ह ठाड़ सुखागे|

लड़का के जगा म लड़की के, 

                       बाप ह खुलेआम दहेज मांगे||


झट ले महू बोल परेंव,

                          अरे जबर के नाड़ी दोष हे|

इकर गुण ह कहाँ मिलही,

              अमीरी अऊ गरीबी के नाड़ी दोष हे||


गरीबहा अउ मण्डल के,

                              जोड़ी नी बन सके यार|

कोनो गरीबीन ल खोज लेबो,

                       तै अपन बेटी ल घर में बैठार||


दुनिया भर ह पूछे मोला,

                            पैसा,बंगला अऊ कार ल|

फेर कोनो काबर नी पुछिस,

                      हमर घर के सुघर संस्कार ल||

रचनाकार:--श्रवण कुमार साहू "प्रखर"

शिक्षक/साहित्यकार, राजिम, गरियाबंद (छ.ग.)

छत के ऊपर छत



छत के ऊपर छत

न जाने कितने छत

बना गए......।


हर किसी के लिए

अब अलग से कमरा बना गए


और कमरों में कैद

तन्हाइयों को जीवन में सजा गए


जैसे मुसाफिर हो

   राह का

आज अपनों से ही दूरियां बना   

     गए


क्योंकि कमरों में 

बाहरी दुनिया के

चकाचौंध तो आ गए


पर अंदर से हम खाली रह गए....।


जैसे यहां छत के ऊपर छत

    बन गए


वैसे ही एक- दूसरे से

   जुड़कर भी

मुसाफिर हो गए



माधुरी मारकंडे

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

ठंड के आते गर्म कपड़ों में



   छिड़ी आपस में लड़ाई

    करते अपने श्री मुख़ से

     अपनी ही प्रभुताई.


    तान कर सीना स्वेटर बोला

     मैं सबका तन ढंकता हूं

     कितनी सी हो ठंड कड़कती

       ध्यान सभी का रख़ता हूं.


      सीना पेट पीठ सब ढाकूं

       गरमी तन पर ले आऊं

       अमीर ग़रीब बच्चे बुढ़े

        सबके काम मैं आऊं.


      ऊनी टोपी खिलखिला पड़ी

      ओ अपने मुंह मियां मिट्ठू 

       बिना कान औ सिर ढकें

   जाएं ना बाहर दादाजी बिट्टू


     ठंडी हवा से मैं ही बचाती

        छोटे बड़े सयानों को

      सुंदर सुंदर टोपियां सजती

       छैल छबीले जवानों को.


       मोजा बोला, ग़ौर से देख़ो

        पैरों तले ज़मी नापो

       ठंडी सीधे पैरों से आती

   जुराबें इसीलिए पहिनी जाती


     शांत भाव से बोली दुशाला

     बंद करो  अपनी पाठशाला

      हर वर्ग को मेरी ज़रूरत

   अफ़सर श्रमिक या कलेक्टर.


  तन पर सुंदर लपेटी जाऊं

   नन्हा बच्चा या हो ताऊ

    बाद ठंड के काम भी आती

   मान सम्मान प्रतीक बन जाती.


    ओढ़ शाल जब तन पर सजती

       कद छोटा बढ़ जाती हस्ती

     नेता अभिनेता या हो फनकार

       शाल से ही होता सत्कार.


      सबने शाल को दी बधाई 

       बहना तेरी बड़ी प्रभुताई

     सचमुच उसका मान बढ़ाती

    भरी सभा जब पहिनाई जाती.

 प्रमदा ठाकुर   अमलेश्वर  रायपुर  छत्तीसगढ़.

संग हंसिनी


संग हंसिनी जाही कौआ, 

रिही नौकरी जब सरकारी।

जगमग-जगमग किसमत बरही, 

मीठ लागही दुनियादारी।।


चाँद घटा मा सुग्घर दिखथे, 

चाँद घटा ले दिल हर दुखथे।

चाँद-चाँद के अंतर देखा, 

सुग्घर दिखथे सुग्घर ढँकथे।।

चाँद लुकाएँ चाँद दिखाएँ, 

मनखे खेलें अपनो पारी।

जगमग-जगमग किसमत बरही, 

मीठ लागही दुनियादारी।।


रतिहा झक अँधियारी धकधक, 

रात अँजोरी सबला भाए।

रिहा गरीबी रात तीर मा, 

उल्टा किसमत सबला ढाए।।

अहम् पालिहा जे अपनो ले, 

उनला जीवन लागे भारी।

जगमग-जगमग किसमत बरही, 

मीठ लागही दुनियादारी।।


मरमर-मरमर कर-कर पीपर, 

जीवनदायी हमला देथे।

तुलसी रानी अँगना मंदिर, 

भवसागर के डोंगा खेथे।।

बहत नदी के नीर मिठाए, 

सागर पानी नुनछुर कारी।

जगमग-जगमग किसमत बरही, 

मीठ लागही दुनियादारी।।


-सीताराम पटेल

अड़बड़ बाढ़ें जाड़े हे


पड़पड़ावत हे गोड़ हाथ ह,

अउ गोड़ हाथ के रुंवा ठाड़ हे।

अघ्घन महीना म पानी गिरगे,

त अड़बड़ बाढ़े जाड़ हे।

तरिया के पानी कन-कन ले हे,

साहस नई होवथे नहाय के।

दिल ह करथे बिना नहाय,

मिल जातिस अब खाय के।

ओकलत चाय के कप ह घलो,

ओठ ल घलो नई जनावत हे।

गरम गरम अंगाकर रोटी के,

लालच ह रही-रही आवत हे।

जी करथे पल पला भरे गोरसी ल,

धरे राहव दिनरात पोटार के।

कमरा के बिछौना खटिया म,

अउ कमरा ल ओढ़े हव लाद के।

तभो संगवारी जाड़ के मारे,

जुड़ाय जुड़ाय कस हाड़ हे।

अड़बड़ बाढ़े जाड़ हे।

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रचना:-जीवन चन्द्राकर"लाल''

      बोरसी 52 दुर्ग (छत्तीसगढ़)

रविवार, 1 दिसंबर 2024

जाड़ा


अगहन पूस के जाड़ा।

कपकपा डरिस हाड़ा।

    सुरुज हा निचट घुरघुराय हे।

    रऊंनिया तको नइ जनाय हे।

    ये बबा हा जी गोरसी बारे हे। 

    गोरसी म छेना झिटी डारे हे।  

ये सकलाय हे पुरा पारा।                                 

जाड़ भगाय के हे जुगाड़ा।

अगहन पूस...............।

     लुवई टोरई के दिन आय हे।

     किसान के काम भदराय हे।

     खोजे नइ मिलत बनिहार हे।

     ये उपर ले मौसम के मार हे।

किसान फांदे हे गाड़ा।

लाय बर जात हे भारा। 

अगहन पूस............। 

    भुखहा तन हा कहा जड़ाय हे।

    पेट के आगी हा तो गरमाय हे।

    बादर पानी ले कहा डरराय हे।

    दिन-रात ओहा तो  कमाय हे।

नइ थकय ओखर हाड़ा।

चाहे घाम हो या जाड़ा।

     अगहन पूस के जाड़ा।

     कपकपा डरिस हाड़ा।

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        *चिन्ता राम धुर्वे*

     ग्राम-सिंगारपुर(पैलीमेटा)

     जिला-के.सी.जी.(छ.ग.)

गरीबा

 गरीबा:-

एकठन गाँव म एकझन किसान राहय  जेकर नाव हे रमऊ। रमऊ के घरवाली रमशीला हे। दूनों झन के 3 झन लइका हे, राकेश, किशन , अउ गरीबा। गरीबा सबो झन ले छोटका भाई हरय। राकेश अउ किशन अड़बड़ हुसियार हे, इस्कूल म पढ़ई म सबले अघुवा रहिथे। एकरे सेती घर म दूनों झन मन ला रमऊ अउ रमशिला के लाड अउ दुलार ज्यादा मिलथे। सबले नान्हे भाई गरीबा के पढ़ई लिखई म ज्यादा धियान नई राहय। जब देखबे तब बस ओकर खेलई बुता। एकदम अपन सुध के चलइया लईका आए। कभू डंडा पचरंगा खेलत पेड़ म बेंदरा कस झुलत मिलय, त कभू गिल्ली डंडा, कभू बीस अमृत, कभू छु चूवउल, त कभू रेस्टिप खेलत काकरो घर होये तिहां खुसर जाय लुकाय बर। गरीबा ह घर म अड़बड़ गारी खाए, रमऊ अउ रमशिला के मुँहू ले बस एकेच ठोक गोठ ह निकलय। दिनभर छछालु कस घूमत रहिथस, एक्कन कापी पुस्तक डाहन तको कभू हिरक्के तो देखेकर। जतिक मान सम्मान, लाड़ दुलार दूनों बड़का भाई मन ल मिलय ओतेक मान सनमान गरीबा ल नई मिलय। दूनों बड़का भाई मन रमऊ ह बढ़िया पढ़ईस, आज दूनों झन मन बढ़िया सरकारी दफ्तर म बुता करथय। दूनों झन के पढ़ई लिखई बर खेत ल साहूकार कर  गिरवी तको रख दिस। राकेश अउ किशन दूनों भाई मन शहर म सेटल होगे। गरीबा ह बीच म अपन पढ़ई लिखई ल छोड़ दिस अउ खेती किसानी के बुता म करेबर लग गे। अउ अपन बाबू सन खेती किसानी के बुता म हाथ बटाय।

एक दिन रमऊ ह रमशिला ल कहिथे ए सुन तो वो बड़ दिन होगे राकेश अउ किशन ले मिले नई हंव। पहिली तिहार बार बर आए जाय फेर अब तिहार बार बर तको घर नई आवय। चल शहर म जाबोन राकेश अउ किशन ल मेल भेंट करेबर। मोर नाती नतनिन मन ले तको मिल लेबोन। हाव राकेश के बाबू तंय तो मोर मुंहू के गोठ ल नंगा लेव। रमऊ अउ रमशिला ह जब राकेश अउ किशन घर पहुंचिस त कोनो ह खुश नई होईस। राकेश अउ किशन के बाई ह तो मुंहू ल टेरगा करके भीतरी डाहन खुसर गे। एला देखके रमऊ अउ रमशिला के मुंहू ह उतर गे। फेर रमऊ अउ रमशिला ह अपन नाती नतनिन ल देखिस त इंकर अंतस ह हरिया गे। दू चार दिन ही नई होए रिहिस अऊ बहू मन ल इंकर मन बर खाना नास्ता बनई ह अब उपराहा बुता कस जनायेब धर लिस। राकेश अउ किशन ह जब अपन ड्यूटी ले घर आईस त दूनों झन कहि दिन, या तो तुमन अपन दाई बाबू ल चुनव या अपन बाई मन ल । एला अब तुही मन ल निरधारण करना हे। राकेश अउ किशन ह एक दिन ए मन ल घुमायेंब लेगे के बहाना म अपन संग म लेगिस अऊ बीच जंगल म उतार दिस अऊ किहीस बाबू ग हमन गाड़ी म पेट्रोल डरा के आवथन तुमन एक्कन अगोरा करहू। इंकर मन के अगोरा करत करत दिन ह बुड़ेब धर लिन। गरीबा ह तको सहर डाहन कुछु बुता ले आए रिहिस, तब रद्दा म अपन दाई बाबू ल दिखिस त अपन गाड़ी ल तुरते रोक दिस। अउ किहिस बाबू, माँ तुमन यहा बिहड़ जंगल म कईसे। तब रमऊ ह सबो बात ल लाईन  से बताईस। सबो बात ल बतात बातात रमऊ के आंखी ह डबडबा गे। गरीबा ह अपन बाबू अउ महतारी दाई के आँखी ल पोछत किहिस कि बड़े भईया मन सही मेंहा अइसने नई करंव बाबू मेंहा आपमन के शरवन बेटा कस सेवा जतन ल करहूँ। बेटा गरीबा ह आज सफल किसान हे। खेती किसानी म अड़बड़ मेहनत मजदूरी करके गरीबा ह आज एक सफल मनखे बन गे हावय। गरीबा ह सुघ्घर अपन दाई बाबू ल चारों धाम के यात्रा करइन। रमऊ अउ रमशिला जब चारों धाम के यात्रा करके लहुटत रिहिसे, तब रमऊ ह गरीबा ले किहिन जेन बेटा ल हमन नान्हे पन ले उदबिरिस समझत रेहेन, अउ जेन लईका ल ओतेक लाड दुलार दे नई पायेन। आज उही लईका ह आज हमर मन के सहारा बनिस अउ हमर मन के सुघ्घर सेवा जतन करत हे। अउ जेन लईका मन ल हमन होसियार समझत रेहेन, अड़बड़ लाड़ दुलार देत रेहेन, अउ जेन लईका ले हमन हमर बुढ़ापा के सहारा बनही केहे रेहेन उही लईका मन हमन ल बीच जंगल म छोड़ के भगा गे। सिरतोन म बेटा गरीबा तंय ह अपन सेवा भावना अउ अंतस हिरदे ले अतेक आमीर निकलेस रे, जेकर हमन बखान नई कर सकन। हमर दूनों झन के उमर ह  लग जातिस मोर शरवन बेटा गरीबा। अतेक बात ल सुनके गरीबा के आँखी ले आँसू निकलेब धर लिस गरीबा ह अपन दाई बाबू मन के गोड़ ल छुईस अउ गला लगके रोयेब धर लीस।



✍️✍️ गणेश्वर पटेल✍️✍️

ग्राम - पोटियाडिह 

जिला - धमतरी(छ ग)

क्यूं आर कोड


क्यू आर कोड
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
मिंटू  का आठ साल का लड़का बीमारा था।  दशहरे का कलश  स्थापना हो चुका था। लेकिन, दुकानदारी बहुत ठप  चल रही थी। वो मेले ठेले में घूम - घूम कर बैलून- फोकना  बेचता है।  जब से सावन लगा था। तब से ही पूरा का पूरा सावन और भादो निकल गया था। लेकिन कहीं से पैसा नहीं आ रहा था। हाथ बहुत तँग चल रहा था।  ये सावन भादो और पूस एक दम से कमर तोड़ महीने होते हैं। बरसात में कहीं आना जाना नहीं हो पाता। पूस खाली खाली रह जाता है। कोई नया काम इस महीने लोग  शुरू नहीं करते।  किसने बनाया ये महीना। ये काल दोष। खराब महीना या अशुभ महीना। पेट के ऊपर ये बातें लागू नहीं होती। पेट को हमेशा खुराक चाहिए। मिंटू को पेट से अशुभ कुछ भी नहीं लगता।  पेट नहीं मानता शुभ अशुभ ! उसको खाना चाहिए। उसको दिन महीने साल से कोई मतलब नहीं है। मनहूस से मनहूस महीने में भी पेट को खाना चाहिए।  पेट को कहाँ पता है कि ये मनहूस महीना है। शुभ - महीना है। या अशुभ महीना? काश ! कि पेट को भी पता होता कि सावन - भादो और पूस में काम नहीं  मिलता है। इसलिये पेट को  भूख ना लगे। लेकिन पेट है कि समय हुआ नहीं कि उमेठना चालू कर देता है ।  उसको नहीं पता कि मुँबई-दिल्ली में बरसात में काम बँद हो जाता है।  काम ही नहीं रहता तो मालिक भला क्योंकर बैठाकर पैसे देगा। सही भी है। वो भी दो महीने से बैठा हुआ है। भर सावन और भादो ।  लिहाजा  ग्राहक का लस नहीं है, बाजार में। मानों कि बाजार को जैसे साँप सूँघ गया हो। बरसात तो जैसे तैसे निकल गई थी। बी.पी. एल . कार्ड से पैंतीस किलो आनाज मिल जाता था।  अनाज के नाम पर मिलता ही भला क्या है। रोड़ी बजरी मिले चावल।  तिस पर भी पैंतीस किलो की जगह कोटे वाला तीस किलो ही अनाज देता है। पाँच किलो काट लेता है।
एक दिन मिंटू  विफर पड़ा था। 
गुड्डू पंसारी पर खीजते हुए बोला  -" क्या भाई तुम लोगों का पेट सरकारी कमाई से नही भरता क्या ? जो हम गरीबों का आनाज काट लेते हो। इस गरीबी में हम घर कैसे चला रहे हैं। हम ही जानते हैं। " 
गुड्डू पंसारी टोन बदलते हुए बोला  -" अरे यार  हम लोग तुमको गरीबों का हक मारने वाले लगते हैं , क्या ? जो ऐसा बोल रहे हो। ये जो टेंपो -ट्रैक्टर  से आनाज बी. पी. एल. कार्ड धारियों को बाँटते हैं। इसका भाड़ा एक बार में तीन हजार लगता है। सरकार हम लोगों को बाँटने के लिये अनाज जरूर देती है। लेकिन‌, ट्रैक्टर - टेंपो का किराया , गोदाम तक माल पहुँचाने के लिये ठेले का भाड़ा , थोड़े देती है। " 
" तब काहे देती है ,  अनाज हम गरीबों को। जब तुमलोग पैंतीस किलो में से भी पाँच किलो काट ही लेते हो। और भाई तुम भी भला क्यों अपनी जेब से भरते हो। जब इस बिजनस में घाटा है। तो छोड दो ना ये बिजनस । " 
" अरे , भाई तुमको नहीं लेना हो तो मत लो। काहे चिक- चिक करते हो। बी. पी. एल. कार्ड़ से जरूर पैंतीस किलो मिलता है। लेकिन इस रूम का भाड़ा। ये जो लाइट जलती है। उसका बिल।फिर सामान तौलने के लिये आदमी रखना पड़ता है। और तुमको तो पता है।  इस बी. पी. एल .कार्ड के आ जाने से सब लोग राजा बन गया है। दशहरा के बाद दीपावली आने वाली है। कल नीचे धौड़ा में दु गो मजदूर  खोजने गये थे। दीपावली पर घर की पुताई करने के लिए। तुम्हारे नीचे धौड़ा के दो मजदूरों को पूछा। बोले दो ठो रूम है। और एक ठो बरंडा है केतना लेगा। ई हराम का पैंतीस किलो चावल खा- खाकर ये लोग मोटिया गया है। दोनों मजदूर ताश खेल रहे थे। अव्वल तो टालते रहे। बोले कि अभी भादो का महीना है।  अभी पँद्रह  बीस दिन  से हमलोग कहीं बाहर काम करने  नहीं गये हैं। बदन बुखार से तप रहा था।  अभी भी बदन-हाथ बहुत दर्द कर रहा है । उनको फुसलाकर चौक पर चाय पिलाने ले गया। चाय पी लिये। फिर भी टालते रहे। सोचा होगा  गरजू है।  समझ गये गुड्डू पंसारी आज काम पड़ा है, तो गधे को भी बाप बना रहा है। 
जानते हो हमको क्या जबाब दिया। बोला एक रूम का तीन हजार लेंगे। दो ठो रूम और बरंडा का कुल मिलाकर सात हजार लेंगें। करवाना है करवाओ। नहीं तो छोड़ दो। इस बी. पी. एल .के अनाज ने लोगों को कोढ़िया बना दिया है।  दिनभर ताश और मोबाइल में रील्स देखते और बनाते हुए बीत रहा है ।अभी तो सरकार  हर गरीब घर में दीदी योजना में रूपया दे रही है। एक परिवार में अट्ठारह साल और अट्ठारह साल से अधिक उम्र के लोगों को हजार दो हजार रूपया 
 हर महीना मिल रहा है।  हर महीने लोग खाते में पैसा ले रहें हैं।  इससे मुसीबत और बढ़ गई है।  कटनी रोपनी में मजूर नहीं मिल रहें हैं। अभी इस दुकान के लड़के को जो रखा है। वो मेरे दूर के साढू का लड़का है। तीन सौ रूपये रोज के दे रहा था।  रोज की मजदूरी ।तो इधर महीने भर से ये और मेरा दूर का साढू मुँह फुलईले था।  बोला साढू भाई रिश्तेदारी अपनी जगह है। लेकिन हमारा लड़का तोरा कोटा में बेगारी काहे खटेगा। आज लेबर कुली का हाजिरी भी सात - आठ सौ है। तो हमरा लड़का बेगारी काम करने थोड़ी आपके यहाँ गया है।  कम से कम पँद्रह हजार महीना उसको खिला पिला कर दीजिए। नहीं तो गुजरात से उसको बीस हजार महीना काम के लिये रोज फोन आ रहा है। बोलियेगा तो भेजेंगे। नहीं तो आपके यहाँ जैसा ढेर काम पड़ा है।  हमरे लड़का के यहाँ। ऊ तो रिश्तेदारी है,  आपके साथ। नहीं तो हमारे घर में खुद की बहुत लँबी- चौड़ी खेती है l अब आप ही बोलिये गली के इस टुटपूँजिये दुकान का किराया चार हजार रूपया है।  पंखा - लाइट बत्ती का डेढ़ - दो हजार रूपये का बिल आता है।  दो ठो गोदाम रखें  हैं । उसका छ: हजार अलग से दते हैं। सब मिलाकर जोड़ियेगा तो मेरा इसमें बचता उचता कुछ नहीं  है। ऊ तो बाप दादा के समय से राशन- पानी और कोटे का काम चल रहा है। इसीलिए खींच - खाच के चला रहे हैं। नहीं तो एक रूपया किलो का कोटे का चावल बेचकर गुजार हो चुका होता। ऊ तो चौक पर एक होटल है। और ये राशन की दुकान है। जिसमें हेन तेन छिहत्तर आइटम रखे हैं। तब जाकर बहुत मुश्किल से कहीं चला पा रहें हैं। नहीं तो कितने लोगों ने जन वितरण प्रणाली की दुकान को बँद कर दूसरा तीसरा बिजनस कर लिया। " 
 गुड्डू पंसारी बहुत मक्कार किस्म का आदमी है। बी. पी. एल . चावल में पहले तो पैंतीस की जगह तीस किलो चावल देता ह़ै। बी. पी. एल का बढिया वाला चावल निकालकर सस्ते वाला चावल बाँटता है । जो चावल एक रूपये किलो का होता है। उसको चालीस पचास  रूपये किलो बेचता है। अव्वल तो दुकान खोलता ही नहीं। आजकल करके टरकाता रहता है। कई बार इसकी शिकायत ब्लाॅक के सी. ओ.,  बी. डी. ओ. से भी की गई । लेकिन सब के सब चोर हैं। ये गुड्डू पंसारी सबको पैसे खिलाता रहता है। 
मिंटू  ने  मुआयना किया। बारिश कब की खत्म हो गई थी। आसमान में धूप भी खिल आई थी। उसको कुछ आशा जग गई। कई दिनों से लगातार बारिश ने नाक में दम कर रखा था। बाहर निकलन मुश्किल हो  रहा था। दो दिन वो उसी शाॅपिंग माॅल के आसपास में ही भटकता रहा था। एक दिन एक खिलौना बिका था।  उस दिन, दिन भर बारिश होती रही थी। दस बारह घँटे वो इधर उधर भटकता रहा था।  लेकिन उस दिन पता नहीं कैसा मनहूस दिन था। कि एक ही खिलौना पूरे दिन भर में बिका था। घर में बी. पी. एल का चावल था। उसको डबकार किसी तरह माँड भात खाया था। उसके अगले दो-तीन दिन भी वैसे ही कटे थे। गीला मड-भत्ता खाकर। पेट है तो खाना ही पड़ेगा। पेट की मजबूरी है। 
" ए फोकना वाले ये कुत्ता कितने का दिया। " पीछे से किसी महिला ने आवाज लगाई। 
" ले , लो ना सत्तर रूपये का एक है ,बहन। " 
" हूँह इतना छोटा कुत्ता। और वो भी प्लास्टिक  का। ठीक से बोलो। तुमलोगों ने तो लूटना चालू कर दिया है।  " 
" क्या लूट लूँगा बहन। सत्तर रूपये में बंगला थोड़ी बन जायेगा। तुम भी कमाल करती हो। " 
" ले लो पैंसठ लगा दूँगा। " 
" नहीं - नहीं चालीस की लगाओ। दो लूँगी। " 
" चालीस में तो नुकसान हो जायेगा , बहन। अच्छा चलो तुम दो के सौ रुपये दे देना।  " 
" नहीं भैया इतने ही दूँगी। प्लास्टिक के खिलौने का भी भला इतना दाम होता है। देना है तो दो। नहीं तो मैं कहीं और से ले लूँगी। " 
मिंटू  के पास एक ग्राहक देखकर खुद्दन और पोपन जोर-जोर  से अपने मुँह  में फँसे हुए बाजे को बजाने लगे।
मिंटू को लगा वो ना देगा। तो हो सकता है। खुद्दन और पोपन दे दें।  बेकार में बारह बजे बोहनी हो रही है।  वो भी होते - होते रह जाये। 
" ले लो बहन चलो , पचास का ही ले ल़ो।  दो निकालो सौ रुपये। " 
खुद्दन ने मिंटू  और उस औरत  की बातें सुन ली थी।
खुद्दन मुँह का बाजा बजाना छोड़कर चिल्लाया -" खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो। पचास के दो। " 
औरत ने गरजू समझा -" बोली , पचास के एक नहीं दो दोगे। तब लूँगी। " 
" छोड़ दो बहन , मैं नहीं दे सकता। उस खुद्दन से ही ले लो। वही पचास के दो दे सकता है। मेरे बस की बात नहीं है। मैंं, आपको  खिलौने  नहीं दे सकता। " 
महिला खुद्दन के पास गई। मोल तोल किया। फिर वापस मिंटू  के पास आ गयी। 
" सही - सही लगालो भईया। खुद्दन पचास के दो दे रहा है। लेकिन उसके कुत्ते की सिलाई खराब है। धागा बाहर निकला हुआ है। नहीं तो खुद्दन से ही ले लेती।  " 
पोपन महिला और मिंटू  के करीब सरक आया था। उसने भी  दो तीन दिन से कुछ नहीं बेचा था। बरसात में तो लोग निकल ही नहीं रहे थे। पोपन के बच्चे भी घर में भूख से बिलबिला रहे थे। 
पोपन ने आवाज दी -" बढिया खिलौने , छोटे बड़े हर तरह के खिलौने। सस्ते बढ़िया खिलौने। खिलौने  ले लो खिलौने । पचास के दो खिलौने । " 
महिला पोपन की तरफ मुड़ी। लेकिन फिर आधे रास्ते से लौट गई। 
मिंटू  से बोली -" लगा दो पचास के दो खिलौने । तुमसे ही ले लूँगी। "
मिंटू खीज गया। उसने सोचा इस बला को किसी तरह टाला जाये। मुस्कुराते हुए बोला -"  दो बहन तुम पचास रूपये ही दे दो। "
महिला ने फोन निकाला -" लाओ अपना क्यू आर कोड दो। "
"क्यू आर कोड। "
" हाँ , पैसे किसमें लोगे। मोबाइल नंबर  बताओ। उसमें डाल दूँगी। आजकल पैसे लेकर कौन चलता है।  लाओ दो जल्दी करो।  मुझे जाना है। " 
" क्यू आर कोड तो नहीं है। मैं मोबाइल नहीं रखता। " 
" आँय। " 
" इस डिजीटल युग में भी ऐसे लोग हैं। जो मोबाइल नहीं रखते। अच्छा तुम्हें अपना या अपने किसी  परिचित या किसी रिश्तेदार का मोबाईल नंबर या खाता नंबर याद है। उसमें ही डाल देती हूँ। " 
" मेरे पास कोई बैंक का खाता नहीं है। हम गरीब लोग हैं l  आज खाते हैं , तो कल के लिये सोचते हैं। हमारा  वर्तमान ही नहीं होता है। तो  भविष्य कैसा ? हाँ हमारा अतीत जरूर होता है।  लेकिन बहुत ही खुरदरा होता है, बहन l बहन , हम बँजारे लोग हैं। हमारा ये काम सीजनल होता है।  महीने -दो- महीने  दुर्गापूजा , दीपावली,  छठ तक हम लोग ये प्लास्टिक के खिलौने बेचते हैं। फिर कारखाने में लौट जाते हैं। वहाँ काम करने लगते हैं। "  
" लो ,तुम यहाँ हो स्वीटी। मैं तुम्हें माॅल के इस कोने से उस कोने तक ढूँढ़ता फिर रहा हूँ। " ये आदमी उस महिला का पति जैसा लग रहा था। 
" अरे , आप आ गये। देखिये इसके पास मोबाइल भी नहीं है। मुझे पेमेंट करनी है। और क्यू आर कोड भी नहीं है, इसके पास।  इस डिजीटल होती दुनिया में ऐसे - ऐसे लोग भी हैं।  सचमुच बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसे लोगों को देखकर मुझे। आज भी ऐसे लोग हैं, हमारे देश में। हमारा देश ऐसे लोगोंं के चलते ही बहुत पीछे है। छोड़ो मैं भी किन बातों में पड़ गई। ये यू. पी. आई. नहीं ले रहा है। पचास का नोट दो। दो खिलौने लिये है इससे।  है, तुम्हारे पास पचास रूपये , खुल्ले। "

महिला के पति ने जेब से पर्स निकाला। और खोज- खाजकर कहीं से ढूँढ़ -ढाँढ़कर पचास का नोट निकालकर दे दिया। 
फिर , उस महिला से बोला -" ऐसे तो कम-से-कम तुम मत इसको बोलो। बहुत से लोग हैं।  जिनके पास मोबाइल खरीदने तक के पैसे नहीं है। और मोबाइल खरीद भी लें। तो डाटा कहाँ से भरवायेंगे।  सब लोग तो सक्षम नहीं ना होते। "
महिला -" डिस्कसटिंग मैन । " 
मिंटू समझ नहीं पाया। 
महिला अपने पति से बोली  - "  अर्णव के जन्मदिन पर आपने क्या लिया। " 
पति ने पाॅलीबैग से एक मिंटू के साइज से थोड़ा सा बड़ा साइज का एक कुत्ता निकालकर दिखाया। 
"  अरे वाह ये तो बहुत प्यारा है।  अर्णव बहुत खुश हो जायेगा। "
" कितने का लिया। " 
"  अरे छोड़ो जाने दो। " 
" बताओ ना।  " 
" ढाई सौ का। " 
महिला की  नजर मिंटू  से एक बार मिली । लेकिन महिला ज्यादा देर तक मिंटू  से आँख ना मिला सकी। 
मिंटू  के चेहरे का भाव कुछ यूँ था। मानो कह रहा हो।   कि हम शाॅपिंग माॅल वालों की तरह नहीं  ठगते ।
" देख लिया , बहन। हमलोग आपको ठगते नहीं। बस पेट पालने के लिए ही खिलौने बेचते हैं। कहाँ पचास के दो कुत्ते। और कहाँ ढाई सौ का एक ! " मिंटू  के स्वर मे़ व्यंग्य था। 
महिला  मिंटू का सामना बहुत देर तक ना कर सकी l। दौड़कर गाड़ी में जाकर बैठ गई। 
पति , मिंटू  से -"  अच्छा यंगमैन चलता हूँ। फिर मिलेंगे। " 
मिंटू  मुस्कुराया। 
 उस औरत के जाते ही मिंटू  के सारे खिलौने बिक गये। और छ: सात सौ रूपयों की अच्छी  खासी बिक्री हो गयी थी । वो दोपहर में खाना खाने के लिये अपने घर  जाने लगा। तभी उसको ख्याल आया कि  कुछ सौदा भी घर लेकर जाना है। वो गुड्डू के यहाँ जाना चाहता था। लेकिन उस बेईमान आदमी को याद करते ही उसका मन अंदर से घृणा से भर उठा  ।
वो जीतू के यहाँ चला गया। और बोला भाई जीतू -"  आटा कैसे दिए। " 
" तीस रूपये किलो। " 
" सरसों तेल ? " 
" एक सौ अस्सी रूपये किलो। " 
" अरे भाई , क्यों लूट मचा रखी है। अभी सप्ताह भर पहले ही तो  डेढ़ सौ रूपये किलो था। फिर अचानक से आज एक सौ अस्सी रूपये किलो कैसे हो गया? भला एक सप्ताह में इतना दाम  बढ़ता है । " 
." एक सप्ताह छोड़ दो भाई। यहाँ रोज दाम बढ़ रहे हैं। " 
" और रहड की दाल का क्या भाव है ? " 
" एक सौ साठ रूपये किलो l " 
मिंटू ने मन -ही मन-हिसाब लगाया। अगर एक किलो सरसों का तेल , एक किलो आटा , और एक किलो दाल ली जाये तो तीन चार सौ रूपये तो ऐसे ही निकल जायेंगे। छुटकु  बीमार है।  पहले उसको डाॅक्टर के पास दिखला लेना चाहिए। फिर राशन के बारे में विचार किया जायेगा।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

"सर्वाधिकार सुरक्षित 
महेश कुमार केशरी
 C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो 
बोकारो झारखंड 
पिन 829144 

(2)कहानी 
बदलाव
"""""""""""""""""""""'""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

" मयंक  आ रहा है। उससे पूछो उसके लिए क्या बनाऊँ। फिश करी , हिल्सा  मछली , या चिकन करी , या मटन बोलो दीदी। उसको क्या पसंद है ?  उसको तो नाॅनवेज बहुत पसंद है ना ?  चिकेन करी बनाऊँ।  " कादंबरी ने हुलसते हुए मोनालिसा से पूछा। 
" अभी मयंक तो तेरे पास अगले सप्ताह ही जायेगा, ना । तुमने  इतनी जल्दी  भी तैयारी शुरु कर दी।  अभी उसके पापा का  सीजन का  टाईम है। कोई ठीक नहीं है।  मयंक जाये - जाये। ना भी जाये नानी के पास।  अभी मयंक के पिताजी से बात नहीं हुई है। " 
" फिर भी दीदी।  " 
" ठीक है, मैं इनसे बात करके देखती हूँ। मान गये तो ठीक। नहीं तो मयंक को जब छुट्टी होगी। तो देख आयेगा नानी को।  और तुमसे भी मिल लेगा। " 
" माँ ,बीमार है दीदी। और तुमको तो पता है कि नानी मयंक को कितना स्नेह या दुलार करती है। बेचारी को कितनी आशा है कि मयंक और तुमलोग उससे मिलने आओगे। और फिर तुम लोगों को तो घर -द्वार , काम-काज और , बाल - बच्चों से कभी फुर्सत नहीं मिलती है ना। ये सब तो जीवण भर लगा ही रहेगा। आखिर , माँ-बाप को चाहिए ही क्या ? उसकी  औलादें बूढ़ापे में आकर उसका हाल - चाल लें।  लेकिन‌ किसको कहाँ समय और फुर्सत है। सब लोग दुनियादारी में व्यस्त हैं। और माँ- बाप उनकी तरफ टकटकी लगाये ताक रहें हैं।  सोचते हैं कि बच्चों को फुर्सत होगी तो एक नजर उनको आकर देख लेंगे।  माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ माँगते थोड़ी हैं। बस इतना चाहते हैं। कि वे उनका हाल - चाल ले लें। थोड़ा बहुत करीब बैठकर बातचीत ही कर लें। इतना ही उनके लिया बहुत है।  खैर , मैं तुमसे बहुत छोटी हूँ ।  तुमको भला क्यों समझा रही हूंँ ? तुम भी तो बाल - बच्चों वाली हो।  तुम्हें भी तो भला इसकी समझ होगी। " कादंबरी का गला भींगने लगा था। भावुक तो मोनालिसा भी हो गई थी।  वो भी तो जड़ और निपट गँवार हुई जाती है। इस घर और गिरस्ती के फेर में। आखिर क्या करे वो भी। सुबह की उठी -उठी रात कहीं ग्यारह-बारह बजे तक उसको आराम मिलता है। फिर घर में चार - पाँच बजे से ही खटर-पटर चालू हो जाती है। बीस - पच्चीस साल इस घर गिरस्ती को जोड़ते हुए दिन पखेरू की तरह उड़ गये।  मयंक के पापा को दुकान जाने में देरी हो रही थी।
वो बैठक से नाश्ते के लिये आवाज लगा रहे थे। 
" अरे नाश्ता बन गया हो तो दे दो। मुझे जल्दी से निकलना है। अगर देर होगी तो कह दो। बाहर जाकर ही कर लूँगा।  " नरेश जी की आवाज मोनालिसा के कानों में पड़ी।  ये आवाज फोन के स्पीकर से कादंबरी क़ो भी सुनाई पड़ी। 
कादंबरी बोली -"  दीदी,  मयंक को फोन दो ना। उससे ही पूछ लेती हूँ। उसको जन्मदिन पर क्या खाना पसंद  है। " 
" हाँ ,ये ठीक कहा तुमने।  देती हूँ मयंक को फोन।  ठीक भी रहेगा। मौसी समझे और मयंक समझे। मम्मी को भला क्या मतलब। लेकिन , सुनो मैं ठीक -ठाक तो नहीं कह सकती।  लेकिन , मयंक के पापा भी अगर हाँ कहेंगे। तभी मैं मयंक को तुम्हारे पास उसके जन्मदिन पर उसको भेजूँगी। तुम्हें 
तो पता है। सर्दियों के मौसम में गद्दे- कंबल और रजाई की बिक्री दुकान में कितनी बढ़ जाती है। दो- तीन आदमी अलग से रखने पड़ते हैं।बाबूजी से हाँलाकि कुछ नहीं हो पाता। तब भी वो गल्ले पर बैठते हैं। दो -तीन लोग हर साल हम लोग बढ़ाते हैं।लेकिन काम हर साल जैसे बढता ही चला जाता है। " 
" काम कभी खत्म होने वाला नहीं है , दीदी। आदमी को मरने के बाद ही फुर्सत मिलती है। दीदी मयंक को फोन दो ना । " 
मोनालिसा  ने मयंक को आवाज लगायी -" बेटा मयंक मौसी का फोन है। "
मयंक चहकते हुए किचन में आकर कादंबरी से बात करने लगा -" हाँ, मौसी। " 
" तुम आ रहे हो ना अगले सप्ताह।  उस दिन तुम्हारा जन्मदिन भी है। बोला खाने में क्या बनाऊँगी। चिकन करी , मीट या मछली, । " 
" जो तुम्हें अच्छा लगे मौसी बना लेना। " 
कुछ ही दिनों में सप्ताह खत्म होकर वो दिन भी आ गया। जिस दिन मयंक को मौसी के यहाँ जाना था। मयंक ने सुबह की बस ली थी। रास्ते भर वो आज के खास दिन को वो याद करके रोमांचित हो रहा था। सब लोगों ने उसको  बधाई संदेश भेजा था।  दोस्तों ने। माँ - पापा बड़े भइया और लोगों ने भी। दादा -दादी ने भी उसके लालाट को चूमा था। उसको आशी दीदी ने तो निकलते समय उसकी आरती करी थी। उसको रोली का टीका और अक्षत लगाया था।  और फिर उसको यात्रा में निकलने से पहले उसके मुँह में दही-  चीनी खिलाकर विदा किया था। दोस्तों से भी उसको बधाई संदेश सुबह से मिलते आ रहे थे। वो सुबह उठकर सबसे पहले दादा- दादी के कमरे में गया था।  जहाँ उसने अपने दादा दादी से आशीर्वाद लिया था।  और उसके बाद उसने माँ - पापा का आशीर्वाद पैर छूकर लिया था। सब लोग बड़े खुश थे। नाश्ते में उसने खीर - पुडी , और मिठाई खाई थी। ठंड की सुबह धूप भी बहुत मीठी - मीठी लग रही थी। घर के सब लोगों ने उसकी यात्रा सुखद और शुभ हो इसकी कामना की थी। दरअसल वो अपनी मौसी से मिलने और अपनी नानी को देखने के लिए शहर जा रहा था।  उसकी नानी बीमार चल रही थी। नानी को बडा मन था। कि मरने से पहले वो मयंक को एक बार देख लें। वो  मयंक के माँ से  बार बार कहतीं की मेरी साँसों का अब कोई आसरा नहीं है।  ज्यादा दिन बचूँ - बचूँ ना भी बचूँ। इसलिए मयंक को और तुम लोगों को एक बार देख लूँ। तुम मयंक को एक बार मेरे पास भेज दो।  और समय निकालकर एक बार तुम लोग भी आकर मुझसे मिल लो। पता नहीं कब मेरा समय पूरा हो जाये।  मयंक की सेवा उसकी नानी ने बचपन  में खूब की थी।  नानी से मयंक को कुछ खास लगाव भी था। वो अपने ननिहाल में सबसे छोटा भी था। बस चल पड़ी थी।  खिड़की से खूबसूरत मीठी धूप मयंक के चेहरे पर फैल रही थी। कत्थई स्वेटर पर धूप पड़कर मयंक के शरीर को एक अलहदा से सुकून पहुँचा रही थी। अभी उसका सफर भी बहुत लंबा था।  मीठी धूप और स्वेटर की गर्मी ने मयंक को अपने आगोश में ले लिखा था।  मयंक अपने बचपन में चला गया था । उसका ननिहाल, उसके गाँव के घर में नानी छोटे - छोटे चूजे पालती थी। नन्हें - नन्हें चूजे एक दूसरे के पीछे भागते तो मयंक उनको हुलस कर देखता। वो अपनी थाली की रोटी और कभी चावल के टुकड़े नानी और माँ - मौसी से छुपाकर उन चूजों को खिला देता। उसके शहर वाले घर में एक मछलियों से भरा पाॅट था। उसमें मछलियों को तैरते देखता तो उसे बड़ा अच्छा लगता।  देखो लाल वाली मछली आगे तैरकर काली वाली मछली से आगे बढ़ गई है। औरेंज वाली मछली कैसे  बहुत धीरे -धीरे चल रही है। अचानक से बस कहीं झटके से रूकी और मयंक की नींद खुल गई।  उसका स्टाप आ गया था। मयंक बस से नीचे उतरा। तो उसको वही छोटे- छोटे चूजे और पाॅट की मछलियों की याद आने लगी। एक बारगी वो बड़ा होकर भी अपने बचपन को याद करने लगा। उसको वो आगे - पीछे भागते रंग - बिरंगे चूजे बहुत प्यारे लगते थे।  उसको पाॅट की रंग - बिरंगी और एक दूसरे के आगे -पीछे भागती हुई मछलियाँ भी बहुत भाती थी। वो सोचने लगा आज कितना शुभ दिन है। आज उसका जन्मदिन है।  और आज वो उन चूजों को उन रंग - बिरंगी मछलियों को खायेगा। अपने जन्मदिन पर वो किसी की हत्या करेगा। इस शुभ दिन पर। नहीं - नहीं वो ऐसा बिल्कुल नहीं करेगा।  वो आज क्या कभी भी अब किसी जानवर की हत्या केवल अपने खाने -पीने के लिये कभी नहीं करेगा।  नहीं -नहीं ऐसा वो बिल्कुल भी नहीं करेगा।  बल्कि आज क्या वो आज से कभी- भी जीव की हत्या नहीं करेगा। चूजों के साथ - साथ उसे नानी  भी याद आ गयी। वो कुछ सालों पहले एक बार नानी से मिला था। नानी के पैर अच्छे से काम नहीं कर रहे थे। वो बहुत धीरे - धीरे बिलकुल चुजों की तरह चल रही थी। रंग- बिरंगी  मछलियों की तरह रेंग रही थी। 
मयंक के आँखों के कोर भींगने लगे। उसने रूमाल निकालकर आँखों को साफ किया। 
फिर फोन निकालकर कादंबरी मौसी को लगाया -" मौसी , आप पूछ रही थीं ना कि मैं , मेरे जन्मदिन पर क्या खाऊँगा।  "
" हाँ , मयंक तुम इतने दिनों के बाद हमारे घर आ रहे हो।  तुम्हारी पसंद का ही आज खाना बनेगा। तुम्हारे मौसाजी  ,मछली या चिकन लेने के लिए निकलने ही वाले हैं। बोलो बेटा क्या खाओगे ? आज तुम्हारी पसंद का ही खाना बनेगा। "
" मौसी मेरी बात मानोगी। आज मेरा जन्मदिन है। और मैं अपने जनमदिन पर किसी की हत्या नहीं करना चाहता। और अपने ही जन्मदिन क्यों बल्कि किसी के जन्मदिन पर भी मैं किसी की हत्या करना या होने देना पसंद नहीं करूँगा।  आज से ये मैं प्रण लेता हूँ। कि, कभी भी अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी जीव - जंतु की हत्या नहीं करूँगा। " 
दूसरी तरफ कादंबरी सकते में थी। उसको कोई जबाब देते नहीं बन रहा था। 
उसने फिर से एक बार मयंक को टटोलने की गरज से पूछा-" अच्छा ठीक है। आज भर खा लो। तमको तो पसंद है ना नानवेज। अपने अगले जन्मदिन पर अगले साल से मत खाना।  " 
" नहीं मौसी। मैनें आज से ही प्रण लिया है। कि मैं अब अपने स्वाद के लिये किसी जीव की हत्या नहीं करूँगा। " 
" ठीक है , तब क्या खाओगे ? " 
" खीर - पूड़ी ..। "  
" ठीक है , तुम घर आओ , नानी से मिलो।  तुम्हारे लिये खीर पुड़ी बनाती हूँ।" 
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
सर्वाधिकार सुरक्षित 
सर्वथा  मौलिक और अप्रकाशित 
महेश कुमार केशरी
 C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो 
बोकारो झारखंड
 पिन 829144  
(3)कविता 
भटियारीन  लड़की और उसकी देह की गंध
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
एक बार मैं जँगल में भटक गया था ..
जिस समय वो भटियारीन मिली थी..

मैं शाम को भटका  था ..उस जँगल में ..
जहाँ वो भटियारीन  मुझे ..मिली थी 
ढलते सूरज के साथ अँधेरा बढ़ने लगा था ..

भटियारीन  बोली बाबू जँगल बहुत घना है 
और रात में खूँखार भी हो जाता है ..
भेंड़िये,  शेर ,  चीता सब जँगल में घूमते हैं ..

रात को यहीं रूक जाओ.वो रात बहुत काली थी l ..
सिगड़ी धुँआ रहा था ..भटियारीन  लड़की मछली 
पका रही थी ..

मैनें पूछा तुम क्या करती हो ..उसने झाड़ियों  के 
पीछे एक छोटी सी नाव दिखाई 
बोली इससे ही 
 मुसाफिरों को इस पार से उस पार ले जाती हूँ. .
मेरी माँ बहुत गरीब थी 
मेरे पिता मुझे , मेरे भाई 
बहन को  छोड़कर सालों पहले चले गये ..

जिस दिशा में पिता आखिरी बार गये थे ..माँ , 
पिता को ढूँढ़ने सालों जाती रही ..
लेकिन,  पिता 
नहीं लौटै ..लेकिन‌ माँ ,उन्हें  रोज ढूँढ़ने वहाँ  जाती
 थी ..! 
कुछ दिनों बाद वहाँ पिता की लाश मिली थी ..
लेकिन, माँ ने यह कहकर नकार दिया ..था , कि 
नहीं ये  तेरे पिता ..नहीं हो सकते ...
एक दिन 
पिता का इंतजार करते- करते माँ भी चल बसी ..

वो लाश मेरे पिता की ही थी ..
बावजूद इसके मेरी माँ ,मेरे पिता को ढूँढने रोज जाती थी ..
मैं , और मेरे भाई बहन रोज ये सवाल बार - बार 
माँ से  पूछते कि पिता कब आयेंगे. .? 
लेकिन‌ 
माँ हर बार यही कहती की एक ना एक दिन 
जरूर तुम्हारे पिता उसी जगह से वापस आयेंगें 
जहाँ से वो गुम हुए थे ..

सचमुच बच्चों को ये बताना बहुत मुश्किल  होता है
 कि तुम्हारे पिता अब कभी नहीं आयेंगे ..! 
ऐसा माँ ने कभी नहीं कहा 
माँ की आँखे पथरा गईं थी ..
लकिन , माँ के आँखों से आँसू कभी नहीं 
निकले ..
माँ रोयेगी तो बच्चे भी रोने लगेंगे ..
फिर इस नदी की तरह का ही वेग उठेगा 
जिसमें माँ की आँखे भी बरसने लगेगी ...

मछली जब बन गई तो उसने मुझे सखुए के 
दोनों में खाने को दिया 
मछली  स्वादिष्ट थी ..
सामने सखुए के पत्तल मे भात सखुए के दोने 
से ढककर रखा था ..
लड़की भात भी खा रही 
थी ..
मुझसे  पूछा - पहाड़ी चावल का भात 
.खाओगे ..? ..मेरा जूठन भी है ..मैं दिनभर 
जँगल में चलते हुए भूख और थकान से निढाल 
हो गया था ...
मैनें हाँ में सिर हिलाया ..
मैं ,
भटियारीन लड़की की जूठन और पहाड़ी भात खा 
रहा था ....

रात अब अलसाने लगी थी 
शायद रात का वो 
तीसरा पहर था l
भटियारीन का दर्द उभर आया 

दिन भर चप्पू चलाते - चलाते मेरा शरीर 
थक जाता है ..इसलिये महुआ चुनती हूँ 
और शराब बनाती हूँ. .पिओगे महुए की शराब ..! 
भटियारीन हुलस रही थी ! 
उसने मिट्टी के बर्तन में भरा 
 शराब मेरे ग्लास में 
उड़ेल दी ...
मैं , और वो भटियारीन लड़की 
सारी रात शराब पीते रहे ..

लड़की बोली देखो मेरे पास पैसे नहीं हैं , 
मेरे बालों में सफेदी आने लगी है..

रौशनी  में भटियारीन लड़की  का चेहरा रूँआसा 
हो गया था ..
झींगुरों की शोर एक संगीत पैदा कर रही 
थी ..
भटियारीन लड़की की आँखों में आँसू झिलमालाने 
लगे..
मैनें कहा मैं उम्र में तुमसे बहुत छोटा हूंँ...
भटियारीन लड़की मानने को तैयार नहीं थी ..
उसकी छातियाँ आवेग से  ऊपर-नीचे हो रही थीं ! 
शराब की तरह उसके शरीर में एक मादक गँध 
थी ..
मैं उस मादक गँध में बहुत भीतर धँसता चला 
गया ..
.उसकी धड़कनों को मैं सुन रहा था ..
और रात वहीं ठहर ग ई थी !
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""'
 महेश कुमार केशरी
 C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो
 बोकारो झारखंड 
पिन 829144 

माटी दीया संवार

        
माटी ले तन,माटी ले धन,माटी ले उजियार,माटी दीया संवार।
बाती बरथे,तेल सिराथे,माटी महिमा अपार, देये दियन अधार।।
पानी ले सुग्घर दीया सिजोये,घीव तेल बने बाती भिंजोये।
रिगबिग-सिगबिग,जुगुर-जागर, देवय सुरुज ल उजियार।।

सबो मनखे माटी के दियना,होवय जी धरम करम सिंगार।
देहरी के दियना,देस खातिर देवय,उँहा सरहद म हुंकार।
बलिदानी जोत जगमग-जगमग,कभू न जेकर डोले पग।
किसन के बड़े भइआ हलधरिया,कहावय माटी के सिंगार।।

मनभावन गजब सुहावन लागय,धन तेरस पहिली तिहार।
सबो के तन मन फ़रियर हरियर,धन्वन्तरी  पूजन दिन वार।।
सब कहिथे धन के तीन गति,खुवार घलो जब नास मति।
शुभता बर सद् बर घर परिवार बर,सगरो जगत बर वार।।

मान बचाये बर कान्हा करिन,बलखरहा नरकासुर संहार। 
सोलह हजार गोपियन के लहुटिस,रूप चौदस सोला सिंगार।।
सुरता लमईया के रक्षा होथे,वईसन पाबे तंय जईसन बोबे।
ग्रह नक्षत्र एकजुवरहा बीरसप्त,का कहिबे टोर भांज शुकरार।।

चिन चिन्हारी मीत मितानी संग हांसत गावत परब तिहार।
लेय-लेय मा कतेक सुलगही,देव"वारी"के दीया ल बार ।।
लक्ष्मी मईया किरपा करही,अन-धन कोठी कुरिया भरही।
अनचिन्हार देहरी ल देवन ,बस एक ठिन"दीया" के उजियार ।।
           रोशन साहू 'मोखला' राजनांदगांव
                   7999840942


सरहद की बात


सर गिराए मैंने इतने !
तुमने काँटे  कितने?
सरहदों में बस बात यही।
टूट पडूँगा कल देखना
भले यह अंतिम रात सही।
सीने में निशान तिल का है,
गर बम के ज़द में आ जाऊँ।
और निशानियाँ याद रहे
सुन यारा ! गर मिल पाऊँ।
पता क्षत-विक्षत अंगों को,
पन्नियों में समेटा जाता ।
कभी सिर न मिल पाते तो 
पाँव कभी न मिल पाता।
खंदक में कईयों दिन तो
दलदल में कई -कई रातें।
बनती अंत में वर्दी कफ़न ,
हिमखण्डों में जिंदा दफन।
राष्ट्र प्रथम , घर अंतिम
बस ऐसी ही कुछ बातें।
जूनून जज़्बा तब आता,
जीने की आरजू मारा जाता।
आँसू लेने जन-जन खड़ा ,
तब महान वह देश बड़ा।
तूने कहा यही यकीनन
आखिर अन्तिम बात यही।

          रोशन साहू "मोखला" राजनांदगांव
                   7999840942


नवीन माथुर की ग़ज़लें

 ग़ज़लें

1
यूँ  सलीक़ा  लिए  पैगाम  दिया जाता है।
नाम जो रोज़  सुबह शाम लिया जाता है।

काम वह क़ाबिले तारीफ़ हुआ करता  है,
जो सही वक़्त पर अंजाम दिया जाता है।

चाँद  ही वक़्त-बेवक़्त  निकलता  है मग़र,
बेवज़ह  रात को  बदनाम  किया जाता है।

जी  रहें  हैं जताकर लोग सब हस्ती अपनी,
इक भला शख़्श क्यों गुमनाम जिया जाता है।

आप भर जायेंगे  वो ज़ख़्म सारे चोटों के,
हाल  ही क्यों इन्हें मुद्दाम  सिया जाता है।
2
हो  गई  कौन सी  गल्तियाँ।
लग गई आप पर सख़्तियाँ।

कुछ हवाएँ  चली और फिर,
सब कहाँ खो गई  कश्तियाँ।

रास्ता  जब  हुआ   घूमकर,
कट गई  राह   से  बस्तियाँ।

इक ज़रा सी  हुई  भूल क्या,
लोग  कसने  लगे  फब्तियाँ ।

आप-अपनें  कभी भूलकर,
रास  आई  नहीं   मस्तियाँ ।
3
रोज़ से कुछ आज़ थोड़ा है अलग।
रात  का  अंदाज़  थोड़ा  है अलग।

है   सफ़ेदी  आसमाँ  पर  दूध   सी,
चाँद  का  एजाज़  थोड़ा  है  अलग।

है  शरद  की  रात  इतनी ख़ुशनुमा,
जश्न का  आगाज़ थोड़ा  है  अलग।

कौन ,कितना  देखकर  समझा करे,
आज  इसमें  राज़  थोड़ा  है अलग ।

इस  ज़मीं  के  साथ चलता - घूमता,
एक  ये    हमराज़  थोड़ा  है  अलग।

लाख   होंगे    ख़ूबसूरत    और   पर ,
आज  इसपर नाज़  थोड़ा  है अलग,
  4              
कभी जब बात नीयत  की रहेगी ।
ज़रूरत   आदमीयत  की  रहेगी।

रहेगा   भाईचारा    जब   घरों  में,
नहीं मुश्क़िल वसीयत  की  रहेगी।

हमेशा  जीत  लेगी दिल सभी का,
शराफ़त  जो  तबीयत   की रहेगी।

निभाई  जाएगी  अक़्सर वही  तो,
रिवायत  जो  जमीयत की  रहेगी।
  5                 
तन्हाइयों  को  दर्द  से  फ़ुरसत नहीं  मिली।
शहनाइयों को सोज की क़ीमत नहीं  मिली।

सच की लड़ाई जब चली उन पैतरों के साथ,
अंज़ाम को जज़्बात  से  हिम्मत नहीं मिली।

उसका सभी के साथ था अच्छा गुज़र-बसर,
लेक़िन उसे इस बात की इज्ज़त नहीं मिली।

कहता रहा  है  ताज वो इक बात आज तक,
सबको यहाँ  मुमताज़ सी चाहत नहीं मिली।

कैसे   करेगा  पास  वो  फाईल  यूँ  आपकी,
अफ़सर जिसे उस काम की रिश्वत नहीं मिली।

बारात में  शामिल  हुए   जितने  सगे    यहाँ,
नाराज़ हैं वो सब जिन्हें ख़िदमत नहीं  मिली।

कसरत नहीं, योगा नहीं , डर खान-पान का,,
पैसा  कमाया  लाख पर  सेहत  नहीं  मिली।

इतना इसे, उतना उसे, जितना लिखा मिला,
सबको जहाँ में एक सी क़िस्मत नहीं मिली।
         ------------नवीन माथुर पंचोली
                    अमझेरा धार मप्र
                        मो 9893119724
               


बुधवार, 27 नवंबर 2024

गरुवा कइसे छेकाही



चार बोरी धान ला

कोनो चोरात पकड़ाही

त ओकर का हाल होही?

आन के खेत के धान उररत

पकड़ाही तेखर का हाल करहीं?

पाके धान ला,पेल के गरुवा

कोरी-कोरी दिन भर चरत हे

का करबे किसान?

ऐति ओती खेत

कए जगह ला घेरिन?

दिन रात चराई,

धान जागे ले,धान लुवात तक

चरत हे गाय बइला

नइहे कोनो उपाय?

ऐति खेद,ओती खेद

जी हा हलकान

कोन दिही 

सबले बड़े समस्या मा ध्यान

बड़े आदमी मन के मिल घर

रुँधाए भिथिया मा

उनला का हे मतलब

कतको बोई धान

होवत हे उजार

उत्पादन कइसे दिखही 

क्विंटल आँकड़ा मा

आधा ले जादा चर देत हे

आखिर कब तक चलही चराई

कब होही छेका

कागज मा बड़े-बड़े गोठ

कोन ला बताई अपन दुःख

कइसन हे कानून

अपने अपन कल्लात रही

आँखी के आघू 

गरुवा धान ला खात रही

अउ सड़क मा पगुरावत गरुवा

बोजात मनखे,पावत मउत

का कही रे....

राजकिशोर धिरही

बिना हथियार नहीं कटे खुशियार


हाथ में नई हे हथियार 

काटे ल चलीस खुशियार 

कोन जनी

कईसे काटही

झिकत हे

पूदकत हे

कपड़ा निचोय कस 

अईंठत हे 

गठान पिचकोलावत हे

मिट्ठा रसा चुचवावत हे

रसा सनात हे माटी में

पिरा उठत हे छाती में 

मान के हो गे मरदन

कसाय कस लगत हे गरदन 


बोले रिहिस

ला लेबे दु-चार

चूहके बर

जीव के होगे काल

बेंदरा कस होगे हाल

बंद कर के मुठ्ठी पा नई सके

आगू मे रखे चना

खा नई सके

ये बात ल जान जथे होशियार

बिना हथियार

नई कटे खुशियार।


रवि यादव "झोंका"

श्यामपुर "छुईखदान"

के.सी.जी.

शनिवार, 23 नवंबर 2024

रखिया बरी


उरिद दार मा रखिया डार।

खोंटत जावँय मिल परिवार।।

बाढ़े जब सब्जी के दाम।

आय बरी हा तभ्भे काम।।


बरी बनावव रखिया लान।

हे सब्जी मा येखर शान।।

छेवरनिन ला अब्बड़ भाय।

उपराहा जी भात खवाय।। 


राँधव आलू मुनगा डार।

सुग्घर झट ले भूँज बघार।।

सबके ये हा मन ललचाय।

पहुना मन के मान बढ़ाय।।


रहिथे रखिया गोल मटोल।

हावय भारी येखर मोल।।

बेंचावय गा हाट बजार।

ले आवव सब छाँट निमार।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम-  चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

झरझरहिन बहू



बेरा उवे के पहिली घर दुवार  अँगना म बिहनिया के खरहारा बाहरी के धुन मगन कर देथे l खरर खरर खरर... I 

बाहिर के कचरा के सफाई होथे 

बिहनिया ले उठ के पहली काम सेवती इही करथे l

गऊ कोठा के सफाई  गोबर कचरा घलो खरहारा  ले होथे खरर खरर के धुन बढ़िया लगथे बिहनिया बिहनिया l ए काम ल लछमी करथे l 

सेवा राम के दूनो बहू कमईलीन फेर सुभाव अलग अलग l घर भीतरी कलर कलर 

बात बात म  कोर कसर.. I 

सेवती गोठकाहरिन अउ लछमी फटकाहरीन l

सेवती के गोठ ला लछमी नई सुनय अउ लछमी के फटकार ल सेवती नई सह सकय l  एक दूसर के गोठ बात मिरचा के झार अस लगथे l 

सेवा राम के धर अइसने तना तनी म चलत हे l दूनो ला "झरझरहिन "कहय l बूता करत करत एक दिन लछमी के हाथ हंसिया म कटागे साग पउलत पउलत l

सेवती देख़त कहिस -" काला पऊलत  रहे  हाथ ला पउल डरे l" गोठ काहरीन  मन के आदत   लम्बा ओरियाके के सुनाना l फेर कहिथे -" कुंदरू गतर बर 

तोर चेत तो अन्ते तंते रहिथे l"

लछमी हाथ ला फटकारत -"

जतका के हाथ नई कटाये हे मोर झरझरावत हे,लहू मोर निकलत हे तोर का पिरावत हे l मोर डउका कुंदरू रहे अपन डउका ला देख जा बने कोहड़ा अस पेट ला निकालत हे बने भूंज भूंज के खवा l" दूनो झन के इही सब  पचंतर पटंतर

हटकार फटकार ला  सुन सेवा राम कहिथे -" ए का गोठ करथव बहू?

झार डरेव अन देखनी म मर गेव l पटपटही झरझरा बहू का मिलिस बात बात म ओखी खोखी ला खोजत रहिथव l कुंदरू कोहड़ा के भरोसा म तीन परोसा झेलत हव l मोर बेटा मन ला भुंजत पउलत हव l का सीख के आये हव अपन मइके ले?  मया देखाये ला छोड़ के  भड़भड़ाए म नीक आथे l "

सोनार के सौ घा लोहार के एका घा l सेवा राम ससुर के फटकार  ल सुन दूनो के होश आगे l


-मुरारी लाल साव 

कुम्हारी

मंगलवार, 19 नवंबर 2024

धुड़मारस गांव

 धुड़मारस गाँव


दुनिया भर के तीन कोरी

सुग्घर पर्यटन स्थल मा

बस्तर के होवत हे नाव,

बस्तर के कांगेर घाटी भीतरी

सुग्घर हे धुड़मारस गाँव


किंजरइया मन

कांगेर अउ शबरी नदी मा

क्याकिंग(डोंगी)

बम्बू राफ्टिंग(बाँस के पटनी)

मजा लेवत रहिथे

जंगल सफारी के आनंद

आँखी के सुख

देवत रहिथे


सबो देश के पर्यटक जानही

धुड़मारस ला

अउ घूमे खातिर आही

गाँव के रुख राई हरियाली मेर

मूलवासी के पकवान खाही


गाँव वासी मन

मिहनत करके

पर्यटन जगह बनाए हे

सुपरस्टार गाँव

घूमे फिरे के जगह मा

अड़बड़ छाए हे


छत्तीसगढ़ के नाव ला

धुड़मारस गाँव हा बढोही

आही देशी,विदेशी पर्यटक

रोजगार के बीज घलो बोही


राजकिशोर धिरही

मेरे देश की माटी

 मेरे देश की मिट्टी (अतुकांत कविता)



जिस मिट्टी पे जन्म लिए थे,

सरदार भगत, आजाद जी ।

नित मैं अब गुणगान करूँ,

मेरे देश की मिट्टी की ।।


खेले खुदे इसी मिट्टी में,

गौतम बुद्ध, बाबा साहेब ।

चंदन जैसा पावन हो गया,

इनकी चरणों की घुली से ।।


प्राण त्याग दिए जो अपने,

मिट्टी की आन की खातिर ।

नित जय जयगान करूँ,

मेरे देश की मिट्टी की ।।


मेरे देश की मिट्टी उगले,

कोयला, सोना, चाँदी ।

इसके गर्भ में छुपा खजाना,

खनिज सम्पदा भरभर देती ।।


पर्वत, पठार है खड़े अविचल,

सरिता कल-कल बहती सदा ।

महक सौंधी-सौंधी सी फैली,

मेरे देश की मिट्टी की ।।


लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती,

युद्ध में अपनी सर कटा दी ।

वीरांगनाओं की इस भूमि को,

बारम्बार है नमन वंदन ।।


जननी से भी बढ़कर है मिट्टी,

अपनी गोद में रखे सम्भाल ।

वर्णन कर कलम थक गयी,

मेरे देश की मिट्टी की ।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम, चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

सोन चिरैया बनबो

 *"सोन चिरईया बनाबो''*

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चलो सोन चिरईया बनाबो,

हमर छत्तीसगढ़ महतारी ल।

चलो सोन........

हरियर हरियर कर देबो,

भाठा टिकरा, खेती बारी ल।

चलो सोन.......

ये धरती ह सोन उगलथे,

जब बोहाथे एमा पसीना।

धुर्रा माटी ह अड़बड़ नोहर हे,

अनमोल हे जइसे कोई नगीना।

मेहनत के पाठ पढाबो,

सुकवारो अउ इतवारी ल।

चलो सोन.... .

नांगर ले लकीर ल खींच के,

टोर के रख देबो जम्मो परिया ल।

करमा ,ददरिया खार म गाके,

बला लेबो गिंदरत बादर करिया ल।

बोरा भर भर पैदा करबो ,

धान गहूँ अउ ओन्हारी ल।

चलो सोन.......

जम्मो खनिज संपदा  भरे हे,

मोर छत्तीसगढ़ ह खजाना ए।

जेखर परसादे भेलाई जइसन,

कतरो बड़े बड़े कारखाना हे।

देश दुनिया म सामान बेचे बर,

खूब बढाबो अब पैदावारी ल।

चलो सोन......

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रचना:-जीवन चन्द्राकर"लाल''

       गोरकापार, गुंडरदेही(छ.ग.)

सिरिवास

 सिरिवास 


खड़बिड़खइया ल सुनके गुने "अतेक सुन्ना रद्दा मं कईसे अवाज़ आइस "धरारपटा गेंहे तं देखें गाँ के नऊ हं  कउहा के डारा मं फांसी ओरमे छटपटात रहे "ए ददा रे!!!!! पहिली जी धक ले करिस |ओकर आँखी ह बटरावत रहे हाथ गोड़ ल जान छूटे के पीरा मं छटपटात रहे अउ पचहत्थी मं किसाप कर डारे रहे,मोला सुरता अईस गुड़ी मं परऊ बईगा कहे रिस "जब कोनो ओरमत दिखे त ओला तरपौरी ल धर के उठा के बचाय के कोसिस करो अउ धीरे कस सरफांसी ल ढीला के उतारे के उधिम करा चऊर रही त बांच जाहि "मैं हं ओसने करें ,जी मोरो डरावत रिस हे  थाना कछेरी होही... फ़लाना फ़लाना  अचड़ा पचड़ा,फेर  जम्मो गोठ ल टार के ओला बंचाय के उधिम करें |भगवान के किरपा रिस ओला उतरें अउ खेत के मेड़ मं सुतांय झट के बोर ले पानी ला के पिंयाय,चीटिक बेर मं ओला होस आईस, मोला आघू मं देख के कहिस -"काबर बंचाय भईया ओरम के मरन काबा नी देहे अब जिनगी मं का धरे हे मोर कोनो नी ए ग, न पहिली सही सेलून मं कमई होय  ओखर ऊपर तीन तीन झन बाड़हे बेटी त मरे के सिवा अउ का चारा हे "मैं कहें -चुप असना नी कहे बुजा जीवन ले लड़े जाथे तोला असना हिम्मत हार के करत देख के बड़ गुस्सा अइस तभो तोला बंचाय ऐहा मोर धरम रिस हे,बात कमई के ओहर कमती जादा होत रथे जी असना जमो सोचतीस त आज संसार सुन्ना रतिस 

"एक चीज अउ बता? ते हं असने कर लेते ल तोर परिवार के का दूरगत होतिस का माथे जिसतिस  

"त मैं का करते संसार मोला सुन्ना लागिस "

मैं ओला फेर कहें -"तोर सरनेम सिरीवास असने नी ए सिरी के अरथ होथे लछमी अउ लछमी धन माने अउ वास माने होथे बसेरा एकर मतलब जेकर घर धन के डेरा रहे बसेरा रहे ओहर सिरीवास ए, देख कोनो सिरीवास हं मन लगा हे कमाही त ईमान के कहत हं ओहर नऊकरिहा ले जादा कमाही अउ सुख के रही जा के देख कोरबा मं तुंहर सगा मन ल कार मं किन्दरथे अउ लेंटर के घर मं रथे "

-"तै ए बात ल काबा नी सोचे फेर थोड़ा धंधा मं धीरज रखना चाही दीनू  सियान मन कहें हे -धीर मं खीर हे, थोकन धीरज धर समय बदलहि ग तोरो दिन आही भरोसा कर अपन सरनेम ल सार्थक कर ग असने बिरथा मत जान दे 

दीनू कलेचुप मोर गोठ ल सुनके मोला पहिली पोटार के रोइस अउ कहिस -"भईया आज तै हं मोर आँखी ल खोल देहे सही मं मोर आज के करनी ह मोर निर्बलता ल दरसात हे मैं अब असना करनी नी करा तोला बचन देत हं फेर तहूँ ह मोला वचन दे आज के घटना ल कहूं ल झन बताबे सब मोर ऊपर थूकहि 

मैं कहें -एक सरत मं -"तै हं सिरीवास नाव ल सार्थक करके बातबे मोला बड़ खुसी होही "

दीनू ह कहिस "भईया मै गऊकी कहत हं असने कर के देखाहं अउ कायर सही असना कदम सपना नी उठावा "

अभी थोर बेरा पहिली के मुरझाया चेहरा मं चमक आगे पनियाय आँखी ह बतइस आज ओला सिरीवास के मतलब पता चलगे अब ओहा लछमी ल अपन घर मं सदा के लिए बईठार के मानही 


प्रभात कुमार शर्मा

कोरबा नगर (छ. ग. )

शनिवार, 16 नवंबर 2024

तुलसी महारानी


देवारी,मातर अउ भाईदूज मनागे।

कार्तिक-एकादशी जेठउनी आगे।

        घरों-घर तुलसी चांवरा ल सजाय।

       कुसियार के डंगाल ले मड़वा छाय। 

तुलसी महारानी ल सुग्घर सजाय।

ये सालिग्राम संग म बिहाव रचाय।

       रंग-रंग के सुग्घर पकवान बनाय।

       तुलसी सालिग्राम ल भोग लगाय।

कोनों गऊ माता ल सोहई बंधाय।

ये सोहई बंधवाके खिचरी खवाय।

       सब लोगन रहय एकादशी उपास।

       सदा रहय घर म तुलसी माई वास।

इही दिन हा जी देवउठनी कहाय।

ये सब्बो देव कारज सुरु हो जाय।

     कोनों मन सोचे कारज ल मड़हाय।

     कोनों बर-बिहाव के लगिन धराय।

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           *चिन्ता राम धुर्वे*

       ग्राम-सिंगारपुर(पैलीमेटा)

        जिला-के.सी.जी(छ.ग.)

जाड़े जनावन लागे हे



आँच सुरुज के कुनहुन-कुनहुन,मन ला भावन लागे हे।

एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे। 


बबा रउनिया पावत बइठे, बरी बनावत दाई हा।

पग पसार पिढ़वा मा बइठे, चूल्हा तिर भउजाई हा।


ददा बरत पैरा के डोरी, उँखरू बइठे अँगना मा।

बछरू हर लमरे लेवत हे, कहाँ बँधै मन बँधना मा।


कप के गरम-गरम गुँगुवावत, चाय सुहावन लागे हे।

एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।


बरतन माँजइया के चूरी, खनर-खनर नइ खनकत हे।

घर भितरी ले सास ओरखय, रहि-रहि माथा ठनकत हे।


सेमी सुमुखी हाँसत हावय, दाँत बतीसो चमकत हे।

चौंरा चुमत चँदैनी गोंदा, मन घर अँगना गमकत हे।


कम्बल शाल सुवेटर जाकिट, गाँव म आवन लागे हे।

एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।


कंच फरी नदिया के पानी, कंच फरी आकाश हमर।

कंच फरी महिनत के पाछू, कंच फरी विश्वास हमर।


हूम-धूप आभार ल झोंकत, खुश अड़बड़ चउमास दिखे।

देख धान के करपा खरही, भाग भविष्य उजास दिखे।


हरियर-हरियर साग-पान ले, हाट पटावन लागे हे।

एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।


कमचिल के आगी तापे के, होही आज जुगाड़ बने।

सेहत सुख बर ओन्हारी के, करना चाही जाड़ बने।


गउ के गर बँधही सोहाई, हाँथा परही कोठी मा।

महतारी आशीष झोंकही, धनलछ्मी के ओली मा।


शहर जाय बर हे गन्ना ला, टरक भरावन लागे हे।

एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।


रचना- सुखदेव सिंह अहिलेश्वर

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

खोरी काकी

 कहिनी                  // *खोरी काकी* //

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               कका महेतरु जबर सीधवा मनखे रहय ओकर संगे-संग ईमानदार अऊ सुवाभिमानी के गुन ओकर हिरदे भितरी कोंच-कोंच के भराय हे।' कका अपन पूरती पोठ रहे।दू डेंटरा गरीब, दुखिया मन ल देहे-लेहे के पाछू खाय-पीये बर पीग के पीग पूर जात रहिस '। कका महेतरु ईमान अऊ सुवाभिमान के संगे-संग बड़ धर्मात्मा के चद्दर ओढ़े रहिस...।ओहर कभु रमायन त कभु आल्हा अऊ कभु सुखसागर जइसन धरम गरंथ ल अपन के आंट म निकाल के पढ़बेच करय।

               कका के गोसाईंन थोरिक खोरावत लवठी धर के रेंगय ते पाय के ओला सबोझन खोरी काकी कहें।' काकी कभू स्कूल के मुहूँ तक नि देखे रहय।' *करिया आखर भइंसा बरोबर*, पढ़े नि रहिस फेर कढ़े जरुर रिहिस। जिनगी जीये के सबो गुन भराये रहिस।घर के बूता काम ल बने संकेरहा कर डारे घर ल गोबर म सुग्घर लीप के छुही म बढ़िया खुंटियाय रहय घर ल देखते त कोनों मेर नानमून कचरा खोजे म नि मिलतिस येतका सुग्घर अपन घर दुवार ल राखे रहय।गोबर कचरा ल घुरवा म फेंक के असनान ध्यान करके कका ल संकेरहा खाय ल देवय अऊ अपनो खाय...।

              कका अऊ काकी के जांवर-जोड़ी अतका सुग्घर फभे रहय फेर भगवान ह ओमन ल नि चिन्हिस,काकी के कोरा सुन्ना रहिस।एतकेच के ओमन ल दुख रहिस।दुख कोन ल नि होय फेर दुख सबो ल भोगे परथे।लइका नि होय म मनखे के मुंहूँ ले बपरी ल कई किसिम के गोठ सुने बर परे।कतको झन बकठी,ठड़गी अऊ बांझ घलो कहि देवंय।येहर काय जानही लोग-लइका के पीरा...। तभो ले सबो ल सहय। हांड़ी के मुहूँ म परई ल तोपथें अऊ आदमी के मुहूँ काला तोपे..कहइया मन ल कहन दे मोला कुछू फरक नी परे मसकरी करत..खोरी काकी कहिस ! खोरी काकी सबो के गोठ एक कान ले सुने अऊ दूसर कान ले निकाल देवय।कभु-कभु अनसुना घलो कर देवय।भगवान सबो ल देखत हे येमा कोनों किसिम के दुख होय के जरुरत नी हे अपन गोसाईंन ल समझावत ..महेतरु कहिस ! 

               काकी के गोड़ थोरिक खोराय जरुर फेर सबो बूता ल कर डारय।खोरी गोड़ कभु काम-बुता म अड़गा नि होइस।खेती-किसानी के जम्मो बूता कर डारय।निंदई-कोड़ई,लुआई-मिसाई कुछू बुता नि बांचत रहिस।खेती-किसानी के दिन म खेत-खार कोती खोरी काकी के सालहो,ददरिया,सुआ,करमा के सुग्घर गीत कान म मंधरस अवस के घोरय अऊ अपन गीत म सबो के मन मोह लेवय।ओकर सालहो,ददरिया के गीत सुनके दूरिहा ले जान डारय के खोरी काकी कोन खार कोती हावय।ओकर सालहो ददरिया,सुआ,करमा के गीत डाहर चलइया मन थोरिक रुक के सुनबेच करें।ओकर गीत सबो के मन मोह डारय।

               खोरी काकी के भलेकुन लोग-लईका नि रहिस फेर लोग -लईका के पीरा ल जरुर जानय अऊ समझे ते पाय के पारा-परोस के लईका मन ल जबर मया करय।कोनों मेर खाई-खजेना पातिस त लईका मन ल अवस करके देवय अऊ लईका मन खोरी काकी के अगोरा घलो करत रहंय।खोरी काकी के लवठी के ठुक-ठुक अवाज ल लइका मन दुरिहा ले ओरख दारें।कभु-कभु मया के चोन्हा देखावत ओकर पाछु-पाछु चल देवंय।

              खोरी काकी जबर मिहनती रहिस।पढ़े लिखे नी रहिस त का होइस भारी गुनिक रहय। छेवरिहा मन ल हरु-गरु करवाय के गुन के संगे-संग जिनगी जिये के सबो गुन भरे रहय।कोनों माईलोगन के छेवरिहा पीरा उसले के शुरू होय त खोरी काकी ल अवस के बलावंय।खोरी काकी के हाथ म जस रहिस अइसे लागथे के ओकर हरु-गरु करवाय म एकोझन लइका के आज तक फउत नी होईस लइका अऊ महतारी दूनोझन सही सलामत रहंय।घरेच म हरु-गरु हो जावंय कभू अस्पताल जाय के जरुरत नी परय ते पाय के खोरी काकी ल सबोझन अवस के बलाबेच करंय।

                खोरी काकी ल कभु-कभु छेवरिहा घर म रात-रात जागे बर पर जावय तभो ले नि असकटावे,जबर सेवा करइया रहिस।निसुवारथ सेवा के भाव ले सेवा करय।जभे छेवरिहा हरु-गरु हो जातिस तभे घर आवय।घर गोसाईंयाँ मन हरु-गरु के चिन्हा के सेथी लुगरा चउर दार दे देवैं अऊ थोर-थार रुपिया पइसा घलो देवंय।कोनों बुलातिन ओला कभु नइ नि कहे। पानी बरसे के चाहे कतको जाड़ जनावे फेर जाबेच करय ओकर सुभाव रहिस।सेवा करे बर नि छोड़ीस।

           कतका बेर काय हो जाही तेकर गम नि मिले। 'जिनगी के दीया के ठिकाना नि हे कतका बेर बुझा जाही '।अइसनहे महेतरु कका के संग घलो होगिस,ओकर.जिनगी के दीया बुझा गिस।चम्मास के दिन रहे झोर-झोर के पानी गिरत रहिस सर-सर हवा घलो करत रहे।बादर के गरजइ अऊ बिजली के लहुकइ जबर डर लागत रहे।येती खोरी काकी के खेत कोती सालहो,ददरिया गीत के तान सुनावत रहिस।

               महेतरु कका घर के चंदैनी गोंदा कहर-महर करत ममहावत हे फेर समे के बेरा ल कोन जानथे। देखते-देखत घर के मुहाटी आंट म बइठ के कका महेतरु आल्हा पढ़त रहिस।आल्हा पढतेच-पढ़त ओलहर गिस देखा-देखा होगे।उठाके घर कोती खटिया म सुताइन फेर जिनगी के सांसा के तार तो टूट गे।हाथ-नारी जुड़ा गिस ।येती बिजली के चमकइ,बादर के गरजइ, पानी के गिरइ कका महेतरु के देहें संग जुड़ा गिस।अइसे लागत रहय जइसे कका ल लेहे बर आय रहिस अऊ कका के संगे-संग चल घलो दिस।

                खोरी काकी ल खेत ले लानिन ओकर आँखी ले आँसू के नदिया कस धार बोहावत रहे।आँखी ले दुख के आँसू पोछत लुगरा के अँचरा भिजगे।ओकर एकेझन भांचा रहिस ओला बलाय बर खोरी काकी कहिस !ओकर भांचा ल तुरते लेहे जावत हौं रोआसी अवाज म तीजउ कहिस ! ओकर भांचा आइस अऊ ओही ह क्रिया-करम करिस।अपन के सबो चीज बस घर-दुवार अऊ खेत डोली ल अपन के भांचा ल दान दे दिस अऊ एक कंँवरा सीथा के आसरा म तुंहरे तीर रहे रहूँ खोरी काकी अपन भांचा ल रोवत-रोवत कहिस !सबो के बोझा ल बोहत हं म हं मिलावत ओकर भांचा हव कहिस ! 

               कका के जाय के पाछू काकी के जिनगी अद्धर होगे।ओकर भांचा मन अपन मामी के बनेच सेवा जतन करंय।समे के समे ताते-तात साग-भात रांध के खवांय।दवाई-मांदी, सूजी-पानी बीच बीच म देवातेच रहंय।भांचा मन कतको सेवा करंय फेर गोसाईंयाँ के नी रहे म खोरी काकी के जिनगी बिरथा होगे।' खोरी काकी के जिनगी अंधियारी रात कस *कुलुप अंधियार* होगे '।ओला हरास छूगे जिनगी के *बेर बुड़ती बेरा* ढरकत हावे...'अऊ देखते-देखत खोरी काकी के तन के पोंसे चिरई पिंजरा ले उड़ियाय बर धर लिस अऊ ओकर जिनगी के बेरा बुड़ गिस '....।

         ' भले मनखे ल भगवान घलो जल्दी अपन तीर म बला लेथे '।गांँव म खोरी काकी के जाय के पाछू छेवारी कराय बर कतको झन ल संसो परगे काबर के ओकर छेवारी कराय कभु अकारत नि होय हे।'ओहर निसुवारथ भाव ले सेवा करय '।लइका मन ल मया करे।खेत-खार म सालहो, ददरिया, सुआ करमा के गुरुतुर गीत के तान अब कभु नि सुनावय बस खोरी काकी नांव के *सपना के सुरता* बांच गीस...।खेत-खार सुन्ना परगीस जइसे कोइली के बिना अमरइया '।खोरी काकी के लवठी के ठुक-ठुक अवाज सुने के अऊ खाई-खजेना खाये के अगोरा म लइका मन हाथ पसारे ठाढ़े के ठाढ़े रहिगिन.'.....।

✍️ डोरेलाल कैवर्त " *हरसिंगार "*

   तिलकेजा, कोरबा (छ.ग.)

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छत्तीसगढ़ लोक मंचों के दीपक शिव कुमार

 संस्मरण:15 नवम्बर जन्मदिवस विशेष 

 *छत्तीसगढ़ी लोक मंचों के 'दीपक' शिवकुमार*

छत्तीसगढ़ को लोककलाओं का गढ़ भी कहा जाता है।इस प्रदेश का दुर्ग जिला अन्य जिलों की तुलना में कलाओं का किला ही रहा है। जहां छत्तीसगढ़ के बेहतरीन कलाकारों का जमावड़ा सर्वप्रथम दाऊ रामचंद्र देशमुख ने दुर्ग शहर के निकट स्थित ग्राम बघेरा में चंदैनी गोंदा संस्था का सृजन करके किया था।यह  सांस्कृतिक क्रांति का ओ शंखनाद था जो अजर अमर हो गया। वर्ष 1971 में सृजित छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा कालजयी लोकमंच 'चंदैनी गोंदा' में  'हरित क्रांति माई' की महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करके शिवकुमार 'दीपक' अमिट छाप छोड़  गए।

           चंदैनी गोंदा की भांति छत्तीसगढ़ी कला जगत के उत्थान तथा छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक यात्रा को आगे बढाने के लिए दाऊ महासिंग चंद्राकर ने दुर्ग के मिल पारा स्थिति समर्पण भवन में लोकमंच 'सोनहा बिहान' को सृजित किया। इस संस्था में भी शिव कुमार दीपक अपने हास-परिहास अभिनय से एक तरफा छाप छोड़ते थे।

                 छत्तीसगढ़ के सुपरस्टार कॉमेडी किंग के नाम से विख्यात दीपक छत्तीसगढ़ी फिल्मों के साथ ही हिंदी भोजपुरी मालवी और अफगानी फिल्मों में भी अभिनय का अनूठा रंग बिखेर कर प्रसिद्ध हुए। 1965 में मनु नायक कृत छत्तीसगढ़ी के पहली फिल्म कहि देबे संदेस ' के बाद  घर-द्वार  और छत्तीसगढ़ गठनोपरांत निर्मित पहली फिल्म मोर छइंया भुइयां, सहित परदेशी के मया,मया देदे मया लेले, मयारू भौजी, जैसे अनेक फिल्मों में अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाया।

      खैरागढ़ के सिद्धहस्त कलाकार रमाकांत बक्शी जी को वे अपना अभिनय गुरु,मार्गदर्शक मानते थे।

अस्सी के दशक में  हास्य प्रहसन 'नेता बटोरन लाल 'और 'छत्तीसगढ़ रेजीमेंट' 'सउत झगड़ा' 'छत्तीसगढ़ महतारी' से भी उनकी अमिट पहचान बनी। महिला पात्र की एकल भूमिका निभाने में उनकी बहुत अधिक रुचि रही जो कि उनकी विशेष पहचान बनी।

             दाऊ देशमुख के लोकनाट्य कारी में सरपंच, सूत्रधार और दाऊ चंद्राकर की संस्था सोनहा बिहान में बतौर लोक नर्तक, हास्य अभिनेता ,उद्घोषक तथा लोकनाट्य 'लोरिक चंदा' में  राजा मेहर जैसे प्रमुख किरदारों का अभिनय मैंने किया।इन्हीं लोक मंचों में मुझे हास्य अभिनेता शिवकुमार का साथ मिला।

  *अभिनय के हेडमास्टर दीपक* 

          वे अभिनय में तो 'हेडमास्टर' थे, पर संवाद बोलते समय अकसर लेखक के लिखित संवाद से हटकर स्वरचित संवाद बोलते थे। इससे हास्य तो बना रहता था किन्तु यदा-कदा सहयोगी पात्र  को अपनी लाईन जोड़ने में पसीना छूट जाता था। ऐसी स्थिति बनने पर दीपक जी परिस्थितियों को भांपकर तत्काल क्लू देने में भी दक्ष थे। 

*जीवंत अभिनय के धनी*

दीपक अभिनय करते समय बड़े ही सहज और जीवंत अभिनय किया करते थे।उनके साथ सोनहा बिहान मंच पर मैं  'महाराज के पेंदा ले तेल टपकत हे' प्रहसन करता था। इसमें वे महाराज और  मैं उनका बुद्धू नौकर बनता था।उस प्रहसन में बुद्धु नौकर बार बार  गलती किया करता था। जिसे समझाने सुधारने हेतु महाराज मारते पीटते थे। जीवंत अभिनय के चक्कर में दीपक जी के मार से मेरे गाल -कान लाल लाल हो जाते थे।

 *केले का बना कचुमर*

 छत्तीसगढ़ी लोक मंचों में दीपक और कमल नारायण सिन्हा की जोड़ी सुपरहिट रहती थी ।इनके साथ बैठने से हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाता था।वर्ष 1982 की बात है। दाऊ महासिंह चंद्राकर के नेतृत्व में लोरिक चंदा की शूटिंग हेतु हम लोग दूरदर्शन केंद्र दिल्ली गए हुए थे। वहां सांसद चंदूलाल चंद्राकर जी के आवास परिसर में हम पैंतीस कलाकारों को ठहराया गया था।तभी एक दिन दाऊ महासिंह जी केला लेकर आए और झोले में रखकर कहीं चले गए।उसमें से चार केला कमल और दीपक खा गए। 

            दाऊजी को जब इस बारे में जानकारी हुई तो गुस्से में आकर उन्होंने केला को आंगन में फेक दिया।इसे देखकर कमल और दीपक केला को उठाकर लाए और हाथ जोड़ते दाऊजी के चरणों में रख दिए ।दाऊजी गुस्से में थे। उन्होंने फिर से केला को जोर से फेक दिया। वे दोनों फिर उठा लाए। ऐसा क्रम कई बार चला तो केलों का कचूमर बन गया।उन दोनों की ऐसी शरारत से दाऊजी भी हंस पड़े थे।

*दिल्ली में खुला दीपक का राज*

   दिल्ली में लोरिक चंदा की शूटिंग(1982 )के उपरांत दुर्ग वापसी हेतु रेल्वे स्टेशन पर बैठे थे। तभी मैंने उनके नाम के साथ दीपक जुड़ने का किस्सा पूछा था।तब जानकारी हुई।1958 में दुर्गा कॉलेज रायपुर में अध्ययन के दौरान नागपुर महाराष्ट्र में आयोजित अंतर्राज्यीय युवा उत्सव में शिवकुमार द्वारा प्रस्तुत एकल अभिनय 'जीवन पुष्प' को देखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने उनके अभिनय को सराहा और 'दीपक' नाम दिया,जो कि आजीवन उनके नाम के साथ  जुड़ा रहा।अधिकांश जनमन इस बात से अनजान है कि उपनाम 'दीपक'से ख्याति प्राप्त कलाकार का असल नाम शिव कुमार (साहू )साव था। 

              बेहतरीन हास्य कलाकार, छत्तीसगढ़ी एवं हिंदी फिल्मों के दिग्गज अभिनेता शिव कुमार का जन्म 15 नवंबर 1933 को दुर्ग से सटे ग्राम पोटियाकला में हुआ था।91 वर्ष की उम्र में 25 जुलाई 2024 को उन्होंने  अपने कलाग्राम पोटियाकला में अंतिम  सांसे लीं। जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्हें छत्तीसगढ़ शासन द्वारा लोक कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान हेतु दाऊ मंदराजी सम्मान से अलंकृत किया गया । भिलाई इस्पात संयंत्र से सेवानिवृत्त हुए स्व. दीपक एक व्यक्ति नहीं अपितु एक संस्था थे। अभिनय की दुनिया का ये दैदीप्यमान दीपक सदा आलोकित करता रहेगा।

*विजय मिश्रा 'अमित'*

 हिंदी- लोक रंगकर्मी अग्रोहा कॉलोनी रायपुर(छग)492013 9893123310

हार्वेस्टर मशीन


गांव भर के किसानमन हड़बडा़त हे

कब कोन मन हार्वेस्टर मशीन लाथे।

ए साल ग लूवाई के का भाव लगाथे 

काबर अब "बनिहार" नई मिल पाथे।।


गाय गरुवा मन डील्ला होवत जाथे

धान ल खुंदत हे आउ अब्बड़ खाथे।

राऊत हर बरदी ल बने नई चरात हे

बरदी ले गाय गरुवा मन भाग जाथे।।


हार्वेस्टर मशीन जबले गांव म आथे 

किसान मन बर सहूलियत हो जाथे।

बनिहार बड़ मुश्किल मा मिल पाथे

बनिहार अनाप-शनाप भाव लगाथे।।

 

सबों बूता ह एके बार मा होत जाथे

धान लूवाई मिसाई हो के घर आ थे।

भले रुपिया, पैसा हर जाथे त जाथे

हार्वेस्टर हर किसान के मन ल भाथे।।


हार्वेस्टर मशीन गिरे धान ल काटते

जेकर ले नुकसान होए से बांहचथे।

बरोबर धान ह बहुत बढ़िया लुवाथे

पैरा हर एक लाइन ले गिरत जा थे।।

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✍️ ईश्वर"भास्कर"/ग्राम-किरारी जिला-जांजगीर चांपा छत्तीसगढ़।

हसदेव बचाबो

 हसदेव बचाबो---- चौपाई छंद 


चल संगी हसदेव बचाबो।।

महतारी के मान बढ़ाबो।।

बिन एकर हे सबके मरना।।

सोंचव जल्दी का हे करना।।


चार- चिरौंजी तेंदू मउहा।।

मिलथे संगी झउँहा- झउँहा।।

जीव-जन्तु बर इही सहारा।।

कटत हवय हसदेव बिचारा।।


डीह डोंगरी नदिया घाटी।।

बंजर होवत हावय माटी।।

हे विकास के नाँव धराये।। 

लोगन ला कइसे भरमाये।।


लाख-लाख हे पेड़ कटावत।।

पूँजीपति मन मजा उड़ावत।।

धरती हा सुसकत हे भारी।। 

लोंचत हें लबरा बैपारी।।


जल जंगल ले हे जिनगानी।।

देवय हम ला दाना पानी।।

शुद्ध हवा कइसे मिल पाही।।

रुख राई हा जब कट जाही।।


हाथी भलुवा घर-घर जाहीं।।

गाँव शहर मा रार मचाहीं।।

उजरत हावय इँकर बसेरा।।

कोन मेर अब करहीं डेरा।।


देख चलावत हावँय आरी।।

चुप बइठे हें सत्ताधारी।।

भैरा कोंदा बनगे हावँय।।

पद पइसा के महिमा गावँय।।


आज उजारत हावँय कोरा।।

ककरो झन गा करव अगोरा।।

आघू आवव बहिनी-भाई।। 

जल जंगल बर लड़ौ लड़ाई।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

रविवार, 10 नवंबर 2024

जोरन



देवारी तिहार के बेरा राहय घर के सबो सदस्य मन अपन बेटा सुखू के अगोरा करत राहय, काबर ओहा जानत हे कि ओकर बेटा सुखू ह तिहार म अवईया हे। ओकर बर मुरकु बना के रखे हे, सुघ्घर रखिया के बरी, आमा के चटनी, निमऊ के चटनी सबो जिनिस ल बना के रखे राहय, काबर घर वाला मन जानतेच हे कि ओखर बेटा ह जिंहा रहिथे ऊहां ओ सबो खाये के जीनिस मन नई मिलय कहिके। सुखू ह दूसर राज्य म एकठन बड़े जबर कम्पनी म बुता करथय। सुखू ह एकदिन घर म फोन लगाके बताये रिहिसे कि ओहा तिहार बर अवइया हे कहिके। सुखू ह तिहार के पहिली वाला दिन म घर अमर गे। घर म जबर खुशी के माहौल ह बगर गे राहय। दाई के आंखी म मया ले डबड़बावत आँसू, महतारी दाई के दुलार अउ उमडत मया, पापा के आंखी म खुशी के चमक अउ भाई के चेहरा सुघ्घर हांसी ह घर के सुघ्घर खुशी माहौल ल प्रदर्शित करत रिहिसे। देवारी तिहार ल बने सुघ्घर मनिइसे । घर में बने दू तीन दिन ले हांसी खुशी के माहौल रिहिसे। सबो परिवार मन रतिहा के जेवन ल करके एक जगा जोरियाय रिहिसे, सुखू ह बने हांसी मजाक करके सबो सदस्य मन ल हंसात रिहिसे। ओतकिच बेरा म महतारी दाई ह एकठोक प्रश्न सुखू ल पूछ परिस, तोर लहुटे के बेरा कब हे बेटा। त सुखू ह कहिथे कालिच बिहिनिया ले निकलहू दाई। आतकिच ल सुनके एकदम से घर म सन्नाटा ह बगर गे। बिहिनिया होईस ताहन सुखू ह लहुटे बर तइयार होयेबर धर लिन, एती महतारी दाई अऊ डोकरी दाई ह सुघ्घर जोरन करत हे। रखिया बरी, निमऊ चटनी, आमा चटनी, मुरकु, पपई के फर , अरसा रोटी सोंहारी रोटी सबो ल एकठोक झोला म जोरदिन, काबर महतारी दाई ह जानत हे, जउन डाहन बेटा सुखू ह रहिथे तउन डाहन अइसन जिनिस मन मिलय नही कहिके। सुखू ह सुघ्घर जोरण ल धरके घर ले निकलत हावय, दाई ह सुघ्घर सुरता दिलात हे कहूँ कुछु ल तो नई भुलाय हस कहिके। महतारी दाई अऊ ददा के आंखी म आँसू ह डबडबावत हे। भाई ह हांसी ठिठोली करके बिछड़े के पीरा ल छुपावत हे। अइसन माहौल ल देख के सुखु के आंखी म तको थोरकुन आँसू आगे फेर आँसू ल छिपावत सुखू ह बस म तुरते चइग गे। आधा धुरिहा म गिस सुघ्घर जोरन ल देखके सबो झन के सुरता करत जोरन झोला ल एकघांव पोटार लिस। महतारी दाई के जोरन म अतेक मया ह समाये रहिथे कि ओला झटकुन एकबार म सिराए के मन नई करय। अउ जोरण के ए जिनिस मन ल धिलगहा धिलगहा बऊरे बर पड़ जाथे। घर के जोरल एकपाव के जीनिस, दुकान के 10 किलो जिनिस ले ज्यादा भार कस जनाथे। काबर ए जोरण म मया के मिश्रण ह एकर सुवाद ल कई गुना बढ़ा देथे।


✍️✍️ गनेश्वर पटेल✍️✍️

ग्राम पोटियाडिह 

जिला धमतरी(छ ग).

आंवला तरी भात

 *"आँवरा तरी भात''*

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सुरता अड़बड़ आवथे,

ननपन के आँवरा तरी भात के।

अउ घरघुनदिया खेलन जऊन,

आघू दिन के रात, के।

मंदिर के आँवरा रुख के तरी म।

जम्मो बहिनी मन सकलावे।

अउ अपन अपन घर ले ,

चूल्हा लकड़ी फाटा सब लावै।

चाउर दार साग भाजी,

मिरचा मसाला घलो ले आवै।

आँवरा रुख के तरी म ,

अपन चूल्हा म जेवन बनावै।

मुनगा आलू बरी के सोंद ह,

आज ले नाक म समाय हे।

अउ साग बांट बांट के खवई ह,

हमन लआज ले कहां,भुलाय हे।

फेर माई पिला जुरिया के,

भुंइया म बइठ के संघरा खावन।

वो जेवन मा तो परसाद कस,

भोला के आशीरवाद ल पावन।

अड़बड़ मिठाय वो जेवन ह,

हमन खा डारन बिकट चांट के।

रही रही के सुरता आवथे,

ननपन के आँवरा तरी भात के।

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रचना:-जीवन चन्द्राकर"लाल''

      बोरसी 52 दुर्ग(छत्तीसगढ़)