पड़पड़ावत हे गोड़ हाथ ह,
अउ गोड़ हाथ के रुंवा ठाड़ हे।
अघ्घन महीना म पानी गिरगे,
त अड़बड़ बाढ़े जाड़ हे।
तरिया के पानी कन-कन ले हे,
साहस नई होवथे नहाय के।
दिल ह करथे बिना नहाय,
मिल जातिस अब खाय के।
ओकलत चाय के कप ह घलो,
ओठ ल घलो नई जनावत हे।
गरम गरम अंगाकर रोटी के,
लालच ह रही-रही आवत हे।
जी करथे पल पला भरे गोरसी ल,
धरे राहव दिनरात पोटार के।
कमरा के बिछौना खटिया म,
अउ कमरा ल ओढ़े हव लाद के।
तभो संगवारी जाड़ के मारे,
जुड़ाय जुड़ाय कस हाड़ हे।
अड़बड़ बाढ़े जाड़ हे।
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रचना:-जीवन चन्द्राकर"लाल''
बोरसी 52 दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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