आँच सुरुज के कुनहुन-कुनहुन,मन ला भावन लागे हे।
एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।
बबा रउनिया पावत बइठे, बरी बनावत दाई हा।
पग पसार पिढ़वा मा बइठे, चूल्हा तिर भउजाई हा।
ददा बरत पैरा के डोरी, उँखरू बइठे अँगना मा।
बछरू हर लमरे लेवत हे, कहाँ बँधै मन बँधना मा।
कप के गरम-गरम गुँगुवावत, चाय सुहावन लागे हे।
एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।
बरतन माँजइया के चूरी, खनर-खनर नइ खनकत हे।
घर भितरी ले सास ओरखय, रहि-रहि माथा ठनकत हे।
सेमी सुमुखी हाँसत हावय, दाँत बतीसो चमकत हे।
चौंरा चुमत चँदैनी गोंदा, मन घर अँगना गमकत हे।
कम्बल शाल सुवेटर जाकिट, गाँव म आवन लागे हे।
एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।
कंच फरी नदिया के पानी, कंच फरी आकाश हमर।
कंच फरी महिनत के पाछू, कंच फरी विश्वास हमर।
हूम-धूप आभार ल झोंकत, खुश अड़बड़ चउमास दिखे।
देख धान के करपा खरही, भाग भविष्य उजास दिखे।
हरियर-हरियर साग-पान ले, हाट पटावन लागे हे।
एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।
कमचिल के आगी तापे के, होही आज जुगाड़ बने।
सेहत सुख बर ओन्हारी के, करना चाही जाड़ बने।
गउ के गर बँधही सोहाई, हाँथा परही कोठी मा।
महतारी आशीष झोंकही, धनलछ्मी के ओली मा।
शहर जाय बर हे गन्ना ला, टरक भरावन लागे हे।
एकादशी परब आ पहुँचिस, जाड़ जनावन लागे हे।
रचना- सुखदेव सिंह अहिलेश्वर
गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़
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