सबो दुःख ल सह के सुख ला बहाटथे,
अपन घर परिवार ल एक म तो सांटथे।
रोवत रहथे ओहर मन म भीतरे-भीतर,
पर आघू मा देखाय बर ओ हर हांसथे।।
लइकामन के गोड म नई गढ़े दे कांटा,
बरसत पानी मा बन जाथे हमर छाता।
जेला पता रह थे भाव दार आउ आंटा,
आजकल के लइकामन कहथे ग पापा।।
ददा हर ग हमर ब सबों दुःख ल सहथे,
रुपिया पैइसा कमाय ब बाहर म रहथे।
अक्केला घर, परिवार के पालन करथे,
अपन लोग लइकामन ब सब ले लड़थे।।
हमन ला पढ़ा, लिखा के इंसान बनाथे,
अपन जिनगी भर के कमाई ल लुटाथे।
अपन बुढ़ापा बर कुछु ल नई बचात हे,
सिरिफ हमर भविष्य ल तो सजावत हे।।
भले अपन ह पहिरे रहथे चिथरा,फटहा,
पर लइकामन बर पैंठ,कुरथा सिलवाथे।
भले अपन हर खाथे दिन मा एकेच बार,
पर लइका मन ला भर-भर पेट खवाथे।।
पता ही नई चलिस कब आइस बुढ़ापा,
आऊ निकल गे दिन उकर सब जवानी।
अइसन हो थे हमर 'ददा' के जिन्दगानी,
लिखत लिखत थक जाबो उकर कहानी।।
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✍️ ईश्वर "भास्कर"/ग्राम-किरारी
जिला-जांजगीर चांपा छत्तीसगढ़।
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