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रविवार, 10 नवंबर 2024

आंवला तरी भात

 *"आँवरा तरी भात''*

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सुरता अड़बड़ आवथे,

ननपन के आँवरा तरी भात के।

अउ घरघुनदिया खेलन जऊन,

आघू दिन के रात, के।

मंदिर के आँवरा रुख के तरी म।

जम्मो बहिनी मन सकलावे।

अउ अपन अपन घर ले ,

चूल्हा लकड़ी फाटा सब लावै।

चाउर दार साग भाजी,

मिरचा मसाला घलो ले आवै।

आँवरा रुख के तरी म ,

अपन चूल्हा म जेवन बनावै।

मुनगा आलू बरी के सोंद ह,

आज ले नाक म समाय हे।

अउ साग बांट बांट के खवई ह,

हमन लआज ले कहां,भुलाय हे।

फेर माई पिला जुरिया के,

भुंइया म बइठ के संघरा खावन।

वो जेवन मा तो परसाद कस,

भोला के आशीरवाद ल पावन।

अड़बड़ मिठाय वो जेवन ह,

हमन खा डारन बिकट चांट के।

रही रही के सुरता आवथे,

ननपन के आँवरा तरी भात के।

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रचना:-जीवन चन्द्राकर"लाल''

      बोरसी 52 दुर्ग(छत्तीसगढ़)

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