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मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

समय से संवाद के विमोचन पर न्यायपालिका, मानवाधिकार और तकनीक पर गहमागहमी

आदिवासियों पर अन्याय और तकनीक से बदलती दुनिया पर गहमागहमी भरी चर्चा 
पटना पुस्तक मेले में इक्कसवीं सदी के पहले दशक से संवाद
गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने किया ‘समय से संवाद’ पुस्तक का लोकार्पण
 
    पटना पुस्तक मेला में प्रेम कुमार मणि और प्रमोद रंजन द्वारा सम्पादित पुस्तक ' समय से संवाद : जन विकल्प संचयिता' पुस्तक का लोकार्पण गहगहमी भरे माहौल में किया गया. पुस्तक का लोकार्पण मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, प्रख्यात कवि आलोकधन्वा किया गया. लोकार्पण समारोह में बड़ी संख्या में पटना के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी मौजूद थे.
     सर्वप्रथम प्रेम कुमार मणि ने पुस्तक के संबंध में बताया "मेरे व प्रमोद रंजन के संपादन में 'जनविकल्प' पत्रिका निकलती थी। इसके 11अंक निकले थे. उसी पत्रिका में छपे लेखों को लेकर यह किताब छपी है।” उन्होंने कहा कि “जनविकल्प में प्रकाशित चुनिंदा सामग्री का यह संकलन इक्कसवीं सदी के पहले दशक की सामाजिक,साहित्यिक, और राजनीतिक हलचलों का दस्तावेजीकरण है।”
     मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने कहा “मेरे ऊपर सुप्रीम कोर्ट ने पांच लाख का जुर्माना लगाया। हमने कहा कई जुर्माना नहीं देंगे भले हमें आप गिरफ्तार की कीजिये। बस्तर में 16 लोगों की हत्या कर दी गई थीं। एक बच्चे की उंगली काट दी गई थी, एक औरत के सर पर चाक़ू मार दिया था। मैं उसी मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा आपको पुलिस की जांच पर भरोसा करना चाहिए थे। मैंने कहा कि यहां पुलिस ही तो आरोपी है। तब फिर वह कैसे जांच करेगी। मैंने 519 मामले सौंपे हैं सुरक्षा बलों के अत्याचार के यह बात ह्यूमन राइट्स संगठनों ने किया था। पर सरकार द्वारा जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। गांधी और भगत सिंह दोनों ने एकन्ही बात की थीं। जब भगत सिंह को फांसी दी थी तो पंजाब के गर्वनर को खत्म लिखा था कई जनता पर युद्ध थोपा गया है और युद्ध जनता की निर्णायक विजय के साथ ही समाप्त होगा। गांधी जी के अनुसार अंग्रेज़ी विकास का मॉडल शैतानी मॉडल है प्रकृति ने सबको बराबर दिया है इस विकास के मॉडल में ताकतवर का ही विकास हो सकता है। अंग्रेज़ अपने विकास को मॉडल को फैलाने के लिए दुनिया भर में खून बहाते रहे हो। गांधी ने एकनदिन यह भी कहा था कि एक दिन अपने लोगों के खिलाफ आप युद्ध करेंगे। सुरक्षा बल छट्ठीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने गई है। देश के प्राकृतिक संसाधनों का मालिक समुदाय यानी जनता है यदि किसी पूंजीपति को जमीन चाहिए तो उसके लिए पुलिस किसानों पर गोली चलाती है और जेल में डालती है। सरकार की तरफ से जो भी बंदूक ले का आ रहा है वह संसाधन पर कब्जा करना चाहता है। सरकार ने संसाधन पर कब्जा और श्रम लूटने के लिए युद्ध थोप रहा है यहीँ बात भगत सिंह कह रहे थे. हमारे सिपाही आदिवासी इलाकों में क्यों गए हैं? वे उनके संसाधनों को लूटने गए हैं. आज पूरी दुनिया में पूंजीवाद संकट है। यहां के पूंजीपति सिर्फ आदिवासी इलाकों पर ही नहीं बल्कि कृषि क्षेत्र में घुसेगा। यह आपके बैंक के पैसा, रोजगार पर कब्जा करती हैं। उसके लिए जाति व धर्म पर लड़ाने की बात करती है। सस्ती शिक्षा माँगने वाले बच्चों के माथे फोड़ देता है जैसा जे.एन. यू के साथ किया गया।"
     उन्होंने कहा कि “आज सरकारें और पूंजीपतियों का गठजोड़ जिस प्रकार का अन्याय आदिवासियों के साथ कर रहा है, उसका विरोध शहरी मध्यम वर्ग नहीं करता। उन्हें लगता है कि जो आदिवासियों के साथ हो रहा है, वह हमारे साथ कभी नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। ये ताकतें हमारी कृषि समेत सभी कुछ को कब्जे में लेंगी तब मध्यम वर्ग को अपनी गलती का अहसास होगा।” उन्होंने कहा कि “दुनिया के कई विकसित देशों की चमक दमक के पीछे वहाँ के आदिवासियों का खून लगा हुआ है।अमेरिका आस्ट्रेलिया कनाडा जैसे देशों में दूसरे देश से आये गोरों ने वहाँ रहने वाले आदिवासियों की हत्याएं करी और उनके जंगलों खनिजों और पूरे देश पर कब्ज़ा कर लिया इन देशों में एक आदिवासी की लाश लाने पर इनाम मिलता था। आज भारत में भी पूंजीपति घरानों और सरकारों की साठगांठ से आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से बेदखल किया जा रहा है। भारत में भी सरकारों ने आदिवासियों को नक्सली घोषित कर दिया है।एक आदिवासी को मारने या उसे जेल में बंद करने वाले पुलिस अधिकारी को इनाम और तरक्की मिलती है।”
     प्रमोद रंजन ने कहा कि “जनविकल्प के के प्रकाशन के 15 साल बीत चुके हैं और, इस बीच भी काफी कुछ बदल चुका है। कोरोना वायरस महामारी की आड़ में इन बदलावों को एक ऐसी आंधी का रूप दे दिया गया, जिसमें बहुत दूर तक देख पाना कठिन हो रहा है। लेकिन, हम इतना तो देख ही सकते हैं कि मानव-सभ्यता के एक नए चरण का आगाज हो चुका है। स्वाभाविक तौर पर इन परिवर्तनों से, विचार और दर्शन की दुनिया भी बदल रही है। इसका दायरा मनुष्योन्मुखी संकीर्णता का त्याग कर समस्त जीव-जंतुओं और बनस्पितयों तक फैल रहा है। एंथ्रोपोसीन और उत्तर मानववाद जैसी विचार-सरणियों के तहत इनपर जोरशोर से विमर्श हो रहा है। हमें इन परिवर्तनों को एक आसन्न संकट की तरह नहीं, बल्कि परिवर्तन की अवश्यंभावी प्रक्रिया के रूप लेना चाहिए और इसके उद्देश्यों की वैधता पर पैनी नजर रखनी चाहिए। लेकिन दुखद है कि हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के साहित्य और वैचारिकी में इसकी गूंज सुनाई नहीं पड़ रही।” उन्होंने मौजूदा लेखन की प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए कहा कि “कालजयिता के चक्कर में हम प्रासांगिकता को भूल जा रहे हैं, जबकि लेखन के चिरजीवी होने के लिए इसका सबसे अधिक महत्व है।” उन्होंने कहा कि “आज से 15 साल पहले वैश्वीकरण के बारे यह स्टैंड लिया था कि हमें अपनी शर्तो के साथ उसमें शामिल होना चाहिए था। जब यह पत्रिका छपती थी तब हमने मीडिया के साम्राज्य पर बाद की थी। हमारी हिंदी की दुनिया सोशल मीडिया और उसका अलगोरिद्म कैसे काम करता है। यह तकनीक के अलगोरिद्म का प्रभाव है कि जातिवाद के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले लडके आज जाति जे गहवर में फंसे हैं।"
लोकार्पण समारोह में मौजूद लोगों में प्रमुख थे अतुल माहेश्वरी जफर इक़बाल, पंकज शर्मा, दानिश, संतोष, राघव शरण शर्मा, बिद्युतपाल, राकेश रंजन, मनोज कुमार, अशोक कुमार क्रांति, प्रणय प्रियंवद, जयप्रकाश, विनीत राय, गौतम गुलाल, सामजिक कार्यकर्ता संतोष आदि।

*पुस्तक के बारे में*
 
     अनन्य प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘समय से संवाद’ मासिक पत्रिका ‘जन विकल्प' में प्रकाशित चुने हुए लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। जन विकल्प का प्रकाशन प्रेमकुमार मणि और प्रमोद रंजन के संपादन में पटना से जनवरी 2007 में आरंभ हुआ था और इसका अंतिम अंक उसी वर्ष दिसंबर में आया था। उस सयम इस पत्रिका की जनपक्षधरता, निष्पक्षता और मौलिक त्वरा ने समाजकर्मियों और बुद्धिजीवियों को गहराई से आलोड़ित किया था।
     पुस्तक में 42 अध्याय हैं, जिन्हें छह भागों में विभाजित किया गया है। पहले भाग में 11 अध्याय हैं, जिसमें प्रेमकुमार मणि द्वारा जन विकल्प में लिखी गई संपादकीय टिप्पणियाँ हैं। दूसरे भाग में 7 अध्याय हैं। जिसमें ‘आधुनिक हिंदी की चुनौतियां' (अरविंद कुमार),‘बौद्ध दर्शन के विकास और विनाश के षड्यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्त्राब्दी’ (तुलसी राम), ‘प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था और भाषा' (राजू रंजन प्रसाद), ‘ऋग्वैदिक भारत और संस्कृत : मिथक एवं यथार्थ' (राजेंद्र प्रसाद सिंह), ‘आधुनिक हिंदी की चुनौतियां' (अरविंद कुमार), ‘खड़ी बोली का आंदोलन और अयोध्या प्रासाद खत्री’ (राजीव रंजन गिरि), ‘उत्तरआधुनिकता और हिंदी का द्वंद्व’ (सुधीश पचौरी), ‘बहुजन नजरिये से 1857का विद्रोह’ (कंवल भारती) के लेख शामिल हैं। किताब के तीसरे भाग में 14 अध्याय हैं। इसमें “गीता : ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना का षड्यंत्र” (प्रमोद रंजन), “दंडकारण्य: जहां आदिवासी महिलाओं के लिए जीवन का रास्ता युद्ध है” (क्रांतिकारी आदिवासी महिला मुक्ति मंच का वक्तव्य, “संविधान पर न्यायपालिका के हमले के खिलाफ.” (शरद यादव), “सच्चर रिपोर्ट की खामियां” (शरीफ कुरैशी), “माइक थेवर को जानना जरूरी है” (रवीश कुमार), ‘मैं बौद्ध धर्म की ओर क्यों मुड़ा’ (लक्ष्मण माने), ‘पेरियार की दृष्टि में रामकथा’ (सुरेश पंडित), ‘मार्क्स को याद करते हुए' (राजू रंजन प्रसाद), ‘जनयुद्ध और दलित प्रश्न’ (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल), ‘हाशिये के लोग और पंचायती राज्य अधिनियम' (लालचंद ढिस्सा), ‘सामाजिक जनतंत्र के सवाल' (प्रफुल्ल कोलख्यान), प्रेमचंद की दलित कहानियां : एक समाजशास्त्रीय अध्ययन’ (धीरज कुमार नाइट), ‘मुक्ति संघर्ष के दो दस्तावेज’ (रेयाज-उल-हक), ‘राजापाकर काण्ड’ (नरेंद्र कुमार) आदि हैं।
     किताब के भाग चार में 10 ऐसे इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों, फिल्मकारों और जन-बुद्धिजीवियों के साक्षात्कार शामिल किए गए हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में महारत रखते हैं। इस खंड में ‘प्राय: मानवीय मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया जाता है’(अमर्त्य सेन), ‘जाति केवल मानसिकता नहीं’ (योगेंद्र यादव), ‘भूमंडलीकरण को स्वीकार करना होगा (बिपन चंद्र), ‘वैश्वीकरण के साथ खास तरह के संवाद की जरूरत’ (सीताराम येचुरी), ‘हम जनता की लामबंदी में यकीं रखते हैं' (गणपति), ‘यह सीधे-सीधे युद्ध है और हर पक्ष अपने हथियार चुन रहा है’ (अरुंधती रॉय), ‘पाँच सौ वर्ष पुराना है कश्मीर की गुलामी का इतिहास’ (संजय काक), ‘भारतीय इतिहास लेखन मार्क्सवादी नहीं, राष्ट्रवादी है’ (सुधीर चंद्र), ‘साहित्य प्रायः उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं’ (अरूण कमल) आदि के साक्षात्कार भी शामिल हैं।
     भाग पाँच में ‘यवन की परी’ कविता पुस्तिका को प्रकाशित किया गया है। इसमें ‘एक खत पागलखाने से’ शीर्षक से एक अनाम कवि की कविता है। यह कवयित्री किसी अज्ञात यवन देश के पागलखाने में कैद थी। वह कवियित्री कौन थी, क्या करती थी, यह कोई नहीं जानता। उसने पागलखाने में आत्महत्या करने से पहले यह कविता लिखी थी। अक्का महादेवी और मीरा की काव्य-परंपरा की याद दिलाने वाली यह कविता अपनी शुरुआती पंक्तियों से ही विज्ञान, ईश्वर, साहित्य, संगीत, कला और युद्ध की निरर्थकता को अपने वितान में समेटे में इतने ठंडे लेकिन तूफानी आवेग से आगे बढ़ती है कि हम सन्न रह जाते हैं।
पुस्तक के अंतिम भाग में जन विकल्प में प्रकाशित सामग्री की सूची और विमोचन से संबंधित समाचार व समीक्षाएं उद्धृत हैं।
     जैसा कि पुस्तक के फ्लैप पर भी कहा गया है, यह किताब धर्म, विज्ञान, भाषा, इतिहास और पुनर्जागरण पर केंदित सामग्री नए तथ्यों को एक कौंध की तरह इतने नए दृष्टिकोण के साथ पाठक के सामने रखती है कि अनेक मामलों में सोच का पारंपरिक ढांचा दरकने लगता है। इसमें शामिल अनेक लेख उन हाशियाकृत समाजों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्षों को शिद्दत से सामने लाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें मौजूदा अस्मिता विमर्श में भी जगह नहीं मिल सकी है। यह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए तो एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ है ही, इक्कीसवीं सदी के आरंभ में जारी राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक हलचलों काे समझने के लिए भी उपयोगी है।

रविवार, 18 दिसंबर 2022

 गंगा-घाट


       
सतीश कुमार नारनौंद
 
बलिया छ: फुट लम्बा,सांवला रंग,सुडौल व गठिले शरीर का इंसान था। उसकी पत्नी पार्वती बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति की (आठवीं पास)औरत थी ।उनके दो बच्चे थे। लड़के का नाम वंश और लड़की का नाम वंशिका था। पार्वती रंग-रूप में हूर के समान थी।वह गौर वर्ण,मध्यम कद,हिरणी के समक्ष नयन,लंबी केश राशि तथा गहरे डिम्पलों से युक्त मुस्कान की मल्लिका थी।ऐसा लगता था मानो विधाता ने बिल्कुल फुर्सत में इस अद्भुत देवी का सृजन किया हो। पार्वती कभी भी किसी के साथ लड़ कर नहीं चली। धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण वह बड़ों का आदर,अपनी हम उम्र की औरतों से प्रेम व छोटे बच्चों से स्नेह रखती थी। मोहल्ले के सभी आदमी व औरत पार्वती का उसके श्रेष्ठ गुणों के कारण सम्मान करते थे। बलिया अपने परिवार के साथ खुशी-खुशी जीवन व्यतीत कर रहा था ।उसकी सबसे बड़ी कमी थी उसकी-अनपढ़ता,जिसका उसे सारा जीवन मलाल रहा।
        बलिया, ठाकुर जी की जमीन पर बटाई पर खेती करता था। बलिया बड़ा पुरुषार्थी और परिश्रमी व्यक्ति था । वह आज के काम को कल पर नहीं छोड़ता था।
         जब उसके जमींदार,ठाकुर जी के बच्चे छोटे थे और वह बसों में चढ़कर स्कूल जाते थे तो उनको देखकर बलिया बड़ा प्रसन्न होता था। ठाकुर जी की लड़की अर्पिता तो पढाई में बड़ी तेज़ थी। ठाकुर जी के बच्चे बलिया के बच्चों के हमउम्र थे परंतु अपनी हसीयत के अनुरूप वंश और वंशिका गांव के राजकीय विद्यालय में पढ़ते थे लेकिन थे बड़े संस्कारी,होनहार व पढाई में तेज। अपने गुरुजनों का सम्मान, कर्तव्यनिष्ठा तथा शिक्षा के महत्व को दोनों बच्चों ने अपने माता पिता से सीखा था। दोनों बच्चे विद्यालय में अपनी-अपनी कक्षाओं में हमेशा प्रथम रहते।सभी अध्यापक भी दोनों बच्चों पर गर्व करते थे।
      एक बार किसी समाजसेवी संस्था ने, उपमंडल स्तर पर एक शैक्षिक प्रतियोगिता का आयोजन किया। इसमें ठाकुर की लड़की अर्पिता तथा बलिया की पुत्री वंशिका ने भी भाग लिया। अंतिम समय में वंशिका केवल 2अंको से प्रतियोगिता में प्रथम रह कर 11000 हजार का ईनाम जीत गई। अर्पिता दूसरे स्थान पर रही।बलिया का परिवार व सारा मोहल्ला बड़ा खुश था।सबने मिलकर बेटी को सम्मानित किया। बलिया व पार्वती खुशी के मारे सारी रात सो नहीं पाये। खुशी के आंसू पोंछते हुए बलिया ने पार्वती से कहा "पार्वती आज विधाता की दया से,मेरी वह फसल तैयार हुई है,जिसको मैं ठाकुर के साथ बांट नहीं सकता।
      उधर ठाकुर को वंशिका का प्रतियोगिता में प्रथम आना व अपनी बेटी का पिछड़ना पच नहीं रहा था। वह वंशिका को निजी स्तर पर नीचा दिखाने में जुट गया। सबसे पहले ठाकुर ने बलिया को बंटाई पर दिये गए खेतों को आधा कर दिया तथा खेती की अपनी शर्तें बढ़ा दी। मजबूरी में बलिया ने खेत छोड़ दिया। यहीं ठाकुर चाहता था। 
पिछले दो महीने से वंश बीमारी के कारण बिल्कुल कमजोर हो गया था। बलिया ने अपने सामर्थ्यानुसार उसके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी परंतु एक दिन काल ने वंश को अपने अंचल में छुपा लिया। अब बलिया बिल्कुल टूट चुका था।उसके पास अब पैसे का भी कोई सहारा नहीं था।वंश के रूप में उसका दायां हाथ कट चुका था,गरीबी,समय की मार तथा परिस्थितियों ने उसकी कमर तोड़ दी।बेटे के रूप में हृदय में लगी चोट को भूल ही नहीं सका और एक दिन उसको भी विधाता ने अपनी गोद में ले लिया। अब तो मानों परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा।
पार्वती व वंशिका का संसार ही उजड़ गया। ठाकुर को भी इसका पता लगा।  वंशिका से बदला लेने का भी ठाकुर के पास अच्छा अवसर था।जब किसी का राम रुष्ट होता है तो सभी दिशाएं अंधकारमय हो जाती हैं। हिन्दू धर्म की मान्यतानुसार मृतक की अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करना पवित्र माना जाता है परंतु पार्वती के पास पैसे नहीं थे। मौक़े का फ़ायदा उठाकर ठाकुर ने अपनी गाड़ी से वहां ले जाने की बात कहकर, लोगों की सहानुभूति भी ले ली। ठाकुर का शैतान जाग उठा और उसकी नजर तो वंशिका के चढ़ते यौवन पर थी।
               तीन दिन बाद बलिया की अस्थियों को लेकर पार्वती, वंशिका व ठाकुर हरिद्वार में गंगा घाट के लिए गाड़ी से निकले। रास्ते में गाड़ी खराब होने का बहाना बना कर ठाकुर ने देर कर दी। संस्कार क्रिया लेट होने पर, ठाकुर ने रात को गाड़ी चलाने में असमर्थता जताई। न चाहते हुए भी विवश पार्वती ने अपनी बेटी के कहने पर ठाकुर के साथ रात को गंगा के किनारे धर्मशाला में रुकने की बात माननी पड़ी।कई दिनों से थकी हारी पार्वती को नींद आ गई। मौके का फायदा उठाकर ठाकुर वंशिका का कपड़े से मुंह बंद कर,मानवता की सारी सीमाएं पार कर गया। शैतान ने आज कन्या की अस्मत को तार-तार कर दिया।रोते हुए वंशिका जब अपनी मां को जगाने गई तो पार्वती के प्राण पखेरु उड़ चुके थे।नि:शब्द  रात्रि में पवित्र गंगा घाट पर इस कुकृत्य का गवाह स्वयं परमात्मा तथा वंशिका की सिसकियां थी।

जिला हिसार हरियाणा
mail : mrsihag01081975@gmail.com

रविवार, 11 दिसंबर 2022

केशव शरण कविताएँ

 जाड़े की धूप: पाँच कविताएँ
________________________

( एक )

हमारी किताबें
हमारे कोट की जेबों में रह गईं

धूप में आते ही
हमारी बात-चीत के विषय बदल गए


( दो )

हरी-भूरी घास पर
धूप के घेरे में
टहलते हुए मुझे लगा
मैं सर्दी से ज़्यादा था
अँधेरे में


( तीन )

खिली धूप ने
किसे नहीं खिलाया है
गेंदे, गुलाब, सूरजमुखी
या हमें ?

खिले हुए हम
प्यार तो खिला ही सकते हैं
हाथ के साथ
दिल भी मिला ही सकते हैं


( चार )

हरी घास पर
अभी और ढेलनियाँ लूँगा
फिर झाड़ूँगा स्वेटर
धूप को कोई जल्दी नहीं है
ढलने की
फिर मुझको क्यों हो चलने की ?


( पाँच )

सिहराती सुबह से
सिहराती शाम के बीच
दुनिया का कामकाजी रूप है
शुक्र है कि धुंध नहीं धूप है
और सब बढ़िया चल रहा है
धरती का प्यार भी पल रहा है
नीले आसमान के नीचे
____________________________________
वाराणसी
9415295137

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

आस्था

बसंत भट्ट 
 
     बात उस समय की है जब मैं इंटर में था, और मेरी बोर्ड की परीक्षा चल रही थी परीक्षा सेंटर मेरे घर से करीब ४० किलो मीटर दूर था। मैं और मेरा मित्र लक्षमण सिंह जो की एक फौजी था, परीक्षा देने के लिए हम लोग घर से ही रोज जाते थे। हमारे कुछ पेपर सुबह दिन के समय थे। हम दोनों ने तय किया की हम सुबह वाले पेपर स्कूटर से और दिन वाले पेपर बस से देने जायेंगे। हमारे दिन वाले पेपर पहले थे। हमारे यहाँ से सीधी बस सेवा न होने के कारण हमें अपनी बस करीब २८ किलोमीटर बाद बदलनी पड़ती थी। हमारे दो पेपर ठीक - ठाक तरीके से हो गए। तीसरे दिन हम घर से कुछ जल्दी आ गए २८ किलोमीटर का सफर तय कर के हम अपनी दूसरी बस का इंतजार कर रहे थे। तभी हमें अपना एक मित्र दिखाई दिया हम दोनों उस से बात करने लगे उसने हमें बताया की उसने यहीं दुकान कर रखी है। और पास में ही मेरा कमरा है। वह बोला चलो कमरे में चलते हैं।
     हमारी बस आने में अभी टाइम बचा था। हमने सोचा क्या पता कभी कोई काम पड जाये इसलिए कमरा देख लिया जाय हम लोगों ने उसके कमरे में जाकर पानी पिया और हम वापस आकर बस का इंतजार करने लगे। काफी देर इंतजार करने के बाद बस नहीं आई तो मुझे बड़ी चिंता होने लगी। मैंने अपने मित्र से कहा जब हम लोग उसके वहा गए थे तब शायद हमरी बस निकल गयी है। अब क्या करे तभी याद आया की उसके पास मोटर साईकिल है। क्यूं न मोटर साईकिल से ही पेपर देने जांय। हम दोनों ने उसके पास जाने का निश्चय किया वह अभी कमरे में ही था। वह बोला में अभी खाना खा रहा हूँ। तुम लोग मेरी दुकान पर चले जाओ और मोटर साईकिल निकाल कर दुकान की चाभी मुझे दे जाना हम लोग उसकी दुकान पर गए। वहां पर उसकी मोटर साईकिल खड़ी थी। राजदूत कम्पनी का ओल्ड मोडल था जिसमे चाभी की जगह एक कील का इस्तेमाल किया जा सकता है। काफी कोशिश करने पर भी जब वह स्टार्ट नहीं हुई तो मैंने अपने मित्र को उसके पास भेजा तो पता लगा उसमें तेल नहीं है! मेरा मित्र तेल लेने पास के पेट्रोल पम्प पर गया , और दोनों तेल लेकर साथ ही आ गए।
     तेल मोटर साईकिल में डालकर उसने स्टार्ट कर के मोटर साईकिल मेरी हाथ में दे दी तभी मुझे हमारी बस दिखाई दी। मैंने अपने मित्र लक्ष्मण सिंह को कहा मोटर साईकिल को छोड़ कर बस से चलते है वह बोला अब तो तेल भी डाल दिया है , मोटर साईकिल से ही चलेंगे। मैंने भी हां कह दी हम लोग मोटर साईकिल से परीक्षा देने चल दिए। हम बातें करते हुए मजे से चले जा रहे थे, अभी हम करीब ४ किलोमीटर ही चले होंगे मोटर साईकिल एकदम बंद हो गयी। मैंने दुबारा स्टार्ट की फिर मोटर साईकिल फिर थोड़ी दूर चली और फिर बंद हो गई। मैंने फिर स्टार्ट की मोटर साईकिल थोड़ा, चलती फिर बंद हो जाती। हमारी परीक्षा का टाइम हो गया था। मैं तो रोने लगा। मेरा दोस्त बोला - मुझे तो कोई चिंता मैंने पढ़ा भी नहीं है। लेकिन मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था। मेरा दोस्त धक्का लगाते -लगाते थक गया था। वह सड़क के एक किनारे बैठ गया था। अब तो बाईक भी स्टार्ट नहीं हो रही थी।
     रोते -रोते मैं भगवान को याद कर रहा था और मोटर साईकिल में किक मार रहा था। लेकिन मोटर साईकिल स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी। मुझे तभी माँ पूर्णागिरी की याद आई मैंने उनका नाम ले कर के मोटर साईकिल में किक मारी मोटर साईकिल स्टार्ट हो गई। मैंने अपने मित्र को बैठने को कहा अब हमारी मोटर साईकिल स्कूल के गेट पार कर बंद हो गई। मैंने मोटर साईकिल को खींच स्कूल के ग्राउंड में खड़ी कर दी और परीक्षा रूम की और हमने दौड़ लगा दी। हम लोग २० मिनट लेट थे। जल्दी से पेपर व कापी लेकर मैं लिखने बैठ गया मेरा पेपर ठीक से हो गया था। पेपर छूटने के बाद मैं और मेरा मित्र मोटर साईकिल को धक्का लगाते हुए मोटर साईकिल की दुकान पर ले गए। मैकेनिक ने मोटर साईकिल की जांच कर बताया कि प्रेशर वाली पाइप जंग लगकर गली हुई है। और वह बोला इस मोटर साईकिल की कंडीशन को देखकर तो यह लगता है कि यह महीनों से खड़ी थी। तभी मुझे ध्यान आया जब मैंने उसकी दुकान से मोटर साईकिल को बाहर निकला था वह धूल से सनी हुई थी। वह बोला यह चलाने लायक थी नहीं आप लोग कैसे ले आये।
     क्या यह माँ की कृपा थी जो हम परीक्षा में बैठ पाये? जो भी हो, मैं इंटर में पास हो गया था। जब जब भी यह वाकया मुझे याद आता है, मुझे चमत्कृत करता है और ईश्वरीय शक्ति में मेरी आस्था को सुदृढ़ करता है।

भयमुक्त शिक्षा

टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"
 
         कक्षा आठवीं में हिंदी के अध्यापक ने "आरूणि की गुरुभक्ति" वाला पाठ पढ़ाया। अध्यापक के पूछने पर पूरी कक्षा ने पाठ बहुत अच्छी तरह समझ आने की बात कही। अध्यापक ने संतुष्ट होते हुए कहा - "पाठ के अंत में अभ्यास के अंतर्गत केवल पाँच प्रश्न हैं। सभी पूरे प्रश्न का उत्तर लिख कर लाएँगे। यह गृहकार्य है।" हाँ में ही जवाब आया।
          दूसरे दिन किसी ने भी पूरे प्रश्नों का उत्तर लिख कर नहीं लाया। एक छात्र ने तो एक भी प्रश्न का उत्तर लिखकर नहीं लाया।अध्यापक ने छात्र से कारण जानना चाहा- "पाठ समझ नहीं आया क्या जी ?"
          "समझ आया सर।" छात्र तपाक से बोला।
          "फिर...?" अध्यापक ने पूछा।
          "नहीं लिखा; और नहीं लाया, बस।" छात्र निर्भयतापूर्वक बोला।
          अध्यापक ने अब कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। उन्हें भयमुक्त शिक्षा का अभिप्राय समझ आ चुका था।
                   ----//----
घोटिया बालोद (छत्तीसगढ़)
सम्पर्क : 9753269282.

एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल  नये साल पर







हर झोली में वृद्धि पाए इस युग में नव साल।
एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल।
नव युवकों में बौद्धक शक्ति उत्तम विद्या आए।
जैसे अम्बर भीतर तारे, सूरज चाँद समाए।
कूड़ नशा छल कपट भगाए इस युग में नव साल।
एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल।
भिन्न-भिन्न फूलों भीतर है समता की खुशहाली।
एक ही जड़ की बिकसन से खिल जाए डाली-डाली।
दीमक से हर डाल बचाए इस युग में नव साल।
एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल।
सत्ता में हो शुद्ध सियासत और बने अनुशासन।
रिश्वत भ्रष्टाचार से मुक्ति जनगण में प्रतिपादन।
एक सुन्दर संसार बनाए इस युग में नव साल।
एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल।
हर घर में चूल्हा अपना अस्तित्व स्थापित रखे।
मानव अपने हर रिस्ते में प्यार सम्मिलित रखे।
सृजनता के फूल खिलाए इस युग में नव साल।
एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल।
बालम मानवता के भीतर शिष्टाचार बनेगा।
सत्कार बने, किरदार बने, शुद्ध आचार बनेगा।
सरस्वती के दीप जगाए इस युग में नव साल।
एक क्रान्ति लेकर आए इस युग में नव साल।
बलविंद्र बालम गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब)
9815625409

सोमवार, 21 नवंबर 2022

सोहराय चित्रकला में प्रकृति का मर्म



 कविता विकास
( लेखिका व  शिक्षाविद्)
मनुष्य के लौकिक – पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुरूप आचार – विचार की संहति को ही संस्कृति कहा जाता है । जिन चेष्टाओं द्वारा मनुष्य अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उन्नति करता हुआ सुख – शांति प्राप्त करता है ,वे चेष्टाएँ ही संस्कृति कही जा सकती हैं । संस्कृति वाकई में मानव – जीवन के विविध पक्षों से सम्बद्ध एक सतत विकासमान प्रक्रिया है , जिसमें देश और जाति विशेष  की परम्पराओं का विशेष महत्त्व होता है । वस्तुतः किसी भी देश की संस्कृति उस देश के खान – पान , वेश – भूषा , आचार – विचार , रीति – रिवाज़ , ज्ञान – विज्ञान , मान्यताओं – प्रवृतियों का सम्यक बोध कराती है ।इसलिए बुद्धिजीवी किसी देश की संस्कृति पहचानने के लिए वहाँ के साहित्य , संगीत – नृत्य और चित्रकला – मूर्तिकला को जानने की सलाह देते हैं ।
प्रत्येक कालखंड का साहित्य अपने समय के परिवेश और प्रकृति से बँधा होता है। परिवेश भले ही बदल जाए,पर मानवीय संवेदनाएँ जीवित रहती हैं, जिसे पीढ़ियाँ अपने साथ जीती हैं। यही साहित्य उस स्थान विशेष की संस्कृति का परिचय देती है। लोक संस्कृति किसी देश या राज्य की धड़कन होती है जो लोक राग में वास करती है। झारखंड का एक बहुत ही लोकप्रिय पर्व सोहराय है,जिससे जुड़े हुए पहलुओं पर एक नज़र डालें तो हम पाएँगे कि आदिवासियों का जीवन यूँ ही नहीं जल, जीवन और जंगल से जुड़ा  होता है। प्रकृति को भगवान मानने वाले सरल हृदयी आदिवासियों में धरती को पल्लवित  करने वाले सारे तत्त्वों के प्रति कृतज्ञता होती है,जिसे वे पर्वों के माध्यम से मनाते हैं।
                सम्पूर्ण भारत जब दिवाली का महापर्व मानता है, उस समय विशाल झारखंड प्रदेश और उड़ीसा, बंगाल, छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी बहुल जिले छः दिवसीय सोहराय पर्व के उल्लास में मग्न रहते हैं । इस छह दिवसीय पर्व में एक महीना पहले से ही किसान घर – आँगन, खेत – खलिहान आदि की साज – सफ़ाई में जुट जाते हैं। घर की दीवारों में मिट्टी की लेप चढ़ा कर कलात्मक तरीक़े से चित्रकारी की जाती है। यही चित्रकारी सोहराय चित्रकारी कहलाती है जिसमें चावल के बुरादे,पत्ते तथा लाल – सफ़ेद रंगों का प्रयोग होता है। मिट्टी के रंग का प्रयोग मुख्य है। कृत्रिम रंगों का प्रयोग वर्जित है।
पहला दिन,तेल ढ़ेउआ कहलाता है,इस दिन किसान अपने पशु धन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए उन्हें नहला – धुला कर हरा चारा खिलाते हैं तथा सींगों पर तेल – सिंदूर लगा कर पूजा करते हैं।
दूसरा दिन,धाउआ कहलाता है,इस दिन भी पशुओं को नहला कर सजाते हैं, तथा अगले दिन पिट्ठा बनाने के लिए चावल भीगाया जाता है जिसे फिर ढेकी में कूटा जाता है।
तीसरा दिन,गठ पूजा या अहिरा कहलाता है,जिस दिन हम दीवाली मनाते हैं।यह सोहराय का ख़ास दिन होता है।सबके घरों से ढेकी कूटने की आवाज़ आती है और लोग तरह – तरह का पिट्ठा बनाते हैं। गाँव के महतो,पाहन या लाया द्वारा गठ यानी जहाँ पशुओं को रखा जाता है,वहाँ पूजा की जाती है।गाँव के सारे पालतू पशुओं को उस पूजा – स्थल से पंक्तिबद्ध करके पार कराया जाता है और उनकी गिनती की जाती है। यह बहुत ही मनोरम दृश्य होता है। पूजा – स्थल का प्रसाद जो पशु खा लेता है, उस पशु का मालिक महतो, पाहन या लाया को वस्त्र – दान करते हैं।जब सारे पशु अपने – अपने घर पहुँचते हैं, तब गोहाल के दरवाज़े पर पत्ते में चावल का गुंडी और घी का पलीता जलाया जाता है।इसे काँची – दियारा कहते हैं।शाम होते ही लोग टोली बना कर ढोल,माँदर और शहनाई लेकर बजाते हुए, गीत गाते हुए एक – दूसरे के घर जाते हैं जिसे जाहली या अहिरा गीत कहते हैं। इस गीत के भाव में महामाया एवं गौमाता का गुणगान होता है। गृहस्वामी हरेक टोली को पिट्ठा खिलाते हैं और पैसे देकर विदा करते हैं। रात को जागरण की जाती है और गोहाल में घी का दीया जलता रहता है। 
चौथा दिन,गरइया पूजा या गोहाल पूजा के दिन घर – आँगन की पुताई करके हाल,कूदाली और अन्य कृषि उपकरण को धोकर लाया जाता है तथा तुलसी के चौबारे के पास रखा जाता है। नए वस्त्रों में स्त्रियाँ इनकी पूजा करती हैं इस दिन का विशेष आकर्षण चावल की गुंडी और पत्तों के लार से बनाई जाने वाली अल्पना है। इस अल्पना का प्रकार अलग – अलग होता है। दरवाज़े पर धान की बाली और लक्ष्मी-प्रतीक बनायी जाती है जिसे मारोड कहते हैं तथा साल भर दीया जलाया जाता है। 
 पाँचवा दिन,बरद खूँटा, इस दिन किसान माँस  – भात खाने के बाद पान खाते हैं। अल्पना बनायी जाती है जिसमें चावल की गुंडी का इस्तेमाल होता है। गाँव में जगह – जगह पर खूँटे से बैलों को बाँध कर ढोल – नगाड़े के साथ अहिरा गीत के सुर में बैलों को नचाया जाता है।
 छठा दिन ,गुड़ीबांदना यानी बूढ़ीबांदना,पशुओं की वंदना करने के कारण इसे बांदना कहते हैं। भैंसों को खूँटे से बाँध कर इस दिन माँसाहारी भोजन करने की प्रथा है।
झारखंड के कलात्मक स्वरूप का आकार तय करने में सोहराय कला के योगदान को नकारना सम्भव नहीं है। हज़ारों वर्ष पुरानी मानी जाने वाली यह कला प्रायः विलुप्त होने के कगार पर थी,पर कुछ ग़ैर सरकारी संस्थानों के प्रयास और स्थानीय आदिवासियों की मेहनत से इस कला को पुनर्स्थापित की गयी है। गुमला जिले के सिसई के पास नवरत्नगढ़ के नागवंशी राजा के महल में इस कला के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हज़ारीबाग़ स्थित बादम क्षेत्र की गुफ़ाओं से इस कला के प्रारम्भिक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।  इनमे चित्रकारी के साथ – साथ लिपि का भी प्रयोग होता था,जिसे वृद्धि मंत्र कहा जाता है। यहीं से धीरे – धीरे यह कला समाज में पहुँची।
          इस कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सकारात्मक गतिविधियाँ हैं ।इस कला में सम्पूर्ण चित्र का अंकन एक ही बार किया जाता है। तदुपरांत चित्रकार अपनी कल्पना के अनुरूप रंग भरता है। इसके चित्र प्रकृति एवं मानव के बीच सामंजस्य के अद्भुत अनुभव का जीवंत प्रमाण है क्योंकि इस कला का मूल विषय ही प्रकृति है। इस कला के कुछ उल्लेखनीय कलाकारों के नाम इस प्रकार हैं – जयश्री इंदवार ,अवनि भूषण,ज्योति पन्ना, बुलु इमाम आदि।
लोक की सृजनात्मक में जो बहुलता है उसमें एक मुख्य स्थान सोहराय कला का है। झारखंड की लोक कथाओं में जब पेड़ बोलते हैं,पहाड़ नाचते हैं और धरती गमन करती है तो इनका कोई ना कोई सूत्र सोहराय से भी जुड़ा रहता है। जब तक प्रकृति के विभिन्न रूपों को मानव चेतना स्वीकार करता रहेगा, सोहराय कला भी जीवित रहेगी। लोक संस्कृति जीवन में आस्था, गति, पहचान, शक्ति और नैतिकता का पोषण करती है। इनमें जीवन दर्शन और परमात्मा की शक्ति भी दिखायी जाती है। इन्हें जीवित रखने के लिए और इनके मर्म को आत्मसात करने में हर नागरिक का योगदान ज़रूरी है। 
प्रकाशन - दो  कविता संग्रह (लक्ष्य और कहीं कुछ रिक्त है )प्रकाशित।आठ साझा कविता और एक साझा ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित। हंस,परिकथा,पाखी,वागर्थ,गगनांचल,आजकल,मधुमती,हरिगंधा,कथाक्रम,साहित्य अमृत,अक्षर पर्व  और अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार निरंतर प्रकाशित । दैनिक समाचार  पत्र - पत्रिकाओं और ई -पत्रिकाओं में नियमित लेखन । राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित।
सम्प्रति – डी ए वी संस्थान,कोयलानगर, धनबाद
संपर्क - डी. - 15 ,सेक्टर - 9 ,पी - कोयलानगर ,जिला - धनबाद,पिन - 826005 ,झारखण्ड
Mobile - 09431320288

शनिवार, 19 नवंबर 2022

डॉ 0 आरती कुमारी की गजलें

 1

तेरे हमराह यूँ चलना नहीं आता मुझको 
वक़्त के साथ बदलना नहीं आता मुझको 

मैं वो पत्थर भी नहीं हूँ कि पिघल  भी न सकूँ
मोम बनकर भी पिघलना नहीं आता मुझको 

क़ीमती शै भी किसी राह में खो जाये अगर 
हाथ अफ़सोस में मलना नहीं आता मुझको 

तुम मुझे झील सी आँखों से अभी मत देखो 
डूब जाऊँ तो निकलना नहीं आता मुझको 

आग का मुझ पे असर कुछ नहीं होने वाला 
तुम जलाओ भी तो जलना नहीं आता मुझको
2



हम न होंगे कल मगर इक वाकिया रह जायेगा
नफ़रतों में प्यार का इक सिलसिला रह जायेगा

आज तेरे सामने हूँ देख ले जी भर मुझे
कल जहां में मैं नहीं मेरा कहा रह जायेगा

इस तरह चलती रहीं जो आँधियाँ नफ़रत भरीं
क्या रहेगा घर सलामत क्या दिया रह जायेगा

इस तरह लड़ते रहे तो एकता मिट जाएगी
देखना ये मुल्क इक दिन खोखला रह जायेगा

फिर कहाँ कोई मुसीबत रोक पायेगी उसे
दिल में उसके गर ज़रा सा हौसला रह जायेगा

हमको ख़ुद तूफ़ान ही पहुंचाएगा मंज़िल तलक
सरकशी वो भी हमारी देखता रह जायेगा


3


साफ़ दिल रहिए ख़ुश सदा रहिए

जैसे होंठों पे इक दुआ रहिए


मुझको अपना बना लो जैसी हूँ

ये न कहिये कि फूल सा रहिए


ऐसे रहिए कि क़द ज़मीं पर हो

क्या है मतलब कि चर्ख़ सा रहिये


दर्द सहते बशर की ख़ातिर आप

तपते सहरा में अब्र सा रहिए


ये मुहब्बत बहुत हसीं शय है 

 हाँ, इसी में मुब्तिला रहिए


4


ये धरती और सागर भूलकर अगली सदी में हम

बनाएंगे सुनो चंदा पे घर अगली सदी में हम


न घबराएंगे बाधा से न हारेंगे निराशा से

चलेंगे मुश्किलों को पार कर अगली सदी में हम


अभी देखो सिसकता है ये बेबस बेज़ुबां बचपन

भटकने अब न देंगे दर ब दर  अगली सदी में हम


न मुखरित है व्यथा सबकी न तो संवेदनाएं हैं 

निकालेंगे सभी के दिल से डर अगली सदी में हम


समय रहते बचाना है हवा पानी औ पेड़ों को

नहीं तो रोयेंगे फिर सोचकर अगली सदी में हम


**



परिचय


*नाम- डॉ 0 आरती कुमारी
*जन्म / जन्म स्थान- 25/03/1977,  गया
*शिक्षा - एम.ए(अंग्रेज़ी, हिंदी), पीएचडी (अंग्रेज़ी), एम.एड., नेट(शिक्षाशास्त्र) 
सम्प्रति- व्याख्याता
*प्रकाशन- धड़कनों का संगीत ( काव्य- संग्रह), साथ रखना है (ग़ज़ल संग्रह)
*संपादन- ये नए मिज़ाज का शहर है, बिहार की महिला ग़ज़लकार (लोकोदय प्रकाशन)
*पंजाबी , नेपाली एवं गुजराती में रचनाएँ अनुदित
*आकाशवाणी, दूरदर्शन से कविताओं और ग़ज़लों का प्रसारण  विभिन्न सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच संचालन
*कविताकोश, रेख़्ता एवं समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल एप में ग़ज़लें संकलित
*अंग्रेज़ी में कविताओं का प्रकाशन
*सम्मान- चित्रगुप्त सामाजिक संस्थान , पटना द्वारा गोपी वल्लभ सहाय सम्मान 2013,   बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा " उर्मिला कौल साहित्य साधना सम्मान'2018 एवं हिंदी - सेवी सम्मान 2018, निराला स्मृति संस्थान, डलमऊ द्वारा ' सरोज स्मृति सम्मान 2018 ,नवशक्ति निकेतन9..m  संस्था द्वारा 'शाद अज़ीमाबादी सम्मान 2020' , अंतरराष्ट्रीय हिंदी परिषद द्वारा 'राजभाषा शिखर सम्मान 2021' , धड़कनों का संगीत संग्रह पर श्रेष्ठ साहित्य सृजन सम्मान 2022,  कुमार नयन स्मृति पुरस्कार 2022 आदि

 

*वर्तमान/स्थायी पता- 
शशि भवन
आज़ाद कॉलोनी, रोड 3
माड़ीपुर, मुज़फ़्फ़रपुर बिहार
फोन नं/वाट्स एप नं-8084505505
 *ई-मेल- artikumari707@gmail.com

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

रूममेट


महेश कुमार केशरी
 
     कमबख्त  कुछ भी तो नहीं बदला है सारी चीज़ें ज्यों की त्यों अपनी जगह पर जमा हैं  लगता है  जैसे  कैलेंड़र को उठाकर  एक आले से  दूसरे आले  पर रख दिया गया हो ! रौशनी, में क्या  बदला है । सब कुछ तो वैसा ही है । अलबत्ता बालों के बीच से कुछ सफेदी झाँकने लगी है । लेकिन वो  पहले की तरह ही खुबसूरत है। नख से शिख तक । गोरा रंग, लंबी नाक, कत्थई आँखें ईश्वर ने जैसे उसे बहुत ही  मेहनत से बनाया है।
- अरे तुम --- कैसे हो, बहुत दिनों के बाद । 
      रमेश बस मुस्कुरा कर रह भर  जाता है ।
     उसके साथ एक चार पाँच . साल का बच्चा भी है। चेहरा कुछ . कुछ रौशनी से ही मिलता जुलता है । ये शायद दूसरा बच्चा है । क्योंकि जहाँ तक  रमेश को  उससे मिले कुछ  बीस - बाईस एक साल तो हो ही गये होंगे।
- ये दूसरा वाला है । मेरा छोटा बेटा । उसने तस्दीक की
- कितने साल का है ।
- इस साल पाँच साल का हो जायेगा ।
     कुछ देर उनके बीच चुप्पी के कतरे तैरते रहते हैं । समय का हर एक सेकेंड़ जैसे किसी राक्षस की तरह रमेश को अपने जबड़े में खींच लेने को तैयार है । लेकिन, ये भारी  पल रौशनी को भी उसके सीने पर किसी पत्थर की मानिंद लगतें हैं । शायद वे दोनों ही इस स्थिति के लिये तैयार नहीं हैं । कभी  - कभी हमारे जीवन में हम  ऐसे पलों को भी महसूस करतें हैं । जिसमें हम ईश्वर से ये कामना करते हैं कि ये पल हमारी जिंदगी से अगर निकाल दिये जायें तो हम ईश्वर के आजीवण ऋणी रहेंगें। 
     तभी रौशनी ने  बच्चे को संबोधित किया -   अर्णव ---- अर्णव अपनी माँ की तरह ही समझदार है । झुककर रमेश के  पैरों को छूता है । रमेश बच्चे को पुचकारता है - अरे, नहीं बेटा ! ये सब नहीं । बड़ा प्यारा नाम है अर्णव , और उतने ही प्यारे हो तुम । खूब पढ़ो, खूब तरक्की करो तुम । भगवान्  से यही प्रार्थना  है मेरी ।
      रमेश, रौशनी  को आँखें  कड़ी करके देखता है . तुम्हें  तो पता ही  है । मुझे शुरू से ही  ये सब पसंद नहीं है।
     रौशनी बस मुस्कुरा कर रह भर जाती है । 
     रमेश खिलौने की दूकान से एक चॉकलेट खरीद कर अर्णव की ओर बढ़ा देता है। वो माँ की तरफ देख रहा है । मानों उसे माँ से इजाजत चाहिये । रौशनी मुस्कुराते  हुए , अपनी  मौन स्वीकृति दे देती है । अर्णव  चॉकलेट लेकर खाने लगता है ।
- और क्या हो रहा है।  अभी दिल्ली में ही हो या । जैसे रौशनी पूछना चाह रही हो । अभी भी सिविल सर्विसेज की तैयारी में ही लगे हो । रमेश ----।
सकुचाते  हुए रमेश जबाब देता है - नहीं अब मैं मास्को, में रहता हूँ । यहाँ पर जेएनयू के रुसी भाषा विभाग के सालाना वार्षिकोत्सव  में भाग लेने आया था । हर साल आता हूँ । यहाँ के प्रोफेसर , सब मुझे जानते हैं । वहाँ  मैं रुसी भाषा और साहित्य  पढ़ाता  हूँ । कुछ साल प्राग में भी रहा । वहाँ बच्चों  को रूसी भाषा और साहित्य  पढ़ाता था ।
     रमेश अपने शब्दों के सिरे को एक बार  फिर से, जोड़ता है । मैं अब भारतीय नहीं  हूँ । मैनें रूसी  नागरिकता  ले ली है । अब रूस में ही मेरा घर है ।
- ओह ! इसलिये तुम्हारे चेहरे का रंग इतना लाल हो गया है और तुम्हारे  बाल भी तो ललिहाँ भूरे दिख रहें हैं , लेकिन तुम तब भी खुबसूरत  थे और आज भी हो।
     रमेश के दिल में एक बार आया कि वो कह दे कि  तब तुम्हें  कहाँ  मेरी खुबसूरती दिखी थी । लेकिन इन सब बातों का अब कोई मतलब भी नहीं है ।
- शादी हो गई या ऐसे ही हो ---  वो शायद ऐसे ही पूछती है। लेकिन  उसके  लिए  इसका उत्तर देना आसान नहीं होता । 
- हाँ,  रूस में एक सर्लिन कुरसोवा नाम की लड़की है । मैनें उससे शादी कर ली है । वो भी रूसी भाषा और साहित्य  मॉस्को यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है । फिर वो आगे जोड़ता है - तुमसे कुछ दस . एक साल छोटी ही होगी । दरअसल वो मेरी छात्रा थी, मैं उसे रूसी भाषा पढ़ता था ।
     वो रौशनी को जलाने के लिया कहता है - दरअसल वो मेरे रूसी भाषा के ज्ञान और व्याकरण  की शुद्धि के कारण ही  मुझसे प्रभावित हुई थी । मैनें कई देशों की यात्राएँ की कुछ साल फ्राँस में भी रहा । कुछ साल जर्मनी और अमेरिका के विश्वविधालयों में भी प्रोफेसर रहा । वहाँ मैं रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता रहा । वो अतीत के किसी पतझड़ वाले  साल के पत्ते बटोरने लगता है । जिसके पत्तों  में उसके आँखों की नमी जज्ब है ।
     रौशनी के शब्दों  में तो उसने यही कहा था - प्रैक्टिकल  बनो यार, प्रैक्टिकल !  इतना मन मसोसने की जरूरत नहीं है । तुम्हें मुझसे भी अच्छी लड़की मिल जायेगी । 
     अगर घर वालों का दबाव ना होता तो मैं तुमसे ही शादी करती, लेकिन मम्मी .पापा का दबाव है । मैं अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर रही हूँ । तुम्हें तो पता है । हम मिडिल क्लास लोग हैं । आज भले ही मेरा यू  पी एस सी क्रैक हो गया है लेकिन अपने मम्मी  पापा को मैं ना नहीं बोल सकती । किसी ने सही कहा है, वक्त इंसान और आदमी के हालात बदलते  रहतें हैं ।
     रमेश के  मन में उस वक्त  ये ख्याल  आया था कि वो  कह दे  कि ना तो सिर्फ  तुम मुझे ही कह सकती हो । तुम्हारे लिये ये आसान भी है लेकिन , तुम ये क्यों  नहीं समझती कि हम एक . दूसरे से प्यार करतें हैं । लेकिन, यहाँ प्यारे कौन कर रहा था । सही बात है पद और  प्रतिष्ठा  मिलते ही आदमी अपनी औकात भूल जाता है । उसको अपने खुद के जैसे साधारण लोग भी  बेहद  घटिया और दो कौड़ी के लगने लगते हैं तो क्या रमेश भी रौशनी की नजरों में दो कौड़ी का आदमी था । नहीं उसे वो पिछले सात . आठ सालों से जानता है  उसकी बातों से कभी उसे ऐसा नहीं लगा कि वो इस तरह से बदल जायेगी कि  एक सिरे से उसके और अपने रिश्ते  को खारिज़ कर देगी । कभी . कभी रमेश ये भी सोचता कि बेकार ही वो रौशनी से मिला । बेकार ही उसने रौशनी को रूम पार्टनर बनाया । अगर रूम पार्टनर भी बनाया तो एक दूरी बनाकर रखता उससे लेकिन नहीं ऐसा नही हो सका शुरूआती दिनों से ही वो रौशनी को दिल से चाहने लगा था । वो देवी की तरह उससे प्रेम करता था । रौशनी, उसके लिये प्रेम की नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी अगर वो रौशनी से नहीं मिलता या अगर वो उसकी रूम पार्टनर नहीं होती तो क्या वो उससे प्यार कर पाता । नहीं ना दिल्ली  बहुत बड़ा शहर है । सैकड़ों . लाखों लड़कियाँ आतीं हैं । इस शहर में । क्या  उसे सब लड़कियों से प्रेम हो  जाता । नहीं ना । ये तो संयोग ही था कि उससे रौशनी की मुलाकात  हो गई और वो उसकी रूम पार्टनर  बन गई । क्या कोई और लड़की उसकी रूम . पार्टनर होती तो क्या वो उससे भी प्रेम कर बैठता । नहीं उसे पता नहीं । वो कुछ भी सोचना नहीं चाहता था ।  वो इस सवाल को टाल जाना चाह रहा था । उन दिनों उसकी हालत बिल्कुल  पागलों की तरह हो चुकी थी । रौशनी से ब्रेकप के बाद उसने सिविल सर्विसेज की तैयारी करना ही छोड़ दिया था । उसे रौशनी नाम और  सिविल सेवा की तैयारी से चिढ़ सी हो गई थी ।  उसका आत्म - विश्वास जाता रहा था । उसने मुखर्जी नगर के अपने उस  पुराने फ्लैट को भी  छोड़ दिया था । अब वो भाषा और साहित्य को पढ़ने लगा था । अब उसे लुशून , मैक्सिम गोर्की, विक्टर  ह्यूगो को पढ़ना अच्छा  लगता था । अब उसे चीनी, रूसी, जापानी भाषा का साहित्य  पढ़ना . लिखना बहुत भाने लगा था । इस घटना के बाद उसने जेएनयू के भाषा विभाग में दाखिला ले लिया था । वहीं उसने कई विदेशी भाषाओं का अध्ययन किया । उनके साहित्य के अध्ययन में जुट गया । बाद में उसे मास्को यूनिवर्सिटी में बतौर प्राध्यापक की नौकरी मिल गई थी । बहुत साल रूस में रहा । वहाँ अध्यापन का कार्य किया । प्राग से जब रूसी भाषा पढ़ाने का उसको सामने से मौका मिला तो वो टाल ना सका।
     वो कभी - कभी  अखबार के कतरनों के कोनों अंतरों में ये खबर पढ़ता कि अमुक लड़के ने अमुक लड़की  के चेहरे पर तेजाब से हमला कर दिया या किसी लड़के ने लड़की को चाकू मार दिया और पुलिस ने लड़के को गिरफ्तार कर लिया है । कैसे करतें होंगें ऐसा लोग। खासकर तब जब वे एक - दूसरे से प्रेम करते हों क्या उनकी भी ऐसी ही मनोदशा होती होगी । उस समय उस प्रेमी को, वैसा ही लगता होगा । जैसा अभी रमेश को लग रहा है या कि जैसी उसकी मनोदशा अभी है । अखबार में कभी - कभी ये भी छपा होता कि लड़के ऐसा एकतरफा प्रेम में पड़कर करतें हैं और कभी - कभी वो बलात्कार की घटनाओं के बारे मैं भी पढ़ता तो उसको लगता कि क्या ऐसी मनोदशा में ही लोग बलात्कार भी करतें हैं । क्या उसकी मनोदशा भी एक एसिड़ अटैकर की या एक बलात्कारी की हो गई है । क्या वो इतना क्रूर हो गया है कि वो रौशनी के ऊपर तेजाब फेंक देगा या उसके साथ बलात्कार करेगा । क्या वो इतना कुँठित हो गया है लेकिन, उसे वो इतनी आसानी से भूल भी तो नहीं पायेगा ।
      प्रेम को पगने में समय लगता है । आठ साल,  अट्ठारह साल --- या फिर एक सदी, या कई - कई सदी । लेकिन ये तो बिछोह था । किसी जन्म में अनकिये या किये का प्रतिदान, लेकिन इस किये - अनकिये का दु:ख अकेले वो ही क्यों भोगे । जबकि प्रेम उसने अकेले थोड़े ही किया था । जो अकेले ही प्रतिदान पाता। रौशनी को भी तो प्रतिदान मिलना चाहिए ।
     प्रेम के तो नायाब उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं । उसका प्रेम उदात्त प्रेम है । जैसे कृष्ण जी और राधा जी ने किया था । रोमियो और जूलियट ने । हीर और राँझा ने किया था । प्रेम में केवल लेना नहीं होता, देना भी होता है । धरती पर ऐसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं जो सशरीर कभी मिले ही नहीं लेकिन, आज भी जमाना उनकी मिसाल देता है।
     वो जितना प्रेम के बारे में सोचता है । उतना  ही उलझता जाता है । लगता है दिमाग के तंतु फट जायेंगें । लेकिन वो, कभी - कभी लचीला भी हो जाता है । वो मठो - मंदिरों के बारे में सोचता है कि वो कहीं काशी, मथुरा, हिमालय या बनारस चला जाये । मोक्ष की नगरी, जहाँ चितायें, जलती हों । जहाँ जीवण का सार पता चले । वो अपनी चिता खुद जलती देखे । समझे इस निस्सार दुनिया को जलते हुए वो लोगों के सच - झूठ  को समझे । आखिर ईश्वर से प्रेम भी तो प्रेम ही है । अलमस्त हो जाये । पीरों की तरह, भूल जाये घर - द्वारा माँ - बाप की चिंता । जोगियों या साधुओं की तरह जाति - पाती । ऊँच - नीच, धर्म - मजहब, से ऊपर उठ जाये । लोग कहतें हैं । ये जो ए हट्टे - कट्ठे योगी हैं । महात्मा हैं । ये लोग अकर्मण्य लोग हैं । काम से भागने वाले, फिर काम कौन करता है । महलों के धन्ना सेठ या राजनेता । सारी जिंदगी वे दूसरों के श्रम पर पलतें हैं । लेकिन जिनके श्रम पर पलते हैं । उनको ही हेकड़ी दिखाते हैं । सुबह से शाम तक इनका कॉलर कभी गँदा नहीं होता लेकिन ये मालपुये और छप्पन भोग खाते हैं । श्रम करके खाने वाला दिहाड़ी मजदूर अगले दिन क्या खायेगा । इस बाबत वो सोचता है, ऐसे देखा जाये तो ये जो अलमस्त जोगी हैं । इन्होंने  जीवण के सार को जान लिया है । तभी तो वे खाना बदोश हैं बिल्कुल नदी की तरह ! नदी भी तो प्रेम की तरह है उन्मुत - उश्रृंखल । नयी लयात्मकता के साथ आगे रास्ता तलाशती हुई । ऊँचे - पहाड़, पठार - मैदानी - भूभाग सबको फलाँगती हुई ! कोई सीमा - रेखा नहीं ना कोई - देश ना कोई धर्म ना कोई जाति ना इंसानों की तरह नफरती सोच ना लोभ ना लालच !
     प्रेम भी नदी की तरह ही होता है । बहता जाता है । नदी की तरह स्वायत्त ! देश, नागरिकता, धर्म, मजहब, से दूर । सरहदों से परे । इसे बाँधा नहीं जा सकता । सीमाओं में । प्रेम संगीत की तरह होता है । आप किसी दूसरे देश में चले गयें हैं । आपको कोई संगीत सुनाई पड़ता है । और आपकी ऊँगलियों और पैरों में जुँबिश होने लगती है । अपनी कुँठा के कारण ही आदमी देश, समाज, जाति - पाति, ऊँच - नीच, छोटे - बड़े, अमीर - गरीब में बँटा हुआ है ।
     साधुओं, पीरों को कभी देखा है, चिंतित होते हुए । उन्हें नहीं पता कल क्या होगा । कल वो क्या खायेंगें। कल उनका ठौर कहाँ होगा लेकिन, चिंता मुक्त हैं । आज यहाँ रूके, कल वहाँ । ना कोई स्थायित्व ना कोई झमेला । झमेला तो दुनिया दारी से जुड़े लोगों का है । दिनभर तनाव में बिताते हैं । नमक रोटी की जुगाड़ा में। जिंदगी भर दौड़ते रहो । लेकिन कहीं शाँति नहीं मिलती । दम भरने की भी फुरसत नहीं । जैसे जिंदगी की रेस में बेवजह दौड़ रहें हों । आखिर, क्या हासिल कर लेंगें । वो जिंदगी के सबसे आखिरी छोर पर । जब वो ये बात सोचता है कि वो बनारस या काशी या मथुरा चला जाये और अपना दाह - संस्कार  होते देखे तो उसके शरीर में कोई  झुरझुरी पैदा नहीं होती । कभी - कभी उसको लगता है कि वो कोई दार्शनिक हो गया है अरस्तू, सुकारात की तरह । आखिर ऐसी बहकी - बहकी बातें भला कौन करता है । कोई  है जो उसके तर्कों को काटकर दिखाये । वो झूठ भी तो नहीं कह रहा । इतनी माथा - पच्ची के बाद भी वो किसी निष्कर्ष  पर नहीं पहुँच पाता । ये जिंदगी भी  कितनी ऊहा - पोह से भरी पड़ी है !
      लेकिन बलिदान आखिर रमेश ही क्यों दे । लालच क्या रौशनी के मन में नहीं आ गया था । वो पद - प्रतिष्ठा और रूपये - पैसों को ही बहुत ज्यादा अहमियत नहीं देने लगी थी । क्या हुआ अगर वो यू.पी.एस.सी. क्रैक नहीं कर पाया । बहुत सारे लोग हैं । जो यू.पी.एस.सी. क्रैक नहीं कर पाते तो क्या उनके साथ किया हुआ लोगों का  कमिटमेंट लोगों को भूल जाना चाहिए । और पैसा आदमी के जीवन में आता जाता रहता है लेकिन प्यार नहीं । हरीश ने बेशक यू.पी.एस. सी. क्रैक कर लिया हो । लेकिन प्यार तुम उससे नहीं करती । ये तुम भी जानती हो । और तुमने तो सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर ली है । तुम आज की नारी हो । आधुनिक काल की । तुम पर कोई अपने विचार थोप नहीं सकता । तुम स्वायत्त हो । कुछ दिनों में तुम्हारी ज्वाइनिंग  किसी बड़े शहर में हो जायेगी । तुम प्रशासनिक अमले की प्रमुख होगी । तब भी प्रशासन को चलाने के लिये जिले को संभालने के लिये तुम अपने - मम्मी  पापा से सहयोग माँगोगी । नहीं ना ... !  उस समय तुम्हें अपने बुद्धि और विवेक का उपयोग करना होगा । क्या कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई फैसला लेते समय अपने घरवालों से पूछता है या खुद फैसले लेता है ....।
      प्रशासन संभालना और शादी - ब्याह दोनों अलग - अलग मामले हैं । प्रशासनिक व्यवस्था संभालते हुए हम निजी नहीं होते लेकिन शादी ब्याह नितांत पारिवारिक और निजी मामले होते हैं । घर वालों की मर्जी के बगैर मैं कोई फैसला नहीं कर सकती बावजूद इसके कि हम सात - आठ सालों तक अच्छे दोस्त रहें हैं । भविष्य  में भी हम अच्छे दोस्त बने रह सकतें हैं ।
      लेकिन हम दोस्ती के रिश्ते से बहुत आगे बढ़ चुके हैं । इन सात - आठ सालों में हम केवल रूम पार्टनर ही नहीं रहें हैं । बल्कि हम दोनों एक - दूसरे के सुख -  दु:ख के साथी भी रहें हैं और हम सिर्फ़ दोस्त ही नहीं हैं। ये बात तुम्हें भी अच्छी तरह पता है अगर मैं भी यू.पी. एस. सी. क्रैक कर लेता तो आज की तारीख में हम दोनों शादी कर रहे होते ।
- कर लेते तब ना ... ! रौशनी की आवाज अपेक्षाकृत  कुछ ज्यादा  ही  तेज हो गई थी ।
- तो क्या तुम मुझसे प्यार भी नहीं करतीं ....।
- बी प्रैक्टिकल यार, डोंट बी फुल । प्यार पहले करती थी लेकिन अब नहीं । लोग क्या कहेंगें । वैसे भी मुझे अब  ट्रेनिंग के लिये जाना होगा । फिर मैं तुम्हें कहाँ - कहाँ लेकर जाऊँगी । उसके बाद मेरी पोस्टिंग होगी।फिर ... । 
     उसी समय रौशनी का फोन बजता है । रौशनी फोन लेती है । फोन उसके पिता ने ही किया था शायद फोन पर आवाज कुछ स्पष्ट नहीं है । रौशनी कई बार हैलो - हैलो कहती है लेकिन आवाज फिर भी नहीं आती शायद नेटवर्क खराब था या शायद  फोन ही खराब था रौशनी फोन को स्पीकर पर ले लेती है । एक बूढ़ी आवाज स्पीकर से कौंधती है - क्या कर रही हो, अब तक तुम वहांँ । यहाँ हरीश के पापा का बार - बार फोन आ रहा है । उन्हें हाँ कहूँ या ना ।
     आखिर के लाईन रमेश की छाती में शूल की तरह पैवस्त हो जाते  हैं । उस कँगले रमेश को साफ मना कर देना शादी के लिये । हाँ मत कह देना । तुम बहुत भावुक हो, बेटी ... ।
     रौशनी बाप की बात पूरी होने से पहले ही फोन काट देती है ।
- चलती हूं मेरी शॉपिंग हो गई । रौशनी की बात से रमेश की तँद्रा टूट जाती है ।
- हाँ, चलो फिर मिलते हैं ।
     अचानक से रमेश के दिमाग में हरीश का ख्याल आता है । वो हरीश के बारे में रौशनी से  पूछता है - तुम्हारे पति हरीश नहीं दिख रहा, वो कहाँ है ।
     रौशनी के स्वर में उदासी कहीं गहरे  तक उतर आती है । पिछले साल कोविड़ में वो नहीं रहे ।
- ओह !
- तुम ठीक से रहना मॉस्को में भी बहुत से लोग मर रहें हैं । मैनें पति को तो खो दिया है लेकिन अब एक  बहुत अच्छे दोस्त को नहीं खोना चाहती । अपना ख्याल रखना । दरअसल मेरी तकदीर ही खराब है । वो रोने लगी थी । '' मैं तुम्हारी अपराधिनी हूँ । मुझे मेरे किये की सजा मिल रही है ''
     रमेश आज अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था । वो सोच रहा था बेकार ही वो मॉस्को गया।बेकार ही रूसी भाषा सीखी । बेकार ही प्रोफेसर बना ।'' तभी उसे प्रतिदान का ख्याल आया । किसी किये - अनकिये का प्रतिदान वो अकेले कहाँ  भोग रहा था । कभी - कभी मिथक भी सच हो जाते हैं !
महेश कुमार  केशरी
मेघदूत  मार्केट  फुसरो
बोकारो ( झारखंड ) पिन 829144
मो. 9031991875

परिचय .
जन्म : 6 .11 .1982  बलिया (उ. प्र.)
शिक्षा:  1 विकास में श्रमिक में प्रमाण पत्र (सी.एल. डी.इग्नू से )
2. इतिहास में स्नातक ( इग्नू से )
3. दर्शन शास्त्र में स्नातक ( विनोबा भावे वि. वि.से)
अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन : सेतु आनलाईन पत्रिका ( पिटसबर्ग  अमेरिका से प्रकाशित )
राष्ट्रीय पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशन:  वागर्थ, पाखी, कथाक्रम, कथाबिंब, विभोम - स्वर, परिंदे, गाँव के लोग,  हिमप्रस्थ, द्वीप - लहरी, किस्सा पुरवाई, अभिदेशक,  हस्ताक्षर, मुक्तांचल, शब्दिता, संकल्य, मुद्राराक्षस उवाच, पुष्पगंधा, अंतिम जन, प्राची, हरिगंधा, नेपथ्य, एक नई सुबह, एक और अंतरीप,  दुनिया इन दिनों, रचना उत्सव, उत्तर प्रदेश, स्पर्श, सोच - विचार, व्यंग्य - यात्रा,  समय- सुरभि, अनंत, ककसार, अभिनव प्रयास, सुखनवर, समकालीन स्पंदन, साहित्य समीर, दस्तक, विश्वगाथा, स्पंदन, अनिश, साहित्य सुषमा, प्रणाम - पर्यटन, हॉटलाइन, चाणक्य  वार्ता, दलित दस्तक,  सुगंध, नवनिकष, कविकुंभ, वीणा, यथावत, हिंदुस्तानी जबान, आलोकपर्व, साहित्य सरस्वती, युद्धरत आम आदमी,सरस्वती सुमन, संगिनी, समकालीन त्रिवेणी, मधुराक्षर, प्रेरणा अंशु, पंजाब  सौरभ, तेजसए दि अंडरलाईन, शुभ तारिक,  मुस्कान एक एहसास, सुबह की धूप,  आत्मदृष्टि, हाशिये की आवाज, परिवर्तन, युवा सृजन, अक्षर वार्ता,  सहचर , युवा दृष्टि, संपर्क भाषा भारती, दृष्टिपात,  नव साहित्य त्रिवेणी, नवकिरण, अरण्य वाणी, अमर  उजाला,  पंजाब केसरी, हिंदुस्तान, लोकसत्य, प्रभात खबर, राँची एक्स्प्रेस, दैनिक सवेरा,  शुभम संदेश,  लोकमत समाचार, दैनिक जनवाणी, सच बेधड़क, डेली हिंदी मिलाप, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, पूर्वांचल प्रहरी, नेशनल एक्स्प्रेस,  गिरीराज वीकली,  इंदौर समाचार, युग जागरण, शार्प - रिपोर्टर, प्रखर गूंज साहित्यनामा, कमेरी दुनिया, आश्वसत के अलावे अन्य पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।
चयन . ;1 द्धप्रतिलिपि कथा . प्रतियोगिता 2020 में टॉप 10 में कहानी गिरफ्त का चयन  
पच्छिम दिशा का लंबा इंतजार ( कविता संकलन )
जब जँगल नहीं बचेंगे ( कविता संकलन ) मुआवजा ( कहानी संकलन )
3. संपादन:  प्रभुदयाल बंजारे के कविता संकलन '' उनका जुर्म ''
पुरस्कार , सम्मान : नव साहित्य त्रिवेणी के द्वारा अंर्तराष्ट्रीय हिंदी दिवस सम्मान 2021
संप्रति : स्वतंत्र लेखन एवं  व्यवसाय
संपर्क. श्री बालाजी स्पोर्ट्स सेंटर, मेघदूत मार्केट फुसरो, बोकारो झारखंड  - 829144

षड़यंत्र

वाढेकर रामेश्वर महादेव
 
       "आशा, मुझे बच्चों को बहुत पढ़ाना हैं, क्योंकि उनकी हालत अपने जैसी कभी न  हो।" विजय ने पत्नी से कहा।
       "क्या खाक पढ़ाओ गे। हर वर्ष किसी न किसी गाॅंव, राज्य में गन्ना काटने जाना पड़ता है। बच्चें  कैसे पढ़ेंगे ? आप  ही बताइए।"आशा ने विजय से गुस्से में कहा।
       "अब हम गन्ना काटने कभी नहीं जाएंगे।"
       "फिर,क्या करेंगे? खुद का खेत भी नहीं है। रहने के लिए जगह  भी नहीं ! व्यवसाय करना, तो बहुत दूर की बात।"
       "मैं  दूसरो  के  खेत में काम करूंगा। तू भी कुछ ना कुछ काम कर।"
       "हां। वह  तो  करना  पड़ेगा, बच्चों  के  भविष्य  के लिए।"
       दोन्हों  का प्राथमिक  स्कूल  में नाम दर्ज किया। अजय  तीसरी कक्षा में था। आनंदी छठी  कक्षा में। वे अच्छी  तरह पढ़ रहे थे। स्कूल में  सुविधा न  के  बराबर। पुरे  स्कूल  में  एक  ही शिक्षक। ट्यूशन भी नहीं  थी। इतना न होने  के  बावजूद आनंदी स्कूल में हुशार  थी। हर कोई कहता था, आनंदी माॅं,बाप का नाम रोशन करेगी।
       एक दिन शिक्षक ने छात्रों से कहा-"बच्चों, हमारी स्कूल कायम की बंद होनी की  संभावना  है, क्योंकि हमारे स्कूल  में कुल  मिलाकर  बीस छात्र नहीं है । यह  बात  सुनकर छोटे  बच्चें रोने लगे और बड़े बच्चें निराश हुए।"
आनंदी  घर  आई । शांत  बैठ  गई।  उसे  दुखी देखकर  विजय  ने  पूछा - "बेटा, आनंदी   क्या हुआ?  स्कूल  में  किसी  से   झगड़ा  हुआ   या शिक्षक ने डाटा।"
       आनंदी रोते-रोते कहने लगी-" बाबा, मैं आप का सपना कभी पूरा नहीं कर सकूंगी।"
       "बेटा, क्या हुआ?"
       "स्कूल  बंद होने वाली है।"
       "क्यों?"
       "संख्या कम होने के कारण।"
       "मतलब, मैं नहीं समझा।"
       "जिस स्कूल में कम से कम बीस छात्र नहीं है,वह स्कूल बंद होने वाले है।"
       "आनंदी, तू  रो मत। तेरी पढ़ाई मैं जारी रखूंगा।
        इतना कहकर घर के बाहर आकर बैठे।"
        घर के नजदीक समाज मंदिर था।वहां कई स्री, पुरुष  इकट्ठा  हुए  दिखाई  दे रहे  थे। प्राथमिक स्कूल  बंद  के   संदर्भ    में   चर्चा   हो  रही  थी । उनमें  ज्यादा  पढ़ा-  लिखा  कोई   नहीं   था।  ज्यादातर   अनपढ़   थे।  उनकी  बातें   सुनकर  विजय  वहां  गया  और  कहने  लगा- "सरकारी प्राथमिक  स्कूल  बंद  नहीं  होने   चाहिए ।  वह  बंद  हुए  तो हमारे बच्चें पढ़ ही नहीं सकते।"
        इकट्ठा हुए व्यक्ति में से एक व्यक्ति ने कहा- "प्राथमिक  स्कूल  बंद न हो, इसलिए हमें क्या करना होगा विजय?"
      "फुले, शाहू,आंबेडकर के विचारधारा  पर चलने वाले व्यक्तियों से विचार मंथन।" इकट्ठा हुए व्यक्ति में से एक स्त्री ने कहा-"ऐसी है कोई व्यक्ति आप के नज़र में।"
        "हां...। 'सावित्री'  नाम  है  उनका । बहुत  पढ़ी- लिखी है। संविधान  की  अभ्यासक भी। समाज प्रबोधन  करती  है। किसी  राजनीतिक  पक्ष  से संबंधित नहीं है। वह  हम जैसे गरीब समाज को जरूर मदत करेगी।"
       "उनसे कब मिलना है?" भीड़ में से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा।
"उन्हें कल ही हमारे बस्ती पर बुलाते हैं।"
     सुबह-सुबह बस्ती में गाड़ी आई। गाड़ी को देखने कई बच्चें गए। उनमें बड़े व्यक्ति भी  कुछ थे। गाड़ी रूकी। अंदर से सावित्री  मॅडम उतरी।समाज मंदिर में  सीधा गई। वहां  धीरे-धीरे  स्री, पुरुष, बच्चें, बुजुर्ग आदि  आने लगे । उन लोगों की, उनके बच्चों  की  अवस्था  देखकर सावित्री दुखी हुई। प्राथमिक  स्कूल  बंद  हुए  तो  बच्चों के भविष्य का क्या होगा? इन सोच  में सावित्री डूब गई। इतने में विजय ने कहा-"मॅडम,हम सब गरीब हैं। हमने  एक  दिन  काम नहीं  किया, तो  हमें भूखा रहना पड़ता हैं। प्राइवेट इंग्लिश स्कूल की वार्षिक फीस ग्रामीण  भाग  में  कम से कम पचास  हजार  है। इतना  पैसा  कहां  से  लाए। बच्चों को प्राइवेट इंग्लिश स्कूल में कैसे पढ़ाए।"
        "सब  ठीक हो जाएगा,हार मत मानो। संघर्ष जारी  रखो । तुम्हें  कोई  मदत  नहीं  करेंगा , न सत्ताधारी,न विपक्ष वाले। उन्हें  उनका पद, पक्ष प्यारा है।आप नहीं। आपके  जानकारी  के लिए बता रही हूॅं , महाराष्ट्र के तकरीबन  पंद्रह  हजार प्राथमिक स्कूल बंद  होने  की संभावना  है। तब भी  कोई  रास्ते  पर आने  के  लिए  तयार  नहीं है।यह शर्म की बात है।"
        "मॅडम, सरकार प्राथमिक स्कूल बंद क्यों करना चाहती है?" विजय ने पूछा।
        "उनका षड़यंत्र आप को समझ नहीं आएगा। उन्हें  वंचित  घटक  को प्रवाह में नहीं आने देना है।  वे  संख्या   का  बहाना   बताकर  प्राथमिक स्कूल  बंद  करना  चाहते   हैं।  जिस  प्राथमिक स्कूल  में  संख्या कम  है,  इसका  कारण  क्यों नहीं   ढूंढ  रहे?  शिक्षा   कानून  में  बताया   है, पहली  कक्षा  से  लेकर  पाॅंचवीं  कक्षा  तक के बच्चों   को  स्कूल  एक   किलोमीटर  के  अंतर  पर  हो, तथा छठीं कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक  के  छात्र  को  स्कूल  तीन  किलोमीटर  के अंतर पर हो। यह  नियम होकर  भी  स्कूल  बंद करना, यानी गरीब पर अन्याय है अन्याय। साथ ही जो प्राथमिक स्कूल बंद होंगे, वहां के शिक्षक भी बेरोजगार होंगे।"
       "सरकार इंग्लिश प्राइवेट स्कूल पर पाबंदी क्यों नहीं लगाती?" भीड़ से एक स्त्री ने पूछा।
      "इंग्लिश स्कूल ज्यादातर राजनेता या कार्यकर्ता के होते है। वे चूनाव  के समय पक्ष को पैसा देते है। हर  साल  जितना  तय  हुआ उतना प्रतिशत पैसा  सरकार  को  देते  है,वह भी गुप्त रूप में। सरकार  पर  उनका  बोझ  नहीं   होता।  शायद इसलिए  सरकार इंग्लिश स्कूल बंद नहीं करते।जिस   महाराष्ट्र  में   राजर्षि   शाहू   महाराज  ने तत्कालीन  समय  प्राथमिक   शिक्षा  सक्ति  एवं मुफ्त  की। उसी महाराष्ट्र में प्राथमिक स्कूल बंद करने की  कोशिश की जा रही है, यह  निंदनीय है।"
        "मॅडम,यह लड़ाई हम जीतेंगे क्या?" विजय ने पूछा।
         "जरूर जीतेंगे। किंतु आपका संघटन निरंतर रहे। आप को कोई  हारा नहीं सकता। कानूनन और आर्थिक मदत की  जरूरत  पड़ी तो  कभी भी  मेरे  पास  आना। मैं  आप   में  से  एक  हूॅं। षड़यंत्र  के  विरोध  में  सिर्फ  आप को  या मुझे नहीं लड़ना है। महाराष्ट्र के सब वंचित घटक को साथ लेकर लढ़ना है। अब  मैं  चलती  हूॅं। दूसरे गाॅंव में जाना है, व्याख्यान देने।"
         सब अपने-अपने घर गए। मॅडम के विचार पर विजय  ने  रात  भर  चिंतन  किया।  आगे  क्या करना  होगा?  इसी  सोच  में डूबा  रहा। सुबह-  सुबह  पेपर  वाला  आया  और  जोर- जोर   से कहने लगा- "आज  की ताजा  खबर!आज  की ताजा   खबर ! सावित्री   मॅडम   के  विचार   से प्रभावित होकर कई संघटना ने प्राथमिक  स्कूल बंद  के  विरोध  में  अंदोलन  निकालने का  तय किया।"
      सब लोग खुश हुए। अंदोलन में शामिल होने  लगे। सरकार  के  विरुद्ध  नारे  देने  लगे। गरीब लोग  काम  छोड़कर बच्चें  के भविष्य  के  लिए  हर सरकारी शैक्षिक ऑफिस में निवेदन पत्र देने   लगे।  हर  अंदोलन   में  विजय   जोर - जोर  से  कहता रहा -"जब तक सरकार प्राथमिक  स्कूल बंद नहीं  किए जाएंगे, यह   मीडिया  के  सामने महाराष्ट्र को नहीं बताते,तब तक हमारे अंदोलन जारी रहेंगे....।"




संक्षिप्त परिचय

इमेल: rvadhekar@gmail.com


पता:  हिंदी  विभाग, 
डाॅ.बाबासाहेब  आंबेडकर मराठवाडा  विश्वविद्यालय,
औरंगाबाद- महाराष्ट्र- 431004
लेखन:'चरित्रहीन' 'दलाल', 'सी.एच.बी.इंटरव्यू', 'लड़का ही क्यों?', 'अकेलापन' आदि कहानियाॅं  पत्रिका में  प्रकाशित।
भाषा ,  विवरण ,  शोध  दिशा , अक्षरवार्ता,   गगनांचल,युवा  हिन्दुस्तानी ज़बान,साहित्य यात्रा,विचार वीथी आदि पत्रिकाओं में लेख  तथा संगोष्ठियों में प्रपत्र प्रस्तुति।
संप्रति: शोध कार्य में अध्ययनरत।
चलभाष: 9022561824

बुरे फंसे संगीत सीखकर !

पूरन सरमा
 
      प्रारंभ में मैं बाथरूम सिंगर था। फिल्मी गाने गाया और गुनगुनाया करता था। पिताजी ने एक दिन प्यार से अपने पास बुलाया और कहा-‘बेटे क्या दिनभर ऊल-जुलूल गाया करते हो। गाना गाने का इतना ही नशा है तो मैं तुम्हारी शिक्षा विधिवत रूप से संगीत में करवा सकता हूँ, लेकिन सोचलो, है यह काम बड़ा ही जटिल। राग-रागिनियों का ज्ञान हांसिल करने में पसीना निकल जायेगा। कल मुझे बता देना यदि तुम वाकई संगीत सीखना चाहते हो तो।’
      मैं चुपचाप अपने कमरे मे आ गया। अपनी पढ़ाई की पुस्तकों को एकपल देखा और दूसरे पल ही खयाल आया कि संगीत सीखने से पढ़ाई से पिण्ड छूट सकता है और बाई दी वे भगवान करे तो मैं वाकई नामी-गिरामी गायक भी बन सकता हूँ। मुझे लगा बम्बई की फिल्मी दुनिया अब मुझसे ज्यादा दूर नहीं हैं।
दूसरे दिन मैं ही गया पिताजी के पास और बोला-‘पिताजी आप मुझे संगीत क्षेत्र में दीक्षित करवाइये। मैं वाकई गायक बनना चाहता हूँ। संगीत मेरी रग-रग में समा चुका है। यदि समय रहते मैंने इस कौशल को नहीं सीखा तो जीवनभर पछताऊंगा। पिताजी संगीत में बड़ा स्कोप है। फिल्मों में अवसर मिल गया तो सच मानिये हमारी गरीबी अपना मुंह छुपाती फिरेगी। बताइये मुझे करना क्या है।’
      पिताजी बोले-‘करना यही है कि सुरों का ज्ञान करके तुम्हें अपने गले को साधना है। बेटा संगीत साधना है जिस तरह तुम रैंकते फिरते हो, उससे बाज आओ और संगीत गुरू के चरणों में बैठकर संगीत को अपना जीवन साथी बनालो। गुरू के बिना कोई ज्ञान नहीं आता है। अब जब तुम संगीत के शौकीन हो तो तुमने भीमसेन बागी का नाम तो सुना होगा। हमारे शहर के सबसे बड़े संगीत गुरू। मैं उनसे बात करता हूँ, यदि उन्होंने तुम्हारा हाथ थाम लिया तो फिर कोई वजह नहीं की तुम एक उच्चकोटि के संगीत साधक, मेरा मतलब गायक न बन सको।’
      मैंने कहा-‘देर किस बात की मेरे पिताजी, आप बागी साहब से बात करो मैं संगीत की बारीकियाँ जानने को अब बेकरार हूँ।’
      पिताजी हंसे और बोले-‘थोड़ा धैर्य रखो। बागी साहब पहंुचे हुये गुरू हैं, उनका तानपुरा तुम्हारे हाथ लग गया तो संगीत तो फिर बायें हाथ का खेल हो जायेगा। मैं कल ही भीमसेन बागी से मिलता हूँ, लेकिन थोड़ा मन लगाकर और डूबकर सीखना संगीत। कहीं ऐसा न हो कि बागी साहब मुझे उलाहना दे।’
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      मैं बोला-‘आप आश्वस्त रहें। भीमसेन बागी को मैं निराश नहीं करूंगा, बल्कि उन्हें लगेगा कि यह प्रतिभा इतने दिन तक कहाँ खोई हुई थी। आपने मेरा गुनगुनाना तो सुना होगा। पूत के पग पालने में ही नजर आ जाते हैं पिताजी। होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’
पितााजी इस बार फिर हंसे और बोलेे-‘बेटा हीरे की परख जौहरी ही कर सकता है। मैंने तुममें संगीत की चिंगारी सुलगती देखी है। चुपचाप मनोयोग से लग जाओ इस साधना में। ईश्वर भला ही करेगा।’
      दूसरे दिन पिताजी भीमसेन बागी के दौलतखाने पर जा धमके। उस समय खुद भीमसेन बागी तानपुरे पर कोई राग आलाप रहे थे। मैं भी साथ था ही। पिताजी ने उन्हें कई बार व्यवधान डालकर रोकने की कोशिश की परन्तु वे विफल रहे। वे अनवरत् गले को रागों से भरते रहे। करीब एक धण्टे बाद जब उनका गायन रूका तो वे पिताजी पर बरस पड़े। ‘कौन हो तुम और क्या लेने आये हो यहाँ पर। जब तुम संगीत का ककहरा ही नहीं जानते हो तो मेरे पास आने की आवश्यकता क्या थी ?’
      पिताजी ने हाथ बांधकर कहा-‘गुरूदेव यह बालक संगीत में क्रान्ति करने को आतुर है। इसे संभालिये और इसे अपने ज्ञान सागर में से एक बंूद ज्ञान की दीजिये। जो भी आपका शुल्क होगा, मैं दूंगा लेकिन इसे संगीत सम्राट बना दीजिये।’
      भीमसेन बागी ने तानपूरा एक तरफ रखा और कहा-‘अच्छा संगीत सीखने की चाहत तुम्हें यहाँ खींच लाई है। कौन, क्या यह बालक सीखना चाहता है संगीत ? मैं संगीत इसे जरूर सिखा दूंगा परन्तु दो हजार रूपये माहवार होगा मेरा शुल्क। मैं कोई ऐरा गैरा या नत्थू खैरा संगीतकार नहीं हूँ। तानसेन को मैंने अपना आदर्श मानकर संगीत सीखा था। उसी का फल है कि आज मेरे पास पच्चीस बालक संगीत शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करते हैं। पहले मैं जो-जो चीजें संगीत की बता रहा हूँ, वे अविलम्ब खरीद कर अपने राजकुंवर को लाकर दो। उसके बाद एडवांस लेकर आ जाओ। संगीत इसकी नस-नस में डाल दूंगा। जब यहाँ से तीन साल बाद निकलेगा तो आप खुद दांतों तले अंगुली दबा लेंगे।’
      तीन दिन बाद सारा साजो सामान व एडवांस लेकर भीमसेन बागी के पहुंचा तो वे संगीत साधना में लीन थे। एक धण्टे बाद जब उन्होंने विराम लिया तो मैंने अपना मन्तव्य बताया। रूपये कुर्त्ते की जेब के हवाले करके वे बोले-‘देखो बालक संगीत रियाज से आता है यह कोई एक दिन का शगल नहीं है। अब तो यह तुम्हारे जीवनभर का साथी है। यहाँ जो भी होता है वह देखो और सीखो। गले का उतार-चढाव जानो और अभ्यास करो। संगीत धीरे-धीरे समझ में आने लगेगा।’
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      इस तरह मैं भीमसेन बागी के यहाँ संगीत सीखने लगा। घर आकर संगीत का रियाज अलग करना पडता था। जब अपने कमरे में तानपूरा छेड़ता और सुर साधता तो मौहल्ले में खुसुर-फुसुर होने लगी। मैं रात के सन्नाटे में दो-दो बजे तक कभी सुर, कभी तबला और कभी तानपूरा छेड़ता तो सोने वालों की आंखों से नींद हराम हो गई।
      मौहल्ले के बूढ़े-बुजुर्गों का एक शिष्ट मण्डल एक दिन हमारे घर आ धमका। पिताजी ने सोचा वे मेरी तारीफ के पुल बांधने आया है लेकिन जब शिष्ट मण्डल ने मेरी संगीत साधना की शिकायत की तो उनके हाथों के तोते उड़ गये। वे मेरी ओर देखने लगे। मैं भी उन्हें देखने लगा। शिष्ट मण्डल का एक सदस्य बोला-‘शर्माजी आप तो समझदार हैं। आपके बच्चे को यह क्या हो गया है। पूरे मौहल्ले का चैन छीन लिया है। इस तानसेन को रोकिये वरना हमें पुलिस की शरण में जाना पड़ेगा। नींद की गोलियाँ खाने के बाद भी मौहल्ला सो नहीं पा रहा है। जिस बालक को संगीत का ज्ञान नहीं है, उसे आपने संगीत के हवाले कर दिया है।’
पिताजी बोले-‘देखिये, यह आपका ही बालक है। संगीत में कुछ कर गुजरने की तमन्ना है। यदि यह रियाज नहीं करेगा तो संगीत इसकी नस-नस में कैसे समायेगा। इसे अपना बालक समझकर आगे बढ़ने दीजिये। मैं इस पर दो हजार रूपये माहवार व्यय कर रहा हूँ। भीमसेन बागी से संगीत सीख रहा है।’
भीमसेन बागी का नाम सुनकर वे सब हंस पड़े और बोले-‘क्यों पैसे कुएं में डाल रहे हो। वह तो पूरी तरह व्यावसायिक है। लेकिन हमें इससे क्या, हम तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि रात में संगीत का रियाज शरीफों के मोहल्ले में चलने वाला है नहीं। इसलिए इस तानसेन को यहीं रोकिये।’
पिताजी थोड़ा गुस्से में आ गये और बोले-‘आप लोग कमाल करते हैं। मेरा बच्चा संगीत में थोड़ा आगे बढ़ने लगा तो जल उठे। बच्चा रियाज नहीं करेगा तो क्या चुप बैठकर संगीत सीखेगा ?’
       शिष्ट मण्डल बोला-‘ज्यादा अकड़ने की जरूरत नहीं है। संगीत सीखे तो जाये भीमसेन बागी के यहाँ। हमारे मोहल्ले ने क्या पाप किया है जो आधी-आधी रात तक इसकी रैंक सुनता रहेगा। या तो आप चुपचाप रास्ते पर आ जाइये वरना कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं। हमें मजबूर होकर कानून की शरण लेनी पड़ेगी।’
इस बार मैं बोला-‘देखिये आप लोग मेरे रास्ते का रोड़ा न बने। संगीत साधना से रोकने वाले आप होते कौन हैं ? आप कुछ भी कर लीजिये, मेरा रियाज इसी तर्ज पर जारी रहेगा।’
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       ‘ज्यादा मत बोल। संगीत सीखने से पहले खुद को तोल तो लिया होता। आज के बाद करना रियाज।’ यह कहकर शिष्ट मण्डल चला गया। मेरा संगीत सीखने का क्रम जारी रहा। अचानक एक दिन पुलिस की गाड़ी हमारे घर के सामने आ खड़ी हुई। पुलिस इन्सपैक्टर ने जब अंदर आकर पिताजी के नाम से आवाज लगाई तो मेरे संगीत का कण्ठ सूख गया।
       पिताजी बाहर आ गये। पुलिस इंसपैक्टर बोला-‘भाई शर्मा जी आपके खिलाफ पूरे मौहल्ले ने मोर्चा संभाल लिया है। आपका बालक रात दो-दो बजे तक संगीत का रियाज करता है। या तो इसे रोकिये वरना हमें मतबूरन कार्यवाही करनी पडे़गी।’
पिताजी पुलिस से मेरी ही तरह बहुत डरते हैं, बोले-‘कोई बात नहीं सर मैं बालक को समझा दूंगा।’
      ‘तो ठीक है, आज से संगीत साधना रात में किसी कीमत पर नहीं होगी।’
इसके बाद से मेरे कण्ठ से कोई सुर नहीं फूट रहा है। मुझे लग रहा है मैं संगीत सीखकर बुरा ही फंसा हूँ। इधर खाई, उधर कुआं। राग सारे बेसुरे हो गये हैं। सोचता हूँ संगीत को छोड़ ही दूं तो मेरे और मोहल्ले के हित में होगा।
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