कविता विकास
( लेखिका व शिक्षाविद्)
मनुष्य
के लौकिक – पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुरूप आचार – विचार की संहति को ही
संस्कृति कहा जाता है । जिन चेष्टाओं द्वारा मनुष्य अपने जीवन के समस्त
क्षेत्रों में उन्नति करता हुआ सुख – शांति प्राप्त करता है ,वे चेष्टाएँ
ही संस्कृति कही जा सकती हैं । संस्कृति वाकई में मानव – जीवन के विविध
पक्षों से सम्बद्ध एक सतत विकासमान प्रक्रिया है , जिसमें देश और जाति
विशेष की परम्पराओं का विशेष महत्त्व होता है । वस्तुतः किसी भी देश की
संस्कृति उस देश के खान – पान , वेश – भूषा , आचार – विचार , रीति – रिवाज़ ,
ज्ञान – विज्ञान , मान्यताओं – प्रवृतियों का सम्यक बोध कराती है ।इसलिए
बुद्धिजीवी किसी देश की संस्कृति पहचानने के लिए वहाँ के साहित्य , संगीत –
नृत्य और चित्रकला – मूर्तिकला को जानने की सलाह देते हैं ।
प्रत्येक
कालखंड का साहित्य अपने समय के परिवेश और प्रकृति से बँधा होता है। परिवेश
भले ही बदल जाए,पर मानवीय संवेदनाएँ जीवित रहती हैं, जिसे पीढ़ियाँ अपने
साथ जीती हैं। यही साहित्य उस स्थान विशेष की संस्कृति का परिचय देती है।
लोक संस्कृति किसी देश या राज्य की धड़कन होती है जो लोक राग में वास करती
है। झारखंड का एक बहुत ही लोकप्रिय पर्व सोहराय है,जिससे जुड़े हुए पहलुओं
पर एक नज़र डालें तो हम पाएँगे कि आदिवासियों का जीवन यूँ ही नहीं जल, जीवन
और जंगल से जुड़ा होता है। प्रकृति को भगवान मानने वाले सरल हृदयी
आदिवासियों में धरती को पल्लवित करने वाले सारे तत्त्वों के प्रति
कृतज्ञता होती है,जिसे वे पर्वों के माध्यम से मनाते हैं।
सम्पूर्ण भारत जब दिवाली का महा पर्व मानता है,
उस समय विशाल झारखंड प्रदेश और उड़ीसा, बंगाल, छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी
बहुल जिले छः दिवसीय सोहराय पर्व के उल्लास में मग्न रहते हैं । इस छह
दिवसीय पर्व में एक महीना पहले से ही किसान घर – आँगन, खेत – खलिहान आदि की
साज – सफ़ाई में जुट जाते हैं। घर की दीवारों में मिट्टी की लेप चढ़ा कर
कलात्मक तरीक़े से चित्रकारी की जाती है। यही चित्रकारी सोहराय चित्रकारी
कहलाती है जिसमें चावल के बुरादे,पत्ते तथा लाल – सफ़ेद रंगों का प्रयोग
होता है। मिट्टी के रंग का प्रयोग मुख्य है। कृत्रिम रंगों का प्रयोग
वर्जित है।
पहला दिन,तेल ढ़ेउआ
कहलाता है,इस दिन किसान अपने पशु धन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए
उन्हें नहला – धुला कर हरा चारा खिलाते हैं तथा सींगों पर तेल – सिंदूर
लगा कर पूजा करते हैं।
दूसरा
दिन,धाउआ कहलाता है,इस दिन भी पशुओं को नहला कर सजाते हैं, तथा अगले दिन
पिट्ठा बनाने के लिए चावल भीगाया जाता है जिसे फिर ढेकी में कूटा जाता है।
तीसरा
दिन,गठ पूजा या अहिरा कहलाता है,जिस दिन हम दीवाली मनाते हैं।यह सोहराय का
ख़ास दिन होता है।सबके घरों से ढेकी कूटने की आवाज़ आती है और लोग तरह –
तरह का पिट्ठा बनाते हैं। गाँव के महतो,पाहन या लाया द्वारा गठ यानी जहाँ
पशुओं को रखा जाता है,वहाँ पूजा की जाती है।गाँव के सारे पालतू पशुओं को उस
पूजा – स्थल से पंक्तिबद्ध करके पार कराया जाता है और उनकी गिनती की जाती
है। यह बहुत ही मनोरम दृश्य होता है। पूजा – स्थल का प्रसाद जो पशु खा लेता
है, उस पशु का मालिक महतो, पाहन या लाया को वस्त्र – दान करते हैं।जब सारे
पशु अपने – अपने घर पहुँचते हैं, तब गोहाल के दरवाज़े पर पत्ते में चावल
का गुंडी और घी का पलीता जलाया जाता है।इसे काँची – दियारा कहते हैं।शाम
होते ही लोग टोली बना कर ढोल,माँदर और शहनाई लेकर बजाते हुए, गीत गाते हुए
एक – दूसरे के घर जाते हैं जिसे जाहली या अहिरा गीत कहते हैं। इस गीत के
भाव में महामाया एवं गौमाता का गुणगान होता है। गृहस्वामी हरेक टोली को
पिट्ठा खिलाते हैं और पैसे देकर विदा करते हैं। रात को जागरण की जाती है और
गोहाल में घी का दीया जलता रहता है।
चौथा
दिन,गरइया पूजा या गोहाल पूजा के दिन घर – आँगन की पुताई करके हाल,कूदाली
और अन्य कृषि उपकरण को धोकर लाया जाता है तथा तुलसी के चौबारे के पास रखा
जाता है। नए वस्त्रों में स्त्रियाँ इनकी पूजा करती हैं इस दिन का विशेष
आकर्षण चावल की गुंडी और पत्तों के लार से बनाई जाने वाली अल्पना है। इस
अल्पना का प्रकार अलग – अलग होता है। दरवाज़े पर धान की बाली और
लक्ष्मी-प्रतीक बनायी जाती है जिसे मारोड कहते हैं तथा साल भर दीया जलाया
जाता है।
पाँचवा
दिन,बरद खूँटा, इस दिन किसान माँस – भात खाने के बाद पान खाते हैं। अल्पना
बनायी जाती है जिसमें चावल की गुंडी का इस्तेमाल होता है। गाँव में जगह –
जगह पर खूँटे से बैलों को बाँध कर ढोल – नगाड़े के साथ अहिरा गीत के सुर
में बैलों को नचाया जाता है।
छठा
दिन ,गुड़ीबांदना यानी बूढ़ीबांदना,पशुओं की वंदना करने के कारण इसे
बांदना कहते हैं। भैंसों को खूँटे से बाँध कर इस दिन माँसाहारी भोजन करने
की प्रथा है।
झारखंड के कलात्मक स्वरूप का आकार
तय करने में सोहराय कला के योगदान को नकारना सम्भव नहीं है। हज़ारों वर्ष
पुरानी मानी जाने वाली यह कला प्रायः विलुप्त होने के कगार पर थी,पर कुछ
ग़ैर सरकारी संस्थानों के प्रयास और स्थानीय आदिवासियों की मेहनत से इस कला
को पुनर्स्थापित की गयी है। गुमला जिले के सिसई के पास नवरत्नगढ़ के
नागवंशी राजा के महल में इस कला के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हज़ारीबाग़
स्थित बादम क्षेत्र की गुफ़ाओं से इस कला के प्रारम्भिक साक्ष्य प्राप्त
हुए हैं। इनमे चित्रकारी के साथ – साथ लिपि का भी प्रयोग होता था,जिसे
वृद्धि मंत्र कहा जाता है। यहीं से धीरे – धीरे यह कला समाज में पहुँची।
इस कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सकारात्मक गतिविधियाँ हैं ।इस कला में
सम्पूर्ण चित्र का अंकन एक ही बार किया जाता है। तदुपरांत चित्रकार अपनी
कल्पना के अनुरूप रंग भरता है। इसके चित्र प्रकृति एवं मानव के बीच
सामंजस्य के अद्भुत अनुभव का जीवंत प्रमाण है क्योंकि इस कला का मूल विषय
ही प्रकृति है। इस कला के कुछ उल्लेखनीय कलाकारों के नाम इस प्रकार हैं –
जयश्री इंदवार ,अवनि भूषण,ज्योति पन्ना, बुलु इमाम आदि।
लोक
की सृजनात्मक में जो बहुलता है उसमें एक मुख्य स्थान सोहराय कला का है।
झारखंड की लोक कथाओं में जब पेड़ बोलते हैं,पहाड़ नाचते हैं और धरती गमन
करती है तो इनका कोई ना कोई सूत्र सोहराय से भी जुड़ा रहता है। जब तक
प्रकृति के विभिन्न रूपों को मानव चेतना स्वीकार करता रहेगा, सोहराय कला भी
जीवित रहेगी। लोक संस्कृति जीवन में आस्था, गति, पहचान, शक्ति और नैतिकता
का पोषण करती है। इनमें जीवन दर्शन और परमात्मा की शक्ति भी दिखायी जाती
है। इन्हें जीवित रखने के लिए और इनके मर्म को आत्मसात करने में हर नागरिक
का योगदान ज़रूरी है।
प्रकाशन - दो कविता संग्रह (लक्ष्य और कहीं कुछ रिक्त है )प्रकाशित।आठ साझा कविता और एक साझा ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित। हंस,परिकथा,पाखी,वागर्थ,गगनां चल,आजकल,मधुमती,हरिगंधा,कथाक् रम,साहित्य अमृत,अक्षर पर्व और अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार निरंतर प्रकाशित । दैनिक समाचार पत्र - पत्रिकाओं और ई -पत्रिकाओं में नियमित लेखन । राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित।
सम्प्रति – डी ए वी संस्थान,कोयलानगर, धनबाद
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