जाड़े की धूप: पाँच कविताएँ
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( एक )
हमारी किताबें
हमारे कोट की जेबों में रह गईं
धूप में आते ही
हमारी बात-चीत के विषय बदल गए
( दो )
हरी-भूरी घास पर
धूप के घेरे में
टहलते हुए मुझे लगा
मैं सर्दी से ज़्यादा था
अँधेरे में
( तीन )
खिली धूप ने
किसे नहीं खिलाया है
गेंदे, गुलाब, सूरजमुखी
या हमें ?
खिले हुए हम
प्यार तो खिला ही सकते हैं
हाथ के साथ
दिल भी मिला ही सकते हैं
( चार )
हरी घास पर
अभी और ढेलनियाँ लूँगा
फिर झाड़ूँगा स्वेटर
धूप को कोई जल्दी नहीं है
ढलने की
फिर मुझको क्यों हो चलने की ?
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( एक )
हमारी किताबें
हमारे कोट की जेबों में रह गईं
धूप में आते ही
हमारी बात-चीत के विषय बदल गए
( दो )
हरी-भूरी घास पर
धूप के घेरे में
टहलते हुए मुझे लगा
मैं सर्दी से ज़्यादा था
अँधेरे में
( तीन )
खिली धूप ने
किसे नहीं खिलाया है
गेंदे, गुलाब, सूरजमुखी
या हमें ?
खिले हुए हम
प्यार तो खिला ही सकते हैं
हाथ के साथ
दिल भी मिला ही सकते हैं
( चार )
हरी घास पर
अभी और ढेलनियाँ लूँगा
फिर झाड़ूँगा स्वेटर
धूप को कोई जल्दी नहीं है
ढलने की
फिर मुझको क्यों हो चलने की ?
( पाँच )
सिहराती सुबह से
सिहराती शाम के बीच
दुनिया का कामकाजी रूप है
शुक्र है कि धुंध नहीं धूप है
और सब बढ़िया चल रहा है
धरती का प्यार भी पल रहा है
नीले आसमान के नीचे
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वाराणसी
9415295137
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