आदिवासियों पर अन्याय और तकनीक से बदलती दुनिया पर गहमागहमी भरी चर्चा
पटना पुस्तक मेले में इक्कसवीं सदी के पहले दशक से संवाद
गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने किया ‘समय से संवाद’ पुस्तक का लोकार्पण
पटना
पुस्तक मेला में प्रेम कुमार मणि और प्रमोद रंजन
द्वारा सम्पादित पुस्तक ' समय से संवाद : जन विकल्प संचयिता' पुस्तक का
लोकार्पण गहगहमी भरे माहौल में किया गया. पुस्तक का लोकार्पण मानवाधिकार
कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, प्रख्यात कवि आलोकधन्वा किया गया. लोकार्पण
समारोह में बड़ी संख्या में पटना के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, सामाजिक
कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी मौजूद थे.
सर्वप्रथम
प्रेम कुमार मणि ने पुस्तक के संबंध में बताया "मेरे व प्रमोद रंजन के
संपादन में 'जनविकल्प' पत्रिका निकलती थी। इसके 11अंक निकले थे. उसी
पत्रिका में छपे लेखों को लेकर यह किताब छपी है।” उन्होंने कहा कि
“जनविकल्प में प्रकाशित चुनिंदा सामग्री का यह संकलन इक्कसवीं सदी के पहले
दशक की सामाजिक,साहित्यिक, और राजनीतिक हलचलों का दस्तावेजीकरण है।”
मानवाधिकार
कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने कहा “मेरे ऊपर सुप्रीम कोर्ट ने पांच लाख
का जुर्माना लगाया। हमने कहा कई जुर्माना नहीं देंगे भले हमें आप
गिरफ्तार की कीजिये। बस्तर में 16 लोगों की हत्या कर दी गई थीं। एक बच्चे
की उंगली काट दी गई थी, एक औरत के सर पर चाक़ू मार दिया था। मैं उसी
मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा आपको पुलिस की
जांच पर भरोसा करना चाहिए थे। मैंने कहा कि यहां पुलिस ही तो आरोपी
है। तब फिर वह कैसे जांच करेगी। मैंने 519 मामले सौंपे हैं सुरक्षा बलों
के अत्याचार के यह बात ह्यूमन राइट्स संगठनों ने किया था। पर सरकार
द्वारा जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। गांधी और भगत सिंह दोनों ने
एकन्ही बात की थीं। जब भगत सिंह को फांसी दी थी तो पंजाब के गर्वनर को
खत्म लिखा था कई जनता पर युद्ध थोपा गया है और युद्ध जनता की निर्णायक
विजय के साथ ही समाप्त होगा। गांधी जी के अनुसार अंग्रेज़ी विकास का
मॉडल शैतानी मॉडल है प्रकृति ने सबको बराबर दिया है इस विकास के मॉडल
में ताकतवर का ही विकास हो सकता है। अंग्रेज़ अपने विकास को मॉडल को
फैलाने के लिए दुनिया भर में खून बहाते रहे हो। गांधी ने एकनदिन यह भी
कहा था कि एक दिन अपने लोगों के खिलाफ आप युद्ध करेंगे। सुरक्षा बल
छट्ठीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने गई है। देश के प्राकृतिक
संसाधनों का मालिक समुदाय यानी जनता है यदि किसी पूंजीपति को जमीन
चाहिए तो उसके लिए पुलिस किसानों पर गोली चलाती है और जेल में डालती
है। सरकार की तरफ से जो भी बंदूक ले का आ रहा है वह संसाधन पर कब्जा करना
चाहता है। सरकार ने संसाधन पर कब्जा और श्रम लूटने के लिए युद्ध थोप रहा
है यहीँ बात भगत सिंह कह रहे थे. हमारे सिपाही आदिवासी इलाकों में
क्यों गए हैं? वे उनके संसाधनों को लूटने गए हैं. आज पूरी दुनिया में
पूंजीवाद संकट है। यहां के पूंजीपति सिर्फ आदिवासी इलाकों पर ही नहीं
बल्कि कृषि क्षेत्र में घुसेगा। यह आपके बैंक के पैसा, रोजगार पर कब्जा
करती हैं। उसके लिए जाति व धर्म पर लड़ाने की बात करती है। सस्ती शिक्षा
माँगने वाले बच्चों के माथे फोड़ देता है जैसा जे.एन. यू के साथ किया
गया।"
उन्होंने कहा कि “आज सरकारें और
पूंजीपतियों का गठजोड़ जिस प्रकार का अन्याय आदिवासियों के साथ कर रहा है,
उसका विरोध शहरी मध्यम वर्ग नहीं करता। उन्हें लगता है कि जो आदिवासियों के
साथ हो रहा है, वह हमारे साथ कभी नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। ये ताकतें
हमारी कृषि समेत सभी कुछ को कब्जे में लेंगी तब मध्यम वर्ग को अपनी गलती
का अहसास होगा।” उन्होंने कहा कि “दुनिया के कई विकसित देशों की चमक दमक के
पीछे वहाँ के आदिवासियों का खून लगा हुआ है।अमेरिका आस्ट्रेलिया कनाडा
जैसे देशों में दूसरे देश से आये गोरों ने वहाँ रहने वाले आदिवासियों की
हत्याएं करी और उनके जंगलों खनिजों और पूरे देश पर कब्ज़ा कर लिया इन देशों
में एक आदिवासी की लाश लाने पर इनाम मिलता था। आज भारत में भी पूंजीपति
घरानों और सरकारों की साठगांठ से आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से बेदखल
किया जा रहा है। भारत में भी सरकारों ने आदिवासियों को नक्सली घोषित कर
दिया है।एक आदिवासी को मारने या उसे जेल में बंद करने वाले पुलिस अधिकारी
को इनाम और तरक्की मिलती है।”
प्रमोद रंजन ने कहा
कि “जनविकल्प के के प्रकाशन के 15 साल बीत चुके हैं और, इस बीच भी काफी
कुछ बदल चुका है। कोरोना वायरस महामारी की आड़ में इन बदलावों को एक ऐसी
आंधी का रूप दे दिया गया, जिसमें बहुत दूर तक देख पाना कठिन हो रहा है।
लेकिन, हम इतना तो देख ही सकते हैं कि मानव-सभ्यता के एक नए चरण का आगाज हो
चुका है। स्वाभाविक तौर पर इन परिवर्तनों से, विचार और दर्शन की दुनिया भी
बदल रही है। इसका दायरा मनुष्योन्मुखी संकीर्णता का त्याग कर समस्त
जीव-जंतुओं और बनस्पितयों तक फैल रहा है। एंथ्रोपोसीन और उत्तर मानववाद
जैसी विचार-सरणियों के तहत इनपर जोरशोर से विमर्श हो रहा है। हमें इन
परिवर्तनों को एक आसन्न संकट की तरह नहीं, बल्कि परिवर्तन की अवश्यंभावी
प्रक्रिया के रूप लेना चाहिए और इसके उद्देश्यों की वैधता पर पैनी नजर रखनी
चाहिए। लेकिन दुखद है कि हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के साहित्य और वैचारिकी
में इसकी गूंज सुनाई नहीं पड़ रही।” उन्होंने मौजूदा लेखन की प्रवृत्तियों
की आलोचना करते हुए कहा कि “कालजयिता के चक्कर में हम प्रासांगिकता को
भूल जा रहे हैं, जबकि लेखन के चिरजीवी होने के लिए इसका सबसे अधिक महत्व
है।” उन्होंने कहा कि “आज से 15 साल पहले वैश्वीकरण के बारे यह स्टैंड
लिया था कि हमें अपनी शर्तो के साथ उसमें शामिल होना चाहिए था। जब यह
पत्रिका छपती थी तब हमने मीडिया के साम्राज्य पर बाद की थी। हमारी हिंदी
की दुनिया सोशल मीडिया और उसका अलगोरिद्म कैसे काम करता है। यह तकनीक के
अलगोरिद्म का प्रभाव है कि जातिवाद के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले
लडके आज जाति जे गहवर में फंसे हैं।"
लोकार्पण
समारोह में मौजूद लोगों में प्रमुख थे अतुल माहेश्वरी जफर इक़बाल, पंकज
शर्मा, दानिश, संतोष, राघव शरण शर्मा, बिद्युतपाल, राकेश रंजन, मनोज
कुमार, अशोक कुमार क्रांति, प्रणय प्रियंवद, जयप्रकाश, विनीत राय, गौतम
गुलाल, सामजिक कार्यकर्ता संतोष आदि।
*पुस्तक के बारे में*
अनन्य
प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘समय से संवाद’ मासिक पत्रिका ‘जन विकल्प'
में प्रकाशित चुने हुए लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। जन विकल्प का
प्रकाशन प्रेमकुमार मणि और प्रमोद रंजन के संपादन में पटना से जनवरी 2007
में आरंभ हुआ था और इसका अंतिम अंक उसी वर्ष दिसंबर में आया था। उस सयम इस
पत्रिका की जनपक्षधरता, निष्पक्षता और मौलिक त्वरा ने समाजकर्मियों और
बुद्धिजीवियों को गहराई से आलोड़ित किया था।
पुस्तक
में 42 अध्याय हैं, जिन्हें छह भागों में विभाजित किया गया है। पहले भाग
में 11 अध्याय हैं, जिसमें प्रेमकुमार मणि द्वारा जन विकल्प में लिखी गई
संपादकीय टिप्पणियाँ हैं। दूसरे भाग में 7 अध्याय हैं। जिसमें ‘आधुनिक
हिंदी की चुनौतियां' (अरविंद कुमार),‘बौद्ध दर्शन के विकास और विनाश के
षड्यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्त्राब्दी’ (तुलसी राम), ‘प्राचीन भारत
में वर्ण व्यवस्था और भाषा' (राजू रंजन प्रसाद), ‘ऋग्वैदिक भारत और संस्कृत
: मिथक एवं यथार्थ' (राजेंद्र प्रसाद सिंह), ‘आधुनिक हिंदी की चुनौतियां'
(अरविंद कुमार), ‘खड़ी बोली का आंदोलन और अयोध्या प्रासाद खत्री’ (राजीव
रंजन गिरि), ‘उत्तरआधुनिकता और हिंदी का द्वंद्व’ (सुधीश पचौरी), ‘बहुजन
नजरिये से 1857का विद्रोह’ (कंवल भारती) के लेख शामिल हैं। किताब के तीसरे
भाग में 14 अध्याय हैं। इसमें “गीता : ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना का
षड्यंत्र” (प्रमोद रंजन), “दंडकारण्य: जहां आदिवासी महिलाओं के लिए जीवन का
रास्ता युद्ध है” (क्रांतिकारी आदिवासी महिला मुक्ति मंच का वक्तव्य,
“संविधान पर न्यायपालिका के हमले के खिलाफ.” (शरद यादव), “सच्चर रिपोर्ट की
खामियां” (शरीफ कुरैशी), “माइक थेवर को जानना जरूरी है” (रवीश कुमार),
‘मैं बौद्ध धर्म की ओर क्यों मुड़ा’ (लक्ष्मण माने), ‘पेरियार की दृष्टि में
रामकथा’ (सुरेश पंडित), ‘मार्क्स को याद करते हुए' (राजू रंजन प्रसाद),
‘जनयुद्ध और दलित प्रश्न’ (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल), ‘हाशिये के लोग और
पंचायती राज्य अधिनियम' (लालचंद ढिस्सा), ‘सामाजिक जनतंत्र के सवाल'
(प्रफुल्ल कोलख्यान), प्रेमचंद की दलित कहानियां : एक समाजशास्त्रीय
अध्ययन’ (धीरज कुमार नाइट), ‘मुक्ति संघर्ष के दो दस्तावेज’ (रेयाज-उल-हक),
‘राजापाकर काण्ड’ (नरेंद्र कुमार) आदि हैं।
किताब
के भाग चार में 10 ऐसे इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों, फिल्मकारों और
जन-बुद्धिजीवियों के साक्षात्कार शामिल किए गए हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र
में महारत रखते हैं। इस खंड में ‘प्राय: मानवीय मुद्दों को नजरअंदाज कर
दिया जाता है’(अमर्त्य सेन), ‘जाति केवल मानसिकता नहीं’ (योगेंद्र यादव),
‘भूमंडलीकरण को स्वीकार करना होगा (बिपन चंद्र), ‘वैश्वीकरण के साथ खास तरह
के संवाद की जरूरत’ (सीताराम येचुरी), ‘हम जनता की लामबंदी में यकीं रखते
हैं' (गणपति), ‘यह सीधे-सीधे युद्ध है और हर पक्ष अपने हथियार चुन रहा है’
(अरुंधती रॉय), ‘पाँच सौ वर्ष पुराना है कश्मीर की गुलामी का इतिहास’ (संजय
काक), ‘भारतीय इतिहास लेखन मार्क्सवादी नहीं, राष्ट्रवादी है’ (सुधीर
चंद्र), ‘साहित्य प्रायः उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं’ (अरूण कमल)
आदि के साक्षात्कार भी शामिल हैं।
भाग पाँच में
‘यवन की परी’ कविता पुस्तिका को प्रकाशित किया गया है। इसमें ‘एक खत
पागलखाने से’ शीर्षक से एक अनाम कवि की कविता है। यह कवयित्री किसी अज्ञात
यवन देश के पागलखाने में कैद थी। वह कवियित्री कौन थी, क्या करती थी, यह
कोई नहीं जानता। उसने पागलखाने में आत्महत्या करने से पहले यह कविता लिखी
थी। अक्का महादेवी और मीरा की काव्य-परंपरा की याद दिलाने वाली यह कविता
अपनी शुरुआती पंक्तियों से ही विज्ञान, ईश्वर, साहित्य, संगीत, कला और
युद्ध की निरर्थकता को अपने वितान में समेटे में इतने ठंडे लेकिन तूफानी
आवेग से आगे बढ़ती है कि हम सन्न रह जाते हैं।
पुस्तक के अंतिम भाग में जन विकल्प में प्रकाशित सामग्री की सूची और विमोचन से संबंधित समाचार व समीक्षाएं उद्धृत हैं।
जैसा
कि पुस्तक के फ्लैप पर भी कहा गया है, यह किताब धर्म, विज्ञान, भाषा,
इतिहास और पुनर्जागरण पर केंदित सामग्री नए तथ्यों को एक कौंध की तरह इतने
नए दृष्टिकोण के साथ पाठक के सामने रखती है कि अनेक मामलों में सोच का
पारंपरिक ढांचा दरकने लगता है। इसमें शामिल अनेक लेख उन हाशियाकृत समाजों
के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्षों को शिद्दत से सामने लाने की
कोशिश करते हैं, जिन्हें मौजूदा अस्मिता विमर्श में भी जगह नहीं मिल सकी
है। यह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए तो एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ है ही, इक्कीसवीं
सदी के आरंभ में जारी राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक हलचलों काे समझने के
लिए भी उपयोगी है।
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