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गुरुवार, 7 सितंबर 2023

पसहर चाउर

-चन्द्रहास साहू

“दोना ले लो ओ …!”
“पतरी मुखारी ले ले ओ..!”
“लाई ले ले ओ…. !”
दुनो मोटियारी ओरी-पारी आरो करत हावय। आज झटकुन उठ गे हावय दुनो कोई। मुड़ी मा गुड़री , गुड़री मा पर्रा , पर्रा मा टुकनी , टुकनी मा लाई दोना पतरी दतोन मुखारी । छोटे दाऊ पारा ला चिचिया डारिस। थोकिन बेच घला डारिस। अब तेली पारा जावत हावय। जम्मो बच्छर बेचथे जम्मो नेग – जोग के जिनिस ला अपन गाँव अउ आने दू चार गाँव मे। दोना पतरी वाली नवइन रेवती अउ केंवटिन हा लाई ला बेचत हावय । फेर आज तो रेवती के अन्तस मा जइसे कोनो पथरा लदकाय हावय।
“का होगे दीदी ! आज तबियत बने हावय न ?”
“हव बहिनी ! बने हावंव।”
रेवती हुकारु दिस फेर मन मा अब्बड़ बादर गरजत रिहिस। गौरा चौरा करा अब थिरागे दुनो कोई। पारा के आने माईलोगिन मन सकेलागे रिहिस। पर्रा के दोना पतरी ला निमारे लागिस।
” मेंहा देवत हंव बहिनी तुमन झन छांटो। आ बहिनी रमेसरी नेग जोग के जिनिस ला बिसा ले।”
रेवती अउ केंवटिन दुनो कोई किहिस।
रमेसरी दुवार लिपत रिहिस। खबल – खबल हाथ धो डारिस। भीरे कछोरा मा आइस महुआ झरे कस हाँसत।
“का होगे या ..?”
अब्बड़ खुलखुल हाँसत हस बाई । केवटिन के आरो ला सुनके किहिस।
“अई तुमन मोर घर मा आये हव तब हाँसहु नही, तब रोहू या…। अब्बड़ धुर्रा होगे रिहिस बहिनी तेखर सेती दुवार लिपत हव। फेर ..।”
“फेर..का ?”
समारिन किहिस।।
“फेर अउ का  ? पानी गिरत हावय नइ देखत हस ?”
अब छे सात झन उपासिन मन सकेलागे रिहिस। जम्मो कोई हाँसे लागिस रमेसरी के गोठ ला सुनके। पारा भर गमकत हावय अब।
” सिरतोन काहत हस दीदी ! ये अखफुट्टा इंदर देव हा अइन्ते – तइन्ते बुता करथे । चौमासा मा घाम टड़ेरथे अउ गरमी मा पूरा बोहाथे। तेखर सेती राच्छस मन नंगतेहे कूटथे ओला ओ..।”
बिसाहिन किहिस अउ फेर खुलखुल हाँसीस।
“ओ रोगहा इंदर भगवान के गोठ तो झन कर दीदी ! पर के गोसाइन बर नियत डोला दिस। कुकरा बन के पर घर खुसरगे। भगवान मन अइसने नियत खोंटा करही तब मइनखे मन के का होही ..?”
धरमिन आय। ओखरो गोठ अब मिंझरगे रिहिस। गघरा भर पानी मुड़ी मा बोहो के आवत रिहिस। छलकत पानी अउ पानी मा मिंझरे मांग के लाली कुहकू जतका खाल्हे उतरत हावे ओतकी रंग कमतियावत हावय अउ मन मा उछाह के रंग चढ़े लागिस। माथ ले नाक , नाक ले नरी अउ नरी ले उतरके छाती मा हमागे कुहंकू ले रंगे पानी हा।
“पसहर चाउर बिसाहू बहिनी…?”
“वहु तो अब सोना होगे हावय वो ।”
“धरमिन अउ रमेसरी गोठियावत रिहिस।
कामे तौलही रेवती दीदी हा। तोला मे.., किलो में.., कि पैली मे.. ?”
जम्मो कोई फेर हाँसे लागिस।
” पबित्तर जिनिस हा मँहगा तो रहिबे करही दीदी !” केवटिन किहिस।
” लइका लोग सब बने- बने हावय न बेटी रेवती !”
महतारी कस मंडलीन डोकरी के गोठ सुनके रेवती अब दंदरे लागिस। आँसू के बांध अब रोहो – पोहो होगे। पीरा छलकगे। घो..घो..हि.. हि… हिचकी मार के .. अउ अब गोहार पार के रो डारिस। रेवती के बेटी रितु हा काली मंझनिया ले बिन बताये कही चल देहे। कुछु बताये के उदिम करिस रेवती हा फेर मुँहू ले बक्का नइ फूटे।
“ओ काला बताही ओ ! रेवती के टूरी हा अनजतिया टूरा संग उड़हरिया भगा गे हे तेला।”
कोतवाल आवय। ओखर बीख गोठ ला सुनके झिमझिमासी लागिस रेवती ला।
“कलेचुप रहा कका ! सरकारी दस एकड़ खेत ला पोटारे हस तेखर सेती आनी-बानी के उछरत हावस। माईलोगन के मरजाद ला नइ जानस। गरीबीन ला ठोसरा मारे के टकराहा हस ।”
” कुकुर के पूछी कहा ले सोझियाही।”
रमेसरी अउ धरमिन आवय झंझेटत रिहिन।
                        रेवती भलुक गरीबीन रिहिस फेर अब्बड़ दुलार अउ मया पाये रिहिस माइके मा। कोनो महल अटारी के नही भलुक कुंदरा के राजकुमारी रिहिस रेवती हा। राजकुमार मिलिस तब तो सिरतोन के राजकुमार बनगे रेवती बर। ....फेर गरीबीन के भाग मा उछाह नइ लिखाये राहय । मंद महुआ पियईया राजकुमार हा टूरी के छट्ठी के पार्टी बच्छर भर ले मनावत रिहिस। पार्टी नइ सिराइस फेर राजकुमार सिरागे।
आँसू के एक- एक बूँद ला सकेलतीस ते समुन्दर ले आगर हो जाही..। कतका दुख के पहार ला छाती मा लदके हावय कि हिमालय कमती हो जाही। कतका ठोसरा अउ अपमान सहे हे …कोनो नइ जाने। बेटी के कल्थी मारत ले बइठत तक। बइठत ले मड़ियावत तक । मड़ियावत ले रेंगत तक। ......अउ  रेंगत ले उड़ाहावत तक। …अउ उड़हाये लागिस तब तो झन पुछ ..! काखर आँखी मा नइ गड़े लइका हा..। पांख ले थोड़े उड़ाथे बेटी मन ..? अपन मिहनत मा सब ला जानबा करा देथे। गोड़ तिरइया मन उही मेर भसरंग ले मुड़भसरा गिर जाथे।
बेटी बारवी किलास मा पूरा राज मा पहेला आये हावय। पेपर छपिस जयकारा होइस।
“बेटी! तिही मोर जैजात आवस। न गांव मा दू कुरिया के घर बिसा सकत हंव, न खार मा खेत । .. अउ घर, खेत रहे ले मइनखे पोठ हो जाथे का ? जैजात आवस बेटी ! तोला देख के मालगुजार कस महुं हा छाती फुलोथो। ...अउ अइसना फुलत रहूँ सबरदिन।
फेर आज फुग्गा फुटगे। गुमान टुटगे। हवा निकल गे ।
“भागना रिहिस ते हमर जात सगा के का दुकाल रिहिस ओ ? पठान टूरा संग…छी छी…।”
कोतवाल फेर बीख बान छोड़त रेंग दिस।
रेवती के मन गवाही नइ दिस फेर गाँव के पटवारी कका बताइस तब कइसे नइ पतियाही ? उही तो आय पुरखा घर के एक खोली ला अतिक्रमण हाबे कहिके टोरवाये रिहिस।
“मेहाँ देखे हंव रेवती बेटी ! बड़का अरोना बेग ला पीठ मा लाद के ओ टूरा संग भुर्र होगे तेला।”
पटवारी फेर किहिस।
धिरलगहा पतियाये लागिस रेवती हा.. फेर मन नइ पतियावत हावय।
“इंजीनियरिंग कालेज के तीर मा मोटियारी टूरी के लाश मिलिस दू चार दिन पाछू। बदन के जीन्स टी शर्ट जम्मो चिरागे रिहिस। पुलिस केस मा पता चलिस – कबाड़ी वाला के बेटा आवय सलमान । टूरी ला अपन मया मा फँसाये के उदिम करिस अउ नइ फँसिस तब चारो कोई ओरी पारी.... ... छि... छी.....।”
पटइल कका आवय। रेवती के जी कलप गे। मुँहु चपियागे टोटा सुखागे फेर पानी के एक बूँद नइ पियिस।
“आजकल नवा चरित्तर उवे हे भइया ! लव जिहाद कहिथे। आने जात के मन मया मा फँसा लेथे। टूरी ला मुनगा चुचरे सही चुचर लेथे। खेत जोतके बीजा डार देथे अउ छोड़ देथे ..खुरचे बर। ये जम्मो डंफायेन हा बड़का शहर मा चले । अब हमर गाँव देहात मा घला आ गेहे। धन हे श्री राम जी..! तिही बता भगवा रंग ला कइसे अइसन खतरा ले उबारबो तेला।
?”
पुजारी आय मंदिर ला माथ नवावत किहिस।
रेवती काला जानही घरखुसरी हा, लव जिहाद – फव जिहाद ला। अपन बुता ले बुता राखथे। उही पुजारी आवय जौन हा डांग-डोरी, देवी-देवता, देव- आंगा देव ला नचा लेथे।
रेवती बम्फाड़ के रो डारिस।
धिरलगहा पतियाये लागिस रेवती हा.. फेर मन नइ पतियावत हावय।
अभिन बारवी पढ़ के निकले हावय कइसे मया के मेकरा जाला मा अरहज जाही ? अरहज सकथे न!,नेवरिया घर बारवी पास नइ होवन पाइस अउ बिहाव कर दिस।.. अउ ओ खोरवा मंडल के दसवीं पढ़इया नतनीन.. अब्बड़ आनी-बानी के गोठ सुनथो। ओमन अइसन करत हावय तब मोर बेटी…? अब्बड़ गुनत-गुनत अंगरी मा गिन डारिस। लइका हा छे बच्छर मा बड़े स्कूल मा भरती होइस। बारा बच्छर ले पढ़ीस । बारा छे अट्ठारा..।
“अई”
रेवती के मुँहु उघर गे। लइका संग्यान होगे। इही उम्मर मा ओखर खुद के बिहाव होये रिहिस।
रेवती के आँसू भलुक सुक्खागे रिहिस फेर आँखी उसवागे रिहिस।
“कोन पठान टूरा आवय रे ..? हमर गाँव के बहु बेटी ला बिगाड़त हे। अभिन थाना मा फोन करथव । भगवा रंग वाला मन ला घला सोरियावत हंव । ओ पठान टूरा के बुकनी झर्रा दिही ओमन।”
सरपंच आवय रखमखा के आइस तमकत हे।
” महूँ देखे हंव ओ रितु नोनी ला । कोन आय तेला नइ चिन्हे हंव फेर टूरा हा सादा कुरता पैजामा अउ मुड़ी मा हरियर टोपी पहिरके तहसील ऑफिस कोती जावत रिहिस।”
गाँव के डॉक्टर आय।
” मोला तो कोर्ट मैरिज करे बर जावत रिहिस अइसे लागथे।”
सरपंच फेर किहिस।
धिरलगहा पतियाये लागिस रेवती हा.. फेर मन नइ पतियावत हावय अभिन घला।

                      रेवती घर अमरगे रिहिस। अउ घर ले दोना पतरी ला उपासिन मन ला बेचत हाबे। फेर मोटियारी बेटी के संसो मा काला धीरज धरही ? कभु डॉक्टर करा जातिस कभु वकील करा, कभु बइगिन करा तब पहटनीन करा । कतको बेरा फोन घला लगाइस फेर स्विच ऑफ आइस।
            जेखर संग मया कर तेखर संग बिहाव घला करना चाही । नही ते..? मया ही झन कर। महाभारत मा रूखमणी हा भाग नइ सकिस तभे भगवान किसन ला भगाये बर किहिस । अउ रूखमणी ला हरन करके लेगगे किसन जी हा। रितु हा महाभारत देखत- देखत केहे रिहिस अउ रेवती बरजे रिहिस । नानचुन टूरी अउ आनी – बानी के गोठ करथस। जइसे पढाई मा हुशियार हावय वइसने खेलकूद लड़ई झगड़ा सब मा अगवाये हाबे…अउ मया मा भागे बर…?

धिरलगहा पतियावत- पतियावत अब सिरतोन पतियाये लागिस रेवती हा.. ।
बेरा चढ़गे अब। महुआ पत्ता के दोना पतरी ला कतको झन ला बेचिस अउ कतको झन ला फोकट मा घला दिस। कतको झन ला छे किसम के अन्न राहर जौ तिवरा चना बटरा अउ लाई दिस। छे किसम के खेलउना बनाइस बाटी भौरा गिल्ली डंडा धनुष बाण गेड़ी। पसहर चाउर ( लाल रंग के धान जौन पानी के स्रोत मा अपने आप जाग जाथे। सुंघा/कांटा रहिथे। बाली ला सुल्हर लेथे दीदी मन अउ रमंज के चाउर निकालथे । इही लाल रंग के चाउर  ला पसहर चाउर कहिथे ) ला रांधिस बिन जोताये खेत ले छे किसम के भाजी सकेल डारिस अमारी मुनगा कुम्हड़ा लाल पालक बथवा भाजी। गाँव के डेयरी ले दूध मही घीव ले आनिस। अउ अब जम्मो तियारी करके गौरी – गौरा चौक मा रेंग दिस।
                मंडप साजे हे। सगरी बने हावय सुघ्घर अउ पार मा खोचाये हे चिरइया फूल कनेर कांसी दूबी अब्बड़ सुघ्घर। दाई माई बहिनी मन घला अपन जम्मो सवांगा पहिरे- ओढ़े । मेहंदी मा रंगे हाथ अउ आलता माहुर मा गोड़। चुरी वाली अउ  बिन चुरी वाली सब बइठे हावय संघरा। लइका के उज्जर भविस बर असीस मांगत हावय जम्मो उपासिन मन कमरछठ महारानी ले।
“अब तोरे आसरा हावय ओ कमरछठ दाई !”
रेवती के ऑंसू बोहागे महराज के पैलगी करत। दिन भर के निर्जला उपास । जम्मो कोती अँधियार लागिस। लटपट घर अमरिस अउ सुन्ना घर मा समावत पारबती भोले नाथ के फोटू ला पोटार लिस। बेसुध होगे।

उदुप ले मोहाटी के कपाट बाजिस अउ नोनी हा खुसरिस भीतरी कोती। बटन ला मसक के लट्टू बारिस।

“दाई ! ”
ये आखर रेवती बर संजीवनी बूटी रिहिस। झकनका के उठिस अउ  लइका ला पोटार लिस। नोनी रितु के नरी मा झूल गे।
“गाँव भर नाच नचा डारे। पदनी पाद पदो डारे । जिहाँ जाना हे, बता के जाना रिहिस तोला कब बरजे हव बेटी ! झन जा कहि के । ”
रेवती अगियावत रिहिस अउ रोवत किहिस।  रितु के गाल घला झन्नागे दाई के चटकन ले।
“दाई रायपुर गे रेहेंव। अब तोर बेटी हा मेडिकल कालेज मा पढ़ही ओ !”
मुचकावत रिहिस रितु हा।
“अउ पइसा ? ”
“लोन लेये हंव, शिक्षा लोन। फरहान भइया जम्मो बेरा पंदोली दिस फारम भरे अउ लोन निकाले बर। मोर संगी रुखसाना के भाई आय ओ ! फरहान हा। रायपुर दुरिहा हे तेखरे सेती अगुवाके काली गे रेहेंव मेहां, रुखसाना अउ फरहान भइया तीनो कोई। आजे आखरी दिन रिहिस काउंसिलिंग के । मोबाइल घला मरगिस तब का करहु। जाथो कहिके पटेलीन डोकरी ला घला बताये रेहेंव । भैरी सुरुजभूलहिन नइ बताइस ? नानचुन गोठ बर झन संसो करे कर। रितु मुचकावत रिहिस अउ रेवती के ऑंसू पोंछत रिहिस।
टूरा के जेवनी कोती अउ टूरी के डेरी कोती पोता मारे के विधान हाबे। नानकुन कपड़ा ला पिवरी छुही मा बोर के रितु के डेरी कोती पोता मारे लागिस रेवती हा। छे बार पोता मारके आसीस दिस खुलखुल हाँसत रेवती हा अब।
बिन जोताये खेत मा उपजे चाउर कस पाबित्तर लागत रिहिस अब रितु हा। अउ  गाल मा उछाह के रंग दिखत रिहिस सिरतोन पसहर चाउर कस  लाल-लाल।
द्वारा श्री राजेश चौरसिया
आमातालाब के पास
श्रध्दा नगर धमतरी छत्तीसगढ़
493773

चार खंडों का आत्मकथात्मक उपन्यास - लेकिन इतना ही सच नहीं!

डॉ. परदेशीराम वर्मा

    एक प्रसिद्ध कहावत है आजमाये को आजमाना मूर्खता है। समाज की अव्यवस्था, शासन में फैले भ्रष्टाचार, धर्म क्षेत्र में पसर रहे व्यापारिक ढंग-रंग, प्रगति के शोर के बीच ऊंच नीच की छबियाँ , समता के उद्घोष का उपहास उड़ाता विषम वर्तमान और हताशा, उन्माद, जड़ता से पी़डित नई पीढ़ी के सम्बन्ध में प्रायः हम उपन्यास कहानी, कविता पढ़ते हैं।
    दूसरों के दुख को जान और सुनकर शब्दों में पिरोने वाले बड़े साहित्यकार अपने वर्ग से उपर उठकर दलितों आदिवासियों पर भी प्रभावी लेखन कर यश प्राप्त करते हैं। लेकिन आज भी आदिवासियों के बीच से निकलकर कम ही लोग धीरज के साथ शब्दों की दुनियाँ में आकर पहचान ही नहीं बनाते बल्कि एक मानक भी बनाते हैं। इन दिनों एक ऐसे ही रचनाकार ने मुझे चार खंडों के जीवनी परक उपन्यास से प्रभावित किया है।
    वे हैं डा. सुखनंदन धुर्वे। बिलासपुर जिले के एक छोटे से गाँव में जन्मे सुखनंदन नंदन नाम से लेखन करते हैं। वे पिछले वर्ष ही केन्द्रीय विद्यालय धमतरी के प्राचार्य पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर मुक्त हुए हैं। कविता कहानी लेखन की निंरतंरता बनाए रखते हुए नंदन ने केन्द्रीय विद्यालयों में तबादलों की भार सहते हुए आगे की यात्रा की।
    अंततः अति तबादले और अस्त व्यस्त दिनचर्या से आजिज आकर नंदन ने लेखन के लिए स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर रायपुर में घर बना लिया। उसने एल. एल. बी. सम्भवतः इसीलिए किया था कि बावन तिरपन की जवान उम्र में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति हो तो रोजगार का कोई सुविधाजनक विकल्प भी हो।
    वे अब रायपुर में वकालत करते हैं और भिड़कर लेखन करते हैं। बिलासपुुर जिले के गाँव नगपुरा में 05 अक्टूबर 1969 को आदिवासी परिवार में जन्में नंदन की रचनाएं कथादेश, आकंठ, असुविधा जैसी पत्रिकाओं में छपती रही हैं। समकालीन कविता काव्य संकलन का उन्होंने संपादन भी किया है।
    दैनिक लेाकसदन समाचार पत्र में वे झांपी नामक छत्तीसगढ़ी विशेष पृष्ठ का साप्ताहिक संपादक कार्य भी सम्हलाते हैं। मूल रूप से वापंथी नंदन जनवादी लेखक संघ से भी सतत जुड़े रहे हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों में वे केन्द्रीय विद्यालय के शिक्षक के रूप में गए । नागालैंड, मिजोहिल्स, मेघालय, मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्र, झाबुआ, छत्तीसगढ़ के धुर आदिवासी जिला दंतेवाड़ा में वे सेवा देकर धमतरी जैसे चातर राज में आए और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के संकल्प पर अमल  करते हुए स्वतंत्र हो गए । नंदन ने आत्मकथात्मक उपन्यास के एक हजार पृष्ठों को डूबकर चार खंडों में लिखा है।
    हर खंड को एक नाम भी दिया है। अंकुरण, पल्लवन, पुष्पन और प्रसरण। प्रसरण चौथा खंड है। चौथे खंड को समाप्त करने पर ही मैने शीर्षक पर ध्यान दिया। पुस्तक “लेकिन इतना ही सच नहीं” शीर्षक से प्रकाशित है। सचमुच मुझे एक हजार पृष्ठ पढ़कर लगा कि पांचवें खंड से ही कथा की सही शुरूवात हो सकती है। चारों खंडों में नंदन ने गरीब आदिवासी घर में अपने जन्म, किसी तरह श्रमिक पिता और जिद्दी माँ की छाया में रहकर कठिन स्थितियों में की गई पढ़ाई। अभाव के बावजूद खुश रहकर हर परिस्थिति से लड़ते हुए आगे बढ़ने का हौसला, ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और पी. एच. डी. की डिग्री। केन्द्रीय विद्यालय में नौकरी। नौकरी के दौरान होने वाली परेशानी। निराधार तबादले। तरक्की के बंद रास्ते, विवाह, घर-गृहस्थी। गरीब परिजनों के बीच अपेक्षाकृत थोड़ी सी सम्पन्नता के कारण दाता बनने की कठिन भूमिका। स्वजातीय लड़की देखकर विवाह करने के फैसले से आहत, जिद्दी माँ, ईमानदार और हिम्मती पिता। सीधी सादी जीवन संगिनी, साथ देने वाले सहयोगी और षड़यंत्रकारी विभागीय साथी। बेहद ऊबाऊ, दूरदराज की यात्राएँ। अनजानी सी जगहों में पदस्थापनाएँ। संकटो से निजी कौशल से उबार और कामयाबी का आस्वाद लेखन इन चार खंडों में है। चारों खंड पढ़ने के लिए पाठक को सम्मोहित करते हैं। नंदन के पास आरूग भाषा है। छत्तीसगढ़ी का शब्द है आरूग।
    प्रख्यात कलाकार देवदास बंजारे की मेरे द्वारा लिखित जीवनी का शीर्षक है आरूग । उस जीवनी को मध्यप्रदेश शासन का माधवराव सप्रे सम्मान प्राप्त है। आरूग का अर्थ है पवित्र। अनछुवा, बेदाग । यही बेदाग आरूग भाषा नंदन के पास है । नंदन के पास कहने को बड़ी कथा है। यह किताब तो केवल भूमिका है। उसने जीवन ही ऐसा जिया है कि जीवन भर उसे लिखने के लिए विषय की कभी कमी शायद ही हो। नंदन ने जीवनी में यह बताया है कि वैचारिक दृष्टि से वामपंथी होते हुए भी किस तरह एक व्यक्ति समाज के आगे झुकने पर मजबूर हो जाता है। पाखंड से संचालित कर्मकांड, त्याग योग्य झूठी परंपरा, दिखावा, धर्मन्धता से उबर नहीं पाता।
    एक वैचारिक व्यक्ति या तो समाज परिवार से लड़कर अकेला हो जाय या इमानदारी का रास्ता छोड़कर वैचारिक साथियों के बीच ऊपहास का पात्र बने। उगलत-निगलत पीर धनेरी इसी स्थिति को कहते हैं। नंदन ने देश भर में विभिन्न प्रांतों में नौकरी की। पूरी साहस के साथ उसने स्थितियों का सामना किया। बाबरी मस्जिद को टूटते हुए देखकर उसके भीतर भी बहुत कुछ टूट सा गया। भाई चारे की गंगा-जमुनी तहजीब वाला यह सुन्दर देश धीर धीरे किस तरह धर्मान्धता की जकड़ में आकर हांफने लगा यह भी उसने महसूस किया। देश का कोई भी प्रान्त हो हर कहीं अंध क्षेत्रीयता, जातीयता, धर्म में उसका बँटा हुआ डरावना स्वाभाव हर कहीं उद्वेलित करता है । दिनकर की पंक्ति यहां याद आती है प्यारे स्वदेश खाली आऊँ या हाथों में तलवार धरूं।
    अब नंदन को जमकर लिखने का पूरा अवसर है उसने आर्थिक दृष्टि से मजबूत स्थिति बना लेने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लिया। चारों खंडों में छत्तीसगढ़ की पंरपरा, आदिवासियों की पंरपरा का खूब वर्णन है। हर छत्तीसगढ़ी व्यक्ति को दीगर प्रान्त में अपेक्षाकृत अधिक चतुर व्यक्तियों, समाजों का अतिक्रमण डराता है। छत्तीसगढ़ का न कोई देवता बड़ा है, न इसकी किसी नदीे को दर्जा प्राप्त है । न यहाँ का श्रम सराहनीय है, न छत्तीसगढ़ी सरलता को प्रशंसा की दृष्टि से देश देखता है।
    गहरी निराशा के बीच लिखने पढ़ने वाले वे लोग जो वामपंथ पर आस्था रखते हैं अपनी बात अपने ढंग से कहते हैं ओर ऐलान करते हैं लेकिन सचमुच में इतना ही सच नहीं है। गैर छत्तीसग़ढियों के द्वारा छत्तीसगढ़ को लूटने, धमकाने, डराने और उनका अकसर, सुख, सम्मान छीन लेने का लंबा इतिहास है। लेकिन अब राजनीति का क्षेत्र भी निरापद नहीं रहा। जो लोग क्षेत्रीयता की बात करते हुए सत्ता में आते हैं वे छत्तीसगढ़ी भी स्थायित्व और वर्चस्व तथा जीत के लिए कारगर, विजय मंत्र के जानकार बाहुबली बाहरी लोगों को लठैती कराने मे हिचकते नहीं  सत्ता अपने ढंग से अपना चेहरा चमकाती है लेकिन कमलेश्वर ने यूं ही नहीं कहा है कि सत्ता अपनी मृत्यु नहीं देख पाती। सत्ता अपनी मृत्यु इसलिए नही देख पाती क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि “इतना ही सच नहीं है।” सच्चाई ऐसी है जिसका खुलासा धीरे धीरे ही हो सकता है। जो सच्चाई को जानते हैं वे उसे बता नहीं पाते जो नहीं जानते वे झूठ को सच की तरह परोस कर अपनी कारीगरी पर इतराते र्हैं।
    नंदन के समकालीन साथी कविता कहानी उपन्यास लिखने में पूरे मन से लगे हैं। ऐसे समय में नंदन नें जीवनीपरक उपन्यास लिखकर एक लोकप्रिय और पठनीय विधा को समृद्ध करने का बीड़ा उठाया। इन चारों खंडों में पहला खंड बचपन पर दूसरा खंड, नौकरी मिलने और नौकर हो जाने के बाद की परेशानियों पर, तीसरा खंड नौकरी से बंधे रचनाकार के धुवांधार तबादले की धूप पर और चौंथा खंड समकालीन राजनीति, छत्तीसगढ़ की वर्तमान स्थिति, दक्षीणपंथी राजनीतिक चोचले और पिसते हुए गरीब समाज पर है।
    राजनीति ने किस तरह आम आदमी को केवल इस्तमाल की वस्तु बनाकर रख दिया इस पर गहरी टिप्पणियाँ इस खंड में है। नंदन का यह पहला साहसिक रचनात्मक प्रयास प्रशंसनीय है। यह आम छत्तीसगढ़ी या कहिए हिन्दुस्तानी नौजवान की कहानी है। नंदन ने बहुरंगे समाज और भलाई से भरे अपने आसपास के लोगों को देखा है तो अपनी कुंठा और गलत सोच के कारण लगातार पी़डित करने वाले करीबी लोगों के गुण दोष को भी खूब परखा है।
    मनुष्य न किसी जाति और परिवार में जन्म लेने के लिए स्वतंत्र है। न ही वह जिस परिवार में जन्म लेता है उससे बिलग होकर स्वतंत्र ढंग से विकसित होने के लिए मुक्त हैं। उसे घुट घुट कर अपने चारों ओर के दबावों के बीच ही जीना और विकसित होना पड़ता है यह नंदन के इस चार खंडों वाली कथा पढ़कर हम बेहतर ढंग से समझ पाते हैं।
    सर्वेश्वर जी ने लिखा है -
मैं सारी जिन्दगी सहारे की
तलाश में भटकता रहा
और अंत में मुझे अपनी हथेलियों से
बेहतर जगह दूसरी नहीं मिली ।
    अपने पुरूषार्थ से बिगड़ी बना लेने वालों पर गर्व करने का अवसर इस कथा से हम पाते हैं ।
    बहुत अधिक ब्यौरों के कारण ये चार खंड बने हैं। ब्यौरों और बारीक विवरणों से बचकर इस कथा को दो खंडों में भी समेटा जा सकता था। मगर मन भरने की बात है। प्रेमचंद ने लिखा है कोई रचना रचयिता के मनोभाओं का, उसके चरित्र का, उसके जीवनादर्श का आईना होती है।
    रचनाकार खुद से मुक्त होकर रचना नहीं कर सकता वह अपनी रचनाओं में ठीक उसी तरह रहता है जिस तरह मेंहदी के हरे पत्तों में रंग छुपा होता है।
अभी हमें नंदन से काफी आशाएँ हैं।
*********
आलोचक - डा. परदेशीराम वर्मा
पुस्तक - लेकिन इतना ही सच नहीं
चार खंड
मूल्य 600 प्रत्येक
प्रकाशन:
रूद्रादित्य प्रकाशन प्रयागराज
लेखक डा. सुखनंदन सिंह धुर्वे नंदन

राखी

 राजकुमार 'मसखरे' 
राखी का त्यौहार
          खुशियों की बहार,
सावन मास पूनम
          ये रिमझिम फ़ुहार !
घर-बार में धूम मची
          बहन-भैया के द्वार,
 इसी का वर्ष भर से
       बेशब्री से था इंतज़ार !
बन-ठन बैठा भैया
          बहन भी है तैयार ,
रेशम डोर कलाई पर
       दोनों का छलका प्यार !
माथे पर चंदन,अक्षत
          बहन का नेह अपार ,
थोड़ी हँसी ठिठोली
       मिले अनमोल उपहार !
कच्चे धागों में बसा
          अटूट,बंधन व्यवहार,
बँधे प्यार का बंधन
          खुशहाल रहे संसार !
कान्हा इतना करो उपकार !
~~~~~~~~~~~

ओ मेरे किशन कन्हैया जी
तुम आओ तो जी इकबार,
रह- रह कर हे नटवर तुम्हें
ये प्रजातंत्र कर रहा पुकार !

वो दूध-दही ये सब भूल गये
लगा  है मधुशाला के अंबार,
अब न तेरी गैया न है मधुबन
है न क़दम न कदली कछार !

बंशी की धुन अब थम गयी
सभी के हाथों में है हथियार,
कोई  किसी का  नही सुनते
करते  हैं मनमानी  सरकार !

वो दुर्योधन,दुशासन बैठे हैं
अब  किससे करूँ मैं गुहार,
इनके वह  रंगीन चश्मों का
ये मैं कैसे के करूँ उपचार !

वो वैद्य-हक़ीम  सब थर्राये
नही रख पाते अपने विचार,
आका को सभी ख़ुश करने
हैं  सम्हाले अपनी  व्यापार !

सबको  प्यार बाँटने कान्हा
और  पुनः  ले  लो अवतार ,
ईर्ष्या-द्वेष इस धरा से मिटे
इतना करो हम पर उपकार !
 
हमर जिला खैरागढ़-छुईखदान-गंडई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ये मोर जिला खैरागढ़- छुईखदान- गंडई
मँय कतेक ल बखानव जी एखर सुघराई ...!

खैरागढ़ के रुख्खड़ स्वामी
          बख्शी जइसे साहित्यकार,
सङ्गीत विश्वविद्यालय इंहा
         आमनेर के छल-छल धार !
आसीस के देवैया माता दंतेश्वरी दाई..........
पांडादाह के नामी अरजदूज
      अउ करेलागढ़ के माँ भवानी,
कोड़ेगाँव के खड़गेश्वर भोले
      परधानपाठ के जलरंग पानी !
इंहा प्रसिद्ध हवै जालबांधा के मंडाई.........
छुईखदान  के कालीमाता
          अउ वैष्णो देवी के दरबार,
हथकरघा के कपड़ा नामी
        ये छिंदारी बांधा हे अल्लार !
शक्तिपीठ कोंड़का में बिराजे महामाई........
माँघ पुन्नी नरबदा के मेला
        महाशिवरात्रि डोंगेश्वर धाम ,
गंडई म जुन्ना देऊर मंदिर
         घटियारी शिव हे बड़े नाम !
सब बर छाहित हवै,माँ गंडई के गंगाई.......
कोपरो के तिर धाँस- कुँआ
        वो सरई पतेरा के ठाड़पानी,
मोटियारी घाट म माँ बंजारी
       अउ घुमँव घाटी बैतालरानी !
बुज़बुजी कुंड नहाये ले भागै रोग राई.........
मंडिपखोल गुफा बड़ भारी
       सुरही पल्लो करे खेत-खार,
पैलीमेटा के ये बांधा सुग्घर
         अन्नपूर्णा बइठे रास पहार !
बड़ जुड़ लागै,साल्हेवारा के अमराई...........

ये मोर जिला खैरागढ़- छुईखदान- गंडई..
मँय कतेक ल बखानव जी एखर सुघराई ..।

भदेरा (पैलीमेटा/गंडई)जि.-के.सी.जी.(छ.ग.)

डूबता सूरज

                                 सुरेश सर्वेद
                        पात्र परिचय
श्रीकांत - एक कृषक/ छन्नू - मन्नू बैलों के मालिक
सुनंदा - श्रीकांत की पत्नी
निमेष - बैल व्यापारी
मनीष, अरुण, अमित, सरपंच अन्य ग्रामीण - गांव के लोग
पशु चिकित्सक - पशु चिकित्सक
कालू-  बूढ़े और असक्त जानवरों का क्रेता
सूत्रधार - सूत्रधार
सारांश
     गांव का किसान श्रीकांत नई '' बैल जोड़ी '' खरीदना चाहता है। वह आमगांव के '' बैल बाजार '' से '' बैल जोड़ी '' खरीद लाता है । उन बैलों का नाम छन्नू और मन्नू होता है। छन्नू - मन्नू युवा और हृष्ट  - पुष्ट है । छन्नू - मन्नू की फुर्तीली चाल और गठीले अंगों को देख कुछ ग्रामीणों को जलन होती है तो कुछ को प्रसन्नता। एक ग्रामीण, मनीष बैलों की कार्यक्षमता की परीक्षा लेना चाहता है। उस परीक्षा में बैल सफल हो जाते हैं।
     समीप ही '' बजरंगपुर '' गांव है। वह '' बैल दौड़ '' प्रतियोगिता होता है। उस प्रतियोगिता में श्रीकांत, छन्नू - मन्नू को नहीं ले जाना चाहता मगर अमित के कहने पर छन्नू - मन्नू को प्रतियोगिता में ले जाता है। उसमें छन्नू - मन्नू प्रथम पुरस्कार प्राप्त करते हैं।
     एक दिन श्रीकांत दूसरे गांव जाता है। छन्नू - मन्नू के देख रेख की जिम्मेदारी सुनंदा पर आ जाती है। सुनंदा बैलों को घास देने जाती है। धोखे से छन्नू के पैर से सुनंदा का पैर दब जाता है। सुनंदा बौखलाकर दिन भर बैलों को कुछ खाने ही नहीं देती।
     श्रीकांत वापस आता है। उसे मालूम होता है कि छन्नू  - मन्नू को दिन भर दाना पानी नहीं दिया गया तो वह सुनंदा पर बौखला जाता है।
इसी तरह दस वर्ष निकल जाते हैं। और छन्नू - मन्नू वृद्ध हो जाते हैं। श्रीकांत नये बैल खरीदना चाहता है मगर अरुण के कहने पर वह ट्रैक्टर खरीद लाता है।
घर में ट्रैक्टर आने से छन्नू  - मन्नू की उपयोगिता खत्म हो जाती है। उन्हें कोठे में छोड़ दिया जाता है जहां वे यातना की जीवन जीते हैं। मन्नू को '' तड़कफांस '' की बीमारी हो जाती है। इससे वह न पैरा - भूसा खा सकता था और न ही पानी पी सकता था। एक दिन मन्नू की मृत्यु हो जाती है ।
      मन्नू की मृत्यु की पीड़ा छन्नू के लिये असहनीय होती है । वह साथ बिताये दिनों की याद करता है और कोठे में छटपटाता है। स्वयं से लड़ता है।
     गांव में कालू आया है। वह असक्त एवं अपंग पशुओं के खरीददार है । श्रीकांत उससे छन्नू का मोल भाव कर लेता है। वह छन्नू को कालू के पास बेचने तैयार हो जाता है। कालू, छन्नू को लाठी से पीट और घसीटकर कोठे से बाहर निकालना चाहता है । कालू की निर्दयता से श्रीकांत की आत्मा कराह उठती है । वह कालू के रुपये लौटा देता है । श्रीकांत, छन्नू से बेचने से इंकार देता है ।
नाटक   
(सूत्रधार - श्रीकांत '' बैल जोड़ी '' खरीदना चाहता था। वह आमगांव का बैल बाजार से बैल खरीदना चाहता था। वह तैयार होकर अपनी पत्नी सुनंदा को आवाज दी)
श्रीकांत - सुनंदा, अरी सुनंदा थैली तो लेते आओ। बैल खरीदने बाजार जाने का समय हो गया है।
सुनंदा - अभी आयी (श्रीकांत के पास आकर) ऐ लो थैली। अब की बार ऐसी बैल जोड़ी लाना जो हृष्ट - पुष्ट और काम में फुर्तीले हो।
श्रीकांत - (सुनंदा के हाथ से थैली लेते हुए ) हां - हां, मैं वैसे ही बैल जोड़ी लाऊंगा, जैसे तुम चाहती हो।
(श्रीकांत आगे बढ़ता है)
सुनंदा - (ऊंची आवाज में) और हां, रुपये सम्हालकर रखना। बाजार - हाट में चोर - उच्चकों की कमी नहीं रहती।
श्रीकांत - हां -हां, मैं तुम्हारी बातें गांठ में बांध कर रखूंगा । तुम निश्चिंत रहो ।
(दृष्य परिवर्तन)
(आमगांव का '' बैल बाजार '' । वहां गहमा - गहमी है। बैल खरीदने - बेचने की आवाजें उभर रही है। श्रीकांत '' दावन '' में बंधे बैलों को देखता - परखता है। उसकी दृष्टि दो बैलों पर जा टिकती है। वह बैल व्यवसायी निमेष से बैलों की ओर संकेत करके पूछता है )
श्रीकांत - निमेष, इन बैलों की क्या कीमत है ?
निमेष - कीमत कुछ अधिक नहीं । दोनों बैलों की कीमत मात्र बीस हजार रुपये है ।
श्रीकांत - तुम बहुत ज्यादा कीमत आंक रहे हो । कीमत सुनकर खरीददार भाग जायेगा। लेन -देन की बात करो ।
निमेष - तुम लेना ही चाहते हो तो इस बैल जोड़ी को अट्ठारह हजार में दे सकता हूं । इससे एक पैसा कम नहीं लूंगा । वैसे तुम भी मांग सकते हो ।
श्रीकांत - मैं पन्द्रह हजार तक खरीदने के पक्ष में हूं । यदि जम रहा हो तो '' दावन '' ठोंक दो ।
निमेष - नहीं रे भाई, नहीं । एक हजार और कम कर सकता हूं, अर्थात सत्रह हजार लगेंगे । एक बात गांठ में बांध कर रख लो, तुम्हें इतने सस्ते में ऐसे कमाऊ बैल कहीं नहीं मिलेंगे। ( निमेष एक बैल की पीठ ठोंकता है । बैल ऊपर की ओर उचकता है) देखा, छुआ नहीं कि बैल फुर्ती दिखाने लगा। इसका नाम छन्नू है । (पास ही बंधे दूसरे बैल की पूंछ ऐंठता है। बैल मचलता है) यह मन्नू है । इन दोनों की पटती भी खूब है । अलग - अलग बांध दूं तो ये '' दावन '' तोड़ देंगे। विश्वास करो - ये अपने परिश्रम से तुम्हारे रकम एक वर्ष में ही लौटा देंगे ।
श्रीकांत - (मन ही मन बुदबुदाता है) इसे तो मैं भी जानता हूं, तभी तो इन्हें खरीदना चाहता हूं । (निमेष से) तुम सोलह हजार में देना चाहते हो तो दे दो।
निमेष -कुछ सोच - समझकर मांगों ।
श्रीकांत - मुझे जो मांगना था, मांग लिया ।
निमेष - तुम नम्बर एक कंजूस निकले ।
(निमेष '' दावन '' ठोंक देता है । बैलों को '' दावन '' से खोल श्रीकांत को थमाते हुए) तुम इस व्यवसायी निमेष का क्या नाम लोगे,लो, सम्हालों अपने बैल ।
श्रीकांत - (रुपये देते हुए) ये रहे तुम्हारे रुपये। गिन लो - पूरे रुपये है कि नहीं ।
निमेष - (रुपये गिनता है) एक ...दो .... तीन ....चार ....(श्रीकांत से) पूरे के पूरे हैं ।
श्रीकांत - तो अब चलता हूं ...।
निमेष - हां हां, और कभी सेवा की जरुरत पड़ी तो बताना ।
श्रीकांत - ठीक है ...।
(श्रीकांत बैलों को हंकालता है । अपने गाँव की ओर चल पड़ता है)
दृष्य परिवर्तन
(बीच रास्ते में भाटागाँव पड़ता है । एक स्थान पर कुछ ग्रामीण खड़े हैं । श्रीकांत बैलों के साथ उनके पास से निकलने लगता है । ग्रामीण बैलों को देखते हैं )
एक ग्रामीण - (श्रीकांत से) ये बैल कहां से ला रहे हो । इन्हें कितने में खरीदा ।
श्रीकांत - (ग्रामीण से) आमगांव के बैल बाजार से खरीदा हूं । पूरे सोलह हजार पड़े हैं भाई ।
दूसरा ग्रामीण - सस्ते में पा गये ।
श्रीकांत - (हंस कर) सस्ते कहां । सोलह हजार कोई छोटी रकम है ।
पहला  - चिंता क्यों करते हो । ये सोलह के बत्तीस हजार एक ही वर्ष में कमा कर देगें ।
श्रीकांत - सो तो ठीक है ...।
(श्रीकांत बैलों को हकाल कर आगे की ओर बढ़ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू - मन्नू से) अभी तो आठ किलोमीटर का रास्ता शेष है । चलते - चलते मेरे पैरों में दर्द भर गया है । इच्छा हो रही है  - घना वृक्ष के तले बैठ कर थोड़ा आराम कर लूं । तुम लोगों को भी आराम मिल जायेगा । मगर घर शीघ्र पहुंचने का उमंग आराम करने की अनुमति नहीं दे रही है ।
(सूत्रधार  - बैल श्रीकांत की बात सुनकर अपनी भाषा में एक दूसरे से बातें करते हैं । )
मन्नू - (छन्नू से) मित्र छन्नू, तुमने सुना - मालिक क्या कह रहे हैं। देखो तो इनकी चाल, कैसी ढीली पड़ गई है। लगता है - ये बुरी तरह थक गये हैं।
छन्नू - (मन्नू से थकी आवाज में) मन्नू, चलना भी तो बहुत पड़ रहा है। सच कहूं - मुझे भी थकान महसूस हो रही है।
मन्नू - क्या कहा छन्नू ? तुम थक गये। अपना निकम्मापन प्रदर्शित करना चाहते हो । यदि तुमने आराम की सोची तो मालिक को संदेह हो जायेगा कि हम कामचोर है । अभी हम युवा हैं। फिर थकने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता ।
छन्नू  - मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था ।
मन्नू  - तुम मेरी क्या परीक्षा लोगे ? मैं सारी दुनियां को दौड़ लगा आऊंगा, फिर भी जीत मेरी ही होगी । अविश्वास हो तो दौड़ कर देख लो ।
छन्नू - तो देर किस बात की, स्पर्धा हो ही जाये ।
(छन्नू - मन्नू पूंछ उठाकर दौड़ने लगते हैं)
श्रीकांत - (छन्नू  - मन्नू के पीछे दौड़ते हुए ) अरे भई, इतना मत दौड़ों । मैं तुम लोगों के साथ नहीं दौड़ सकता । (श्रीकांत स्वयं से) लगता है, इन पर जिद्द सवार है (श्रीकांत के हांफने की आवाज, वह रेंगना शुरु कर देता है) दौड़ो बेटे, दौड़ो । इतना दौड़ो कि लोग दांतों तले ऊंगली दबा ले । मैं कहने नहीं चूकूगा कि जीत हुई तो छन्नू - मन्नू की, हार हुई तो मेरी ...।
दृष्य परिवर्तन
(श्रीकांत बैल जोड़ी के साथ अपने गांव के निकट पहुंच जाता है । एक स्थान पर कुछ ग्रामीण हैं। वे श्रीकांत के साथ हो लेते हैं।)
सरपंच - क्यों श्रीकांत, आखिर तुमने बैल ले ही आया ।
श्रीकांत  - बैल नहीं लाता तो खेती कैसे करता सरपंच महोदय । ठीक कहा न मनीष ।
मनीष  - हां - हां, तुम्हारा कहना उचित ही है। इस बार तो तुमने जानदार बैल जोड़ी लाये हो श्रीकांत ।
सरपंच - (मनीष से) मनीष,साल - साल बैल लेने से तो अच्छा यही होता है-जो लो, एक बार लो। भले कीमत अधिक लगे । अब श्रीकांत को कम से कम दस वर्ष तक तो बैल खरीदने - बेचने के पचड़े में पड़ना नहीं पड़ेगा ।
श्रीकांत  - ( सरपंच से) तुम्हारा आंकलन ठीक है सरपंच महोदय ।
( श्रीकांत, बैल जोड़ी एवं ग्रामीणों के साथ अपने घर के निकट पहुंच जाता है । दरवाजे के नजदीक पहुंच कर अपनी पत्नी सुनंदा को आवाज देता है)
श्रीकांत - सुनंदा, अरी सुनंदा ...।
सुनंदा  - (घर भीतर से आवाज देती है) अभी आयी ...।
श्रीकांत - खाली हाथ ही न आ जाना। नारियल आरती लेते आना ...।
(सुनंदा आरती नारियल ले कर आती है। वह बैलों के माथे पर टीका लगाती है । आरती उतारती है । नारियल श्रीकांत को देती है)
सुनंदा - लो ये नारियल फोड़ लोगों में प्रसाद बांट दो ।
(नारियल फुटता है । श्रीकांत लोगों में प्रसाद बांटता है । वह बैलों को आंगन में ले जाकर बांधता है। ग्रामीण भी आंगन में आ जाते हैं।)
श्रीकांत -(सुनंदा से) सुनंदा, बैलों के सामने हरी - हरी घास डाल दो। ये भूखे हैं ।
(सुनंदा बैलों के सामने घास डालती है। बैल घास चबुलाने लगते हैं)
सरपंच - (श्रीकांत से) श्रीकांत, मैंने बहुत बैल देखे पर ऐसे बैल नहीं देखा। देखो तो बस देखते रहने की इच्छा होती है ।
मनीष - (सरपंच से) सरपंच काका, बैल अभी - अभी आये और इन्हें हरी - हरी घास खाने मिल गया। आप श्रीकांत के बैलों की प्रशंसा ही न करें। श्रीकांत से कुछ खर्च भी करवाइये ।
सरपंच - (श्रीकांत से) मनीष का कहना उचित है श्रीकांत। अब तुम ही बताओ, इस खुशी के अवसर पर क्या खिलाओगे। स्पष्ट कर ही दो ।
श्रीकांत - (सरपंच से) अब मैं क्या बताऊं सरपंच महोदय,सारे रुपये तो छन्नू - मन्नू पर उड़ेल आया ।
अरुण - ये रही कंजूसी की बात। लगता है - अब श्रीकांत भूखा ही रहेगा ...।
(सभी ग्रामीण खिल खिलाकर हंस पड़ते हैं। हंसी थमती है)
मनीष - अरुण, अब श्रीकांत भूखा रहे या उपवास करे इससे हमें क्या ? श्रीकांत से पार्टी लेने का अधिकार तो हम लोगों का बनता ही है। श्रीकांत को हम लोगों को पार्टी देनी ही होगी ।
श्रीकांत - ठीक है, कल दे दूंगा पार्टी ?
अरुण - कल क्यों ? पार्टी तो अभी होनी चाहिए। क्यों सरपंच काका ?
सरपंच - (श्रीकांत से) हां श्रीकांत, अरुण का कहना उचित है । देर होने पर उत्साह किरकिरा हो जाता है । (ग्रामीणों से) क्यों भाईयों, मैंने उचित कहा न?
सभी ग्रामीण - (एक स्वर में) हां  - हां, पार्टी तो अभी होनी चाहिए ।
श्रीकांत -  (ग्रामीणों से) ठीक है, तुम सबका एक राग है तो मुझे भी स्वीकार है। (सुनंदा से) क्यों सुनंदा, ग्रामीण क्या कह रहे हैं - तुम सुन रही हो न ?
सुनंदा- ठीक ही तो कह रहे हैं ।
श्रीकांत - तो बना डालो, खीर - पुड़ी ।
(सुनंदा,पाकगृह में चली जाती है। श्रीकांत छन्नू की पीठ सहलाने लगता है । मन्नू, श्रीकांत के शरीर से अपना शरीर घसीट देता है)
श्रीकांत - (मन्नू से पुचकार कर) क्यों मन्नू, छन्नू को सहलाते तुमसे देखा नहीं गया ? लो तुम्हें भी सहला देता हूं ।
(श्रीकांत, मन्नू को सहलाने लगता है, उसी समय अमित प्रवेश करता है। वह हांफ रहा है ।)
मनीष - (अमित से) अमित, तुम इतना हांफ क्यों रहे हो। मैंने तो तुम्हें बैलगाड़ी से धान लाने भेजा था । मगर तुम यहां क्यों आये। क्या धान ले आये ?
अमित - नहीं ...।
मनीष - क्यों ...?
अमित - तुम यहां श्रीकांत के बैल जोड़ी देख रहे हो। उधर तुम्हारी गाड़ी नाले में फंस गई है ।
मनीष - (हड़बड़ा कर) क्या कहा, गाड़ी नाले में फंस गई है ?
अमित - हां - हां, तुम्हारे बैल गाड़ी को खींच नहीं पा रहे हैं ।
मनीष  - तो दूसरों के बैल मांग कर क्यों नहीं ले जाते ?
अमित - गांव के प्रायः सभी बैलों से कोशिश की जा चुकी है, गाड़ी टस से मस नहीं होती ।
मनीष - (श्रीकांत से) श्रीकांत, तुम अपने बैलों को वहां ले चलो। इनकी कार्यक्षमता की परीक्षा भी हो जायेगी ।
श्रीकांत - नहीं रे भइया, ये अभी थके हैं। इन्हें अभी आराम की आवश्यकता है ।
मनीष - (टंट कसता है) तो क्या इन्हें दिखाने के लिए लाये हो । क्यों सरपंच काका, मैं ठीक कह रहा हूं न ?
सरपंच -(श्रीकांत से) मनीष ठीक ही तो कह है श्रीकांत । हम भी देख लेंगे इनकी कार्यक्षमता (ग्रामीणों से) क्यों भईयों, मैंने उचित कहा न ?
ग्रामीण - हां - हां, मनीष और सरपंच का कहना उचित ही है ।
श्रीकांत  - ठीक है, जब तुम सबकी एक ही राय है तो मैं भी मान ही लेता हूं ।
दृष्य परिवर्तन
(नाले के पास ग्रामीण बैल जोड़ी को लेकर आते हैं। वहां एक गाड़ी जिसमें लबालब धान की फसल भरी है। वह नाले के चढ़ाव में अटकी पड़ी है, उसमें छन्नू - मन्नू को जोता जाता है। बैलों को गाड़ी खींचने हांकते है - '' हो - हो, ढिर्र ... दिर्र ... '' छन्नू -मन्नू जोर लगाकर गाड़ी को खींचते है। वे एक - दो कदम चढ़ने के बाद पुनः पीछे हो जाते हैं। फसलों से भरी गाड़ी जहां के तहां आ जाती है)
मनीष - (श्रीकांत से) श्रीकांत, तुम्हारे बैलों का काम दिख गया। थोड़े से चढ़ाव को भी पार नहीं कर पा रहे हैं ।
सूत्रधार - छन्नू, मन्नू की ओर देखता है। वे ताव में आ जाते हैं। वे एक साथ सामने के पैरों को मोड़ते हैं । पीछे के पैरों से बल देते हैं। फिर सामने के पैरों को शीघ्र उठा लेते हैं । वे गाड़ी को नाले के ऊपर खींच लेते हैं। छन्नू - मन्नू हांफने लगते हैं, मगर  वे गाडी को ऊपर खींच ही लेते हैं ।
मनीष - (श्रीकांत से) श्रीकांत, वास्तव में तुम्हारे बैलों की कार्यक्षमता सराहनीय है ।
सरपंच - (श्रीकांत से) हां श्रीकांत, देखो न ये हाँफ रहे हैं । इनके मुंह से झांक निकल गये मगर इन्होंने गाड़ी को नाले से ऊपर खींच ही लिया ।
अरुण - अब चलो, श्रीकांत के घर का भोजन ठंडा न हो जाये।
सभी ग्रामीण - चलो,चलो ....।
(सभी ग्रामीण, श्रीकांत के घर आते हैं । श्रीकांत, छन्नू - मन्नू को यथा स्थान बांध देता है ।)
श्रीकांत - (पाकगृह की ओर देखते हुए) सुनंदा, भोजन तैयार हो गया क्या ?
सुनंदा - (पाकगृह से) हां हो गया है ।
श्रीकांत - (ग्रामीणों से) लो भाइयों, बैठो, अरुण चलो तुम भोजन परोसने में मेरी सहायता करो ।
अरुण - ठीक है ...।
सरपंच - (श्रीकांत से) श्रीकांत, पहले हम लोगों को भोजन न परोस देना। सबसे पहले छन्नू - मन्नू को भोजन देना फिर हमें ।
श्रीकांत - (सरपंच से) आप ठीक कह रहे हैं सरपंच काका,मैं दो थालियों में अलग से निकलवा लिया हूं (खीर - पुड़ी, छन्नू - मन्नू को देते हुए) लो खाओ ...।
(छन्नू - मन्नू खीर पुड़ी खाने लगते हैं। ग्रामीणों को भी खीर - पुड़ी परोसा जाता है । वे भी खाने लगते हैं )
श्रीकांत - लो सरपंच काका, दो पुड़ी और लो ...
सरपंच  - (डकारते हुए) नहीं - नहीं, बहुत हो गया...।
श्रीकांत - लो भी, दो पुड़ी कोई अधिक नहीं होता ...।
अमित - ( पुड़ी चबाते हुए) खाओ न काका, रोज - रोज तो ऐसा अवसर आता नहीं है ...
(इस तरह ग्रामीण भर पेट पुड़ी खीर खाते हैं)
दृष्य परिवर्तन (कुछ दिन बाद)
(प्रातः का समय, श्रीकांत कोठे में जाता है। वहां छन्नू  - मन्नू है । श्रीकांत देखता है - छन्नू सुस्त बैठा है । श्रीकांत छन्नू के पास जाता है । उसके पास बैठ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू के गले में हाथ फेरते हुए) छन्नू, तुम गुमसुम क्यों बैठे हो? कही तुम्हारी तबियत खराब तो नहीं .. मुझे लगता है - जरुर तुम्हारी तबियत खराब हो गयी है। (उठते हुए) मैं जाता हूं, अभी चिकित्सक को बुला ले आता हूं।
(श्रीकांत, कोठे से बाहर आता है । सुनंदा से)
श्रीकांत - सुनंदा, अरी ओ सुनंदा ...।
सुनंदा - क्या है ...?
श्रीकांत - लगता है, छन्नू की तबियत गड़बड़ा गई है। मैं पशु चिकित्सक को लाने जा रहा हूं । तुम बैलों का ध्यान रखना ।
सुनंदा - ठीक है ...।
(श्रीकांत अपने घर से निकल जाता है)
दृश्य परिवर्तन
(पशु चिकित्सक का निवास स्थान)
पशु चिकित्सक - (श्रीकांत से) कहो श्रीकांत, कैसे आना हुआ ।
श्रीकांत - जल्द मेरे साथ चलो,
पशु चिकित्सक - अरे बात क्या है, कुछ तो बताओ ।
श्रीकांत - पता नहीं छन्नू को क्या हो गया है ? वह सुबह से ही शांत और सुस्त बैठा है ।
पशु चिकित्सक - अच्छा ...।
श्रीकांत - हां, चलो मेरे साथ, देर न करो ...।
पशु चिकित्सक - दवाइयों का बैग तो पकड़ लेने दो । (दवाइयों का बैग सम्हाल कर) चलो ...।
दृष्य परिवर्तन
(श्रीकांत का घर,पशु चिकित्सक, श्रीकांत के साथ घर में प्रवेश करते हैं । वे बैलों के पास आते हैं)
पशु चिकित्सक - मैं छन्नू का जांच करता हूं । (पशु चिकित्सक, छन्नू को जांचता है)
श्रीकांत - कैसे डाक्टर साहब, क्या हुआ है, छन्नू को ...।
पशु चिकित्सक - (बैग को हाथ में लेकर हंसते हुए) श्रीकांत, खुद परेशान होते हो तो होते हो । मुझे भी परेशान कर देते हो । छन्नू को कुछ नहीं हुआ है । आलस्य के कारण शांत बैठा है । दरअसल तुम्हें बैलों से अत्याधिक लगाव है, यही वजह है कि तुम्हारे बैलों को कुछ हुआ नहीं कि परेशान हो जाते हो । (पशु चिकित्सक छन्नू की पूंछ पकड़ कर ऐंठ देता है । छन्नू रटपटा कर उठ खड़ा होता है । वह घास खाने लगता है) देखा न श्रीकांत, कैसे फुर्ती से उठ गया ।
श्रीकांत - (छन्नू को सहलाते हुए) नटखट, मैं तो घबरा ही गया था ।
(पशु चिकित्सक और श्रीकांत कोठे से आंगन में आते हैं। दीवार से सट कर रखी खाट को श्रीकांत बिछाते हैं । )
श्रीकांत - (खाट की ओर इशारा करते हुए पशु चिकित्सक से) बैठो डाक्टर साहब । ( फिर अपनी पत्नी सुनंदा को आवाज देता है, पशु चिकित्सक खाट में बैठ जाता है । ) सुनंदा,चाय बन गयी हो तो ले आओ ...।
(सुनंदा दो कप चाय ले आती है ।)
सुनंदा - लो, चाय लो ...।
(श्रीकांत और चिकित्सक एक - एक कप चाय उठा पीने लगते हैं । सुनंदा पाकगृह की ओर जाने लगती। श्रीकांत सुनंदा से कहता है । )
श्रीकांत - मेरे कपड़े और थैली ले आओ ।
सुनंदा - अभी लायी ...(सुनंदा एक थैली और श्रीकांत के कपड़े लाकर देती है) ये लो थैली और कपड़े ...।
(श्रीकांत और पशु चिकित्सक चाय पी चुके हैं। वे कप को नीचे रख देते हैं ।)
पशु चिकित्सक  - श्रीकांत, अब मैं निकलता हूं, और कोई बात होगी तो मुझे बताना ...।
श्रीकांत - अच्छा डाक्टर साहब। (पशु चिकित्सक श्रीकांत के घर से निकल जाता है। श्रीकांत, सुनंदा से) सुनंदा, संभव है आज लौटने में शाम हो जाये। तुम छन्नू - मन्नू का ध्यान रखना। समय पर दाना - पानी देना। (श्रीकांत आगे बढ़ते - बढ़ते फिर रुक जाता है) सुनंदा, छन्नू - मन्नू को थोड़ा भी कष्ट न होने देना ...।
सुनंदा - (हंसकर) तुम तो जाओ, छन्नू - मन्नू की चिंता मुझे भी है...। (श्रीकांत आगे बढ़ जाता है। सुनंदा पाकगृह में आ भोजन बनाने लगती है।)
दृश्य परिवर्तन
(दोपहर का समय, सुनंदा चांवल साफ कर रही है तभी बैल च्च् हम्मा- हम्मा ज्ज् चिल्लाते हैं। आवाज सुनंदा के कानों तक पहुंचती है।)
सुनंदा - (स्वयं से) लगता है, छन्नू - मन्नू के पास घास नहीं है। चलो, उन्हें घास दे आती हूं।
(सुनंदा, हरी - हरी घास लेकर कोठे की ओर जाती है। सुनंदा बैलों के सामने हरी - हरी घास डालना चाहती है कि छन्नू हरी घास देखकर, सुनंदा की ओर लपटकता है। उसका पंजा (खुर) सुनंदा के पैर ऊपर आ जाता है।)
सुनंदा - (दर्द से बिलबिलाकर) दइया रे,छन्नू ने तो मेरा पैर ही कुचल डाला, यह तो बहुत ही निष्ठुर है।
(छन्नू तत्काल अपना पैर उठा लेता है। सुनंदा क्रोधित हो जाती है। वह घास को हाथ में रखे ही वापस होने लगती है) अब मरो भूखे ...। (सुनंदा घास को आंगन के कोन्टे में पटक देती है। वह लंगड़ाती, कराहती है)
(इधर मन्नू, छन्नू से रुष्ट हो जाता है।)
मन्नू - (छन्नू से) छन्नू, तुमने मालकिन के पैर को क्यों आहत किया ? अब मरो भूख .. मालकिन हमारी सेवा करती है और तुमने उसे पीड़ा पहुंचायी । तुम तो कोड़े खाने लायक हो ...।
छन्नू  - तुम गलत अर्थ लगा बैठे मन्नू, यह धोखे में हुआ ...।
मन्नू - असत्य  ... मुझसे धोखा क्यों नहीं हुआ ...।
छन्नू  - मित्र, मुझे जोरों से भूख लगी है?
मन्नू - तो मैं क्या करुं ? भुगतो अपने कर्म का फल।
छन्नू  - चलो, मैं अपनी गलती स्वीकारता हूं। अब मान जाओ। मालकिन से तुम्हीं घास मांगों । मुझसे वह रुष्ट है।
मन्नू - मैं भूख से मर जाऊँगा पर भोजन नहीं मांगूगा।
छन्नू - मान भी जाओ मित्र, भविष्य में ऐसी गलती नहीं होगी।
मन्नू - ठीक है ...।
(छन्नू और मन्नू '' हम्मा  - हम्मा ''   चिल्लाते हैं। सुनंदा छपरी में बैठी आहत पैर की सिंकाई कर रही है। बैलों की आवाज उस तक पहुंचती है)
सुनंदा - (सिंकाई करती हुई) रहो भूखे, घास नहीं दूंगी मतलब नहीं दूंगी।
(छन्नू - मन्नू चिल्लाते - चिल्लाते थक जाते हैं।)
छन्नू - (मन्नू से) मन्नू, मालकिन तो बहुत ही नाराज हो गयी है।
मन्नू - हाँ, मालिक भी नहीं आ रहे हैं।
(छन्नू - मन्नू मुंह लटकाकर बैठ जाते हैं)
दृष्य परिवर्तन
(संध्या का समय - श्रीकांत घर में प्रवेश करता है। सुनंदा छपरी में बैठी चांवल साफ कर रही है।
श्रीकांत - (श्रीकांत थैली उसके पास रखता है। सुनंदा से कहता है।) इसमें ताजी सब्जी है। क्या बनाना है देख कर बना लेना। और छन्नू मन्नू का क्या हाल है।
(श्रीकांत कोठे में आता है। छन्नू - मन्नू मुंह लटकाये बैठे हैं। श्रीकांत उनके पास बैठ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू के सिर पर हाथ फेरते हुए) छन्नू, तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं न?
मन्नू - (श्रीकांत के क्रिया को देख मन्नू मन ही मन बुदबुदाता है) छन्नू की गलती के कारण अब तक भूखा रहना पड़ा और मालिक है कि उसी से हालचाल पूछ रहे हैं।(मन्नू क्रोधित हो जाता है। वह जोर से सिर हिलाता है। श्रीकांत मन्नू की ओर उन्मुख होता है। उसके मुंह पर हाथ फेरता है)
श्रीकांत - (मन्नू को पुचकार कर) मन्नू, इतनी नाराजगी क्यों? सुनंदा ने तुम्हें तंग तो नहीं किया ..?
(श्रीकांत इधर - उधर देखता है। वहां घास नहीं है। पास रखी बाल्टी को झांककर देखता है। उसमें पानी नहीं है)
श्रीकांत - (सुनंदा को आवाज देता है) सुनंदा, अरी सुनंदा, इधर आओ तो ...।
सुनंदा  - अभी आयी ...।
(सुनंदा लंगड़ाती श्रीकांत के पास आती है।)
सुनंदा  - क्यों चिल्ला रहे हो?
श्रीकांत - (छन्नू - मन्नू की ओर संकेत करते हुए ) तुमने इन्हें कुछ खाने नहीं दिया। देखो तो इनके पेट कितना चिपक गया है।
सुनंदा - (श्रीकांत को आहत पैर दिखाती है।) घास डालने आयी थी तो (छन्नू की ओर संकेत करते हुए) छन्नू ने मेरे पैर पर चोट पहुंचाया।
श्रीकांत - तुम्हें थोड़ी सी चोट क्या लगी, इन्हें कठोर दण्ड देने उतारु हो गयी। तुम बड़ी क्रूर हो ?
सुनंदा - तुम्हें चोट लगी रहती तो समझ आता (सुनंदा लंगड़ाती वापस छपरी की ओर बढ़ती है) चोट खाकर भी इनसे लाड़ प्यार करना ही है तो तुम ही करो, मुझसे ऐसा नहीं होगा।
(श्रीकांत आंगन में आता है। वहां रखी घास को लेकर कोठे में लाकर बैलों के सामने डालता है। बाल्टी उठाकर उसमें पानी भर कर लाकर उनके सामने रख देता है। बैल चुपचाप ही बैठे रहते हैं। बैलों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। श्रीकांत बैलों के पास बैठ जाता है)
श्रीकांत - (छन्नू - मन्नू से) अगर तुम नहीं खाओगे तो मैं भी भूखा ही रहूंगा।
(छन्नू, मन्नू की ओर देखता है।)
छन्नू - (मन्नू से) मन्नू, देखते हैं - ये कब तक नहीं खायेंगे।
(सुनंदा भोजन तैयार कर चुकी है। वह श्रीकांत को भोजन के लिए आवाज देती है)
सुनंदा - तुम वहां बैठे क्या कर रहे हो? भोजन तैयार हो चुका है। भोजन करने आओ ...।
(आवाज सुनकर भी श्रीकांत  चुपचाप बैठा रहता है। मन्नू, छन्नू की ओर देखता है)
मन्नू - लगता है, मालिक अपनी प्रतीज्ञा साकार करेंगे?
छन्नू - हां, मालिक हमसे बेहद प्रेम करते हैं। यदि हमने इनकी बात नहीं मानी तो इन्हें पीड़ा होगी।
मन्नू - तो हमें घास खा लेना चाहिए ...।
छन्नू - बिलकुल ...
(बैल खड़े हो जाते हैं। वे घास खाने लगते हैं। श्रीकांत खुश हो जाता है)
श्रीकांत - (बैलों की पीठ थपथपाकर) शाबाश, बड़े समझदार हो। हां, छोटी  - छोटी बातों पर नाराज न हुआ करो ...। अब मैं भी भोजन करता हूं ...।
(श्रीकांत कोठे से निकल कर भोजन करने आ जाता है)
श्रीकांत - (सुनंदा से) सुनंदा, चलो, भोजन निकालो ...।
दृष्य परिवर्तन
(सुबह का समय - आंगन में खाट डाल है। श्रीकांत उसमें बैठा है। उसी समय अमित उसके घर आता है)
श्रीकांत - (अमित से) आओ अमित, बैठो ...।
अमित - श्रीकांत, तुम चुपचाप यहां बैठे हो? क्या तुम्हें पता नहीं, आज बजरंगपुर में बैल दौड़ प्रतियोगिता है। चलो, तुम भी अपने बैल छन्नू  - मन्नू को वहां ले चलो।
श्रीकांत - अमित, बजरंगपुर में एक से एक बढ़ कर बैल आते हैं। छन्नू - मन्नू स्पर्धा हार जायेंगे। मेरी नाक कट जायेगी। मुझे बैलों को वहां नहीं ले जाना है।
(छन्नू - मन्नू कोठे में बंधे हैं। आवाज उन तक पहुंचती है)
छन्नू - (मन्नू से) मन्नू, हमारे मालिक को हम पर विश्वास नहीं है। हमें प्रतियोगिता में सम्मलित होने का अवसर तो मिले।
मन्नू - हां छन्नू, हम किसी से क्या कम है? हमें अवसर मिलेगा तो प्रतिद्वंद्वियों को परास्त करके ही दिखायेंगे।
(बैल जमीन को खुरचते हुए हुंकार भरते हैं। हुंकार की आवाज अमित और श्रीकांत के कानों तक पहुंचती है)
अमित - श्रीकांत, तुम्हारे बैल प्रतियोगिता में भाग लेने उतावले हैं और तुम पीछे हट रहे हो।
श्रीकांत - तुमने ठीक कहा अमित, चलो, छन्नू - मन्नू को भी इस प्रतियोगिता में ले ही जाता हूं। मैं बैलों को सजा लेता हूं। इनके सींग रंग देता हूं। इनके सींग में रंग - बिरंगे फीते एवं मयूर पंख बांध देता हूं। गले में घुंघरु और कौड़ियों की माला बांध देता हूं।
अमित - तुम ठीक कह रहे हो श्रीकांत, इससे बैलों की सुंदरता भी बढ़ जायेगी।
श्रीकांत - अमित, तुम तैयार हो कर आओ, फिर चलते हैं प्रतियोगिता स्थल की ओर ..।
अमित - ठीक है ... मैं तैयार होकर आता हूं।
(अमित, श्रीकांत के घर से निकल जाता है।)
श्रीकांत- (सुनंदा से) सुनंदा, थोड़ा जल्दी भोजन तैयार करना। आज छन्नू - मन्नू को नवागांव ले जाना है। वहां बैल दौड़ प्रतियोगिता है।
सुनंदा - ठीक है ...
दृष्य परिवर्तन
(प्रतियोगिता स्थल - वहां दर्शकों की भीड़ है। कई जोड़े बैल प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लाये गये हैं। सभी बैलों को आकर्षक ढंग से सजाया गया है। लाउडीस्पीकर से बैल मालिकों के साथ बैल जोड़ियों के नामों की उद्घोषणा की जा रही है। बैल मालिक अपने बैल जोड़ी को लेकर मैदान में उतर रहे हैं। छन्नू - मन्नू के नामों की उद्घोषणा होते ही श्रीकांत बैलों को लेकर प्रतियोगिता मैदान में पहुंच गया। अब सभी प्रतियोगी बैल मैदान में उतर चुके हैं। सीटी बजती है और बैल मालिक अपने -अपने बैलों को दौड़ाने लगते हैं। दर्शक सीटियां एवं तालियां बजाते हैं।
छन्नू - मन्नू भी दौड़ रहे हैं। उनके साथ श्रीकांत भी कांसरा सम्हाले दौड़ रहा है। छन्नू  - मन्नू अन्य बैलों से बहुत पिछड़ गये हैं। श्रीकांत को उन बैलों पर गुस्सा आता है।)
श्रीकांत - (बैलों से झल्लाकर) अब तुम दोनों मेरी नाक कटवा कर ही रहोगे। यदि तुम्हें हारना ही था तो उत्साह क्यों दिखाया?
(मन्नू , छन्नू की ओर देखता है।)
मन्नू - (छन्नू से) छन्नू, हमारे मालिक तो निरुत्साहित हो रहे हैं। अब इसी मरघिन्नी चाल से दौड़ना है कि जोर पकड़ना है?
छन्नू - तुम ठीक कह रहे हो मन्नू। हमारे प्रतिद्वंद्वी बहुत डींग हांक रहे हैं। क्यों न अब इन्हें पछाड़ कर दिखा ही दे?
(छन्नू - मन्नू अपनी चाल बढ़ा देते हैं। वे जोर से दौड़ने लगते हैं। श्रीकांत भी उनके साथ दौड़ता है मगर श्रीकांत घसीटने लगता है। वह कांसरा छोड़ देता है। छन्नू - मन्नू अपने प्रतिद्वंदी को पिछाड़ते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वे स्पर्धा में विजयी हो जाते हैं।
श्रीकांत घसीटाया था तो उसके हाथ - पैर छिल गये है। उसमें से रक्त बह रहा है। लेकिन श्रीकांत का ध्यान उधर नहीं जाता। वह बैलों के पास आता है। उनकी पीठ सहलाने लगता है। श्रीकांत के पास चिकित्सक आता है)
चिकित्सक - श्रीकांत, तुम्हें चोटें आ गयी हैं। उसमें दवाईयां लगवा लो।
श्रीकांत - (हंसकर) डाक्टर साहब, ये कोई खास चोंट नहीं है। फिर दवाई लगवाने का प्रश्र ही नहीं उठता।
अमित - (डाक्टर से) डाक्टर साहब , श्रीकांत को छन्नू - मन्नू पर अविश्वास था पर वे प्रथम पुरस्कार पा गये। इससे इसकी पीड़ा ही मिट गयी है। (श्रीकांत से) क्यों श्रीकांत, मैं ठीक कह रहा हूं न?
श्रीकांत - अमित, तुम तो ...?
अमित - बैलों ने प्रथम स्थान प्राप्त कर जीत हासिल की है तो इस खुशी में मिठाई खिलाओगे भी या नहीं?
श्रीकांत - क्यों नहीं, घर पहुंचने दो। तुम्हें छकते तक मिठाई खिलाऊंगा ...।
दृष्य परिवर्तन (दस वर्ष बाद)
(श्रीकांत आंगन में खाट पर बैठा है। पत्नी सुनंदा छपरी में बैठी है। आंगन के एक कोंटे में छन्नू  - मन्नू बंधे हैं। उनकी पसलियां चमड़े से ऊपर आ गयी हैं। आंखे धंस गयी है। अब छन्नू - मन्नू बूढ़े हो चुके हैं।)
(श्रीकांत के घर अरुण प्रवेश करता है। वह श्रीकांत के पास आता है)
श्रीकांत - (अरुण से) आओ अरुण, बैठो ...।
अरुण - (खाट पर बैठते हुए) श्रीकांत, अब छन्नू - मन्नू बूढ़े हो गये हैं।
श्रीकांत - हां अरुण, पहले ये बुलंद थे। पूरे दस वर्षों तक इन्होंने अथक परिश्रम किया हैं। अब इनमें खेती  - किसानी करने की क्षमता नहीं है। सोचता हूं - नये बैल खरीद लूं।
अरुण - श्रीकांत, अब छोड़ों बैलों के चक्कर, नया युग है तो टै्रक्टर खरीदो। उससे जुताई - मिसाई - ढुलाई सभी काम होते हैं।
श्रीकांत - तुम ठीक कहते हो अरुण। अब की बार ट्रैक्टर ही खरीदूंगा।
दृष्य परिवर्तन
(श्रीकांत का मकान - छन्नू - मन्नू कोठे में है। उनके सामने सूखी घास है। कोठे में गंदगी का साम्राज्य है। छन्नू - मन्नू के शरीर कीचड़ से सने हैं। उनकी पूंछ में मिट्टी का गोला बंध गया है। उनके शरीर में जुएं के छाते बन गये हैं। वहां मच्छर - मक्खियां भिनभिना रही हैं)
छन्नू -(मन्नू से) मित्र मन्नू, वे दिन कितने अच्छे थे जब हम युवा और जवान थे।
मन्नू - हां मित्र छन्नू, पर अब वे दिन सपने हो गये हैं। अब देखो न - मुझे '' तड़कफांस '' की बीमारी हो गयी है पर मालिक ध्यान ही नहीं देते। तीन दिन हो गये, कुछ खाया भी नहीं हूं।
छन्नू - हां, जब हम स्वस्थ और युवा थे तब चिकित्सक आता था। अब असक्त और बीमार हो गये हैं तो मालिक झांक भी नहीं रहे हैं।
मन्नू - दरअसल, अब हमारी उपयोगिता खत्म हो गयी है।
(आंगन में एक ट्रैक्टर खड़ी है। छन्नू - मन्नू उसे हिकारत की दृष्टि से देखते हैं)
मन्नू - जो खर्च हमारे दाना - पानी के लिए होता था वह ट्रैक्टर के डीजल के लिये हो रहा है। हमारी बीमारी दूर करने जो खर्च किया जाता था उससे मिस्त्री बुलाया जा रहा है जो मालिक दिन - रात हमारी सेवा करते थे वे ट्रैक्टर के पीछे दौड़ रहे हैं ...। मित्र, मेरी तबियत बहुत ही बिगड़ती जा रही है। मुझे छटपटाहट सी लग रही है।
(थोड़े समय बाद मन्नू छटपटाने लगता है। छन्नू , मन्नू को छटपटाता देख घबरा जाता है। वह दरवाजे के पास आता है फिर मन्नू के पास आता है फिर दरवाजे के पास जाता है। आंगन की ओर देखकर '' हम्मा - हम्मा '' चिल्लाता है। आवाज श्रीकांत तक पहुंचती है।)
श्रीकांत - (स्वयं से) क्या हो गया बैलों को, जरा देखूं तो ...।
(श्रीकांत कोठे की ओर आता है। मन्नू छटपटाते - छटपटाते शांत पड़ जाता है। श्रीकांत कोठे में आकर देखता है- मन्नू शांत पड़ा है। छन्नू उसे चांट रहा है। उसकी आंखों से अश्रु की धारा बह रही है।)
श्रीकांत - (सुनंदा से) सुनंदा, अरी ओ सुनंदा ...।
सुनंदा - (कोठे की ओर आती है)- क्यों गला फाड़ रहे हो?
श्रीकांत - सुनंदा, देखो तो मन्नू का प्राणांत हो गया लगता है।
सुनंदा - (मन्नू की ओर देखकर) वास्तव में मन्नू मर गया। जाओ, चार लोगों को बुला लाओ। मन्नू के शरीर को बाहर ले जाने के लिए ...।
श्रीकांत - तुम ठीक कहती हो। मैं अभी गया और अभी आया ...।
सुनंदा - मैं यहीं पर हूं ...
(थोड़ी देर बाद श्रीकांत चार पांच ग्रामीणों को लेकर आता है)
एक ग्रामीण - श्रीकांत, इसे तो '' गेड़ा '' लगाकर, घसीटकर ही निकालना पड़ेगा। दो मजबूत लकड़ी की व्यवस्था करो।
(सुनंदा दो लकड़ी लेकर आती है)
सुनंदा - इस लकड़ी से काम चल जायेगा न?
दूसरे ग्रामीण - हां - हां ...। (अन्य ग्रामीणों से) लो भाईयों, गेंड़ा फंसाओ ...।
(एक लकड़ी को मन्नू के सामने वाले भाग में तथा दूसरे लकड़ी को पीछे वाले भाग में फंसाकर, मन्नू को घसीटना शुरु करते हैं। ले देकर मन्नू को कोठे से बाहर निकाला जाता है।)
(जब मन्नू को निर्ममता पूर्वक घसीटा जाता है, दृष्य देखकर छन्नू की आंखों में आंसू आ जाते हैं।)
एक ग्रामीण - (श्रीकांत से)श्रीकांत, इसे 
ट्रैक्टर ट्राली में डाल कर ले जाना पड़ेगा ...।
श्रीकांत - सुनंदा, ट्रैक्टर की चाबी ले आओ, अरुण, लो चाबी, तुम्हीं ट्रैक्टर को चलाना ...।
(ग्रामीण मन्नू को ट्रैक्टर की ट्राली में खींच खांच कर डालते है। फिर टैक्टर से मन्नू के शव को बाहर की ओर ले जाया जाता है)
सूत्रधार - (अब कोठे में छन्नू अकेला है। मन्नू की मृत्यु से वह व्यथित है। उसे मन्नू के साथ व्यतीत किये क्षणों की याद आ रही है। वह बेचैनी से कभी उठता है। कभी बैठता है। कभी दरवाजे तक आता है। कभी कोठे के किसी कोंटे में विचलित खड़ा हो जाता है। वह कोठे में स्वयं से लड़ रहा था।
श्रीकांत वापस आता है। उसके हाथ में एक जोड़ा जूता है)
श्रीकांत - (सुनंदा को आवाज देता है) सुनंदा, तुम झंगलू को जानती हो न ? वह मन्नू का चमड़ा उतारेगा। उसके बदले मुझे ये जूते पहनने को मिले ...।
(छन्नू भी जूतों को देखता है।)
छन्नू - (स्वयं से) हम कितने भाग्यवान है कि मरने के बाद भी अपने मालिकों के पैरों में कांट न चुभे उसकी व्यवस्था कर जाते हैं।
दृष्य परिवर्तन
(दोपहर का समय- आंगन में डले खाट पर श्रीकांत बैठा है। पास ही जमीन पर सुनंदा बैठी है। बाहर कालू की आवाज आती है।)
कालू - लो, बूढ़े  - असक्त और अपंग जानवरों को बेच डालो ...।
(आवाज श्रीकांत एवं सुनंदा के कानों तक पहुंचती है।)
श्रीकांत - सुनंदा, लगता है कालू आया है। वह बूढ़े और असक्त जानवरों को खरीदता है। सोचता हूं - क्यों न छन्नू को बेच दूं।
सुनंदा - बेच ही डालो न। घर में पड़े - पड़े धन तो देगा नहीं । हां, पैरा - भूसा में व्यर्थ पैसा जाता रहेगा । पर मुझे एक बात समझ नहीं आती- ये कालू बूढ़े और असक्त जानवरों का करता क्या होगा?
श्रीकांत - तुम भी व्यर्थ की बात करती हो। वह क्या करता होगा, वह जाने, इससे हमें क्या लेना - देना ।
श्रीकांत (श्रीकांत, खाट से उतर कर बाहर की ओर जाता है। वह कालू को आवाज देता है)- कालू, ऐ कालू ...।
कालू - (श्रीकांत के) अभी आया ...। (श्रीकांत के पास आकर) बोलो, कैसे याद किया...।
श्रीकांत - मेरे पास एक बूढ़े बैल है। उसे बेचना है...।
कालू- चलो, देख लेता हूं।
(श्रीकांत के साथ कालू उसके घर आता है)
कालू - कहां है बैल ...?
श्रीकांत - कोठे में, (कोठे की ओर कदम बढ़ाते हुए) आओ न...।
(कालू, श्रीकांत के साथ कोठे में घुस जाता है। छन्नू मिट्टी से सने,मुंह लटकाये बैठा है)
कालू - अरे, इसके शरीर में तो किलो भर मांस नहीं है। चलो फिर भी एक हजार में खरीद ही लूंगा। समझो, लाश खरीद रहा हूं।
श्रीकांत - कालू, तुम पानी के मोल तो न मांगों ...।
कालू - दो सौ रुपये और सही ... इससे एक रुपये अधिक नहीं दूंगा ...।
श्रीकांत - कालू, पन्द्रह सौ देकर इस बला को तो ले ही जाओ ...।
कालू - (कालू, थैली से रुपये निकालता है। जबरदस्ती श्रीकांत के हाथ में थमा देता है) लो, चौदह सौ हैं, अब इससे और अधिक नहीं दे सकता ...।
श्रीकांत - (श्रीकांत रुपये ले लेता है।) चलो, ठीक है ...।
(कालू, छन्नू के निकट आता है। वह छन्नू की पसलियों में लाठियां बेधता है। छन्नू खड़ा हो जाता है। कालू उसे ढकेलकर कोठे से बाहर निकालने का प्रयास करता है। पर छन्नू कोठे से बाहर ही नहीं निकलता।
कालू एक मोटी रस्सी छन्नू के गले में बांध देता है। उसे खींचता है। रस्सी खींचने से छन्नू का गला कस जाता है। उसे पीड़ा होती है। छन्नू पुनः बैठ जाता है
श्रीकांत दृष्य देखता है। कालू की निर्दयता उसमें उथल - पुथल मचा देता है। उसमें विचार उठता है)
श्रीकांत - (स्वयं से) जब छन्नू युवा था तो मैंने इसकी खूब सेवा की। इसने अपने परिश्रम से मेरे सारे कर्ज छूट डाले। अब यह बूढ़ा और असक्त है तो मैं तिरस्कृत कर रहा हूं ... तो क्या डूबते सूरज को प्रणाम न करने की परम्परा को यथावत रहने दे ? नहीं - नहीं, स्वार्थ की भी सीमा होना चाहिए ...।
(कालू, छन्नू को मारने लाठी उठाता है। लाठी छन्नू पर गिराने होता है कि श्रीकांत उसे रोकता है)
श्रीकांत - कालू ...।
(कालू का हाथ ऊपर ही रुक जाता है। वह छन्नू पर प्रहार करने के बदले हाथ नीचे कर लेता है। श्रीकांत उसकी ओर रुपये बढ़ा देता है)
श्रीकांत - कालू, तुम ये रुपये रखो, मुझे छन्नू को नहीं बेचना है ...।
(कालू रुपये लेते हुए श्रीकांत के चेहरे को आश्चर्य से देखते रह जाता है।)
 
गली नं 5, एकता चौंक 
ममता नगर, राजनांदगांव (छ:ग)

नवीन माथुर पंचोली - गजलें

 ग़ज़ल 1

नज़र को ये  कभी लगता नहीं है।
ज़मीं  से आसमाँ  मिलता नहीं है।

जहाँ जाना, वहाँ  से  लौट आना,
कभी  ये  रास्ता  रुकता  नहीं  है।

खड़े   हो  आईने  के  सामने  पर,
छुपा चहरा कभी  दिखता नहीं है।

परों का बोझ है जिस पर ज़ियादा,
वो पंछी  दूर  तक  उड़ता नहीं  है।

चला  है  साथ  जो  लेकर  इरादे,
मुसाफ़िर वो कभी थकता नहीं है।

सियासत कर रहे  हो साथ सबके,
मुझे  ये  क़ायदा  जँचता  नहीं  है।

2
वास्ते  जब  सभी  के हुए।
आप बस आप ही के हुए।

आपकी इक कही बात पर,
फ़ैसले   ज़िंदगी   के  हुए ।

आ गए कुछ सितारे नज़र,
सिलसिले  रोशनी के  हुए।

मिन्नतें, ज़िद, सलीक़े ,वफ़ा,
क़ायदे   बन्दगी   के    हुए।

जब चले साथ हम दूर तक,
फ़ायदे    दोस्ती    के   हुए।

काम  वो  ही लगे  काम के,
जो  हमारी   ख़ुशी  के हुए।
3

जिसे  देखा  कहीं ,  वो  दूसरा  है ।
नज़र को  आपकी धोखा  हुआ है।

नज़ारा   पास   इतना  भी  नहीं  है,
कि जितना पास सबका सोचना है।

हिमायत कर  रहे  हैं  आप उसकी,
यहाँ जो  शख़्श  सबसे दोगला  है।

सुने  सबकी   मगर  करे   मन की,
यही  इस  ज़िंदगी  का  क़ायदा  है।

वहाँ मुश्क़िल सफ़र है कश्तियों का,
जहाँ  उनका  हवा   से  सामना  है।

निभाता   है  वहाँ  उतनी  अक़ीदत,
जहाँ   जितनी  शराफ़त  देखता  है।
4

चलो इसमें पते  की  बात तो है।
सफ़र में इक सहारा साथ तो  है।

ज़ुबाँ  ये  पूछती  है  इन  लबों से,
भला दिल में  कहीं  ईमान  तो है।

तबीयत है  बड़ी  नासाज़ लेक़िन,
चलो  इसमें  ज़रा  आराम  तो  है।

हमारा   है,  हमेशा  , ये  जताकर,
कि हमसे शख़्श वो नाराज़ तो है।

बनाता है  सभी  जो  काम  अपने,
किसी का सिर पे अपने हाथ तो है।

कही   वैसी, रही है  सोच   जैसी,
हमारी   शायरी   बेबाक़   तो   है।

5
ज़ख्म जितने छुपाने  पड़े।
सौ   बहाने   बनाने   पड़े।

आँसुओं पर नज़र जब गई,
हैं   ख़ुशी  के  जताने पड़े।

जो तरफ़दार कहकर मिले,
नाज़  उनके  उठाने  पड़े।

जो ख़ुशी ने  दिए  फ़ायदे,
सब हवा  में  उड़ाने  पड़े।

आज़माएँ किसे,कब,कहाँ,
वो   तरीक़े  जुटाने  पड़े।

रोज़ पाले  शिक़ायत,गिले,
आज दिल  से  हटाने पड़े।
                अमझेरा धार मप्र
                     पिन 454441
               मो 9893119724

समकालीन हिंदी उपन्यासों में अभिव्यक्त किन्नर संघर्ष

 
रामेश्वर महादेव वाढेकर
 
 समकालीन साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात समझ आता है कि स्री विमर्श,दलित विमर्श,आदिवासी विमर्श,मुस्लिम विमर्श,अल्पसंख्याक विमर्श,वृद्ध विमर्श,किन्नर विमर्श आदि पर गंभीर चर्चा हुई  है।वर्तमान समाज में किन्नर को हिजड़ा, खुसरो,अली,छक्का आदि नाम से पुकारा या पहचाना जाता हैं। किन्नर के चार प्रकार है बचुरा, नीलिमा, मनसा,हंसा। बचुरा वर्ग के किन्नर वास्तविक हिजड़े होते हैं। वे जन्म से न स्री  होते हैं  ना पुरुष।  नीलिमा  वर्ग  में  वे हिजड़े आते  हैं, जो किसी परिस्थिति  वश या कारणवश स्वयं हिजड़े बन जाते हैं। मनसा वर्ग में वे हिजड़े आते हैं,जो मानसिक तौर पर स्वयं को हिजड़ा समझने लगते है।हंसा वर्ग में वे हिजड़े  आते  हैं, जो किसी  यौन अक्षमता  की वजह से  स्वयं  को  हिजड़ा  समझने लगते है। किन्नर समाज  विश्व  के हर  क्षेत्र में समाहित है।वे मनुष्य ही  हैं, सिर्फ़  उनमें  प्रजनन  क्षमता  न  होने से समाज हीन नजर  से  देखता  हैं। हिंदी साहित्य में शुरुआती दौर में पाण्डेय बेचन शर्मा,सुर्यकांत त्रिपाठी,शिवप्रसाद सिंह,वृंदावन लाल वर्मा आदि  ने  किन्नर  समाज  की  समस्या पर लिखा। किंतु  समस्या  का  हल वर्तमान में भी नहीं।
     हिंदी साहित्य में किन्नर समाज की समस्या  पर  अनेक  उपन्यास  लिखे  गए  और वर्तमान में भी लिखे जा रहे हैं। प्रमुख उपन्यास में ‘यमदीप’- नीरजा माधव, ‘मैं भी औरत हूं’- अनुसुइया त्यागी, ‘किन्नर कथा’, ‘मैं पायल...’ – महेंद्र भीष्म, ‘तीसरी ताली’-प्रदीप सौरभ, ‘गुलाम मंडी’- निर्मल भुराड़िया,‘प्रतिसंसार’- मनोज रूपड़ा, ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’-चित्रा  मुद्दगल  आदि।उपरोक्त उपन्यासों का अध्ययन करने के पश्चात किन्नर  समाज  की त्रासदी, संघर्ष  समझ  आता  है। किन्नर समाज की प्रमुख समस्या में शैक्षिक समस्या, बहिष्कृत समस्या, पारिवारिक समस्या ,विस्थापन समस्या,आवास  समस्या, रोजगार समस्या, देहव्यापार समस्या,वेश्या समस्या,यौन हिंसा समस्या आदि है।इन समस्या के साथ किन्नर समाज वर्तमान में भी संघर्ष कर रहा है। वर्तमान में  किन्नर  समाज के  संदर्भ  में  कानून  है  किंतु अस्तित्व में कुछ नहीं। वे  आज भी खुद की पहचान समाज में निर्माण  नहीं कर सके।समाज ने मानसिकता बदलने  की  नितांत जरूरत है, तभी किन्नर समाज सम्मान के साथ जी सकता है। समकालीन उपन्यासों  में किन्नर समाज की विभिन्न कठिनाइयों एवं उनके संघर्ष को संवेदनात्मक  स्तर पर  प्रमुखता से उठाया गया है। इन्हीं संवेदना एवं संघर्ष को  सहजने  की कोशिश हम करेंगे।
 
शैक्षिक संघर्ष
     किन्नर के ज़िंदगी में जन्म से संघर्ष शुरू,मृत्यु तक जारी। मां-बाप  खुद के  बेटे को  स्वीकार करने के मानसिकता में  नहीं। ऐसा क्यों हो रहा है? यह वर्तमान का चिंतन का विषय है। बचपन में  शारीरिक  बदलाव  होने   के  कारण  अनेक परिवार  के  सदस्य  बच्चे  को अस्पताल  लेकर जाते है। बच्चा  किन्नर  है, पता चलने के पश्चात स्वीकारने  के  स्थिति  में  कोई  नहीं  रहता।उसे किन्नर बस्ती में छोड़ा जाता है या जान से मारने की  कोशिश।  किन्नर  बस्ती  में  बड़ा  तो  होता  है, किंतु शिक्षा से वंचित।उसने पढ़ाई  करने का ठान  भी  लिया  तो  समाज व्यवस्था पढ़ने नहीं देती । यह  वर्तमान  की  वास्तव  परिस्थिति  है। पढ़ाई  न  होने से  कहीं समस्या का शिकार वह बनता  जा  रहा  है। किन्नर  समाज  के  शैक्षिक संघर्ष  के  संदर्भ  में   नीरजा   माधव  ‘यमदीप’ उपन्यास में  कहती  है, “माता  किसी  स्कूल में आज तक किसी हिजड़े को पढ़ते, लिखते देखा है? किसी कुर्सी पर हिजड़ा बैठा है? मास्टरी में, पुलिस में, कलेक्ट्री में-किसी में भी,अरे! इसकी दुनिया यही है, माताजी  कोई आगे नहीं आएगा कि हिजड़ों  को  पढ़ाओं, लिखाओं, नौकरी दो। जैसे  कुछ  जातियों  के  लिए  सरकार कर रही हैं।”1
     ‘नंदरानी’  के  माध्यम  से नीरजा माधव ने किन्नर  समाज  का  शैक्षिक  संघर्ष  बया  किया है।आज भी अनेक माताए किन्नर संतान होने के बावजूद पढ़ाना चाहती है,किन्तु  पुरुष सत्ता के सामने  कुछ‌  नहीं  कर  पाती। वर्तमान में  कई ‘नंदरानी’  शिक्षा  के  लिए  संघर्ष  कर  रही  हैं। तकरीबन 2014 तक किन्नर समाज  का  लिंग ही  निश्चित  नहीं था, शिक्षा तो  बहुत  दूर। कोई   सरकार  उनके  तरफ  ध्यान  नहीं  देती। जिस  तरह  स्री, पुरुष  को   पढ़ने   का  संवैधानिक अधिकार है,उसी प्रकार  किन्नर को । वर्तमान में  कानून है,सिर्फ अस्तित्व में नहीं। कुछ  गिने-चुने  किन्नर संघर्ष  करके पढ़े हैं,किन्तु उन्हें अच्छे पद पर  नियुक्ति नहीं मिलती। उनके साथ भेदभाव किया जाता  है। जब  तक  समाज  की सोच बदलेगी  नहीं,  तब   तक  किन्नर  समाज का संघर्षमय जीवन जारी रहेगा,कानून होकर भी!
 
बहिष्कृत प्रथा के विरुद्ध संघर्ष
      प्राचीन काल में किन्नर समाज को हीन वागणूक दी जाती थी,वर्तमान में उससे बुरी परिस्थिति। किन्नर  को  खुद  का  परिवार  नहीं स्वीकारता;समाज  तो  बहुत  दूर । संविधान  में सभी  लोगों  की  तरह   किन्नर  समाज  के  भी मूलभूत  अधिकार  है। किंतु  किन्नर  समाज के मूलभूत  अधिकार  का  हनन  होता  है। उन्होंने न्याय मांगने की कोशिश भी की तो  न्याय नहीं मिलता, अन्याय निरंतर होता है। वर्तमान में भी समाज  उन्हें  बहिष्कृत कर रहा  हैं। इज्जत से जीने नहीं देता। वे जीकर भी  मरे हुए हैं। चित्रा मुद्दगल ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203  नाला सोपारा’ उपन्यास में बहिष्कृत प्रथा के संघर्ष  संदर्भ  में कहती है, “कभी-कभी मैं अजीब सी अंधेरी बंद चमगादड़ों में अटी सुरंग में स्वयं को घूटता हुआ पाता हूं।बाहर निकलने को छटपटाता।मैं मनुष्य तो हु न! कुछ कमी है मुझमें,इसकी इतनी बड़ी सज़ा।”2                                                               ‘विनोद’ के माध्यम से बहिष्कृत संघर्ष चित्रा मुद्दगल ने साझा करने की कोशिश की है। वर्तमान में  किन्नर समाज त्रासदी में जी रहा है, सामाजिक मानसिकता के वजह से।वह किन्नर है उसका दोष नहीं,उसके मां-बाप है।वह मनुष्य ही है,स्री के कोख से पैदा हुआ। समाज ने उन्हें सम्मान देना चाहिए,बहिष्कृत करना नहीं।उनके साथ प्रेमसे,मिलजुलकर रहना होगा,तभी उसमें जीने की आस निर्माण होगी।
 
पारिवारिक संघर्ष
      किन्नर का संघर्ष समाज से नहीं, परिवार से शुरू होता है। वर्तमान में कई स्त्री को अनेक वर्ष  के  पश्चात  संतान हो रही है। संतान हो, इसलिए स्री  क्या-क्या  करती  है ,उसे  ही मालूम। संतान किन्नर हुई  तो  उसपर उपाय भी है। विश्व में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत प्रगति की है। किन्नर संतान  को परिवार से दूर करना,यह उसका उपाय नहीं। उसके भविष्य के संदर्भ  में सोचने   की  जरूरत  है। समाज  क्या  कहेगा रिश्तेदार क्या सोचेंगे? हमारी  इज्जत  का क्या होगा? आदि  प्रश्न  गौण है, खुद  के  संतान  के सामने। पारिवारिक संघर्ष के  संदर्भ  में  महेंद्र भीष्म  ‘किन्नर  कथा’  उपन्यास  में  कहते  है, “सामाजिक परिस्थितियों, खानदान की इज्जत- मर्यादा,झूठी शान के सामने अपने हिजड़े बच्चे से उसके जन्मदाता हर हाल में छूटकारा पा लेना चाहते है।”3
      लेखक ने ‘सोना’ नामक पात्र के  माध्यम  से  किन्नर  का संघर्ष दिखाने  की कोशिश की है। उपन्यास का  पात्र ‘जगत सिंह’ अपने  खुद  के बेटे ‘सोना’ को  जान  से  मारने की  कोशिश  करता है, क्योंकि  वह  किन्नर  है। वर्तमान में कई ‘सोना’ परिवार के प्रेम को तरस रहे हैं। किन्नर को  समाज ने  अपमानित  किया तो ज्यादा दुःख नहीं होता, किंतु  परिवार  ने मुंह फेर लिया, तो  बहुत दुःख  होता  है। वर्तमान में कई परिवार किन्नर संतान को परिवार का हिस्सा नहीं  मानते। किसी  में  अधिकार नहीं मिलता। पारिवारिक समारोह में इच्छा होकर भी जा नहीं  पाता। सिर्फ़ यादों में जीता है। उन्हें कोई सहारा नहीं देता। हर तरफ से मानसिक और शारीरिक शोषण होता है ।परिवार के सदस्य को मानसिकता बदलने  की  जरूरत  है। वे अपनी संतान की वेदना नहीं समझेंगे,तो कौन समझेगा? मनुष्य को ऐसे संवेदनशील विषय पर  चिंतन की जरूरत है।
 
विस्थापन संघर्ष
      वर्तमान किन्नर समाज की भीषण समस्या है विस्थापन। किन्नर खुद  घर  से  निकल जाते है,तो कभी उसे जबरन निकाला जाता है। दोनों अवस्था में संघर्ष ही है। बच्चा  किन्नर  है, समझ आने के पश्चात  उस  पर  का  प्रेम खत्म होता है परिवार  एवं  समाज  का। उसके साथ परिवार के सदस्य, रिश्तेदार बुरा बर्ताव करते है।हर दिन के मानसिक और शारीरिक त्रासदी  से परेशान होकर जान तक देता है। परिवार ने छोड़ने के पश्चात समाज ज्यादा वेदना  देता है। जीना मुश्किल करता है । मजबूरी में किन्नर समुदाय का डेरा खोजने की कोशिश करता है। वहां भी उसका  मुखिया  के  द्वारा शोषण ही होता रहता है। उसका  जीवन  लाश  बनकर  रहता  है।विस्थापन संघर्ष के संदर्भ में महेंद्र भीष्म ‘किन्नर कथा’  रचना   में  कहते  है, “प्रत्येक   हिजड़ा अभिशप्त हैं, अपने ही  परिवार  से बिछुड़ने  के दंश से। समाज  का पहला घात यही से उस पर शुरू होता  है। अपने  ही  परिवार से, अपने  ही लोगों द्वारा  उसे  अपनों  से  दूर कर दिया जाता है। परिवार से विस्थापन का दंश  सर्वप्रथम उन्हें ही भुगतना होता है।”4
      वर्तमान  में  भी किन्नर समाज का  विस्थापन संघर्ष  दिखाई  देता है।वे कई सुरक्षित दिखाई नहीं दे रहे।वे बेघर,बेवारस है मरते दम तक। उन्हें कोई  सहारा  नहीं  देता। मजबूरी का फायदा उठाते है, मनुष्य के रूप में रहनेवाले जानवर। समाज  उनके  लिए  भले ही कुछ न करें,चलेगा!  किंतु  उनके  ज़िंदगी  से न खेले। जिस  दिन  किन्नर  समाज   को  सही  में न्याय मिलेगा,तभी  लोकतंत्र अस्तित्व  में है,यह किन्नर को महसूस होगा।
 
आवास संघर्ष
      किन्नर  बेघर है वर्तमान में भी ! उन्हें रहने के लिए भी कोई किराए पर घर नहीं देता। क्योंकि वे किन्नर हैं। किन्नर  के  रूप में जन्म लेना कोई गुनाह  नहीं  है। किन्हें  लगता  है मैं किन्नर बनूं? वह नैसर्गिक प्रकिया है। वर्तमान  में किन्नर  को विवाह  करने  का  कानूनन  अधिकार  है, किंतु समाज मान्य नहीं करता।किसी व्यक्ति ने किन्नर से  विवाह  करने  की  हिम्मत की, तो उसे जीने नहीं देते । यह  आज  की वास्तव परिस्थिति है, इन्हें नकारा नहीं जा सकता।
      वर्तमान में भी  किन्नर को शिक्षित कॉलनी में  रहने घर नहीं मिलता। मजबुरन उन्हें गंदी  समझी जानेवाली बस्ती में रहना पड़ता है। कुछ  गलती  न   होने  के  बावजूद  भी  पुलिस प्रशासन  द्वारा  उन  पर  आरोप लगाए जाते हैं। अपमानित किया जाता है। वहां  से भी बेदखल किया  जाता  है । प्रशासन  उनकी  मदत  नहीं करती। संघर्ष ही उनके जीवन  में  निरंतर रहता है। वर्तमान  समाज  ने  मानसिकता बदलने की सक्त  जरूरत है, तभी  वे  इन्सान  बनकर जी सकते हैं। आवास  संघर्ष के बारे में प्रमोद मीणा कहते है, “कुछ  हिजड़ा  परिवार की तरह समूह  में भी रहते हैं,लेकिन रहने के लिए एक सुरक्षित घर खोजना हिजड़ों के लिए हमेशा एक चुनौती बनी रहती है। ज्यादा तर मकान मालिक हिजड़ों को   मकान  किराए  पर  देते नहीं   हैं । मकान मालिकों  की  बेरूखी  से  तंग  आकर  बहुत से हिजड़ों  को  गंदी, कच्ची  बस्तियों  में  रहने  पर मजबुर होना  पड़ता  है। और  वहां  से भी उन्हें पुलिस  प्रशासन  द्वारा  बेदखल  किया  जाता रहता है।”5
      इक्कीसवीं सदी में भी अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति को अनेक शहर के प्रतिष्ठित समझे जानेवाले  क्षेत्र  में  मकान  नहीं  मिलता। पैसों  के  कारण नहीं, जाति, धर्म  के कारण । फिर वर्तमान  में  किन्नर  समाज  की  क्या हालत होगी,यह  समाज में झांककर देखने से  समझ आता है। किन्नर संघर्ष कानून बनाने से खत्म  नहीं  होनेवाला, हीन  मानसिकता  नष्ट करनी  होगी, तब  उनका  अस्तित्व  समाज  में निर्माण हो सकता है। यही समय की मांग है।
 
रोजगार संघर्ष
      वर्तमान की ज्वलंत समस्या है रोजगार। उच्च शिक्षित होकर भी  युवाओं  के  हाथ  काम नहीं हैं। किन्नर समाज को व्यवस्था ने पढ़ने नहीं  दिया। कुछ किन्नर पढ़े-लिखे हैं,वे भी बेरोजगार हैं। शिक्षित व्यक्ति  कुछ  ना  कुछ  काम करके जीवन  जीता  है किंतु   किन्नर  को  शिक्षित होकर भी कोई काम नहीं मिलता। मजबूरी में वे रेलगाड़ी,सींगनल,बाजार,बच्चे के जन्म, विवाह आदि स्थान पर  जा  रहे  हैं। वहां  उन्हें  कोई  प्रेमभाव  से  नहीं  बोलता। निरंतर  अपमानित किया जाता है।
      संघर्ष करके पढ़े-लिखे किन्नर उच्च पद  पर  कार्यरत  होना  चाहता  है, समाज  में बदलाव  लाने। उनमें उच्च पद पर  नियुक्त  होने की पात्रता भी है, किंतु किन्नर होने से  वहां तक वे नहीं पहुंच पाते। मजबूरी  में  अपनी  पहचान छिपाकर  पद  हासिल  करते  हैं। कुछ  दिनों के पश्चात उसके चाल-ढलन  से वहां  के अधिकारी को  उसकी असली पहचान पता  चलती  है। कुछ  भी  कारण  बताकर  उसे  वहां  का मुख्य अधिकारी  नौकरी  से  निकाल  देता  है। किन्नर की न्याय मांगते- मांगते  ज़िंदगी गुजर जाती है, किंतु  न्याय  नहीं  मिलता।  किन्नर  समाज  के रोजगार संघर्ष  के  संदर्भ  में प्रमोद मीणा कहते है,  “अपनी  पहचान  छिपाकर  ये यदि कहीं रोजगार  पा  भी  लेते  हैं तो इनका हिजड़ा होने का खुलासा  होने  पर  नियोक्ता  इन्हें नौकरी से निकाल देता है।कार्यस्थल पर साथी,सहकर्मियों और  मालिक आदि  द्वारा  इनके साथ मौखिक, दैहिक  और  यौनिक  दुर्व्यवहार आम  है और जिसके लिए  इन्हें  कहीं  से न्याय भी नहीं मिल पाता।  इनके  चाल-चलन  को  कार्यस्थल  की शुचिता  के  लिए खतरा मानकर इन्हें ही नौकरी से निकाल  दिया  जाता है।”6
      वर्तमान  में  कुछ लोग  दूसरे  के  नाम  नौकरी  कर रहे हैं, बल्कि किन्नर  का  सब  सही  होने  के  बावजूद  उन्हें नौकरी  नहीं  मिलती।  संविधान  में  सभी  को समान अधिकार है,फिर भी उनके साथ अन्याय क्यों?  यह  चिंतन  का  विषय  है। सिर्फ़ किन्नर समस्या पर  लिखा  साहित्य पढ़कर  कुछ  नहीं होगा, समस्या को समझकर खुद से कार्य करने की  जरूरत  है। कालांतर  से  समाज  में  भी बदलाव जरूर आएगा।
 
वेश्या वृत्ति एवं यौन हिंसा के विरुद्ध संघर्ष
      किन्नर का जीवन वेश्या स्री से कहीं ज्यादा बत्तर है। वे  कही भी  सुरक्षित नहीं। उनके साथ प्रेम भाव से कोई  वार्तालाप नहीं करता। शिक्षा का अभाव, रोजगार की  समस्या  आदि  का फायदा  उठाकर  उन्हें  वेश्या  व्यवस्था में खींचा जा रहा  है। वर्तमान  में अनेक डाक्टर  पैसों के खातिर लिंग  परिवर्तन  करके दे  रहे  हैं। उनके शरीर  के  साथ  पुलिस, वकिल, बिजनेस  मॅन, ड्राइवर, डाक्टर  आदि  क्षेत्र  के  लोग खेलते है। शरीर,मन  को  नोचते है। किन्नर अनेक  बिमारी का शिकार बन रहे हैं। इन समस्या से  वे निरंतर संघर्ष करते आए हैं। वर्तमान में भी कर रहे हैं।
      वर्तमान में किन्नर के समक्ष यौन हिंसा भीषण  समस्या  के  रूप  में खड़ी है। कारण है   सामाजिक  असुरक्षा  और   नीच  मानसिकता। किन्नर कहीं  सुरक्षित  नहीं है। करीबी  रिश्तेदार भी  जबरदस्ती करता है। उन्होंने चिल्लाकर भी बताया तो कोई विश्वास नहीं  रखता। किन्नर को दोषी  ठहराया  जाता  है। अनेक व्यक्ति उनका शरीर नोचना  चाहते हैं, नोचते  भी है, शारीरिक भूख  भगाने के  लिए। दोषी व्यक्ति के  खिलाफ गुनाह दाखिल करने किन्नर जाते हैं,उनकी कोई दखल नहीं लेता।वे हर दिन की पीड़ा से परेशान  होकर नशा  करने  लगे है। उन्हें खुद की ज़िंदगी से नफ़रत होनी लगी है। यौन संघर्ष के संदर्भ में चित्रा  मुद्दगल  ‘पोस्ट  बॉक्स  नंबर  203 नाला सोपारा’ उपन्यास में कहती है, “किवाड़ ठीक से बंद नहीं किया उसने या उसके सिटकनी चढ़ाने से पहले  ही  अपने चार दोस्तों  के साथ  बिल्लू किवाड़ खोल के कमरे में घुस आए।पूनम जोशी ने आपत्ति प्रकट की, कपड़े  बदलने है,वे कमरे से बाहर जाएं। भतीजे ने पूनम जोशी को दबोच लिया। कहते हुए,वे डरे नहीं, कपड़े वे बदल देंगे उसके। बस वे  उनकी  ख्वाहिश पूरी  कर दे।”7
     विधायक का भतीजा ‘बिल्लू’ किस तरह ‘पूनम जोशी’ से बर्ताव करता है,यह चित्रण लिखिका ने प्रस्तुत किया है। वर्तमान में कई ‘पूनम जोशी’ हवस  की  शिकार बन रही  है।  मजबूरी  का फायदा उठाया जा रहा है। किन्नर पर अत्याचार होने के पश्चात भी उसे ही दोषी ठहराया जा रहा है।उसे न्याय नहीं मिलता समाज,न्याय व्यवस्था से।न्याय के लिए वर्तमान में भी वे संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें  इन्सान  के  रूप स्वीकार करना,उनके लिए सबसे बड़ा न्याय होगा।
निष्कर्ष
     वर्तमान में किन्नर समाज की समस्या पर चर्चा हो रही है।  किन्नर के  अधिकार  को लेकर वैश्विक स्तर पर  भी  प्रयास  हो रहे हैं।भारत में भी  उन्हें  तृतीय  लिंग के रूप में मान्यता दी है। भारत  में  किन्नर  समाज  की आबादी  लगभग पचास लाख है,तब भी वे हशिए पर रखे गए हैं। उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता है । उनके अधिकार  समाज  उन्हें  नहीं देता। वे अंदर से  तुट  रहे हैं। किन्नर समाज पर वर्तमान में भी साहित्य लिखना जारी है,लोग पढ़ भी रहे हैं। सिर्फ़ आचरण में नहीं ला रहे। जब वे विचार आचरण  में  लाएंगे  तब किन्नर समाज सामान्य लोगों की तरह जीवन ज्ञापित करेगा।
      किन्नर समाज की समस्या के तरफ सरकार  को ध्यान  देने की नितांत आवश्यकता है।साथ ही गैर-सरकारी संगठन को भी!विभिन्न माध्यम द्वारा समाज की   मानसिकता, सोच बदलने की जरूरत है। तभी  किन्नर  समाज का विकास होगा। किन्नर समाज को  सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रशासन में आना जरूरी है।उनका प्रतिनिधित्व ही  उनके विकास  की शुरुआत है।जिस दिन किन्नर समाज को समाज के हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व मिलेगा,तभी  किन्नर  समाज पर लिखित साहित्य का उद्देश्य सफल होगा।
 
संदर्भ संकेत
1) नीरजा माधव- यमदीप,सुनिल साहित्य सदन प्रकाशन,दिल्ली-110002,प्रथम संस्करण-2009,पृ.13
2) चित्रा मुद्दगल- पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली-110001,प्रथम संस्करण-2016,पृ.30
3) महेंद्र भीष्म- किन्नर कथा,सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली-110001,प्रथम संस्करण-2016,पृ.45
4) महेंद्र भीष्म- किन्नर कथा,सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली-110001,प्रथम संस्करण-2016,पृ.42
5) डॉ.एम.फिरोज खान(संपादक)- थर्ड जेंडर:कथा आलोचना, अनुसंधान पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रकाशन,कानपुर-208001,पृ.33
6) डॉ.एम.फिरोज खान(संपादक)- थर्ड जेंडर:कथा आलोचना, अनुसंधान पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रकाशन, कानपुर-208001,पृ.50
7) चित्रा मुद्दगल- पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली-110001,प्रथम संस्करण-2016,पृ.110
 
संक्षिप्त परिचय
जन्म:- 20 मई,1991
जन्मस्थान:-ग्राम-सादोळा,तहसील-माजलगांव, जिला-बीड,
महाराष्ट्र
शिक्षा:-एम.ए.,(हिंदी)एम.फिल्.,सेट,(कर्नाटक) सेट,नेट,अनुवाद पदविका,पी-एच.डी.(कार्यरत) आदि।
लेखन:- चरित्रहीन,दलाल,सी.एच.बी.इंटरव्यू,लड़का ही क्यों?, अकेलापन, षड़यंत्र, शहीद, अग्निदाह,चौख़ट आदि कहानियां विभिन्न पत्रिका में प्रकाशित।भाषा, विवरण, शोध दिशा, अक्षरवार्ता, गगनांचल,युवा हिन्दुस्तानी ज़बान, साहित्य यात्रा, विचार वीथी, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस आदि पत्रिकाओं में लेख तथा संगोष्ठियों में प्रपत्र प्रस्तुति।
संप्रति:- सहायक प्राध्यापक
चलभाष् :-9022561824
ईमेल:-rvadhekar@gmail.com
पत्राचार पता:- रामेश्वर महादेव वाढेकर, सहायक प्राध्यापक हिंदी विभाग,श्री आसारामजी भांडवलदार कला,वाणिज्य एवं विज्ञान महाविद्यालय,देवगांव(रंगारी), तहसील-कन्नड,जिला-औरंगाबाद, (महाराष्ट्र),पिन-431115, चलभाष् -9022561824

रिक्शे वाला

शिव डोयले
 
रिक्शे वाला
जल्दी-जल्दी ढो रहा है सवारी
परिवार के लोगों के 
पेट पालने को
माथे से पसीना पोंछते हुए 
तेजी से मारता है पेडल
उतनी ही अधिक गति से
दौड़ रहें हैं रिक्शे के पहिये

दोनों का तालमेल बैठाने की
कोशिश जारी है
पहिये और पेडल में
घाटी पर रुक जाता है
पेडल पर पैर 
पहिये खूद-ब-खुद 
दौड़े जा रहे हैं 

जड़ भी चेतन हो गया 
मालिक की मेहनत के खातिर
रिक्शे की चैन भी 
दे रही है साथ
पेडल और पहिये का
रिक्शा दौड़ रहा है
रिक्शा ढो रहा है सवारी 
    -    --------------
     
      --झुलेलाल कॉलोनी, हरिपुरा
      विदिशा 464 001 (म.प्र.)
       मोबा० 9685444352

निःशब्द

      प्रिया देवांगन "प्रियू"
 
  "बिटिया रानी....!  मैं सोच रहा हूँ कि तुम पढ़ाई करती रहो और साहित्य सेवा भी; जिससे हमारी साहित्यसेवा बढ़ती रहे। साहित्य सृजन के जरिये हमारी समाजसेवा भी होगी। मुझे तो अभी और आगे बहुत कुछ करना है। तुम क्या सोचती हो इस बारे में ? क्या तुम सहमत हो मेरे इस बात से ?" एक साहित्यकार पिता इंद्रजीत ने रूही के पास अपनी स्नेहपूर्वक बात रखी। 
          थोड़ी देर सोचने के बाद रूही बोली- हाँ... हाँ...! पापा क्यों नहीं... ? मुझे आपके साथ अधिक से अधिक समय बिताने को भी मिलेगा; और एक साथ कार्य करने में अच्छा भी लगेगा। रोज अखबारों के पन्नों में बड़े-बड़े अक्षरों में आपके नाम के साथ मेरा भी नाम आएगा।".रूही की बातें सुन इंद्रजीत जी हँस पड़े। 
          रूही मुँह बनाते हुए बोली- "पापा ! इसमें हँसने वाली क्या बात है ? हम ऐसा कार्य करेंगे तो हम दोनों का एक साथ नाम नहीं आएगा क्या ?" 
          इंद्रजीत जी बोले- "बेटा, एक बात जिंदगी में हमेशा ध्यान रखना कि लोगों को नाम के पीछे नहीं भागना चाहिए। कुछ ऐसा काम करो कि स्वयं तुम्हारा नाम हो जाय। हमें लोगों को बताने की जरूरत नहीं पड़ना चाहिए कि हम ऐसा काम कर रहे हैं या बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। जताने की जरूरत नहीं है।" 
          रूही अपना एक हाथ आगे करते हुए बोली- "बस .. बस... पापा जी हो गया।" इंद्रजीत जी को रूही बिटिया का जरा सा रूठना समझ आ गया। बोले- "आज तुम्हें मेरी बात समझ नहीं आएगी। जब तुम जिंदगी का मतलब समझोगी, तब तुम्हें सब एहसास होगा।" 
रूही बोली- "पापा जी, ये सब बातें मेरी समझ से परे हैं। वैसे भी आप तो मेरे साथ हो ही हमेशा, तो मुझे किस बात की फिक्र रहेगी ; भला बतताइए।" फिर इंद्रजीत जी बोले- " मेरी रानी....! हमेशा तुम मेरे भरोसे मत रहा करो न भाई। कभी खुद भी कुछ कर लिया करो।" 
         "छोड़ो ना पापा जी, आप भी बस इन्हीं बातों को लेकर बैठ गए ? आप भला कहाँ जायेंगे; बताइए ? चलिए, अब रात बहुत हो चुकी है। सोते हैं। कल सुबह क्या करना है। इसकी योजना तैयार करेंगे। गुड नाईट पापा जी।" कहते हुए रूही अपने बेडरूम में चली गयी।
          अगली सुबह रूही की आँखें देर से खुली। उठी। उसे इंद्रजीत जी नहीं दिखाई दिये। सोचने लगी कि इतनी देर हो गयी आज पापा मुझे आवाज क्यों नहीं दे रहें है। थोड़ी भी देर होती तो, वे रूही उठो न कितना सोओगी री लड़की। रात भर नहीं सोयी हो क्या। जल्दी उठ कर व्यायाम करना चाहिए ना। कुछ भी नहीं।" रूही आज स्वयं उठ गयी थी। इंद्रजीत जी को देख कर घबरा गयी। बोली- "क्या हुआ पापा जी, आप ठीक तो है ना ? क्यों बार–बार पसीना आ रहा है आपको ? हाँफ क्यों रहे हैं आप ? मम्मी... मम्मी...! पापा जी ठीक तो है ना ?"
         इंद्रजीत जी बोले- "थोड़ी तबीयत ठीक नहीं लग रही है बेटा।" तभी मम्मी बोली- "चलिए डॉक्टर के पास चलते हैं।"
         इंद्रजीत जी को डॉक्टर के पास ले जाने वाले ही थे कि पता नहीं रूही की आँखों से आँसू रुक ही नहीं रहे थे। तभी इंद्रजीत जी बोले- 'मैं जल्दी आऊँगा बेटा। डोंट वरी माय डियर।" इंद्रजीत जी ने कहा।   
          "नहीं पापा जी। मैं भी आपके साथ जाऊँगी।" रूही की जिद्द में अनुरोध था। अंततः रूही का इंद्रजीत जी के साथ जाना नहीं हो पाया। 
          घर वालों को इंद्रजीत जी का इंतजार करते काफी समय हो गया। थोड़ी देर बाद खबर मिली कि वे अब कभी वापस नहीं आयेंगे।
          साहित्यकार पिता इंद्रजीत जी की नयन बिछायी पुत्री रूही अब तक निः शब्द हो चुकी थी।
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राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़


मंगलवार, 22 अगस्त 2023

खट्वांग-पुराण (बांग्ला कहानी)


एक लंबे अरसे के बाद उन दोनों भाइयों को आज फिर एक साथ, एक स्थान पर देखा गया। उनका एक साथ दिखना इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि जिस तरह से किसी महापुरुष का अवतार दर्शनीय होता है, ठीक उसी प्रकार मैं भी उनका दर्शन कर पाया - " गोलदीघी मोहल्ले के कॉफी हाउस के एक कोने में दोनों एक-दूसरे से धक्का- मुक्की के अंदाज में सटे बैठे थे।
मैं भी जानबूझकर उन दोनों के उस कोने में ही जाकर बिल्कुल उनके पास की मेज के करीब इस तरह बैठा, जैसे कि उनकी देह से बिल्कुल लगकर बैठा होऊँ। मुझे देखकर हर्षवर्धन ने ठीक हर्षद-ध्वनि न करते हुए आधे परिचित और आधे अपरिचित व्यक्ति की तरह बस इतना ही स्वागत भाषण किया - " अरे वाह ! क्या खूब आए !"
बस, इतनी सी औपचारिकता निभाकर, फिर मुझे बिल्कुल भुलाकर अपने भाई के साथ बातचीत करने में वह मशगूल हो गया।
अनगिनत दिनों बाद आज अचानक ही उन दोनों का दर्शन - साक्षात्कार हुआ है। ऐसे में उनका व्यवहार देखकर मुझे ऐसा लगा, जैसे कि वे दोनों मुझे भलीभाँति पहचान नहीं सके हैं; अथवा फिर यह भी हो सकता है कि पहचानने को तो वे मेरी नस-नस, मेरा रोयाँ रोयाँ पहचानते हैं; और हो सकता है कि इसी वजह से ! अन्यथा इतने दिनों बाद मिलने पर भी बस, इस तरह के केवल दो सूखे शब्दों का संभाषण भर, सो भी इतनी बेरुखी से ! इतनी कम मात्रा में बातचीत हर्षवर्धन के स्वभाव के पूरी तरह विपरीत है, परंतु उन सबके इस व्यवहार पर और अधिक माथा-पच्ची न करके मैंने अपनी मेज पर आ पहुँची कॉफी की प्याली पर अपना ध्यान लगा दिया। साथ ही अपना कान उन दोनों के बीच ही रहे वार्त्तालाप की ओर लगा दिया।
“समझ गया न, गोबरा ! ठीक इसी प्रकार का एक और कॉफी-हाउस कलकत्ते के सबसे नामी-गिरामी इलाके 'चौरंगी' में भी है। परंतु सावधान, उस कॉफी-हाउस में भूलकर भी कभी मत जाना!"
“क्यों ? ऐसी हिदायत क्यों दे रहे हो, उस 'कॉफी - हाउस' में मैं भला क्यों नहीं जाऊँगा?" कान खड़े कर सुननेवाला भाई अपने माथे पर शिकन लाते हुए पूछ बैठा, “वहाँ जाने से आखिर होता क्या है ?"
“अरे! वहाँ गए कि मरे ! उसकी अपेक्षा तो यही कॉफी - हाउस हजार गुना बेहतर है, क्योंकि इसमें तो बस 'बंगाली - ही - बंगाली' भरे रहते हैं। केवल बंगाली - भद्रपुरुषों, सभ्य लोगों के नौजवान छोकरे और छोकरियाँ ही यहाँ आते हैं। अतएव यह जगह हर प्रकार से पूरी तरह निरापद है। किसी भी प्रकार का, कहीं से कोई खतरा यहाँ नहीं है। परंतु वहाँ के ‘कॉफी-हाउस' में बाबा रे बाबा! जो महा मारा-मारी का माहौल है।” इतना कहकर मारधाड़ कर खत्म कर देने की खूनी घटना का भाव अपने मुँह पर लाते हुए उसने अपने दूसरे भाई की आँखों की ओर निहारा ।
" मारकर खत्म कर देने जैसी मारात्मक स्थिति किस प्रकार की वहाँ है ? जरा इसके बारे में मैं भी तो कुछ सुनूँ!”
" वहाँ पर आती हैं- 'अंग्रेज मेम साहिबाएँ।" हर्षवर्धन ने अपनी बात का और खुलासा किया, “ अंग्रेज मेमें साक्षात् दर्शन देती हैं।"
" देती हैं, तो दें। उससे क्या आता-जाता है ? अंग्रेज मेम तो कोई बाघ नहीं हैं कि वह मुझे निगल जाएँगी।"
"हाँ, यह बात तो ठीक है कि अंग्रेज मेम बाघ नहीं हैं, परंतु उससे भी अधिक सही बात यह है कि वे बाघ से भी अधिक खतरनाक हैं, क्योंकि बिना निगले ही वे आदमी को हजम करके बाहर फेंक दे सकती हैं, तभी तो मैं तुम्हें सावधान किए दे रहा हूँ । अन्यथा फिर कुछ बोलता क्या ? माई रे माई ! उस दिन एक अंग्रेज मेम साहब के पल्ले में जा पड़ा था। उसने तो मुझे जकड़ ही लिया था। "
"क्या कुछ कर दिया था तुमने ? "
“कुछ भी नहीं रे! कुछ भी नहीं। बस, अभी-अभी मैं वहाँ घुसा ही था और लक्ष्य कर रहा था कि कहीं कोई एक कुरसी खाली है अथवा नहीं? फिर जैसे ही देखा कि एक मेज के पास एक कुरसी खाली है, वहाँ जाकर बैठ गया । 'कॉफी-हाउस' के उतने बड़े लंबे-चौड़े हॉल में आदमी ठुसे पड़े थे। बंगाली, पंजाबी जैसे इस देश के निवासियों के अतिरिक्त चीन देश के नागरिक और यहाँ तक कि इस देश के मालिक अंग्रेज साहबों तथा उनकी मेमों से पूरा हॉल ठसाठस भर गया था। उस हॉल के लगभग बीचोबीच एक खंभे से सटकर जो एक मेज पड़ी थी, उसी के पास बस दो कुरसियाँ खाली बची थीं। उन्हीं में से एक कुरसी पर जाकर मैं बैठ गया और सामने जो छोटी सी मेज थी, उसको ठीक-ठाक ढंग से दुरुस्त कर लिया था कि तभी उसके तुरंत बाद ही, एक अंग्रेज मेम वहाँ आई । आकर मेरे सामने की उसी कुरसी पर बैठ गई । "
'अच्छा, तो तुम इसी को जकड़ना या धर-दबोचना कह रहे हो कि उसने तुम्हें अँकवार में धर लिया ? परंतु बड़े भैया ! उसने तुम्हें धरने के अभिप्राय से ऐसा नहीं किया था, बल्कि चूँकि उस पूरे हॉल में बैठने के लिए बस केवल वही एक कुरसी खाली थी, कोई और जगह खाली थी ही नहीं, इसी लाचारीवश ।” गोवर्धन अपना ऐसा ही अभिप्राय व्यक्त करता रहा; क्योंकि अपने बड़े भाई हर्षवर्धन को वह किसी भी कन्या के द्वारा धरे जाने, लिपटा लिये जाने लायक व्यक्तियों में गिनता ही नहीं था ।
“अरे, पहले मेरी पूरी बात तो सुन। पूरी बात को अच्छी तरह सुन - समझ तो ले।" हर्षवर्धन ने गोवर्धन की बात को काटते हुए कहा, “अरे, उस मेम ने उस कुरसी पर अभी अपना आसन जमाया भी नहीं था कि मेरी ओर देखकर बोल पड़ी थी—‘गुड-ईवनिंग मिस्टर' (शुभ संध्या श्रीमान जी ) !' उसकी बात सुनकर मैंने भी तपाक् से उसका मुँहतोड़ जवाब दिया, 'गुड नाइट मिस' ( शुभ रात्रि सुकुमारी जी) । "
“ऐसी वेला में, उस विशेष मौके पर तुमने 'गुड नाइट' क्यों कहा? अरे भैया ! 'गुड नाइट' तो लोग कहते हैं, एक-दूसरे से विदा लेने की वेला में। "
“धत् पगले! उस समय क्या ईवनिंग अर्थात् साँझ की वेला थी रे ? साँझ की वेला तो जाने कितनी देर पहले ही बीत चुकी थी। घड़ी में आठ बजने को थे । मैंने तो ऐसा कहकर उस मेम की गलती को ही सुधार दिया था। परंतु जो सबसे आश्चर्यजनक बात मैंने समझी, उसे अब क्या बतलाऊँ? मैं तो यही देखकर अवाक् रह गया कि खास इंग्लैंड की अंग्रेज - मैडम मेम भी अंग्रेजी भाषा बोलने में गलतियाँ करती हैं। कितने आश्चर्य की बात है न ? "
"तब फिर इसके बाद क्या हुआ ? तुम्हारी इस रहमदिली पर उसने क्या किया ?”
'अब उसके बाद उस अंग्रेज मेम ने जाने क्या-क्या तो कहा ? परंतु वह सारा कुछ वह अपने उच्चारणों में, अपनी अंग्रेजी भाषा में ही कहती रही। उसका तो एक घुणाक्षर ( संकेत भर) भी मैं समझ ही नहीं सका । "
“निश्चय ही तुम्हारे हिसाब से वह अशुद्ध अंग्रेजी भाषा में ही बोलती रही होगी, क्यों?"
“इस संबंध में अब मैं क्या जानूँ? हाँ, उसके बाद उस अंग्रेज - महिला ने जो कुछ किया, उसका कुछ विवरण तुम्हें बतला दे रहा हूँ। उसने किया यह कि अपने रुपए-पैसे रखने के बटुए में से एक नोटबुक बाहर निकाल ली, साथ-ही-साथ एक छोटी सी बेशकीमती फाउंटेन पेन भी बाहर निकाली। फिर उसे मेज पर रखकर कुछ देर तक जाने क्या तो उस पर लिखा । लिख चुकने के बाद उसने नोटबुक का वह पन्ना मुझे दिखलाया ।"
"उसके हाथ का लिखा क्या तुम पढ़ सके ?"
“क्यों नहीं, क्यों नहीं ! उसे समझ क्यों नहीं पाता ? क्योंकि वह अंग्रेजी भाषा में तो था नहीं। वह तो था एक प्याला । "
'प्याला ? यह प्याला फिर किस देश की भाषा में लिखा था, बड़े भैया ?"
"अरे, प्याला तो बस यही प्याला है रे बेवकूफ । " कहते हुए हर्षवर्धन ने अपने हाथ में पकड़े हुए कॉफी के प्याले को उठाकर उसके सामने रखकर दिखाया, “अरे, यही प्याला, जिसे हम लोग बांग्ला में तश्तरी-कटोरी, बाटी, प्याली या चशक आदि कहते हैं। बस, इतने ही तक की बात नहीं, बल्कि उस कागज पर बनाए गए उस प्याले के चित्र को मेरे सामने रखते हुए वह अंग्रेज - छोकरी मेरी ओर लगातार एकटक निहारती ही रही थी । जिसे लोग कहते हैं- 'सप्रश्न नेत्रों से अथवा सवालिया निगाहों से देखना !' मतलब कि वह यह भी पूछ लेना चाहती थी कि मैं उसकी इस कारगुजारी को समझ पा रहा हूँ या नहीं ?" हर्षवर्धन ने खुश होते हुए कहा ।
"अच्छा, अब यह तो बतलाओ दादा ! उस पर तुमने क्या किया ?"
“मैंने अपने हिसाब से यही समझा कि वह अंग्रेज मेम मेरी ही तरह खुद भी एक प्याला कॉफी पीना चाहती है और उसी के लिए वह मेरी ओर इशारा कर रही है। उसे अपनी कारगुजारी को दुहराने का मौका दिए बगैर मैंने भी तुरंत ही बैरे को बोलकर एक प्याला और अर्थात् अपने लिए एक तथा उसके लिए भी एक, मतलब कि कुल दो प्याला कॉफी लाने को कह दिया । "
" अच्छा भैया ! अब जरा यह तो बताओ कि देखने-भालने में वह अंग्रेज मेम कैसी थी ?"
“मेम-तो-मेम! अब उस पर से उसके बारे में यह क्या पूछना कि देखने में कैसी होती है ? अंग्रेज मेम जैसी होती हैं, ठीक वैसी ही थी, वह गोरी चिट्टी अंग्रेज मेम । हाँ, उम्र कुछ ज्यादा नहीं थी । यही हद- से- हद पच्चीस या छब्बीस वर्ष की । बंगाली कन्याओं की तरह उतनी कमनीयता वाली न होने पर भी, देखने -भालने में सुंदर ही कहलाने योग्य थी । "
“तो फिर वही बात कहो न !” गोवर्धन ने एक बहुत ही समझदार व्यक्ति की तरह से अपनी मूड़ी हिलाई और चहककर बोल पड़ा - " प्रेम-प्रीति करने लायक अंग्रेज सुंदरी ! तब फिर और कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ है ?"
“क्या तुम अनाप-शनाप बकने लगे हो ? ऐसी बात अगर तुम्हारी भाभी जान जाए तो फिर क्या होगा ? ये फालतू बातें छोड़ आगे की सुनो कि फिर क्या हुआ ? मैंने मन-ही-मन सोचा कि हमारे देश पर शासन करनेवाली अंग्रेज जाति की एक कन्या को केवल खाली-खाली कॉफी भर पिला देना क्या कोई ठीक बात होगी ? अपने मन को ही जाने कैसा खिच खिच सा लगाने लगा। बड़ा ही अटपटा सा दिखाई पड़ेगा। अतः मैंने उसके हाथों से वह नोटबुक और कलम अपने हाथ में ले ली तथा उसके एक पन्ने पर मैंने टोस्ट और कटलेट जैसी चीजों के चित्र बना दिए। फिर उसे उस मेम के आगे रखते हुए दिखाया। उसे देखते ही वह हुलसकर बोल पड़ी, 'यस, यस – थैंक्यू ।”
"'यस' का मतलब क्या हुआ ?" गोबरा ने जानना चाहा।
" उसका माने वही हुआ, जो तुम इस समय कर रहे हो । माने कि हाँ ।" उसके बड़े भाई ने उसे बतलाया, “इतने बड़े होकर भी तू 'यस' माने भी नहीं जानता है, रे बेवकूफ ! अब उसे समझ गया न ?
"और थैंक्यू माने..." इस बात को उसने दो गुने रूप में कहा ।
“सो तो जानता हूँ । उसे बतलाना नहीं पड़ेगा। इसका मतलब यह कि तुम्हारी बात पर उस मेम ने दो- दो बार हाँ, हाँ कहा । "
" करेगी क्यों नहीं ? बल्कि उसके बाद उस मेम ने किया क्या कि उसी नोटबुक पर फिर एक जोड़ा अंडे जैसा चित्र बनाकर मुझे दिखलाया । मैं समझ गया कि यह कटलेट और टोस्ट के साथ-साथ उबाला हुआ अंडा भी खाना चाहती है। अतएव मैंने बैरे को अंडे लाने के लिए भी कह दिया । "
'वाह्, बेहद मजे की बात है ।" कहकर गोबरा ने सुड़क - सुड़ककर कई बार जीभ चटकारी; जैसे लगा कि रस ही सुड़क रहा है।
“अंग्रेज मेम की चर्चा सुनकर ही तेरी जीभ से लार टपकने लगने लगी है, ऐसा साफ-साफ देख रहा हूँ।”
“मेम से नहीं रे! मेमलेट की चर्चा का अनुमान करके जी भइया! मेम ने मेमलेट खाने की इच्छा प्रकट नहीं की ?"
“जब वह अंडों को तोड़कर गटक चुकी तो उसके बाद उसके नोटबुक को मैंने फिर अपने हाथ में ले लिया । लेकर एक पन्ने पर एक तश्तरी भर काजू-बादाम का नक्शा बनाया, मगर उसके बाद उसने तुरंत ही चपटी - चपटी जाने कौन सी चीजें खींच डालीं। मेरी समझ में आया कि उसका मतलब भुने हुए पापड़ों से होगा। बैरे को बुलाकर जो दिखलाया तो उसने बतलाया कि उस 'कॉफी-हाउस' में भुने हुए पापड़ नहीं बेचे जाते । हाँ, उसकी जगह अगर आलू- भाजा या आलूदम लेना चाहो तो परोसा जा सकता है। फिर तो वह आलू-भाजा ही ले आया तथा उसके साथ-ही-साथ काजू-बादाम का तला हुआ नमकीन भी। आलू-भाजे को पाकर उस अंग्रेज छोकरी के मुँह पर हँसी की जो लहर उठते देखी, तब मैं समझ गया कि दरअसल वह आलू-भाजा ही मँगवाना चाहती थी।"
"तो क्या आलू- भाजा और भुने हुए पापड़ों का चेहरा एक जैसा ही होता है ?" गोबरा ने एक अत्यंत परिपक्व चित्रकला-समालोचक की तरह अभिनय करते हुए एक उत्तेजक प्रश्नावाचक चिह्न खड़ा कर दिया, “ दोनों की आकृति क्या एक जैसी ही होती है ?"
“सो कैसे होगी रे ? परंतु चित्र में खींची हुई आकृति को देखकर ठीक-ठीक समझ पाने का कोई निश्चित जुगाड़ तो नहीं है !"
“अरे, ओ महाशय ! मैं आपसे ही पूछ रहा हूँ !" अबकी बार हर्षवर्धन ने मेरी ओर रुख करते हुए मुझी से सीधे-सीधे पूछा, “पदार्थों को फलकों पर आँकने के विषय में आप क्या कुछ जानते हैं ? लगते तो काफी समझदार हैं, अतः निश्चित ही जानते होंगे। तो फिर बतलाइए कि चीजों को अंकित करते, रेखांकित करते अथवा चित्र बनाए जाने पर ऐसा क्यों हो जाता है ? भुने पापड़ के साथ आलू-भाजा इस तरह मिल क्यों जाता है ?
“आँकने की वेला में जिस तरह किसी-किसी समय एकक मिल जाते हैं कि नहीं, ठीक उसी प्रकार, और क्या? इसके अतिरिक्त आँकने की तरह ही कई बार वे फिर आपस में मिलते भी नहीं । कोई बहुत अच्छा रेखाचित्रकार हुआ तो तभी वह उन्हें एक-दूसरे से मिला सकता है। ऐसा मँजा हुआ कलाकार की आकृति ऐसी कलाकारी से आँकेगा कि देखनेवाले को जान पड़ेगा कि वह चूहा नहीं, बल्कि हाथी है । अपनी इसी चित्रकारी की कलाबाजी से वह शुर्तुर्मुर्ग को ऐसा रूप दे देगा कि वह घर की मुरगी दिखाई देने लगेगी। ऐसी परिस्थितियों में ही तो चित्रकार की कला की बहादुरी दिखाई पड़ती है।"
“क्या कुछ करने से उस तरह की करामात हो जाया करती है ?" दोनों भाइयों ने एक साथ ही मुझसे उत्सुक आवाज में पूछा। दोनों के मुख के भाव ऐसे लगे, मानो दो-दो बार हाँ-हाँ कहकर वे चैलेंज सा देते हुए पूछ रहे हों !
“ ये सभी कुछ प्रेस में छापने के लिए ब्लॉक बनानेवाले कारीगरों का कमाल है, भाइयो । चित्र के रूप में कुछ भी आँक देने से तो कुछ भी नहीं होता । चित्रांकन करनेवाला चित्रकार तो कागज के एक छोटे से टुकड़े पर कोई एक चीज बस एक थोड़ी सी जगह पर आँक भर देता है । परंतु छापने के पहले उसका ब्लॉक बनानेवाले जो कलाकार होते हैं, असली उस्ताद तो वे ही हैं, इस कला के। वे ही अपना माथा लगाकर आगा-पीछा गंभीरतापूर्वक सोचकर जरूरत के मुताबिक उसे मनचाहे रूप में बढ़ा लेते हैं अथवा छोटा कर लेते हैं। मतलब यह कि जिस विशेष प्रकार के चित्र की जरूरत होती है, ठीक उसी प्रकार का ब्लॉक वे बना देते हैं। उदाहरण के लिए, बस यही समझिए कि किसी कागज के फलक पर आपने एक लीची के फल का चित्र अंकित किया, परंतु बाद में पता चला कि आपकी जरूरत तो कटहल का फल अंकित करने की है । तब ब्लॉक बनानेवाले कारीगर उस लीची के फल के चित्र को ही बड़ा करते-करते कटहल बनाकर उसका ब्लॉक तैयार कर सकते हैं। इसी एक ही आकृति को छोटा करते-करते लीची और बड़ा करते-करते कटहल बना दिया जाता है। "
"छोटा कर देने से ही लीची और बड़ा करने मात्र से ही कटहल ! वाह रे वाह ! " गोबरा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा ।
“इसका मतलब यह कि मैंने जो काजू-बादाम का चित्र बनाया था, ब्लॉक बनानेवाले अगर चाहें, तो उस चित्र से ही काशीफल या कुहड़े का आकार बना सकते थे ?"
“बिल्कुल बना सकते थे।"
“अब ये सब छोड़िए भी ।" हम लोगों की चित्रकला - विज्ञान की तात्त्विक आलोचना में गोवर्धन ने बाधा पहुँचाई—“भैया ! अब तुम यह बतलाओ कि उसके बाद आगे क्या हुआ ?"
"उसके बाद तो हम दोनों ने तरह-तरह की ढेर सारी चीजें मँगा- मँगाकर खाईं। कमाल यह था कि एक-दूसरे से एक शब्द भी बोले बिना सभी कुछ बस केवल चित्र बना-बनाकर ही हम चलाते गए। इस प्रकार लगभग पंद्रह रुपए का सामान निगल गए। उसके बाद बैरे ने बिल लाकर मेरे हाथों में थमा दिया। तब मैंने उसके हाथों में सौ रुपए का एक नोट थमा दिया। बाकी पैसे लौटाने के लिए बैरा उस नोट को तुड़वाने के लिए ले गया। उसके बाद भी मैंने देखा कि वह अंग्रेज छोकरी अभी भी ध्यानमग्न होकर अपनी नोटबुक के पन्ने पर कोई चित्र आँक रही है। "
'ओह् ! मैं समझ गया, निश्चय ही वह अब तुम्हारे मुख का चित्र बनाने लगी होगी ! कहो, ठीक बात है न ?" गोबरा ने एक अमार्जित हँसी अपने चेहरे पर फैला दी।
“अरे! ये चेहरा कोई मामूली चेहरा नहीं है । इसकी आकृति बना पाना किसी अंग्रेज मेम के बस की बात नहीं है। सो भी एक छोटी सी नोटबुक के पन्ने पर ! हाँ, तेरे जैसा दुबला-पतला, रोगिहा- बेमरिहा चेहरा अगर होता, तब शायद संभव हो भी पाता ! जो चित्र वह बना रही थी, उसे जब बहुत सावधानी से बनाकर वह पूरा कर चुकी, तब उसने उसे मेरे हाथों में दे दिया । देकर फिर उसने थोड़ी सी ऐसी हँसी बिखेरी, जिसे लोग लज्जावती, शर्मीली हँसी कहते हैं। ठीक वैसी ही हँसी की फुहार उसने अपने चेहरे पर बिखेरी। "
"इसका मतलब यह कि वह चित्र उसने अपने खुद के चेहरे का ही बनाया था। मुझे तो भाई अब यही सूझ रहा है !"

शिवराम चक्रवर्ती

"नहीं रे! मैंने देखा कि वह किसी के भी चेहरे का चित्र नहीं था, बल्कि उसने तो उस पन्ने पर आँकी थी - एक खटिया ।"
“खटिया! खटिया क्यों ? उस माहौल में भला खटिया कोई क्यों बनाएगा ? खटिया क्या कोई खाने की चीज है ? नींद आने पर सोने की एक चीज तो है, यह तो मैं जानता हूँ। " गोबरा अवाक् रह गया। फिर अचानक ही लाल-बुझक्कड़ का-सा भाव दिखाते हुए बोला, “ओह ! अब मैं समझ गया। तुम्हें अभी और भी खटवाने का मतलब कि तुमसे और भी ज्यादा काम करवाने का अभिप्राय था उस छोकरी के मन में।"
“मैं क्या कोई मच्छरदानी हूँ कि वह मुझे चारों तरफ से खटखटाएगी या गिराएगी ? मेरे साथ ऐसा कुछ करना इतना आसान नहीं है। " हर्षवर्धन ने उसकी बात पर एतराज किया, "परंतु इतना जरूर है कि मैं ठीक-ठीक उसका अभिप्राय समझ नहीं पाया। इसी से मैं अवाक् होकर अंदर-ही-अंदर सोचता रहा उसने खटिया का चित्र क्यों आँका ?"
“अच्छा, इस बात को जरा तुम मुझे तो बतलाओ कि उसने किस प्रकार की खटिया बनाई थी ? दूध के फेन की तरह धकधक सफेद किस्म की क्या ?"
अबकी बार मैंने उन दोनों भाइयों के वार्त्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए पूछा ।
“अरे, काफी लंबी-चौड़ी, बड़ी सी खटिया । जैसी कि पलंग जैसी भारी खटिया हुआ करती है । परंतु खटिया के उस आकार की वजह से नहीं, मुझे तो यह बात सोचकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ा कि खटिया का जन्मदाता तो मैं ही हूँ ! वस्तुतः हमारा तो काठ - बाँस का व्यवसाय ही है। हम तो लकड़ी और बाँस के सामान बनाते ही रहते हैं । निश्चय ही उसमें खटिया बनाने का काम महत्त्वपूर्ण स्थान रखता ही है। तो मुझे इस बात को लेकर ही भारी विस्मय हुआ कि इस बात का पता वह अंग्रेज मेम छोकरी कैसे कर पाई ? सच कहता हूँ भाई ! इस रहस्य को मैं अभी भी आज तक समझ नहीं पा सका हूँ। मैं तो काठ मारे सा कठुआया पड़ा रह गया हूँ, इस रहस्य का कोई तल न पा सकने के कारण समझ रहे हैं न महाशय !"