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मंगलवार, 28 नवंबर 2023

मास्साब

 

डॉ. कविता विकास

बारसठ की उम्र में भी मास्साब के चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी । एक उम्मीद की किरण लिए वो गाँव में सबको सुनाया करते ," पिछले साल बहू को अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ ,इसलिए बबुआ का गाँव आना टल गया । उसके गए साल बबुआ के फार्म हाउस में आग लग गई तो नुकसान की भरपाई करने में कुछ ज्यादा ही खर्च हो गया और फिर वो यहाँ नहीं आ सके ।"मास्टर साहब पिछले पाँच साल से बेटे के इंतज़ार में पलकें बिछाए बैठे थे । हर साल की समाप्ति में वे ऐसे ही खुद को समझा लिए करते कि इस बार बेटे – बहू का गाँव नहीं आने का क्या कारण हो सकता है ।
कम्प्युटर – मोबाइल के ज़माने में भी मास्टर साब चिट्ठियाँ लिखा करते थे । तीन साल पहले जब मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ और उसके बाद भी आँख की रोशनी कुछ खास नहीं बढ़ी , तब उन्होने स्वयं लिखना छोड़ दिया । फिर वह अपने विद्यार्थियों से पत्र लिखवाते । शाम के समय अपने मिट्टी के घर के दालान पर मास्साब एक खटिया पर बैठ जाते और हम पाँच दोस्त उनको घेर कर गोबर से लिपे फर्श पर । सोम और विप्लव की लिखावट मास्टर साहब को पसंद नहीं थी ,तो उन्हे नहीं लिखने दी जाती । उन पर लाड़ दिखते हुए कहते , "नाक कटा देंगे ये दोनों ,इनकी लिखाई देख कर बबुआ कहेगा ," छि , पापा ने कभी इन्हें सिखाया नहीं क्या ? " प्रेम और शिव आधा लिखते – लिखते ही ऊबने लगते । जैसे ही वे पूछते,"और कितना लिखाओगे आप ,हाथ दुख गया , " तो मास्टर साहब तिलमिला जाते ,कहते ,"अभी तो बबुआ को यह बताना बाकी ही है कि भूरी गाय बच्चा देने वाली है , गोदाम घर का छत मरम्मत हो गया और कहता है कि हाथ दुख गया !! "शिव से वो थोड़ा चिढ़ते भी थे , कारण , शिव उनके मुँह पर खरी – खरी सुना देता कि अब बेटे का मोह त्याग दो , आने नहीं वाले  हैं भइयाजी ,उनको परदेस की धरती भा  गई है । पर मास्टर जी पुरजोर विरोध करते और कहते ," मेरा लाल है ,विद्यालय के  दो हज़ार बच्चों को संस्कार सीखाता हूँ ,और मेरा ही बेटा संस्कार से वंचित हो गया है क्या ?देखना, अबकी बरस बबुआ ज़रूर आएगा । " बचा मैं ,यानि कुलवंत  ,मस्साब का प्यारा कलुआ जो बिना किसी ना  – नुकुर के उनकी हर बात लिखते जाता । जितना लंबा पत्र लिखवाना चाहते , लिखवा लेते । पहले हरेक साल तीन महीने में एक ,फिर छह महीने और अब साल मेँ दो बार , एक सावन के दौरान और एक पूस माह में। बुवाई से पहले और कटनी के बाद ।
आज फिर मजलिस जमी । "कलुआ , लिख" और मैं आज्ञाकारी बालक की  तरह कागज – कलम ले कर बैठ गया । बाकी दोस्त अगल – बगल ।
मेरे प्राणों से प्रिय बबुआ ,
ईश्वर की कृपा से सब ठीक है । ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि तुम सब भी सदा सुखी रहो । सोम ने टोका,"ई का दो – दो बार ईश्वर लिखवा रहे हैं ,आशा करता हूँ ,लिखवाइए ।"

"चुप रह ,अपनी औलाद के लिए यमराज तक की आज्ञा को टलवा देते हैं माता – पिता , और एक ये है ,कहता है कि आशा करता हूँ ,लिखवाइए ," मास्टर साहब  चिढ़ कर बोले ।  लिख , आगे ।

"सावन की घटाएँ छा रही हैं । पिछले बार तो अनावृष्टि से सारा फसल जल गया पर इस बार अच्छे आसार हैं । माँ ने चाचा को भेज मजदूर बुलवा लिए हैं । गाछी भी खरीद ली गई है । कल से धान की रुपाई शुरू हो जाएगी ।तुझे याद है , जब तू छोटा था , एक बार धान के खेत में उतर गया ,वहाँ इतना पानी था कि तेरे गर्दन तक पानी भर गया था । तू चिल्लाने लगा तो फिर सोमवा की माई ने गोद में लेकर तुझे बाहर निकाला । "
"अरे , मास्टर जी ,चिट्ठी लिखवा रहे हो कि संस्मरण ?काम की बातें लिखवाइए । बड़के भैया के पास इतना टाइम नहीं है कि इतनी लंबी चिट्ठी पढ़ें । "शिव ने टोका । मास्टर साहब की बूढ़ी आँखों में तैरता अतीत जैसे ठहर चुका था । बमुश्किल ऐसे समय में उन्हे वापस लाना पड़ता था । कई बार तो चिट्ठी लिखने का काम पूरा ही नहीं होता और  मास्टर साहब की आँखों से गंगा – यमुना की धारा बह निकलती जो रुकने का नाम ही नहीं लेती । हम सब आहत हो जाते । उनको दुख हम सब को विचलित कर जाता । बात – बात पर उनकी खिंचाई करने वाला सोम तो सबसे ज्यादा दुखी हो जाता । हम पाँचों मित्र का भरसक प्रयास होता कि मास्टर साहब अंदर से इतने मजबूत बनें कि पुत्र के  मोह- माया का बंधन धीरे – धीरे त्याग कर स्थिति से समझौता कर लें । स्कूल में हमें इतिहास पढ़ाने वाले मास्टर साहब में हम किसी क्रांतिकारी की ही झलक पाते थे । उनकी यह छवि पुत्र – मोह के आगे खंडित हो जाती थी जो हमें किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं थी । 
अच्छा लिख ... ,अचानक मास्टर साहब बोल पड़े ," छोटकी चाची की पतोह को टी बी हो गया है । इलाज चल रहा है । कहती थी , एक बार बबुआ आ जाता तो बड़े शहर में जा कर इलाज करवा लेती । तुम सोचना इस पर । तुम्हारी माँ भी कह रही थी कि कटनी के समय आ जाते तो एक बार घर के अनाज का खाना खा लेते । कितना दिन हो गया बबुआ को मड़ुआ के आटे की रोटी खिलाये । परदेस में तो ई सब कोई जानता भी नहीं होगा । और , देखो सीढ़ी घर के नीचे मरम्मत काम चल रहा है । तुम्हें याद है न , वहीं पर पुआल रख दी जाती थी और तुम अपने दोस्तों के साथ खेलते- खेलते  दुपहरिया में वहीं सो जाते थे । "
बोलते – बोलते मास्टर साहब की आँखें फिर नम होने लगीं ।आवाज़ भर्राने लगी तब विप्लव ने बात संभाली ,"अरे , मस्साब , इतना काहे भावुक हुए जा रहे हो ? भैया का बड़ा कारोबार है , जैसे ही काम कुछ कम होगा , यहाँ ज़रूर आएंगे । पिछले दो साल से मास्टर साहब का धैर्य जवाब दे गया था । पूरी चिट्ठी भी नहीं लिखवा पाते थे । अंत हम खुद ही सोच – समझ के  कर देते , जैसे परीक्षा में पिता का बेटे के नाम पत्र लिखते समय रटा - रटाया वाक्य लिखते थे । शिव ने कहा ,"हाँ तो लिख , यहाँ का सब समाचार ठीक है । किसी बात की चिंता नहीं करना । हमलोग और गाय – गोरू सब ठीक हैं । अपना और बहू का ख्याल रखना । पोते का नया फोटो भेजना ।
तुम्हारा .... "अरे , रुको ,अचानक मास्टर साहब पूरा जतन कर के बोल पड़े । इतनी जल्दी कैसे बंद कर रहे हो ?लिखो ," छोटके चाचा के घर टी वी देखते समय हमने देखा था कैलिफोर्निया में भीषण समुद्री तूफान आया था । बहुत क्षति पहुंची है । तुम्हारे फार्म – हाउस में भी भयंकर नुकसान हुआ है । घर – परिवार चलाने के साथ कर्मचारियों को वेतन देने में भी दिक्कत आ  रही है । तुम चिंता नहीं करना , तालाब के पास वाली ज़मीन बेच कर जल्द ही पैसे भेज दूंगा ।  अति शीघ्र । और भी कोई मदद की दरकार हो तो बताना , जब तक तुम्हारा बापू ज़िंदा है ,तुम्हें फिक्र नहीं  करनी है ।"" अब बंद कर दो",मास्टर साहब ने कहा और धोती के कोर से आँख पोछते हुए उठ कर अंदर जाने लगे । इतना उदास हमने मास्टर साहब को कभी नहीं देखा था । आज पहली बार शिव या सोम ने उनकी खिंचाई नहीं की । वरना ये दोनों अक्सर उनको चिढ़ाते हुए कहते ," अब तो स्थिति से समझौता कर लो चाचू , भैया जी को भारत आने का  मन नहीं करता। वह विरोध करते हुए कहते ," मेरा खून ऐसा नहीं करेगा । वो इस साल ज़रूर आएगा ।"  मास्टर साहब को  भी अंदर – अंदर यह चुहलबाजी अच्छी लगती ,तभी तो वो केवल प्यार भरी झिड़की हमे सुनाया करते , नाराज़ नहीं होते ।
मास्टर साहब दालान पार करते – करते अचानक रुक गए । पीछे हम सब को देखते हुए थरथराती आवाज़ में कहा ," तू ठीक कहता था सोमू, तेरे भैया का कारोबार इतना बढ़ गया है कि वह अब गाँव आने की  स्थिति में नहीं है । उसके पास वक़्त की कमी है । क्या पता चिट्ठी भी पढ़ पाता है या नही, क्योंकि अब तो मेल का ज़माना है । यह तो महज़ एक कागज़ का टुकड़ा है । छोड़ , फाड़ दे इसे । "  मास्टर साहब ने हाथ उठा कर हमे इशारा किया जैसे हमें इतिहास पढ़ाते समय कभी शाहजहाँ तो कभी राणा प्रताप की मुद्राओं में उस किरदार को जीवित कर देते थे ।   आज भी लग रहा था  मानो विश्व विजेता सिकंदर अपने सैनिकों को आदेश दे रहा हो ," वापस लौट जाओ सैनिकों , ये जीते हुए देश ,धन और सम्पदा कुछ न अपने साथ जाएगी । सब यहीं छोड़ कर जाना है । तुम खाली हाथ आए थे , खाली हाथ जाओगे ।मोह – माया सब विनाश की जड़ है । क्या तेरा , क्या मेरा !कोई किसी के काम नहीं आएगा ,वर्तमान में जीना सीख । " मास्साब अंदर चले गए थे और चिट्ठी को फाड़ते हुए हम अपने घरों की ओर । एकबारगी इस निर्णय पर दुख हुआ ,पर एक संतुष्टि का आभास भी । 
 ( लेखिका व शिक्षाविद्)
प्रकाशन-दोकविता संग्रह (लक्ष्यऔर कहीं कुछ रिक्त है )प्रकाशित। एक निबंध संग्रह (सुविधा में दुविधा),एक ग़ज़ल संग्रह (बिखरे हुए पर) प्रकाशित। दससाझाकविता संग्रहऔर आठ साझा ग़ज़ल संग्रहप्रकाशित।हंस,परिकथा,पाखी,वागर्थ,गगनांचल,आजकल,मधुमती,हरिगंधा,कथाक्रम,साहित्य अमृत,अक्षर पर्व  और अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार निरंतर  प्रकाशित । दैनिकसमाचारपत्र - पत्रिकाओंऔर -पत्रिकाओंमेंनियमितलेखन । राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय  सम्मानों से सम्मानित। झारखंड विमर्श पत्रिका की सम्पादिका और अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक के लिए अतिथि संपादन ।
संपर्क - डी. - 15 ,सेक्टर - 9 ,पीओ - कोयलानगर ,जिला - धनबाद,पिन - 826005 ,झारखण्ड
ई मेल kavitavikas28@gmail.com
मोबाइल - 9431320288

 

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लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

 

      अच्छा होता है...

चिंतन, मनन और फिर सृजन 
अच्छा होता है
हृदय में उद्गार उठे, मन में जो भाव उठे
उसे लिख देना सच्चा होता है
अपनों से मिलना-जुलना, बातें करना
उनको सद-सलाह देना अच्छा होता है
बिना अपनी आँख से देखे हुए, 
या बिना अपने कान से सुने हुए
केवल दूजे से सुनकर ही
किसी बात पर अमल करना
निःसंदेह कच्चा होता है...

जो भी लिखें, जो भी करें 
सोच-समझकर करना ही अच्छा होता है
कभी-कभी अपनों के साथ घूमना-टहलना
सच में हमें अच्छा लगता है
वर्तमान में पारिवारिक जीवन में हम 
अपने पत्नी और बच्चों का
बहुत ख्याल रखते हैं 
ऐसे ही अपने माता-पिता बड़ों-बुजुर्गों की
सेवा करना और सम्मान देना अच्छा होता है...

खाली वक्त मिले तो पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, 
झरनों, प्रकृति से बातें करना अच्छा होता है
अपनों के सुख में, शादी-ब्याह, कार्यक्रम
पार्टियों आदि में हम जाते ही हैं
अपनों के दुःख में, संकट में
या कोई मुसीबत आने पर
झट शामिल होना अच्छा होता है...

बड़ी-बड़ी गाड़ियों में, हम चलते हैं प्रतिदिन
कभी-कभार पैदल चलना अच्छा होता है
आजकल स्टेटस देखकर
हम करते हैं दोस्ती-यारी
मुफलिसी में जी रहे दोस्तों का
कभी-कभार हाल-चाल पूछना
अपने पास-पड़ोस में रह रहे
बेसहारा-गरीब जनों का
भरसक मदद करना अच्छा होता है...

माना कि हमें फुरसत न मिले अपने कामों से
उन्हीं व्यस्तता से कुछ पल चुराकर 
बच्चों को माल, सिनेमा हॉल, चिड़ियाघर घुमाना
कितना अच्छा होता है
माना कि बच्चे फास्टफूड के आदी हो चुके हैं
पर होटल या रेस्टोरेंट में कभी-कभार 
कुछ चटपटा खिलाना अच्छा होता है...

जीवन में कभी गलतियाँ भी हो जाती हैं
उन्हें सुधार कर आगे बढ़ना अच्छा होता है
माना कि मेरे पास धन-दौलत बहुत नहीं है
अपनों के साथ रहना, अपनों का साथ होना
हीरे-जवाहरात से कम नहीं है
अपनों की छोटी-छोटी खुशियों में
जी भर, मन भर, खुश हो जाना 
सच में मुझे बहुत अच्छा लगता है...
★★★★★★★★★★★★★

        सबसे प्यारा शब्द है माँ...

'माँ' इस सृष्टि का सबसे पवित्र और प्यारा शब्द है 
माँ का प्यार सबसे निर्मल और विमल होता है
माँ और माँ के प्यार पर लिखी रचनाएँ 
सबके मन को खूब भाती हैं
सच में इन दोनों पर सबसे अधिक 
कविताएँ कहानियाँ आदि लिखी जाती हैं...

माँ ही इस अनोखे सृष्टि में हमें ले आती है
पुचकारती है, दुलराती है, प्यार और लाड़ जताती है
जब हम अबोध होते हैं, भूखे होते हैं 
रात-रात जग कर माँ दूध पिलाती है
गीले बिस्तर में सोकर हमें सूखे में सुलाती है
जरा-सा ज्वर होने पर माँ की आँखों में आँसू बहते हैं 
मेरे लिए मंदिर, मस्जिद, मजार पर दुआएं मांगती है
सच में माँ हर रिश्तें में सबसे अलग होती है...

माँ हमेशा अपने बच्चों का भला ही चाहती है
बचपन में अच्छी शिक्षा और संस्कार सिखाती है
एक माँ अपने बच्चों को सुखी और संपन्न बनाती है
कितने भी बच्चे बड़े हो जाए, वह चिंतित रहती है
अपना भी निवाला देकर खुद भूखी सो जाती है
कर्ज लेकर बच्चों को पढ़ाती-लिखाती है
वही माँ बूढ़ी हो जाने पर दुत्कारी जाती है
कुछ कपूतों द्वारा जन्म देने वाली माँ 
वृद्धाश्रम पहुँचाई जाती है
सच में माँ दुःख सहकर सुखदायी होती है
माँ का प्यार स्वार्थ भावना से मुक्त होता है
माँ का प्यार पावस, निश्छल, ममता और करूणा युक्त होता है
इसीलिए जब बच्चा रोता है
माँ का दिल द्रवित हो उठता है
माँ अपने बच्चों के लिए दुनिया से टकराती है
सच में माँ का रिश्ता और माँ का प्यार 
इस सृष्टि में सबसे सच्चा होता है...
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    आज का अभिभावक...

कितना कुछ बदलता जा रहा है
आज का अभिभावक कितना जिम्मेदार 
बनता जा रहा है
बच्चों के भविष्य की चिंता में 
अभिभावक अब सजग है
बच्चों के जन्म लेने के पहले ही 
नामकरण व स्कूलीकरण हो रहा है।
तीन वर्ष बच्चों के पूरे होने के पूर्व ही 
अच्छे स्कूल की हो जा रही पहचान...

नामी गिरामी पब्लिक स्कूल में 
एडमिशन के लिए दौड़धूप
तीन साल के बच्चे का नाम लिखने के लिए 
हो रही जबरदस्त परीक्षा
माता पिता का भी हो रहा इंटरव्यू
शायद इसलिए कि स्कूल की महंगी फीस 
क्या माँ बाप भर पाएँगे
तभी तो अपने बच्चे को पढ़ाएंगे
कॉपी किताब, यूनिफॉर्म व जूता मोजा लेने के लिए 
अभिभावक का स्कूल द्वारा चिन्हित दुकान से लाना
उस पर कवर चढ़ाना व स्टिकर चिपकाना
बॉटल खरीदना और कई काम
बेटा पढ़ेगा तो ही होगा हमारा नाम
सुबह से दौड़ते दौड़ते हो जा रही शाम
महीनों न मिल रहा आराम
स्कूल लाने जाने के लिए 
बस या ऑटो का इंतज़ाम...

कभी ऑटो न आए खुद ही ले जाना
सड़कों पर भीषण लग रहा जाम
अभिभावक के माथे पर चू रहा पसीना
शाम को ऑफिस से लौटते ही 
बच्चे का होमवर्क पूरा कराने की जिम्मेदारी
इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाने की बीमारी
तीन साल के वजन से अधिक भारी बैग 
बच्चे के पीठ पर लद जाता है
बच्चे का बचपन गुम हो रहा है
हर अभिभावक का सपना
डॉक्टर इंजीनियर कलेक्टर बड़ा ऑफिसर 
बन जाए बच्चा अपना...

घंटों बैठकर तीन साल के बच्चे को
अभिभावक रात में पढ़ाता है
घर पर ट्यूशन भी लगवाता है
सचमुच आज बच्चे का अभिभावक 
कितना जिम्मेदार हो गया है
पर बच्चे का बचपन वास्तव में खो गया है...
★★★★★★★★★★★★★★★★
        
             सिर्फ एक शब्द...

कभी कभी हमारे जीवन में सिर्फ एक शब्द का प्रभाव 
कर देता है ऐसा अप्रत्याशित चमत्कार
हमारे मन मस्तिष्क में वो शब्द व्यापक असर डालता है
जीवन में वो शब्द धीरे धीरे लेना लगता है एक आकार
उसकी आभा और प्रभाव से जीवन हो जाता साकार
हमारी सोच जो संकीर्णता में निहित होती है 
उससे निकल कर हमारे मस्तिष्क का होता है परिष्कार
फिर हमारे विचार से छंट जाते हैं अविकार
हमें कितना सुंदर लगने लगता है यह संसार
फिर वही शब्द हमारे जीवन के लिए होता है अविष्कार...

न जाने कितने शब्दों से हमारा नित होता है सामना
उन्हीं में से छिटक कर एकाध शब्द हमें दिखाते हैं आईना
और उसी शब्द के पीछे हम चल पड़ते हैं
जीवन अपना दाँव पर लगा देते हैं
उसी शब्द को अपनी ताकत और हिम्मत बना लेते हैं
कभी तो हम हार जाते हैं
पर कभी उसी शब्द रूपी घोड़े पर सवार हो तेज दौड़ते हैं
उस शब्द को पकड़ कर दिल दिमाग में बिठाए रखते हैं
बार बार गिरते हैं, उठते हैं, फिर साहस बटोरते हैं
अंत में विजय पाकर ही रुकते हैं...

एक शब्द से देश और समाज में आ जाती है क्रांति
मिट जाती हैं अनगिनत भ्रांति
एक शब्द के लिए सिद्धार्थ ने छोड़ दिया था घर बार
ऐश्वर्य और विलासिता से युक्त संसार
एक शब्द के संचरण से जीवन हो गया था शुद्ध
और फिर... सिद्धार्थ बन गए महात्मा बुद्ध...

एक शब्द 'गुलामी' को एक दूसरे शब्द 
'आज़ादी' में बदलने के लिए
बापू ने अपना पूरा जीवन किया समर्पण
तन मन धन सब कुछ किया अर्पण
देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया
भारतवर्ष को आज़ादी दिलाया
एक शब्द ने बापू का नाम 
इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराया...

क्या पता ? हमारे जीवन में ऐसा कोई शब्द ले आकर
ईर्ष्या, द्वैष, विषता व अहंकार का हो जाए तिरस्कार
हमारा वास्तव में बदल जाए व्यवहार
हमें भी बुद्ध महावीर गाँधी आदि के शिक्षा का हो ज्ञान
धन दौलत पद का खत्म हो जाए अभिमान
ऐसे किसी शब्द का हमें भी है इंतज़ार
ऐसे शब्द का हमारे मन मस्तिष्क पर हो तीव्र प्रहार
जो हमारी सफलता का खोले द्वार
हमें भी जीवन में ख़ुशियाँ मिले अपार...
★★★★★★★★★★★★★★★★       
      
     औरतें रिश्ते प्यार से निभाती हैं...

गेहूँ काटती और धान रोपते हुए गाना गाती 
औरतें कितनी सुंदर लगती हैं...
किचेन में खाना बनाती, बच्चों का टिफिन बनाती, 
बच्चों को तैयार करती औरतें कितनी अच्छी होती हैं...
मकान को सजाकर घर बनाती औरतें 
कितनी अच्छी लगती हैं...
सास, ससुर, ननद, पति, बेटे के लिए दिन भर 
काम करने वाली औरतें कितनी सहनशील होती हैं...
घर का काम निपटा कर समय से नौकरी करने जाने वाली औरतें कितनी जिम्मेदार होती हैं...
सुबह चाय, बच्चों का टिफिन, खाना बनाना, 
कपड़ा सफाना, बिस्तर लगाना, 
बच्चों को खाकर सुलाना फिर देर रात से सोना 
औरतें रोजाना कर जाती हैं...

यहीं नहीं बात खत्म हो जाती है बल्कि...
औरतें घर का सामान, सब्जी, दवाई और
आवश्यक सामान भी खरीद कर लाती हैं...
अनपढ़ जाहिल पुरुषों से औरतें गाली, मार 
और दुत्कार भी पाती हैं...
फिर भी औरतें रिश्तों को प्यार से निभाती हैं...
संबंधों को कितने करीने से सजाती हैं..
आजकल औरतें घर के साथ-साथ 
अन्य सामाजिक दायित्वों को भी निभाती हैं...
अंतरिक्ष से लेकर पहलवानी में दांव आजमाती हैं...
सांसद से लेकर गाँव की प्रधान तक बन जाती हैं..
महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी और महाश्वेता जैसी 
प्रतिष्ठित साहित्यकार हो जाती हैं...
पी टी उषा, शाइना नेहवाल, पी वी सिंधू, मीराबाई चानू
लवलीना आदि खेलों में पताका फहराती हैं...

नारियाँ हर क्षेत्र में परचम लहराती हैं...
घर, समाज और देश का नाम और शान बढ़ाती हैं...
सोचता हूँ, विचारता हूँ कि यदि नारियाँ न होती?
पुरुषों के लिए जीवन कितना मुश्किल होता
जीवन कितना अस्तव्यस्त रहता
सच में नारी ही एक माँ, बहन, जीवनसाथी 
और दोस्त का निःस्वार्थ किरदार निभाती हैं...
अपने संतान को संस्कार देकर एक इंसान बनाती हैं...
हमारा संसार कितना खूबसूरत बनाती हैं...
हम कितने भी लैंगिक समानता की बातें करते हैं
आज भी औरतें अपना उचित अधिकार न पाती हैं...
घर और समाज में उचित स्थान नहीं पाती हैं...
★★★★★★★★★★★★★★★★★

लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
ग्राम- कैतहा, पोस्ट- भवानीपुर
जिला- बस्ती 272124 (उ. प्र.)
मोबाइल : 7355309428

सोमवार, 27 नवंबर 2023

मैं जोहिला : जोहिला के बहाने नर्मदा की कथा


अजय चन्द्रवंशी
आदिम मनुष्य की जिज्ञासा वृति और सहज वृत्ति अपने भौगोलिक परिवेश के अनुरूप मिथकों और लोक कथाओं को जन्म देती रही है। तत्कालीन ज्ञान की सीमाओं के चलते भी मनुष्य की द्वंद्व से मुक्ति की सहज वृति भी इन लोक कथाओं की उत्पत्ति का एक कारण रही है। प्रकृति का मानवीकरण भौतिक वस्तुओं पर चेतना का आरोपण  सार्वभौम है, और इसने कई दिलचस्प लोक कथाओं को जन्म दिया है। इन लोक कथाओं, लोक विश्वासों की तार्किकताओं की अपनी सीमाएं और अंतर्विरोध भी हैं मगर ये तत्कालीन जनमानस की मनःस्थिति और इतिहास के बहुत से संकेत अपने में छुपाएं रहते हैं और कई बार इतिहास के महत्वपूर्ण कड़ियों को जोड़ने का काम भी करते हैं।

माना जाता है कि इतिहास की 'मुख्य धारा' कई बार न्याय नहीं करती और बहुत बार जन सामान्य के नायकों की उपेक्षा कर जाती है, लेकिन लोक इन नायकों/नायिकाओं को पहचानता है और उचित महत्व देता है। बहुत से आदिवासी जननायकों या1857 के क्रांति के नायकों/नायिकाओं जिक्र 'मुख्य धारा' के इतिहास में नहीं मिलता लेकिन वे लोक कथाओं में अमर हैं।

इसलिए लोककथाओं/ विश्वासों में निंदा या सम्मान में चूक की संभावना अपेक्षाकृत कम होती है। इसलिए यदि लोकविश्वास नर्मदा के पक्ष में है और जोहिला और शोणभद्र को लांक्षित करता है तो मानना चाहिए नर्मदा के पक्ष में यह सहानुभूति अकारण नहीं है।
नर्मदा-शोण(सोन)- जोहिला की भौगोलिक स्थिति की विलक्षणता लोकमानस में इस प्रेम त्रिकोण की कथा को विकसित होने के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा करती है। एक ही जगह(अमरकंटक पहाड़ी क्षेत्र) से निकलकर नर्मदा (पश्चिम) और सोन(पूर्व) का विपरीत दिशा में प्रवाह जन मानस में दोनो में अलगाव की कथा सृजित होने के लिए उपयुक्त था। उस पर जोहिला और शोण का संगम ने प्रेम त्रिकोण का रूप लिया।
उपन्यासकार ने इस लोककथा को औपन्यासिक स्वरूप दिया है। वे उस परिवेश से जुड़े हैं और नर्मदा की लोक महत्ता से परिचित और प्रभावित हैं इसलिए उपन्यास का शीर्षक भले 'मैं जोहिला' है मगर कहानी मुख्यतः नर्मदा की है। ऐसा प्रतीत होता है जोहिला और शोण इस कथा के उपादान मात्र हैं और केन्द्रीयता नर्मदा की त्रासदी को व्यक्त करना है। यों लोककथा की सीमितता भी अधिक कहने का अवसर नहीं देती बावजूद लेखक ने अपेक्षित विस्तार का प्रयास किया है।
नर्मदा और जोहिला बचपन से सखी हैं। नर्मदा राजसी कन्या है और जोहिला सामान्य नागरिक की पुत्री फिर भी दोनो में गहरी मित्रता है। नर्मदा के व्यवहार से कहीं परिलक्षित नहीं होता कि वह ख़ुद को उससे या अन्य सखियों से उच्च मानती है। जोहिला भी कभी नर्मदा को गैर नहीं समझती या उसके राजसी कन्या होने से मित्रता में कभी असहज महसूस करती है। अवश्य युवावस्था की नैसर्गिक आकांक्षा जोहिला मे नर्मदा की अपेक्षा अधिक प्रकट होती है। नर्मदा के उदात्त चरित्र में यौनाकांक्षा भी संयमित है। यों जोहिला भी संयमित है मगर उसके अंदर नर्मदा के प्रति एक सहज मानवीय प्रतिस्पर्धा का भाव है जो अनायास प्रकट होते रहता है। वह कई बार महसूस करती है कि वह नर्मदा से अधिक रूपवती है मगर उसके अनुरूप उसे प्रतिष्ठा नहीं मिलती। जाहिर है इसका एक कारण सामाजिक स्थिति का अंतर भी है। मगर नर्मदा के अंदर कहीं पर श्रेष्ठताबोध अथवा जोहिला के प्रति प्रतिस्पर्धा भाव प्रकट नहीं हुआ है।

लेखक ने कथा का माध्यम जोहिला को बनाया है मगर हम कह चुके हैं पूरे उपन्यास में नर्मदा व्याप्त है। घटनाक्रम की नाटकीयता और प्रेम का द्वंद जो उपन्यास के आखिरी हिस्से में है वह सहज नहीं जान पड़ता। नर्मदा के कहने पर जोहिला का शोण को देखने जाना और प्रथम मिलन में ही प्रेम में पड़ जाना तथा हमबिस्तर हो जाना उतना सहज नहीं जान पड़ता जितना उपन्यास में उसका औचित्य सही सिद्ध करने का प्रयास दिखाई पड़ता है।
जोहिला का शोण को देखकर उसके मनुहार पर पिघलते जाना और आंतरिक रजामंदी कहीं गहरे उसके नर्मदा के प्रति अव्यक्त प्रतिस्पर्धा का प्रकटीकरण लगता है जिसकी झलक कई बार उसके अपने रुपाकर्षण के प्रकटीकरण से मिलती है। अवश्य उसमे हल्का सा द्वंद्व और 'अपराधबोध' दिखता है मगर वह उसके शोण के प्रेम निवेदन के आगे कुछ भी नहीं है। इससे विचित्र स्थिति शोण की है। वह कोमोमण्डल का राजकुमार है। अवश्य जागीर छोटी है, मगर है तो जागीर। वह रूपवान योग्य युवक है। नर्मदा के स्वयंवर की शर्त बकावली पादप लाने को कठिन परिस्थितियों में वह पूरा करता है। पूरी विवाह की तैयारी हो जाती है बरात नर्मदा के घर तक आ जाती है। शोण के मन मे कहीं कोई असमंजस या द्वंद्व नहीं दिखाई देता, जिससे लगे कि इस विवाह में उसके लिए कहीं कुछ गलत भी है। मगर जैसे ही वह जोहिला को देखता है। उसके रूप सौंदर्य पर मोहित होता है और तब नर्मदा के प्रति उसके बहुत से असमंजस प्रकट होने लगते हैं।
शोण जिसे प्रेम कहता है वह सामंती अभिरुचि से गंभीर रूप से ग्रस्त है। वह प्रथमतः जोहिला को नर्मदा के साथ भी पाने को तैयार है, उसके लिए यहां कोई दुविधा नहीं है। उसका यह प्रथम दृष्टि का प्रेम दरअसल 'प्रकृतवाद' से प्रभावित है जो प्रथम मिलन में ही यौन सम्बन्ध से प्रकट हो जाता है। शोण अपने नर्मदा के प्रति असहजता के लिए जो तर्क गढ़ता है, वह बेहद लचर है। ये सारे तर्क जोहिला को.पाने के भ्रान्त तर्क प्रतीत होते हैं। वह कहता है नर्मदा के परिवेश और व्यक्तित्व और उसके परिवेश में काफी अंतर है जिसका कारण वह नर्मदा और उसके पिता के साम्राज्य की विशालता और अभिजात्य परिवेश को बताता है और स्वयं उससे कमतर मानता है। फिर आगे अपनी कद-काठी को नर्मदा की अपेक्षा कम जानकर हीनता महसूस करता है। आश्चर्य है उसे ये बातें पहले ध्यान नहीं आती! फिर क्या दाम्पत्य में  छोटी-मोटी असमानताएं नही होती? फिर यह बात शोण स्वयंवर जीतने के बाद स्पष्ट कर सकता था जिससे नर्मदा को इस तरह विवाह मंडप में आहत नहीं होना पड़ता। इस सम्बंध में शोण का तर्क कि "जब मैं बकावली लाने के लिए निकला, तब तक मैंने इस सम्बंध में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं सोचा था!बाद में जब जब इस ओर गया, तब तक बहुत विलंब हो चुका था।" दूसरे के जीवन से खिलवाड़ की कीमत पर यह असमंजसता कमाल का है!
शोण के इस तर्कजाल का अगला तर्क यह है; वह जोहिला से कहता है "आप ही मेरे व देवी नर्मदा के मध्य आजीवन सेतु का कार्य कर सकती हैं"। नर्मदा से दूर भी रहना है और नर्मदा जैसी स्त्री(जोहिला) की चाह भी है! आगे वह जोहिला से कहता है "क्या यह सत्य नहीं कि मेरी भांति आप भी मूलतः जनकन्या हैं"? एक छोटा सामंत भी अपने को आमजन कह सकता है! इसमे बुराई नहीं लेकिन आगे का तर्क "क्या यह भी सत्य नहीं कि हमारी जोड़ी भी आदर्श होगी, क्योंकि मैं आपसे तनिक लंबा हूँ" कमाल का तर्क है दाम्पत्य के लिए पुरूष का स्त्री से कद में लंबा होना जरूरी (आदर्श)है! कहाँ प्रेम का उदात्त रूप जहां वर्ण, जाति, शारीरिकता, खत्म हो जाता है, और कहाँ यह शारीरिक नाप-जोख!
इस तर्कजाल में जोहिला का भी बराबर सहयोग है। कहती है "अपनी दुर्दशा के लिए नर्मदा परोक्षतः स्वयं दायी थी। मैने उसे कितना समझाया था कि विवाह जैसे नितांत व्यक्तिगत मसले को लोक कल्याण का उत्स न बनाये।....अब उसे आघात लगा तो वह उसका कारण खोजने के लिए स्वयं के अंतर में झांकने के बदले मुझे कोस रही थी...सोन के जीवन मे मैं नहीं आती तो कोई अन्य आता।"  इन सब बातों का ध्यान जोहिला को सोन से मिलने के पहले नही आया! माना विवाह व्यक्तिगत मसला है, मगर नर्मदा इसे जनकल्याण से जोड़कर कभी द्वंद्व में नहीं रही थी। वह अपना नायक जननायक चाही तो इसमे बुराई क्या है?फिर जिसने स्वयम्वर जीता उसे उसने सहज स्वीकारा। कहीं कोई दुविधा नहीं।न ही यह कोई बनावटी उपक्रम था। इसे बनावटी बताने का उपक्रम शोण और जोहिला कर रहे हैं। आगे एक स्थल पर जोहिला कहती है "यह यह ठीक था कि उसने(नर्मदा) अपने ही द्वारा पैदा की परिस्थिति का सामना ना कर उससे पलायन किया था, किंतु यह पलायन तो उसके जुझारू व्यक्तित्व के अनुरूप न था।" गजब का तर्क है अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध करने के लिए दूसरे पर दोषरोपण कर दो! यह परिस्थिति नर्मदा के कार्य से नहीं जोहिला और शोण के परस्पर यौनाकर्षण से पैदा हुई थी।

त्रासदी होनी थी, हो गई। जोहिला और शोण मिल गए। आहत नर्मदा उनसे दूर चली गई।जोहिला स्वीकारती भी है वह चाहती तो दोनों को नुकसान पहुंचा सकती थी, मगर उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि एक तरह से उनके रास्ते से हट गई। उसके व्यक्तित्व की उदात्तता कहीं क्षीण नहीं होती। केवल एक जगह दोनो को अंतरंग सम्बन्ध में बंधे देखकर कर आवेशित होती है और अपशब्द कहती है, जो परिस्थितिवश बहुत असामान्य नहीं है।
हमने ऊपर शोण और जोहिला के 'सहज प्रेम' के दावा को प्रश्नांकित करने का प्रयास किया है और 'प्रकृतवाद' से प्रभावित कहा है तो सम्भव है किसी को हमारे विवेचन में 'नैतिकतावाद' हावी दिखाई दे। इस सम्बंध में हमारा कहना है कि अवश्य प्रेम नैसर्गिक होता है, वह कहीं भी किसी से हो सकता है, मगर हर तात्कालिक आकर्षण जरूरी नहीं की प्रेम भी हो, उसमे ठहराव भी जरूरी है। प्रेम से शरीर जरूर अलग नहीं किया जा सकता मगर स्त्री-पुरूष के हर यौनाकर्षण को प्रेम नहीं कहा जा सकता। फिर मनुष्य ने अपने सामाजिक विकास के क्रम में उसके साथ कुछ मूल्य भी जोड़े हैं मसलन परस्पर समर्पण, त्याग, कर्तव्यबोध जो उसे और भी उदात्त बनाते हैं। अवश्य कई नकारात्मक मूल्यों ने सहज प्रेम में बाधा भी पैदा किया है, जिनके विरुद्ध प्रेमियों का संघर्ष हमेशा रहा है। हमारी समझ मे शोण और जोहिला का संघर्ष इन नकारात्मक मूल्यों के प्रति न होकर यौनाकर्षण अधिक है। आमुख में अनामिका जी ने लिखा है "पूर्णता का आदर हो सकता है पर उससे प्रेम पाना आसान नहीं, न ही उसके प्रेम का पात्र हो पाना आसान है। कहीं तो कुछ अधूरा हो तभी तो समर्पण की आस जगे। दो अर्धगोले ही मिलकर प्रेम का ग्लोब पूरा करते हैं-जैसे शोण और जोहिला ने किया।" इससे हमारी सहमति है मगर उपन्यास में नर्मदा का चरित्र उदात्त होकर भी मानवीय है और वह मानवीय आकांक्षाओं से भरी हुई है।अवश्य उसमे एक गरिमामय गोपन है। मगर विवाह के समय उसकी उत्सुकता उसकी मानवीयता को ही उजागर करती है।उसके व्यक्तित्व में ऐसी 'पूर्णता' नहीं है जिसमे कुछ भरा ही न जा सके और वह मानवीय आकांक्षाओं से परे हो।

लेखक ने संक्षिप्त कथा को औपन्यासिक रूप देने का बेहतर प्रयास किया है और उसमे सफल भी है। नर्मदा के चरित्र में उदात्तता है मगर उसका चित्रण मानवीय है। सिर्फ एक जगह भविष्यवक्ता साधु के संदर्भ में इसके दैवीय रूप की झलक मिलती है जो हमारी समझ मे कथा-प्रवाह के लिए सहज नहीं है। इस तरह नर्मदा के दैवीय रूप दिखाने से आगे की उसकी त्रासदी 'लीलामात्र' प्रतीत हो सकती है क्योंकि इससे वह भूत-भविष्य की जानकर प्रतीत होने लगती है।
बहरहाल लेखक लोकमान्यता की सीमाओं से बंधा है, उसे उपन्यास का विस्तार उस दायरे में ही करना है, बावजूद इसके उसने कथानक का विस्तार बेहतर ढंग से करने का प्रयास किया है।पाठकों का संवेदनात्मक जुड़ाव भिन्न-भिन्न अभिरुचि, व्यक्तित्व और संस्कार के अनुरूप भिन्न-भिन्न पात्रों से हो सकता है।

कृति- मैं जोहिला(उपन्यास)
लेखक-प्रतिभू बनर्जी
प्रकाशन- नमन प्रकाशन, नई दिल्ली


कवर्धा(छत्तीसगढ़)
  मो. 9893728320

लो..और कर लो विकास !

ग्लेशियर का टूटना और ये भूकम्प का आना
भूस्खलन,सुरंग धसना और बादल फटना,
सरकार और  कॉरपोरेट  जगत तो मानते हैं
ये सभी है महज एक सहज प्राकृतिक घटना !

इस तरह  की कई  हादसों का जिम्मेदार है
विकास की भूख और कई-कई परियोजना ,
होटल,रिसॉर्ट,पुल,बांध,विभिन्न अवैध खनन
और  अनियंत्रित  मानव बसाहट का होना !

कई नाजुक पहाड़ों में बाँध,बैराज का बनना
नदियों  के  कई अविरल प्रवाह को  रोकना ,
पहाड़ों का पारिस्थिकीय तंत्र को बिगाड़ कर
पहाड़ को खोदकर,खतरनाक टनल बनाना !

कई-कई किलोमीटर का सुरंग को बना कर
पूरा का पूरा पहाड़ खोदकर खोखला करना,
दैत्याकार क्रेन,भारी-भारी निर्माण उपकरण
चट्टानी सीने को बारूद से उड़ाना व तोड़ना !

नदियों से बेतहाशा रेत खनन,प्लांट लगाना
पेड़ों की कटाई कर,पहाड़ों में ड्रिल करना,
इन सभी का जिम्मेदार कौन है ? हम ही हैं
ये मानव  निर्मित  परिस्थितियों का  होना !

कुदरत के हत्यारों अब सम्हल भी जाओ तुम
विकास के आड़ में इतना भी दोहन न करना,
अभी एक ज्वलंत उदाहरण हैं हमारे सामने
इकचालिस  मजदूरों  का सुरंग में फँसे होना !

       
 
-- राजकुमार 'मसखरे'

घर से बाहर

 रतन लाल जाट
शंकर अभी तक सोया हुआ था। सुबह के आठ बज चुके थे। कमरे के अन्दर सूर्य की किरणें प्रवेश कर चुकी थी और छत के ऊपर पक्षी चहचहा रहे थे। बाहर गली में लोगों का आना-जाना शुरू हो चुका था। बस-स्टैंड की तरफ से गाड़ियों के हॉर्न की आवाजें साफ सुनायी दे रही थी।
बी.ए., बी.एड. के साथ हिन्दी एम.ए. करने के बाद सरकारी नौकरी की तलाश में आकर शहर में पढ़ाई कर रहा है। साथ ही प्रतिदिन दो-तीन घण्टे कोचिंग भी जाता है।
शंकर के साथ उस मकान में अलग-अलग कमरे में चार-पाँच अन्य लड़के भी रह रहे थे। उन लड़कों में सबसे छोटा लड़का दसवीं कक्षा में, तो सबसे बड़ा लड़का कॉलेज तथा अन्य दो-तीन लड़के बिना किसी विशेष उद्देश्य के कोई न कोई नौकरी हासिल करना चाहते हैं। इसलिए यहाँ आकर पढ़ाई कर रहे हैं।
“शंकर! तू अभी तक नहीं उठा है। चल उठ, हम चाय बनाकर पीते हैं।”
“नहीं, थोड़ी नींद और निकालने दे। अभी दिन उग गया है क्या?” करवट बदलते हुए शंकर ने कहा था।
नारायण शंकर के ही गाँव का रहने वाला है। जो अभी कॉलेज में हैं। दोनों एक ही कमरे में न रहकर अलग-अलग कमरे किराये रखकर पढ़ाई कर रहे हैं।
सभी के लिए रसोई एक ही जगह है। जहाँ सब अपनी-अपनी बारी के अनुसार चाय-खाना-सब्जी आदि बनाते हैं। कभी कोई एक चाय समय पर नहीं बनाता है। तो पूरे दिन रोटी-सब्जी आदि पर भी रोक लग जाती है या फिर कहीं कोई भोजन-निमंत्रण का इन्तजार होता है।
“तुमने अभी तक चाय नहीं बनायी है। ”
“तू तो सोया हुआ था। मैं चाय बनाकर क्या करता? थोड़ा पढ़कर वापस सोने की कोशिश की। लेकिन नींद नहीं आयी थी। इसलिए तुझे उठाया है।”
“सुबह-सुबह तो नींद बहुत अच्छी आती है और तुझे नींद नहीं आयी, क्या बात हुई है?” शंकर ने थोड़ा चिन्तित होते हुए कहा। तो नारायण ने बताया था कि- आज उसका ट्युशन जाना बंद हो जायेगा। कारण- दो महीनों की फीस बाकी है। अब उसे क्लास में नहीं बैठने दिया जायेगा। घरवाले आर्थिक तंगी में है। फिर भी अपने सपनों को साकार करना चाहते हैं। इसीलिए अपने इकलौते बेटे को शहर में पढ़ा रहे हैं।
दूसरी तरफ शंकर के पापा सर्विस में है। रूपये-पैसे का कभी कोई अभाव महसूस नहीं हुआ था। महीना होते ही शंकर कम से कम पाँच-सात हजार रूपये लड़-झगड़कर पढ़ाई के नाम पर पापा से छिन लेता है। इतना कुछ करके भी वह कोचिंग क्लास सप्ताह में एकाध बार ही जाता है और फीस पूरी देता है।
हाँ, एक बात और है कि शंकर को किताबें पढ़ने के बजाय खरीदने का शौक ज्यादा है। इसके अलावा और भी ढ़ेरों शौक है। जैसे- फिल्म देखना, सिगरेट पीना, बस-स्टैंड पर चक्कर काटना, नास्ता-वास्ता होटल इत्यादि।
नारायण के माँ-बाप की तरह शंकर के माँ-बाप का भी कुछ सपना है। लेकिन नारायण की तरह शंकर का कोई खास सपना नहीं है। शंकर कभी-कभी अपने साथियों को कहा करता है- “पढ-पढ़कर मैं थक गया हूँ। किस्मत होगी, तो नौकरी मिल जायेगी। नहीं, तो कितना भी पढ़ो, कुछ नहीं हो सकता।”
शंकर बिस्तर को समेटे बिना ही कमरे से बाहर निकला। हाथ-मुँह धोने के बाद चाय पीने के लिए स्टूल लगाकर बैठ गया। नारायण चाय लेकर आया, तब जाकर वह स्टूल से उठकर बाहर बाजार गया। वहाँ से कुछ सामान खरीदकर लाया। उसके पहले देखा, तो नारायण रात की बची हुई रोटी खा चुका था। लेकिन शंकर ठंडी रोटी खाने के बजाय भूखा रहना ज्यादा पसंद करता था।
“बहुत पढ़ लिया है। तू सब कुछ आज ही पढ़ेगा क्या? खाना कौन बनायेगा?”
नारायण पढ़ता हुआ किताब बन्द करके खाना बनाने के काम में जुट गया था।
रोटी सेकते हुए थोड़ा गंभीर होकर वह बोला- “तुम्हारे पास पैसे हो, तो थोड़े मुझे उधार दे दो। अगले महीने घर से मँगवाकर तुम्हें वापस कर दूँगा॥ आज मुझे ट्युशन फीस देनी ही है। वरना आज ट्युशन भी नहीं जा सकूँगा।”
“मेरे पास भी इतने रूपये नहीं है। मैं तेरे घर फोन कर देता हूँ। जो व्यवस्था करके रखेंगे। तो मैं दिन में गाँव जा रहा हूँ। उसके साथ ही लेता आऊँगा।”
“तो फिर आज मुझे कमरे पर ही रहना पड़ेगा।”
“हाँ, इसमें क्या बात है? एकदिन ट्युशन नहीं जाने से क्या नुकसान हो जायेगा?”
यह उपदेश देने के बाद शंकर अपने मोबाइल को हाथ में लेकर सहलाने लग गया। नेट चलाना, डॉउनलोड करना और ऐसे-वैसे फोटो-वीडियो देखना ही उसका शौक है।
इस मोबाइल ने शंकर की तरह कई लड़कों को आगे बढ़ने के बजाय पीछे धकेलने में अपना अहम योगदान दिया है। इसने रहन-सहन और आचार-विचार के साथ अश्लीलता, असभ्यता तथा अनगिनत गलत आदतों को जन्म दिया है।
उस वक्त शंकर के भविष्य पर प्रश्न-चिन्ह लग चुका था। जब वह कम्पीटिशन देते-देते पैंतीस पार निकल गया था और एक भी सफलता हाथ न लगी थी।
अब वह मैं कुछ भी कर सकता हूँ, जैसे कार्यों को अन्जाम देने की तलाश में रहने लगा था। इस बीच दोस्तों से झगड़ा, चोरी-डकैती और आवारागर्दी करने से बाज नहीं आया। अन्त में इन सबके जुर्म में सलाखों के पीछे जा पहुँचा था। इतना कुछ हो जाने के बावजूद माँ-बाप को भनक तक न थी।
एकदिन जब माँ ने यह सुना था कि- शंकर घर के बाहर रहते-रहते क्या से क्या हो गया? तो माँ के पैरों तले की जमीन खिसक गयी थी या यूँ कहे कि- उसके सारे सपने टूट गये थे। इन सपनों के साथ-साथ वह खुद अपने को टूटने से नहीं बचा सकी थी।

अफसर की चिड़िया

 हनुमान मुक्त

 मिस्टर खन्ना बडे अच्छे अफसर हैं, जिस ऑफिस में भी होते हैं, कार्मिक बड़े प्रसन्न रहते हैं। कार्मिकों को प्रसन्न करने के उनमें कुछ गुण विद्यमान हैं। यथा उन्हें ऑफिस के काम काज के बारे में कुछ भी मालूम नहीं।
वे जब नए-नए अफसर बने थे तो उनके साथियों ने उन्हें बताया था कि अफसर काम करने के लिए नहीं बल्कि काम करवाने के लिए होता है। किसी भी महकमे से कोई भी कागज आए उस पर संबंधित प्रभार का नाम लिखकर चिड़िया (लघु हस्ताक्षर) बैठानी होती है, वह कौन-से प्रभाग को मार्क करना है, यदि यह देखने में भी दिक्कत आए तो किसी अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू को इसकी जिम्मेदारी देकर काम चलाया जा सकता है। वे अक्षरशः इसकी पालना करते आ रहे है। संबंधित प्रभाग का प्रभारी जो भी काम करके लाता है और जहां भी ऑफिस की सील लगी हो वहां वे बिना कुछ देखे, सुने चिड़िया बैठा देते है। ऑफिस बड़े अच्छे ढंग से स्मूथली चल रहा है। उनके पेट का पानी भी नहीं हिलता, कार्मिक बड़े प्रसन्न है, अफसर उन्हें कभी नहीं डांटता, वे कब आ रहे है, कब जा रहे है, इसके बारे में भी किसी प्रकार की हील-हुज्जत नहीं होती।
मिस्टर खन्ना चिड़िया बड़ी अच्छी बैठाते हैं, ऐसा लगता है जिसे सचमुच की चिड़िया हो, जब उनके साथियों ने उन्हें बताया था कि कागज पर सिर्फ चिड़िया बैठानी है तो उन्होंने विधिवत एक पेंटर को घर बुलाकर चिड़िया बनाने की प्रेक्टिस शुरू कर दी थी, वो तो किस्मत से एक दिन उनका वहीं साथी उसी वक्त घर पर आ धमका जब वे चिड़िया बनाने की ट्रेनिंग ले रहे थे।
खन्ना से जब इसके बारे में पूछा तो उन्होंने साफ-साफ बता दिया कि वे उन्हीं के कहने से चिड़िया बनाने की प्रेक्टिस कर रहे हैं। खन्ना के भोलेपन पर उन्हें तरस आ गया। उन्होंने पेन्टर को घर भेजने को कहा। पेन्टर के चले जाने के बाद मिस्टर खन्ना को चिड़िया बैठाने का सही आशय समझाया।
चूंकि वे पहले से चिड़िया बनाने की प्रेक्टिस कर चुके थे, इसलिए अब उनके लघु हस्ताक्षर, चिड़िया जैसे ही लगते है। किसी भी ऊपर या नीचे के ऑफिस में उनका पत्र जाता है तो चिड़िया की बनावट देखते ही पता चल जाता है कि उनके ऑफिस का सारगर्भित पत्र है, जिस पर पूरी गंभीरता से ध्यान देना आवश्यक है।
उन्हें खेल, खेल मैदान, खिलाड़ी किसी के बारे में कोई नॉलेज नहीं है और ना ही वे किसी प्रकार की नॉलेज अपडेट रखना चाहते हैं। सरकार काफी दिनों से ऐसे ही अफसर की तलाश में भी। अरसे से खेल विभाग में अफसर का पद रिक्त चल रहा था, लेकिन कोई योग्य उम्मीदवार अभी तक नजर नहीं आया था।
उनकी कार्यशैली और योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें खेल विभाग में अफसर बना दिया। बहुत दिनों से सुस्त पड़े ऑफिस में अचानक जान आ गई। सभी कार्मिक उनकी चिड़िया बैठाने की शैली से अत्यन्त प्रभावित थे।
सभी महकमों में खेल कराने के आदेश जारी हो गए, जो बजट देना था वह भी जारी कर दिया। खेलों के नियम, कायदे-कानून सभी नियमानुकूल थे, उन्हीं नियमों के आधार पर उन्हें खेलों का आयोजन करना था। प्रत्येक प्रकार के खेल में प्रथम, द्वितीय, तृतीय टीमों को पुरस्कृत करना था। सभी को ताकीद कर दिया कि कुछ भी हो जाएं, लेकिन किसी ना किसी खेल में टीम अवश्य भाग लेनी चाहिए।
अन्य महकमों में भी खेलों के इसी प्रकार के विशेषज्ञ थे। कहीं भी खेल मैदान और खिलाड़ी नहीं थे। खिलाड़ियों के लिए प्रतिदिन जारी बजट भी ऊंट के मुंह में जीरे के समान था। प्रतिदिन दूध, नाश्ता, दोनों समय के भोजन के लिए मात्र पचास रुपए। बिना खेल मैदान और खिलाड़ियों के खेल भी होने थे और खिलाड़ियों का चयन भी।
मातहत ऑफिस के कार्मिकों ने इस बाबत् मार्गदर्शन मांगा। ऊपर से जवाब आया कि खेल का आयोजन आपसी सद्भाव और बंधुता बढ़ाने के लिए किया जाता है। आपसी समन्वय और सामंजस्य से खेलों का सफल आयोजन कर कर्त्तव्यनिष्ठ कार्मिक होने का परिचय दें। पत्र की मूलभावना को समझ कर नियत समय में कार्य कर पालना रिपोर्ट भेजें।
सभी मातहत ऑफिस के कार्मिक पत्र की मूल भावना को समझ गए। उन्होंने सभी स्थानों से खिलाड़ियों के आवश्यक दस्तावेज मंगवा लिए। कागजी खाना पूर्ति कर खेलों के आयोजन का उद्घाटन कर दिया।
वे खिलाड़ियों का कष्ट नहीं देना चाहते थे और ना ही सरकार की खेलों के आयोजन की मंशा को किसी प्रकार की चोट पहुंचाना ही।
जिस प्रकार ठेकेदार आपसी समन्वय से पूल कर ठेके को बाँट लेते हैं उसी प्रकार प्रत्येक महकमे से आए टीम प्रभारियों ने आपसी मेलजोल और सद्भाव का परिचय देते हुए सिक्का उछाल कर विजेता, उपविजेता एवं अन्य स्थानों का चयन कर लिया। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि प्रत्येक महकमे और प्रत्येक ऑफिस का किसी ना किसी खेल में अवश्य प्रतिनिधित्व हो।
नियत समय पर समस्त कागजी खानापूर्ति कर देय बजट को नियमानुसार व्यय कर खेल महकमे की भावना के अनुसार पालना रिपोर्ट भेज दी गई।
खिलाड़ी खुश थे, उन्हें बिना खेले ही प्रमाण पत्र मिल गया। खेल महकमा खुश था, उनकी प्रोग्रेस रिपोर्ट बिना किसी शिकवा-शिकायत के सौ प्रतिशत हो गई। मिस्टर खन्ना की कार्यशैली और चिड़िया के कमाल के कारण उनको सर्वश्रेष्ठ अफसर का खिताब प्राप्त हो गया। खन्ना के मातहत कार्मिक प्रसन्न थे। उनका अफसर और सारा महकमा खुश था।

 

गढ़तंत्र की झांकी

पंकज प्रसून
 
हमारे उत्तर आधुनिक संविधान ने इंसान को बनावटी बना दिया है और अधिकारों को मौलिक. ये अधिकार, अधिकारियों की बपौती, जन सामान्य की चुनौती और और लोकतंत्र के नुमाइंदों के लिए चरित्र की कसौटी हैं. यह बात दीगर है कि जब प्रवृत्ति गुणग्राही हो जाय तो चरित्र का विसर्जन करना ही पड़ता है. आज धांधली ‘धर्म और अर्थ ‘गुण’ का पर्याय है . इन्ही गुण धर्मों के आधार पर पद रूपी मोक्ष की प्राप्ति होती है. प्रस्तुत हैं ऐसे ही दृश्य.
वैधानिक चेतावनी-पात्र एवं घटनाओं को काल्पनिक समझने की भूल कदापि न करें.
दृश्य १-२६ जनवरी की सुबह
गणतंत्र दिवस की सुबह सेना की एक टुकड़ी, टिकाऊ पुर ओवरब्रिज से होकर गुजरी. धारा से संविधान रूठ गया और पुल किसी कानून की तरह टूट गया. ठेकेदार जेल में, चीफ इंजीनियर की छुट्टी, सरकार ने पिलाई जांच आयोग की घुट्टी. आनन-फानन में जांच आयोग की रिपोर्ट आयी. पुल टूटने का कारण तो मार्चपास्ट था. पुल की आवृत्ति का क़दमों की आवृत्ति से अद्भुत नाता है दोनों बराबर हों तो पुल टूट जाता है. विज्ञान की भाषा में इसे ‘रीजोनेन्स’ कहा जाता है. नतीजा. ठेकेदार बहाल. इंजीनियर खुशहाल, मेजर का कोर्ट मार्शल सैनिकों को सजा. भाई ये है असल गणतंत्र का मजा. असल में लोकतंत्र के टिकाऊ खम्भों पर बिकाऊ पुल बनाए जाते हैं. जिनसे समाज की इंजीनियर और ठेकेदार मन से लूटते हैं. वैसे भी पक्ष –विपक्ष के लेफ्ट-राईट से लोकतंत्र के पुल अक्सर टूट ही जाते हैं.
विकट रहस्यमय स्थिति है भ्रष्टाचार हमारे देश का राष्ट्रीय विचार हो गया है और घोटाले मोनालिसा की मुस्कान. भष्टाचार के संरक्षण, संवर्धन और पोषण के लिए ‘सतर्क भष्टाचार’ की लोकतंत्र में बहुत आवश्यकता है.
 दृश्य-२ गणतंत्र दिवस की दोपहर.
विरोधी पार्टी के किन्तु एक ही परिवार के भाई –भतीजे, चाचा-चाची एक ही छत के नीचे जमा होकर समतामूलक परिवार की अखण्डता का व्रत ले रहे हैं.
“क्यों चाची जी, मजा आ गया बीते वर्ष के चुनाव में. चित भी अपनी, पट भी अपनी. इस बार मैं पार्टी बदल रहा हूँ, आपको जिताने के वास्ते, आखिर कहीं तो ईमानदारी कायम होनी चाहिए. ”
“हाँ भतीजे , पत्नी को रणछोड़ पुर से खडा कर देना. वहां तुम्हारे चाचा विपक्ष में रहकर जीत दिला देंगे. अब तो जिताऊ पार्टी के लिए दलबदलू होना वांछनीय किन्तु डकैत होना अनिवार्य योग्यता हो गयी है. मुझे खुशी है की तुम इन मापदंडों पर खरे उतर रहे हो”
“ सब आपका आशीर्वाद है चाचीजी”
“भतीजे, मुझे तुम्हारे पिताजी से शिकायत है, वो इनदिनों स्विट्ज़रलैंड की बर्फ में फिसल रहे हैं, यहाँ उनका वोट बैंक फिसला जा रहा है. साल में एक बार रोज़ा-इफ्तार पार्टी कराते हैं, फिर ईद का ही चाँद हो जाते हैं. कार्यकाल का अंतिम साल है, आश्वाशनों और वायदों का मौसम आ गया है . ”
“आप चिंता का करें, अपनी बहन नैना है न. उसका बनावटी अपहरण किराए के आतंकवादियों से करा देंगे. फिर नैना को छोड़ने की एवज में साथी आतंकवादियों की रिहाई की मांग , देश के लिए बेटी की कुर्बानी का ढोंग, भावनात्मक नाटक, फिर एक आध फर्जी एनकाउन्टर, नैना की सुरक्षित रिहाई, जनता की संवेदनाएं यानी वोट बैंक पर कब्ज़ा. ”
“ह्वाट एन आइडिया सर जी, नेताजी के पीए का साथ सभी का जोरदार अट्टहास.
वाह रे गणतंत्र, तू तो वंशवाद के खात्मे हेतु बना था. पर तू तो परिवार के दलील दलदल में चूजे की तरह फंस गया है. देश और समाज विघटनशील पर राजनैतिक परिवार विघटनहीन हैं. ऐसे विघटनहीन परिवारों से अखंड राष्ट्र का निर्माण कैसे हो, यह समाजशास्त्रियों के लिए शोध का विषय है. इसके बावजूद जनता को यह देख अपने लोकतंत्र पर गर्व करना चाहिए कि नेताओं और अफसरों के बीच एकता, घोटालों को लेकर अखंडता, चोरी में समग्रता एवं कालेधन को लेकर संप्रभुता कायम है.
 दृश्य -३ गणतंत्र दिवस की शाम
छुट्टी के दिन छुट्टा घूमते रईसजादों की नशेमन टोली पूरे शबाब में.
“हिप हिप हुर्रे, यार नए साल के बाद इतनी मस्ती आज नसीब हुयी है. ”
“पर मस्ती अभी सस्ती है दोस्त, अपन तो महंगी मस्ती का आदी है”
“तो शुरू कर, आज तो आज़ादी है”
तभी उनकी वासनासिक्त नज़रें ट्यूशन पढ़ा कर वापस लौटती मध्यम वर्गीय सायरा पर पड़ गयीं. और उच्च वर्ग की नीचता परवान चढ़ गयी. सायरा पलट कर भागी तभी एक रईसजादे की चेतना जागी.
“यार गणतंत्र दिवस है, देश पर उपकार कर. आज कानून के दायरे में रहकर बलात्कार कर. ”
गिरफ्त में सायरा, और बगल में टीकमगढ़ थाने का दायरा. गणतंत्र की आवाज़ घुट गयी. आज़ादी संविधान के दायरे में रहकर लुट गयी. लोकतंत्र के उड़ते चीथड़ों के बीच सायरा मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज, महिला संगठनों का मुद्दा, परिवार का कलंक, संसद का शून्यकाल एवं समाज का शून्य बन गयी थी.
तभी आज़ाद हवाओं का एक तेज़ झोंका आया और सायरा का फटा दुपट्टा तिरंगे से लिपटकर चौक पर लहराने लगा.
तो यह थी गणतंत्र के अन्दर पल रहे गढ़तंत्र की झांकी.
पता-टी एम -15  सी इस आई आर कालोनी , टैगोर मार्ग लखनऊ 226001

चकरघिन्नी

 

 गीतांजलि श्री'
मैंने फिर कोशिश की। जैसे लेखन में करती हूँ। कि फिर शुरू करूँ तो अब के खत्म कर पाऊँगी। पर इतना ही हुआ कि जहाँ मुड़ना था तन लचपचाया, पल भर को पंजों पर डिगडुग सँभला, और फिर उसी रफ्तार से बढ़ चला।
एक फेरा और।
फिर एक और।
राउंड पे राउंड मैं मारे जा रही थी। बिना रुके।
मैं रुक नहीं पा रही थी।
चिल्लाऊँ? कि रोको मुझे? खींच के बीच राह? जैसे झूला झुलाती बच्ची बसमेरीबारी करती झूले को खींचती है और दाएँ बाएँ बाएँ दाएँ असंतुलित से झटकों के साथ झूले को रोक देती है। रुक...झटका...लचका... रुक गया।
पर मैं ठहरी बेहद प्राइवेट आत्मा। पुकारूँ? जोर से? अनजान किसी को? किसी को? सवाल ही नहीं! गोल गोल चक्कर मारती रहूँगी और उम्मीद करूँगी किसी की नजर नहीं पड़ी और रुक जाऊँगी जब रुक पाई।
वैसे अभी ठीक ही था, खास कोई नहीं देखने दाखने को, और पहिया भी तो द्रुत् से मंथर से थम तक आते आते आता है! आदमियों की टोली निकलनी शुरू ही हुई थी, फ्लैटों के बीच के लॉन में जमा होने पर अभी इतने चौकन्ने नहीं थे कि देखें एक निवासी लगी हुई है फ्लैटों के चारों ओर सैर में!
ये मेरी मॉरनिंग वॉक, दिन प्रतिदिन की। और आदमियों के निकलने की घड़ी मेरे लौटने की।
बस यहीं जरा सा लोचा हो गया आज। पैर एकदम से थम नहीं पा रहे थे।
मैं उनके रुकने का इंतजार करने लगी।
आदमी ताली बजाने लगे। अपनी बाकी टोली को जगाने।
एक मल्टी स्टोरी से दूसरी मल्टी स्टोरी के बीच की खुली जगह में उनकी तालियाँ और जोर से बजतीं। ये तो कोई बात नहीं हुई! क्या करूँ, गेट खोल के बाहर निकल जाऊँ और किसी दूर के पार्क में अपनी इस चक्रगति को ठिकाने लगाऊँ?
पर दूसरे पार्कों में जाना कब का बंद कर दिया था। और उस बेफिक्री को कि छोड़ो पीछे बंद दीवारों की तूतू मैंमैं और छानो दुनिया को, उठाओ फाटक का पल्ला और निकल पड़ो।
फाटक पर अभी ऊँघा समा बाकी था। गार्ड रूम का दरवाजा अधखुला था और टेबल फैन की आवाज आ रही थी। सो रहा होगा!
खंबे पर बत्ती ऑफ हो गई।
जग रहा होगा!
तो मैंने अपनी गैरइरादा चाल बाइरादा बनाई और फाटक के सामने से फट फट निकली। कौशल से मोटर गाड़ियों के बीच दाएँ बाएँ बाएँ दाएँ जैसे नौका चालन करती। जरा सी जगह और उस पर गाड़ियाँ!
हर बार सोसायटी मीटिंग में छिड़ती कि गाड़ियाँ यहाँ न ठूँसो, फाइन लगाओ, पहली पर कम, दूसरी पर ज्यादा, और बीच की एक अकेली हरे रंग की कहलाने वाली जगह को सीमेंट सपाट करके कार पार्क बना दो और क्या करेंगे अगर आधी रात में एंबुलेन्स बुलानी पड़े, फ्लैट से गेट तक मौत की गारंटी, रात को दिल का दौरा न पड़ने दो?!
इतनी सुबह भी नहीं, मैंने मुचामुच गाड़ियों के पार जाते हुए तय किया। हालाँकि सवेरा हरकत की तैयारी में आ रहा था। ड्राइवरों का आना शुरू। कोई इंजन रिरिया उठा, गाड़ियाँ धुल पुँछ रही हैं। बच्चे स्कूल जाएँगे, और जनता काम पे। ये सब हो हवा जाए, फिर आने दो दिल के दौरे शौरे!
पर अभी मेरी चिंता हार्ट अटैक नहीं थी, मॉरनिंग वॉक थी, जो रुकना नहीं चाह रही थी और कभी भी सब देखने लगेंगे। ऐन वही चीज जिससे बचने के लिए मैंने बाहर जाना छोड़ दिया था और अपनी ही सोसायटी में चलना शुरू कर दिया। मुँह अँधेरे, जब सोसायटी वाले अभी सोते हैं। और मैं नहीं दिखती। न उनको, न खुद को।
क्योंकि उन्हें दिखो तो खुद को भी दिख जाते हो!
सामने वाला दिखा देता है हमें हमारी छवि! उसकी आँखों में आ जाता है कि लड़की तुम्हारा काजल बाढ़ हो गया, मैडम आपका ब्रा स्ट्रैप कहाँ भाग रहा है, और बाल हुए जाते हैं सफेदी की जय जयकार, और पेट तो कपड़ाफाड़ आजादी पर तुल गया, और वैसे ये किस ढब के कपड़े पहनती हैं आप, न जनाना, न मर्दाना, न पूरब, न पश्चिम!?
हँस भी लेती थी उनकी आँखों में अपनी तस्वीर देख कर। किस खाँचे में डालें मुझे, वे समझ नहीं पा रहे, और अगर अपने अजूबेपन पर इतराती नहीं, तो भी बुरा तो नहीं ही लगता था मुझे। इन फाटक वालों का इधर उधर खिसक जाना कि कैसे तो इसका अभिवादन करें!? गार्ड, प्लंबर, बिजली चैप, धोबी, सारे के सारे जो हाउजिंग सोसायटी की मरम्मतबाजी को थे। न 'माता जी नमस्ते' बनता, न 'बहन जी नमस्ते' मुँह से निकलता, न ही 'गुड मॉरनिंग डॉक्टर साहिब' या 'सर जी' कह पाते, जो उनके लिए था जो आदमियों वाली नौकरी करने लगी है। पर लेखिका, अनजानी, और रंग ढंग उलझट्टा!
मैं ही मजा लेने को आँखें मिला देती और वे ऐसे देखना चाहते कि जैसे मैं हूँ ही नहीं!
आज मैं हूँ गोल गोल!
बजरी पर जूते फटकारती मैं फिर वापस। मैं फिर आगे। लेफ्ट राइट लेफ्ट राइट।
कुछ कारें तो निकल गईं। बजे बजरी। हाँ ये जगह पिछले चक्कर में नहीं थी।
हेज के साथ साथ।
बजे बजरी।
कोने पे इकलौता पेड़। सेमल। लाल लाल फूल बरसाता है। मैं कुचलती हूँ। तुम गिराओ, मैं हर राउंड में कुचल दूँगी।
हेज से लगी मैं चल रही हूँ। गिलहरी भी बाउंडरी के तार पे। गिलहरी और मैं! चलते हुए। बढ़ते हुए।
अगले पेड़ तक। मुर्झल्ला आम। फफूँदी सा बौर। महक जरा जरा।
फिर हेज जिसे सब हरियाली कहते हैं।
अगला कोना। पीपल का पेड़। उसकी जड़ से फूटे हैं नए पत्ते और पुराना मंदिर। उसके नीचे से फिर घूमो। वर्तुलाकार घुमाव।
फिर फाटक। मेरे बैरी ये दो पैर। मेरा चकरघिन्नी मन। मेरा बजरियाता तन।
तालियाँ रुक गईं। माने पूरी मंडली पहुँच ली। इमारतों के बीच से मैंने कनखी मारी। हाथ ऊपर। हरी ओम की गुहार अब होगी। हरी ओम हरी ओम।
अब मैं थकने वाली हूँ मुझे लगा। अब लोग देखने वाले हैं यह भी।
लोगों का देखना मुझे सख्त नापसंद है। अपना अक्स उबाऊ हो जाता है। उस ऊब से बचने के लिए भीड़ में खोने की मंशा उठती है। भीड़ में खोने के लिए साड़ी, शलवार कमीज, ऐसे सबके जैसे कपड़े, डाट लेते हैं। डाट के सोचते हैं अब निश्चिंत होकर किसी भी पार्क में जितना भी चाहो भ्रमण लगा सकते हो। सेहतअंगेज सैर कर सकते हो।
क्योंकि
सैर तो करनी ही थी। सब करते हैं। इसमें मैं सबके जैसी हूँ!
लिहाजा उम्र जो भी, लिंग जो भी, वर्ग जो भी, हर भेद जो भी, सबके सब करें वॉक। वॉक वॉक वॉक। कोई करे जॉगिंग, रीबॉक और नाइके में। दूसरा उठाए बाँहें सतर और मार्च अनंत। कोई बनाए बाँहों को चप्पू, कोई बनाए चक्कू। कोई चले, रुके, सिर पे खड़ा हो जाए, फिर चल पड़े। पर चलें सब के सब।
मैं भी, अनुदिन, लगातार, बिला फेल, बिला रोक, कभी कभी बिला रुक! हरी ओम हरी ओम की पुकार से लगभग ताल मिलाती। ऐसे जैसे कभी नहीं रुकूँगी, चलती रहूँगी, सैर तंद्रा में चली गई हूँ और चलती जा रही हूँ।
वैसे
मैं गजब की वॉकर हूँ। मगर जैसे लेखन में खुद को देखते हुए नहीं लिख सकती, यानी कोई देखता हो तो, उसी तरह चलना भी टूट जाता है अगर खुद को देखने लगो। यानी कोई देखने लगे।
चलना मेरे लिए जैसे लिखना।
जैसे मेडिटेशन। ध्यान। एकतान। वॉक-बिंदु पर अंतर्नेत्र फोकस। वॉक वॉक वॉक। बिंदु केंद्र। वॉक वॉक। बिंदु गायब। बस वॉक। अंदर बाहर बजरी की धुन। बन गए वही ध्वनि। बिसर गए गर्दिश में। ब्रह्मांड में समाहित।
मगर
मगर तब जब कोई देखे नहीं। वर्ना उकता जाओगे अपनी झलक से। थक जाओगे अपने अक्स से। कपड़े बदल डालोगे तो भी वह सामने होगा। आखिर ठोढ़ी का ढब और कंधे मचान तो वही पुराने रहेंगे! लोग भी पुराने होंगे। हैरान, परेशान, नजर भोंकू, नजर भौंकू।
एलर्जी हो जाती है। किसी को अंडे से। किसी को धूल से। किसी को घूरे जाने से, जैसे मुझे। तब करना पड़ता है घेरे को छोटा और अब यहाँ ही चलती हूँ।
सुबह सुबह। जब अँधेरा अभी पसरा पड़ा है। पहले कि उजाला दुनिया को नंगा करे और वह मुझे।
रुका जाए, मैंने सहज स्वर में खुद से कहा।
मानो मालूम नहीं कि बार बार यही कोशिश तो कर रही हूँ! हरी ओम जाने कब से। कहीं दरवाजा कोई खड़का, किसी की कमीज का रंग चमका, और मेरी चाल मुस्तैद; आगे पीछे नजर खाली ओर मैं फिर, फिरफिरफिर,
रुकजाबायाँ पैर - थमजादायाँ पैर। जरा डगमग और फिर आगे!
अभी भी लेकिन मैं धीर ही थी। झट घबराने लगूँ ऐसी नही हूँ। धुकड़ पुकड़ को केचुआ मान भीतर अँधेरे में लुका देती हूँ और धीर गंभीर चलती जाती हूँ। बशर्ते कि उसके बारे में सोचूँ नहीं। चूँकि सोचा नहीं - जैसा केचुआ चाह रहा था - कि वह सर्प बनके उछल आएगा। और मुझे पूछना पड़ेगा। कहीं है तो नहीं यह घबराने लायक स्थिति?
इसका जवाब मैंने मुल्तवी कर दिया था।
फाटक फिर आ गया और गार्ड मुझे देख बाअदब खड़ा हो गया।
वाह, लगातार सामने पड़ने ने मुझे सलाम पाने के काबिल बना दिया।
सलाम, मैंने सर हिलाया, वेग से आगे निकलने के पहले, पर, तभी समझ आ गया कि वह डे गार्ड से ड्यूटी बदलने उठा था, बस!
हरी ओम वाले हँसने लगे। हाथ ऊपर आकाश की तरफ उठा कर। गाल फुलाके, मुँह फाड़ के। पागलों की तरह। ठहाकों से सेहत बनाते।
हा हा हा हा हा!
हो हो हो हो हो!
हि हि हि हि हि!
हु हु हु हु हु!
मुझ पर नहीं।
न...हीं...?
मुझ पर तो नहीं!
इमारतों के बीच से उनकी हँसी मेरा पीछा करती। मैं रल्ला सी निकल जाती। एक कउवा साथ साथ फुदकता चला। तू भी हँसता है? घूरता है? डरता नहीं। देख कउवे, तेरे देखने पे कोई गुरेज नहीं, मैं गोल गोल चलूँगी।
लोग और निकलने लगे थे।
मैंने चेहरा सँभाला, पैरों को धिक्कारा, शर्ट नीचे खींची, हाँ घुस गई थी नितंबों के बीच, गर्मी भी तो उठान पर थी, और मैं चलती रही। गोल पे गोल। हेज से सटी बजरी पे, मल्टी स्टोरी इमारतों के चारों ओर। सेमल से आम से पीपल से फाटक से सेमल से आम से पीपल से फाटक से...। रेस करो तो सात मिनट का राउंड, सौम्य चलो तो दस, बुढ़ऊ बनो तो आधा घंटा तक। एक राउंड पाँच सौ कदम। दो हजार डग पूरे तो एक मील पूरा। और सौ कैलोरी कम और दिल फेफड़े त्वचा की दमक ज्यादा, जरा कुछ तो, बुढ़ापा दूर सरक जाए, जरा मरा तो, उमर बढ़ ली, मिनट दर मिनट, और नींद हो गई गहरी, मीठी, घूम के लौट जाओ जब।
सब चंगा मानो, मैंने आतुरी दबाई, और चलती चलो, ठोढ़ी राइट, कंधे मचान, बाँहें मार्च ऑन, साँसें घमासान, पैर निर्दयी, पैर बेईमान।
और सुनो, किसी को क्या पता मैं कब से यहाँ हूँ? जो स्कूल बस पकड़ने निकली है उसने एक ही पलक तो देखा मुझे और गई। वे ऑफिस को चले, देखा, गए। अखबार वाले ने अपनी बाजीगरी आजमाई, देखा, और गया। जब जिसने देखा उसी पल मैं निकली हो सकती हूँ। घूमने। आपस में दरियाफ्त करेंगे कि तुमने कब देखा और हमने कब?
हाँ जी, मैंने तभी शुरू किया है जब आपने देखा!
इतना ही जरूरी बस, कि अपनी शुरुआत का चिट्ठा न खुलने दूँ। घंटों पहले - या और, मुझे क्या पता - का।
मंदिर की बगल से निकली, अपनी टाँगों और अपने परिवेश से तारतम्य बने होने का भाव ओढ़े और बेधड़क घूमती रही।
गुड मॉरनिंग, कोई बुदबुदाया। मैं जोश से पास से निकली। आज सारा गोश्त-ए-थुलथुल झटक देने की ठानी है, ऐसे!
कुछ मैं भी बुदबुदाई पर हम अलग हो चुके थे। मैं सेमल के नीचे थी जहाँ से मुड़ना पड़ता है।
रुकने की कोशिश नहीं की। कहीं वह देख रहा हो मुड़ कर? शर्ट खींची, फिर तो नहीं अंदर? लुढ़कती चली।
जैसे कंकड़।
चोर निगाह इधर उधर। आगे बढ़ो लेफ्ट राइट। अगला मोड़ यानी अगला पेड़ आम का मिरगिल्ला। तीव्र घुमाव धीमा चलो। मुड़ने का टाइम यानी रुकने का टाइम यानी कोशिश का टाइम यानी बेमुरौव्वत इन टाँगों से उम्मीद करने का टाइम यानी कोशिश तो की, धीरे भी हुई, रुकी पर नहीं। चुन्नी सी फड़फड़ा के आगे।
मैं कंकड़, मैं चुन्नी, चकरघिन्नी, फिरती गोल गोल सोसायटी के भीतर और
अबक्याकरूँ?
इतना साफ हो चुका था कि जिसे मैं रुकती गति समझना चाह रही थी वह था बदन का मोड़ पर डुगडुगाना कि बजरी के संग संग घूम लूँ वर्ना जा लड़ूँगी तने से या फाटक से या खंबे से।

यह मगर मैं जानती हूँ कि कोशिश मैं किए जा रही थी और वो कोशिश यह भी थी कि सर्प केचुआ बना चुपका रहे और चेहरा मेरा शांत रहे। एस ब्लाक की लेखिका, तंदुरुस्त, फुर्तीली, तंदुरुस्ती और फुर्ती बरकरार रखने मॉरनिंग वॉक में पिली हुई और इसमें अजीब क्या है?
इसमेंअजीबक्याजनाब?
मतलब मामला संतुलन का। संतुलन बरतने का। संतुलन दरसाने का। रुकने की नाकाम कवायद और सर्राटे से चलते पैरों के बीच सहजपन की डोर खींचने का।
कि सहज और बामकसद है ये होना - लट्टू, धूमकेतु, औरत।
सहज ये घूमना। सहज ये स्पिन।
हाय कि जो कर रहे हैं उसमें सहज रहें।
सहज दिखें।
सहज महसूसें।
सहज हो जाए तेरी आँखों में छवि मेरी।
सहज है ये, का प्रस्ताव रखें नया और यू.एन. उसे मंजूर कर दे।
थका देती है यह सहजपन की चाह।
मैं थकने लगी थी। तन में कम, मन में अधिक।
प्रश्न यह भी कि कितना वजन आज ही छिजाना है और चाहती भी हूँ मैं ऐसा वाह वाह फिगर?
हाय, सुस्ता लेने दो मुझे जमाने की भीड़ में छिप कर, मेरी थकी आत्मा की पुकार।
हँसना बंद हो गया। अब योग शुरू था। फ्लैटों के बीच से मैंने देखा। जैसे एनिमेशन फिल्म। टुकड़ा टुकड़ा जुड़ के बनती। अब नाव। अब मछली। अब साँप।
एक बूढ़ा आदमी, लाठी टेकता, कमर पे दोहरा झुका हुआ।
लाठी रखी।
सुस्ताया।
खड़ा हो गया।
टेढ़ा बकरा मगर सीधा।
रीढ़ लहरिया मगर सीधी।
सिर आकाश को, पाँव धरती पे।
मैं हैरान।
इधर वर्जिश, उधर वर्जिश।
मैं हैरान।
एक औरत कौन सा जानवर बनी है?
उकड़ूँ बैठी।
टाँगें उलटाए।
उलझाए।
पाँव कान पे, सिर पाँवों के बीच।
हथेलियों पर टिक के झूल रही है।
अगले राउंड में देखा वह जॉगिंग सूट में।
अगला राउंड, कहाँ गई?
अगला राउंड, झाड़ के पीछे जॉगिंग सूट तहा रही है।
अगला राउंड, गार्ड की ड्रेस में।
अगला राउंड, कहीं आदमी तो नहीं?
अगला राउंड, तो क्या हमारी सोसायटी ने औरत गार्ड रख ली है?
अगला राउंड, तो क्या मैं सोचती हूँ मैं ही इस जमाने की औरत जो अलग कुछ करने लगी?
अगला राउंड, अपनी याद आ गई क्योंकि कब तक न आती कि पैर हमारे हावी हैं और बछेड़ीपन के चक्कर हैं। थकान लौट आई, दर्द भी और अनचाही नजरें भी।
बिलाशक अब नजरें बढ़ गई थीं। मेरी छवि उनमें पुरानी पहचानी। हैरत उनमें स्थायी कि ये कौन क्या किस चौखटे में फिट? डे गार्ड झेंप के अलग मुड़ जाता मेरे फिर फिर फाटक पे प्रकट होने पर।
लोग भी वे आ गए थे जो दिन भर ठहरेंगे - प्रेस वाला, सब्जी वाला, फल वाला, गेट के बाहर। अब यह इत्मीनान कैसे करूँ कि एक बार देखेंगे और चले जाएँगे बिना ये जाने कि कब से और कब तक यही रील चल रही है।
आपस में कानाफूसी भी करने लगे हों वर्ना ये कामवालियाँ घरों में घुस के उनकी बाल्कोनी पर 'नमस्ते मैडम' करने आज तक तो झाँकी नहीं! औरतें भी औरतों के संग अपना कुरेदूपन नहीं छिपा पातीं!
बहरहाल मैं कर ही क्या सकती थी सिवाय गोल गोल चक्कर मारने के? क्या मैं सब कुछ कर चुकी थी - दूर पार्क के बड़े घरों से लेकर उससे छोटे, फिर और छोटे, फिर पास और और पास के घेरे में, और वापस उसी बिंदु पर पहुँच गई जहाँ से भागी थी? वही राउंड राउंड।
एक वादा मैंने तब किया। कि यह जोखिम अब नहीं उठाने की। बहुत कर ली राउंड राउंड सैर। करना है तो फ्लैट में करूँगी, छोटा है तो क्या? दस चक्कर यहाँ जुड़ के कुछ बनते हैं तो पचास वहाँ।
अच्छा सौ।
चलो दो सौ।
जितने भी करूँगी, वहीं करूँगी, अपनी दीवारों की हिफाजत में।
और पाऊँ कि वहाँ भी रुक नहीं पा रही तो मार तो सकूँगी अपनी काया को जोर से दीवार में या सोफे में या अपनी मेज पे और खुशी से सिर फटने दूँगी और बहने दूँगी खून उस जगह जहाँ मैं लिखना प्रिफर करती हूँ और लहूलुहान मौत में घुस जाऊँगी, अकेली निश्चिंत।
यहाँ इतना भी हक नहीं मुझे। कि तने में, दीवार में, गेट से, लड़ जाऊँ, किसी तरह झटके से घूमने पे। ओमाईगॉड मैंने कल्पना की, कैसे हँसी मंडली योगा शोगा छोड़ मेरी तरफ दौड़ पड़ेगी और कितनी सारी आँखें एक संग मुझ पर झुक मुझे घूरेंगी और मेरा खून किधर, कैसे, बह रहा होगा और मेरे कपड़े और मेरी खाल और मेरा जबड़ा न जाने कैसे घुचे मुचे फटे? क्या मालूम मैं बच्ची की तरह सुबकने लगूँ?
नो, नहीं, मैं पब्लिक में नहीं रो सकती।
नहीं, नो, मैंने अपने को फटकार पिलाई, आँखों में उमड़ते आँसुओं पर। बिल्कुल नहीं पता था मुझे कि मैं कब से घूम रही हूँ पर स्पीड मेरी हवाई जहाज और ओमाईगॉड मैं थक गई थी, जिस एहसास पर आँसू फिर उमड़ने को हो गए।
लोग थे कि जो शुरू किया था, पूरा करके उठ पा रहे थे। हँसी, योग, सब पूरे हुए, गाड़ियाँ भी बैक हुईं, निकल गईं। मैं ही - न बैक, न ब्रेक।
कार पार्क बल्कि अब पार्क था भले ही बजरी का। खाली खाली।
मेरे जूते उस पर बजते।
बिना व्यवधान और घोर संकल्प से, लग सकता है, मैं चलती रही।

हरी ओम मंडली उर्फ हँसी मंडली उर्फ योग मंडली अब रामनाम कर रही थी। मेरी हर झलक पे वे चीखते राम नाम एक, राम नाम दो।
राम नाम तीन।
राम नाम चार।
मैं गोल गोल।
राम नाम सत।
राम नाम सत।
मेरे कानों को लगा।
तब वह उछला, फन उठा के, केचुए से साँप बन के? मेरे अँधेरों से निकल के, और सटाक मेरे चेहरे पर फैल गया फुफकारता - ये हो क्या रहा है? इसका अंत होगा क्या? इसका अंत होगा?
या मेरी जैसी औरतें बस शुरू करती हैं, फिर चलती रहती हैं गोल गोल गोल गोल! बड़े घेरे से छोटे से छोटे...
चूर चूर।
जैसा कि कोई भी मेरी दशा में होगा। चल रही हैं सुबह से, पौ फटने के पहले से, मटमैले उजाले की बढ़त में।
सुबह से अब तक कितने घंटे हो गए होंगे, मैंने सवाल किया?
जिस पर सवालों का अंबार लग गया। कि क्या सिर्फ सुबह से? कहीं कल शाम से? या कल सुबह से, या परसों से?
अब मैंने याद करना चाहा कि सैर पर निकलने से पहले क्या किया तो शायद अनुमान लगे कि किस टाइम - दिन? - से निकली हूँ? पर सहसा जो क्रियाएँ याद आईं वे आम थीं और उनका अलग कोई समय नहीं होता, विशिष्ट कोई पहचान नहीं होती। कि चाय पी, सोई, ब्रा पहना, हाजमे की गोली ली, त्रिाफला पानी में घोल कर पिया। सवाल फिर भी कि ये नितक्रम आज किए कि कल कि और पहले? हथेली मुँह के आगे रखी - चलते हुए और 'हाह' करके साँस छोड़ी और उसे नाक की तरफ फूँका कि मंजन सूँघ पाऊँ, कितना ताजा है, अंदाजूँ?
निबट ली, पेट पर हाथ रखा? हल्का है कि भारी? और सू सू? ब्लैडर कहाँ है, हाथों से खोजा?
जो अच्छी सूझ नहीं थी, क्योंकि सू सू अभी ही किया हो तो भी वह याद करते ही फिर आ जाती है! सू सू, जम्हाई, अलादीन का जिन!
अब क्या, चक्कर काटते काटते पूछने लगी, इस नई सूसूलगीहै को मैं कहाँ बिठाऊँ?
बेवकूफीप्रद बात से बेहतर कुछ नहीं किसी ट्रैजेडी को मुकम्मल बनाने के लिए। दर्द का लिबास बार बार जोकराना होता है। नब्बे बरस की बुढ़िया अपनी नातिन की शादी के लिए तैयार हो रही है और झुर्रियों की लड़ियाँ पहने अपनी गरदन पर बहू बेटियों के हार ट्राई ऑन कर रही है, ये पहनूँ कि ये, जैसे उसके गले को निहारने बरात आएगी! आखिरी साँसें गिनता मरीज रेडियो थेरपी में ढेर हो रहा है पर जिद ये कि अलग रंग और डिजाइन की टोपियाँ लाओ, जो फबेगी वह मेरे बाल उड़े सिर को चाहिए। और हम, जो निकले इस दिन घूमने और घूमे ही जा रहे हैं और सू सू भी आ रही है!
ऐसी करुणा महिला वर्ग के प्रति कभी जो पहले मुझमें भरी हो? वॉक और ज्वारभाटा सी उफनती दबती लहर। काश कि बूँद बूँद चुआती बढ़ सकती इस विद्रोही सैर में!
आदमी भी, मुझे पता है, इस चपेट में मुश्किल में होता। पर यह भी हो सकता है कि आदमी होती तो इस स्थिति में ही न होती? नहीं, सच्ची! बार बार हालात के फेर में निकल न जाना पड़ता। निकल के घूरती नजरों से मुकाबला न करना पड़ता। चूँकि किस आदमी का ब्रा स्ट्रैप झाँकता है या ऐसा कुछ? उस पार्क से, इससे, पास, न लौटना पड़ता। अँधेरे पल, लुके कोने, ढूँढ़ने न पड़ते, जो करना था, उसे करने। जो करना था वही करना न पड़ता!
टट्टी पेशाब से मात खाई औरतों से ढेरों हमदर्दी के संग मैं चलती रही। मेरी मॉरनिंग वॉक में नया रुख आया, कह सकते हैं। कहाँ दबा के रख लेती हैं जब इस तरह दिन और लोगों के उजाले में होती हैं हम सब?
यह तक सूझ उठा मुझे, चलते चलते, - अब इसे दोहराने की जरूरत क्या? - कि मान लो देवी सीता पर भी यही मुसीबत आन पड़ी हो? लग आई और जाना था? जब किस्सा चरम पे था? पति बूँद बूँद बेइज्जती कर रहे थे?
दुख, जलालत, तिरस्कार की गरिमामय लपेट भी जोकराना! हिंदू देवी, हिंदू नारी, पतिव्रता, सेवारत, हाथ जोड़े खड़ी है, चेहरा अपमान में नहाया हुआ, माँ जननी फट पड़ो, मुझे, मेरी लज्जा के साथ, छुपा लो। वह नीचे गईं मगर ऊपर हो गईं, राम ऊपर थे मगर नीचे गिर गए!
पर
उस अभिमानी पल में उन्हें मेरी तरह लग आई हो? लज्जा बढ़ न जाती? विनती और विनीत न हो जाती?
फिर भी वे खुशनसीब कि छिप पाईं महान आत्मसम्मान के मुलम्मे में।
मगर मैं? क्या गरूर माथे पर पोतूँ, उजली धूप में जोकराना गति से गोल गोल चलती और ब्लैडर को बंद रहे... बंद रह... काबू...काबू...।
पैंट नीचे करके कूदूँ? क्योंकि कूदना तो पड़ेगा, मेंढक की तरह, क्योंकि पैर ये खुदगर्ज, दया धर्म दिखाने से रहे, एक पल अवकाश भी न देंगे?
तो फिर एक ही बात हो सकती थी... पर कैसे कहूँ... नहीं, नहीं कह सकती... नहीं... अपने से भी नहीं... कान बंद...। ...!
बस चलते चलते चलती रही और पल पल और गरम होते सूरज ने बाकी जो करना था किया।
हाँ, सूरज उरूज पे था और धूप बढ़ गई थी। लोग मगर घट गए थे। शुक्र है! क्योंकि अप्रैल की दोपहरों में कोई, कब तक, बाहर रहेगा? वही जिसके पास कोई चारा न होगा! गेट वाले भी छायेदार सायों में बचे खुचे हो गए। धोबी, दुकानदार, सब। माली ने तय कर लिया कि लॉन, बाग, सारे की निराई, गुड़ाई, पानी हो चुके, अब सो लो। सुबह वाला व्यस्त वेग नहीं रहा।
मुझमें छोड़ कर! या मेरे पैरों में। जो ड्यूटी की तरह कायम थे। ड्यूटी में निर्लज्ज, मेरे संकोच पे हिकारती। चलते रहे, चलाते रहे।
पैरों की क्या कहूँ जब वे मेरे होकर भी मेरे नहीं, पर मैं (वैसे अब सोचती हूँ कहाँ हूँ मैं, पैरों में नहीं, दिल में, माथे में, पेट में, पैरों में तो नहीं?) शिद्दत से महसूस करती हूँ जो भी मैं महसूस करती हूँ। गर्मी का खयाल आ गया तो ढेरों गर्मी लगने लगी।
संभव है, क्यों नहीं, कि दिन चढ़ने का नतीजा था। महीना ग्रीष्म का, वक्त दोपहर का। घड़ी और कैलंडर तो बांधे नहीं थी पर कयास लगा सकती थी।
कहाँ चलूँ कि साया मिले? तीन पेड़ बाउंडरी पे! कोनों पर, जहाँ घुमाव आता था। कोशिश करने लगी कि पेड़ से पेड़ तक रेस करती जाऊँ (जो वैसे भी कर रही थी) नंगी हेज के संग संग, और पेड़ों के नीचे धीमी हो जाऊँ (जो वैसे भी होती थी)।
मैं साये से साये तक फाँदने लगी। जैसे जलती रेत पर एक परछाईं से दूसरी तक कूदते जाया जाता है। बीच के दरमियान को लगभग, पाँव बिना नीचे धरे, लाँघते!
क्या मैं उड़ती सी दीख रही थी? पेड़ से पेड़ से पेड़ तक?
पेड़ से पेड़ से पेड़ बस देखो और बीच की तचन मिटा दो तो तीन पेड़ क्या जंगल बन जाते हैं?
इस तरह चल रही थी मैं उस निष्ठुर अप्रैल के दिन, अपनी शुरुआत याद करने में असमर्थ और अपने अंत को पकड़ पाने में भी। तेज धूप में जलती, बचती, जलती...।
प्यास लगने लगी। पाइप दिखने लगा। या पाइप दिखने लगा और प्यास लगने लगी।
माली महोदय गमछा मुँह पर ओढ़े सो रहे थे, पाइप गमले के पास क्यारी में चलता छोड़! बिल्डिंग के बीच। मुझसे दूर मगर पास। मेरे पास फिर भी दूर।
हर बार दिखता। प्यास बढ़ाता।
तब मैं इस अभ्यास में लगी कि पाइप जहाँ था उस ओपनिंग पर गुजरते हुए दायाँ पाँव जरा और दाएँ फटक दूँ, नीचे रखने के पहले। नौकरी पहले मिल गई, हुनर बाद में सीखा! तो क्या? निरे ऐसे। डाक्टर, इंजीनियर, ड्राइवर, दो चार को मारा, कुछेक पुल गिराए, गाड़ियाँ फोड़ीं और सीख गए।
मैं भी करते करते कर गई।
पहले पाँव फटका।
फिर पाइप को किक मारा। अपनी तरफ गिराया।
गमले पर फेंका।
फिर दाहिने को झुक, चुल्लू में पानी उठा लिया।
उठा भी लिया, कुछ पी भी लिया।
एक्वागार्ड और आर ओ का पानी नहीं था वह, पर इन मौकों पर ऐसी बातों की दरकार नहीं होती।
वैसे, सच बताना है तो, पीपल के नीचे उगे मंदिर में चढ़े परशाद के टुकड़े, गरी और चना और इलायचीदाना, भी मैंने ऐसे ही उठा लिए। गिलहरी, चिड़िया, चींटी से गई बीती तो नहीं, हमारी भी इक जान है चारा माँगती।
जरा झुकी,
जरा और
हर राउंड में जरा और
और चील झपट्टा लग गया
और मैं गिर के तमाशा भी नहीं बनी।
फिर सतर और लेफ्ट राइट लेफ्ट राइट।
बाद में पूछने वाली थी कि कब मैंने खाया और कब पिया, उसी रोज या अगले रोज या उसके भी बाद, मगर वक्त पहली चीज थी जो मैंने गँवाई उस अजीब घड़ी में, जब भी वह थी, और इसलिए मैं बता न पाऊँगी।
फिर जलते सूरज की आदत पड़ गई। न दहकान थी, न पसीना।
या सूरज ही शीतल हो चला था।
इस पर जरूर मेरा ध्यान गया कि स्कूल के बच्चे लौट रहे हैं और अंदर जाकर अपनी माताओं को लेकर अपने बरामदे बाल्कोनी पर आकर मेरी तरफ इशारे मार रहे हैं। स्पष्ट नही, फिर भी। पता तो लग ही जाता है।
शायद...?
हाँ शायद उन्होंने ही, औरतों और बच्चों ने, काम से लौटे आदमियों को खबर दी कि लगता है कोई औरत सुबह से वॉक कर रही है। या कब से? और लोग बाल्कोनी पर जमा होने लगे और शाम की लाली में खड़े मुझे देखने लगे। यह जतलाते कि थक के लौटे हैं काम काज, ट्रैफिक, के बाद और अब पना, चाय, लस्सी, रूहअफजा पीने क्यों न निकलें अपनी ही बाल्कोनी पर, चाहे हो या न हो कोई बावली जो मैराथन ढंग से गोल पर गोल पर गोल चक्कर काट रही है।
सबने देखा - एक ही पल में नहीं जैसा बता चुकी हूँ पर जब जिसके आगे मैं पाँव पटकती पड़ जाती - और बिना बूझे नजर हटा ली।
या क्या मालूम मैं ही देख रही थी और वे सब वही कर रहे थे जो हर रोज करते हैं? बेशक किसी ने मुझे रोका नहीं, कूद के मेरी राह में, जबरन कंधे बाँहें खींच के मेरा पाँव रस्सी में फँसा के मुझे गिराया नहीं, ना ही जाल फेंक कर उसमें मुझे जकड़ दिया। मैं आजाद थी बशर्ते उनकी राह में व्यवधान न बनूँ। जो मैं नहीं बनी, थोड़ा बाएँ, थोड़ा दाएँ, झुकने बलखने में माहिर, बिना उन्हें या उनकी गाड़ियों को ठोकर मारती, चलती हुई।
लेकिन ये भी तो हो सकता है कि वे समझ नहीं पा रहे थे कैसे मुझे मना करें? उन्हीं सब की तरह जो अभिवादन करने से कतराते थे कि क्या कहें? क्या मालूम ये मन ही मन कुढ़ रहे हों पर कैसे तो मुझे हाथ लगाएँ? गार्ड से कहें? पुलिस से कहें? पुलिसवुमैन से कहें?
इस पर तो मैं मर ही गई। बिना मरे यानी! बस पानी पानी। इस कदर खुराफाती लगती हुई। मुझे पता था, मेरा रोंआ रोंआ जान रहा था कि मेरा अनजाना ढंग उन्हें परेशान कर रहा है। नाहक चर्चा होगा। मखौल बनेगा। उनकी हाउजिंग सोसायटी को लेकर फब्तियाँ कसी जाएँगी। प्रेस वाले भी कैमरे शैमरे लेकर पहुँचेंगे। कोई समझ नहीं पाएगा कि मुझे कैसे रोकें - ये भी नहीं कि मैं खुद भी नहीं जानती - पर इतना ज्यादा मंच पर होना सबको खलेगा। बहू बेटियों वाले। एैरे गैरे पहुँचेंगे मेरा नाटक देखने के बहाने उनके घरों में ताक झाँक करने। बच्चे अलग पढ़ाई लिखाई छोड़ बाल्कोनी पर भागे जाएँगे - अब क्या कर रही है, रुकी या अभी भी चल रही है? जो चिंता की बात होगी आज के कॉम्पटिशन के जमाने में और घटती नौकरियों की दुनिया में। इसका खेल है क्या, सब सोचेंगे? कौन सा नारीवादी शगूफा अब खिला रही है? जोर से प्रतिवाद करने से इसलिए भी वे डरेंगे कि क्या पता ये नारी आंदोलन वालों को जमा कर दे उनके दर पे धरना देने?
ओह ओह मैं अपराधबोध से भरने लगी और सोचने लगी पूरी ईमानदारी के साथ कह दूँ, सच उगल दूँ, और चिरौरी करूँ कि तमाचा लगा के पहले मुझे गिरा दो, फिर धर दबोचो और हिलने न दो।
मेरी आत्मा पर इतना बोझ और फिर भी चक्कर काटे जा रही हूँ।
क्रांति होगी कोई, इन सिरफिरी औरतों की, बड़बड़ा रहे होंगे।
मुझे समझाना पड़ेगा। मुझे विनती करनी पड़ेगी। कि समझें। उनकी बहुत बातें हैं जिनसे मैं सहमत नहीं, पर इस दफे मैं दूसरी तरफ नहीं हूँ, उन्ही की साइड पर हूँ और जैसा कहते हैं अबला नारी हूँ, किस्मत की मारी हूँ, हारी हुई कहानी हूँ, अलबत्ता कुछ नए घुमाव के साथ!
ऐसे नहीं चल सकता।
मतलब ऐसे नहीं चल सकती।
मुझे बिना लाग लपेट पूरा खुलासा करना होगा। माफी माँगनी होगी, जो मैं ऐसी हूँ, जैसी हो गई हूँ। मेरे तन मन आत्मा इस निराले गोल मेल में!
मैंने कातर नजर उठाई, अपनी चाल में नेक इरादा डाल उससे ताल मिलाई और बढ़ी, कि जो दिख जाए उसी को समझाऊँ।
धुर सामने, फाटक पर, चिट्ठियों की गड्डी फेंटते इंजीनियर साहब।
'हैलो' मैने मुँह खोला, उनके करीब आते हुए, 'सुनिए टुक...।'
पर वे गार्ड को कस के डाँट पिला कर सर उठा के निकल गए।
गार्ड ने भी अनदेखा किया, जरूर चिढ़ के, कि मैंने उसको फटकार पाते देख लिया।
अब किससे, मैं चलती चली, दोनों तरफ चौकन्नी देखती। सोसायटी का प्रेजिडेंट दिखा, माली को डाँटता कि झाड़ें क्यों छाँटीं और डालें क्यों ट्रिम की? आपकी तो सातवीं मंजिला शान, दूसरे कहते, ऊपर से हरियाली सराहो, पर हम तो नीचे जहाँ कीड़े मकोड़े, मच्छर, शायद साँप भी, निकलते हैं, तो काट दो।
छाँटो, न छाँटो, के बीच माली रूठा खड़ा था और प्रेजिडेंट उर्फ रिटायर्ड आई.जी. ऐसे जैसे हाथ में पुलिस का डंडा अभी भी!
पर यह पल गरूर दिखाने का नहीं है, मैंने तय किया।
'मिस्टर आई.जी.' मैंने शुरू किया।
वे मुझसे कुछ गज की दूरी पर, उसी राह पर जिसकी मैं खाक छान रही थी।
'मिस्टर प्रेजिडेंट' मैंने हाथ सलूट में उठाया। थोड़ा पहले से ही चालू, क्योंकि उनके पार निकल गई और अपनी बात पूरी न कह पाई तो क्या आगे बजरी को सुनाती निकलूँगी? आई.जी. साहब मेरे संग संग बाअदब दौड़ने नहीं वाले कि मैं अपनी दो टका बात पूरी कर सकूँ!
पर जैसी मेरी उनसे अपेक्षा भी थी, जनाब ने सरसरी निगाह मुझ पर फेरी और कि-त-ने मगरूर ढंग से मुँह उधर, हाथ से हवा में यों वार करते कि मक्खी उड़ा रहे हों।
उफ्फ, तमाचा लगाना चाहिए, मैंने बेबस चलते सोचा। ये सामंती टुकड़े किसी युग के, अंग्रेजों की औलाद, फासिस्ट जल्लाद।
मुझे मगर जरूरी काम है, तमाचों, तानाशाहों, पर गौर करने का ये समय नहीं।
समय होता तो अपनी मंशा पर शक कर लेती शायद। अपने को यह बता लेना कि इन हैरतमंद, परेशान, चकित, जनता, बच्चों की खैरख्वाही में तैयार हो गई हूँ कि मुझे शिकार मान लो और पकड़ लो, ना कि यह मेरी आखिरी उम्मीद थी कि रुक पाऊँ उस अजीबोगरीब दिन की उस अजीबोगरीब गश्त में।
पर जब पूरे जहान को यह बीमारी है तो मुझे अलग कर के क्यों देखा जाए कि करते हैं जो करते हैं खुद के लिए मगर मानते हैं परहित के लिए, कि यह तो संवेदना और भलमनसाहत हमारी!
मैंने फिर कहने की कोशिश की। फिर और फिर। जो रास्ते में या पास में दिख जाए उसी से।
माफ करिएगा...
सुनिए...
प्लीज...
हे...
एक्स्क्यूज मी...मैं...नहीं...मगर...
हर बार नाकामयाब।
मेरे चलते चलते सूरज डूब गया और इलैक्ट्रिक बल्ब जल उठे। उन पर अँधेरा लहरा रहा था और मैं चक्कर काट रही थी और अपनी सुनवाई की चेष्टा किए जा रही थी। सोसायटी के एक एक बाशिंदे से।
बदतमीजी से, लापरवाही से, सब ऐसे पलट जाते अलग, कि मैं कुछ भी नहीं।
तब तक शाम गहरा चुकी थी और फ्लैट लैंप की तरह जल उठे थे।
आठ बजे होंगे, मैंने अनुमान लगाया, जब आरती का मजमा निकलने लगा। हर राउंड में पीपल के नीचे थोड़े और लोग आ जाते। इसी सोसायटी के पांडे पुरोहित आ गए। और औरतें दीया जला के पूजा करने लगीं और सभी भक्ति में एकजुट हो गए।
मैं झेंपी झेंपी निकली, कई कई बार, इस अड़ में पक्की कि इतनों में एक से तो कह ही दूँगी। भजन प्रार्थना वालों में दया की कमी न होगी। अरज ही तो सुना रहे थे। मेरी भी अरज सुन लो।
बार बार आ जाती, झेंप से अलग देखती, धार्मिक सौहार्द से शीश झुकाती, आँखें मिलाने के फेर में आँख मिलाती।
यह आखिरी मौका न फिसल जाए हाथ से, हर चक्कर में और विकल हो रही थी। तो मैंने हर बार, मंदिर की बगल से परेड मारने के दौरान, संपर्क की कड़ी अभी से बनानी शुरू कर दी। हर बार सिर अतिरिक्त जोरों से हिलाया और जिससे आँख मिल गई उसकी तरफ पूरी पूरी मिन्नत आरजू से देखा। आँखों से याचना करती कि प्लीज... अरज... सुनो... मेरी... पूजा के उपरांत हाँ हाँ, एक तरफ रुकी हूँ, मतलब ठिठक के नहीं, चलते हुए ही रुकी हूँ और ठिठक के क्यों नहीं वही तो... अरज...सुनो...मेरी..., एक राउंड लगा कर आती हूँ फिर बताती हूँ, अधूरी बात अगली किस्त में, अगला राउंड अभी आई, भूलना नहीं, पूजा के बाद इधर मुखातिब होना, जब फुरसत हो जाएगी, और सुनना और पकड़ लेना मुझे और रोक देना और बाँध देना।
कृपया...। एक।
मेहरबानी...। दो।
प्लीज...। तीन।
विवश...। चार।
आरती के बीच घूम घूम के मैं अपनी प्रार्थना कर रही थी।
अब, मैंने कहा, एट लास्ट, जब भीड़ हटने लगी।
सुनिए...
ये जो हो रहा है...
तय करके नहीं...
न कोई षड्यंत्र...
सुनिए तो सही...
भीड़ और छँटी। मुझसे, मुझ पर गुजरती से बेजार, बेखबर, अंधे, बहरे, गूँगे।
'हे।', मैंने आवाज लगाई।
'आप मुंझे खास पसंद न करते हों तो भी।'
मैं बिलबिलाई।
'ओके, आप मुझे नापसंद करते हों तो भी।'
मैं चिल्लाई।
'नफरत करते हों तो भी क्या?' मैं गरज पड़ी।
कोई सुन नहीं रहा था।
आरती की थाली तक मेरे धुर आगे से यों ले जा रहे थे जैसे अगरबत्ती का धुआँ, आरती, आचमन, कुछ मुझे नहीं मिलना चाहिए।
धर्म और क्रूरता, करारा कुछ उस पर मैं उनके मुँह पे कह सकती थी। पर कहने की तो कुछ और कोशिश कर रही थी। और कर इतना ही पा रही थी कि अर्ज बनी उनके बीच से निकल जाती हर बार, पर सुनो यह मेरे बावजूद है, चिल्लाती।
और वे मेरी बगल से निकले चले जा रहे थे, निकलते ही जा रहे थे। जैसे मैं वहाँ थी ही नहीं। जैसे मैं सूखा तिनका हूँ हवा में बेआवाज सरकता जिसे देखने की जरूरत नहीं। सच्ची, वे बेझिझक अपने अपने फ्लैट में लौट गए और कोई कोई तो मजा लूटने बाल्कोनी में भी आ बैठे, व्हिस्की, जिन, रम, बर्फ पे उँड़ेल के और पकौड़े शकौड़े खाते रहे एकदम बेपरवाह कि ठीक उनकी नाक के नीचे एक बेचारी औरत फँस गई है, थक गई है, अकेली पड़ गई है, सहारा चाह सकती है।
कोई संदेह नहीं कि किसी ने दिखावा करना भी लाजमी नहीं समझा कि मुझे रोकने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे मेरी सनक में कुदकने छोड़ दिया। वे पीते रहें, खाते रहें, उनके माल असबाब सलामत रहें तो परेशानी क्या और किसकी? बस उनकी राह में रोड़ा न बनो।
सो तो मैं कहाँ थी, उनके सामाँ से अलग, दाएँ बाएँ होते हुए चलने में मेरा कोई सानी नहीं।
सिर्फ सेमल ने कोई भेदभाव नहीं किया और मुझ पर और बाकी सोसायटी पर अपने नर्म नर्म फाये गिराने लगा। एक मेरे कंधे पर फिसला, एक मेरी नाक पर टिक गया।