रतन लाल जाट
शंकर अभी तक सोया हुआ था। सुबह
के आठ बज चुके थे। कमरे के अन्दर सूर्य की किरणें प्रवेश कर चुकी थी और छत
के ऊपर पक्षी चहचहा रहे थे। बाहर गली में लोगों का आना-जाना शुरू हो चुका
था। बस-स्टैंड की तरफ से गाड़ियों के हॉर्न की आवाजें साफ सुनायी दे रही
थी।
बी.ए., बी.एड. के साथ हिन्दी एम.ए. करने के बाद सरकारी नौकरी की
तलाश में आकर शहर में पढ़ाई कर रहा है। साथ ही प्रतिदिन दो-तीन घण्टे
कोचिंग भी जाता है।
शंकर के साथ उस मकान में अलग-अलग कमरे में
चार-पाँच अन्य लड़के भी रह रहे थे। उन लड़कों में सबसे छोटा लड़का दसवीं
कक्षा में, तो सबसे बड़ा लड़का कॉलेज तथा अन्य दो-तीन लड़के बिना किसी
विशेष उद्देश्य के कोई न कोई नौकरी हासिल करना चाहते हैं। इसलिए यहाँ आकर
पढ़ाई कर रहे हैं।
“शंकर! तू अभी तक नहीं उठा है। चल उठ, हम चाय बनाकर पीते हैं।”
“नहीं, थोड़ी नींद और निकालने दे। अभी दिन उग गया है क्या?” करवट बदलते हुए शंकर ने कहा था।
नारायण
शंकर के ही गाँव का रहने वाला है। जो अभी कॉलेज में हैं। दोनों एक ही कमरे
में न रहकर अलग-अलग कमरे किराये रखकर पढ़ाई कर रहे हैं।
सभी के लिए
रसोई एक ही जगह है। जहाँ सब अपनी-अपनी बारी के अनुसार चाय-खाना-सब्जी आदि
बनाते हैं। कभी कोई एक चाय समय पर नहीं बनाता है। तो पूरे दिन रोटी-सब्जी
आदि पर भी रोक लग जाती है या फिर कहीं कोई भोजन-निमंत्रण का इन्तजार होता
है।
“तुमने अभी तक चाय नहीं बनायी है। ”
“तू तो सोया हुआ था। मैं चाय बनाकर क्या करता? थोड़ा पढ़कर वापस सोने की कोशिश की। लेकिन नींद नहीं आयी थी। इसलिए तुझे उठाया है।”
“सुबह-सुबह
तो नींद बहुत अच्छी आती है और तुझे नींद नहीं आयी, क्या बात हुई है?” शंकर
ने थोड़ा चिन्तित होते हुए कहा। तो नारायण ने बताया था कि- आज उसका ट्युशन
जाना बंद हो जायेगा। कारण- दो महीनों की फीस बाकी है। अब उसे क्लास में
नहीं बैठने दिया जायेगा। घरवाले आर्थिक तंगी में है। फिर भी अपने सपनों को
साकार करना चाहते हैं। इसीलिए अपने इकलौते बेटे को शहर में पढ़ा रहे हैं।
दूसरी
तरफ शंकर के पापा सर्विस में है। रूपये-पैसे का कभी कोई अभाव महसूस नहीं
हुआ था। महीना होते ही शंकर कम से कम पाँच-सात हजार रूपये लड़-झगड़कर पढ़ाई
के नाम पर पापा से छिन लेता है। इतना कुछ करके भी वह कोचिंग क्लास सप्ताह
में एकाध बार ही जाता है और फीस पूरी देता है।
हाँ, एक बात और है कि
शंकर को किताबें पढ़ने के बजाय खरीदने का शौक ज्यादा है। इसके अलावा और भी
ढ़ेरों शौक है। जैसे- फिल्म देखना, सिगरेट पीना, बस-स्टैंड पर चक्कर काटना,
नास्ता-वास्ता होटल इत्यादि।
नारायण के माँ-बाप की तरह शंकर के
माँ-बाप का भी कुछ सपना है। लेकिन नारायण की तरह शंकर का कोई खास सपना नहीं
है। शंकर कभी-कभी अपने साथियों को कहा करता है- “पढ-पढ़कर मैं थक गया हूँ।
किस्मत होगी, तो नौकरी मिल जायेगी। नहीं, तो कितना भी पढ़ो, कुछ नहीं हो
सकता।”
शंकर बिस्तर को समेटे बिना ही कमरे से बाहर निकला। हाथ-मुँह
धोने के बाद चाय पीने के लिए स्टूल लगाकर बैठ गया। नारायण चाय लेकर आया, तब
जाकर वह स्टूल से उठकर बाहर बाजार गया। वहाँ से कुछ सामान खरीदकर लाया।
उसके पहले देखा, तो नारायण रात की बची हुई रोटी खा चुका था। लेकिन शंकर
ठंडी रोटी खाने के बजाय भूखा रहना ज्यादा पसंद करता था।
“बहुत पढ़ लिया है। तू सब कुछ आज ही पढ़ेगा क्या? खाना कौन बनायेगा?”
नारायण पढ़ता हुआ किताब बन्द करके खाना बनाने के काम में जुट गया था।
रोटी
सेकते हुए थोड़ा गंभीर होकर वह बोला- “तुम्हारे पास पैसे हो, तो थोड़े
मुझे उधार दे दो। अगले महीने घर से मँगवाकर तुम्हें वापस कर दूँगा॥ आज मुझे
ट्युशन फीस देनी ही है। वरना आज ट्युशन भी नहीं जा सकूँगा।”
“मेरे
पास भी इतने रूपये नहीं है। मैं तेरे घर फोन कर देता हूँ। जो व्यवस्था करके
रखेंगे। तो मैं दिन में गाँव जा रहा हूँ। उसके साथ ही लेता आऊँगा।”
“तो फिर आज मुझे कमरे पर ही रहना पड़ेगा।”
“हाँ, इसमें क्या बात है? एकदिन ट्युशन नहीं जाने से क्या नुकसान हो जायेगा?”
यह
उपदेश देने के बाद शंकर अपने मोबाइल को हाथ में लेकर सहलाने लग गया। नेट
चलाना, डॉउनलोड करना और ऐसे-वैसे फोटो-वीडियो देखना ही उसका शौक है।
इस
मोबाइल ने शंकर की तरह कई लड़कों को आगे बढ़ने के बजाय पीछे धकेलने में
अपना अहम योगदान दिया है। इसने रहन-सहन और आचार-विचार के साथ अश्लीलता,
असभ्यता तथा अनगिनत गलत आदतों को जन्म दिया है।
उस वक्त शंकर के भविष्य पर प्रश्न-चिन्ह लग चुका था। जब वह कम्पीटिशन देते-देते पैंतीस पार निकल गया था और एक भी सफलता हाथ न लगी थी।
अब
वह मैं कुछ भी कर सकता हूँ, जैसे कार्यों को अन्जाम देने की तलाश में रहने
लगा था। इस बीच दोस्तों से झगड़ा, चोरी-डकैती और आवारागर्दी करने से बाज
नहीं आया। अन्त में इन सबके जुर्म में सलाखों के पीछे जा पहुँचा था। इतना
कुछ हो जाने के बावजूद माँ-बाप को भनक तक न थी।
एकदिन जब माँ ने यह
सुना था कि- शंकर घर के बाहर रहते-रहते क्या से क्या हो गया? तो माँ के
पैरों तले की जमीन खिसक गयी थी या यूँ कहे कि- उसके सारे सपने टूट गये थे।
इन सपनों के साथ-साथ वह खुद अपने को टूटने से नहीं बचा सकी थी।
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