अजय चन्द्रवंशी
आदिम मनुष्य की जिज्ञासा वृति और सहज वृत्ति अपने भौगोलिक परिवेश के अनुरूप मिथकों और लोक कथाओं को जन्म देती रही है। तत्कालीन ज्ञान की सीमाओं के चलते भी मनुष्य की द्वंद्व से मुक्ति की सहज वृति भी इन लोक कथाओं की उत्पत्ति का एक कारण रही है। प्रकृति का मानवीकरण भौतिक वस्तुओं पर चेतना का आरोपण सार्वभौम है, और इसने कई दिलचस्प लोक कथाओं को जन्म दिया है। इन लोक कथाओं, लोक विश्वासों की तार्किकताओं की अपनी सीमाएं और अंतर्विरोध भी हैं मगर ये तत्कालीन जनमानस की मनःस्थिति और इतिहास के बहुत से संकेत अपने में छुपाएं रहते हैं और कई बार इतिहास के महत्वपूर्ण कड़ियों को जोड़ने का काम भी करते हैं।
माना जाता है कि इतिहास की 'मुख्य धारा' कई बार न्याय नहीं करती और बहुत बार जन सामान्य के नायकों की उपेक्षा कर जाती है, लेकिन लोक इन नायकों/नायिकाओं को पहचानता है और उचित महत्व देता है। बहुत से आदिवासी जननायकों या1857 के क्रांति के नायकों/नायिकाओं जिक्र 'मुख्य धारा' के इतिहास में नहीं मिलता लेकिन वे लोक कथाओं में अमर हैं।
इसलिए लोककथाओं/ विश्वासों में निंदा या सम्मान में चूक की संभावना अपेक्षाकृत कम होती है। इसलिए यदि लोकविश्वास नर्मदा के पक्ष में है और जोहिला और शोणभद्र को लांक्षित करता है तो मानना चाहिए नर्मदा के पक्ष में यह सहानुभूति अकारण नहीं है।
नर्मदा-शोण(सोन)- जोहिला की भौगोलिक स्थिति की विलक्षणता लोकमानस में इस प्रेम त्रिकोण की कथा को विकसित होने के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा करती है। एक ही जगह(अमरकंटक पहाड़ी क्षेत्र) से निकलकर नर्मदा (पश्चिम) और सोन(पूर्व) का विपरीत दिशा में प्रवाह जन मानस में दोनो में अलगाव की कथा सृजित होने के लिए उपयुक्त था। उस पर जोहिला और शोण का संगम ने प्रेम त्रिकोण का रूप लिया।
उपन्यासकार ने इस लोककथा को औपन्यासिक स्वरूप दिया है। वे उस परिवेश से जुड़े हैं और नर्मदा की लोक महत्ता से परिचित और प्रभावित हैं इसलिए उपन्यास का शीर्षक भले 'मैं जोहिला' है मगर कहानी मुख्यतः नर्मदा की है। ऐसा प्रतीत होता है जोहिला और शोण इस कथा के उपादान मात्र हैं और केन्द्रीयता नर्मदा की त्रासदी को व्यक्त करना है। यों लोककथा की सीमितता भी अधिक कहने का अवसर नहीं देती बावजूद लेखक ने अपेक्षित विस्तार का प्रयास किया है।
नर्मदा और जोहिला बचपन से सखी हैं। नर्मदा राजसी कन्या है और जोहिला सामान्य नागरिक की पुत्री फिर भी दोनो में गहरी मित्रता है। नर्मदा के व्यवहार से कहीं परिलक्षित नहीं होता कि वह ख़ुद को उससे या अन्य सखियों से उच्च मानती है। जोहिला भी कभी नर्मदा को गैर नहीं समझती या उसके राजसी कन्या होने से मित्रता में कभी असहज महसूस करती है। अवश्य युवावस्था की नैसर्गिक आकांक्षा जोहिला मे नर्मदा की अपेक्षा अधिक प्रकट होती है। नर्मदा के उदात्त चरित्र में यौनाकांक्षा भी संयमित है। यों जोहिला भी संयमित है मगर उसके अंदर नर्मदा के प्रति एक सहज मानवीय प्रतिस्पर्धा का भाव है जो अनायास प्रकट होते रहता है। वह कई बार महसूस करती है कि वह नर्मदा से अधिक रूपवती है मगर उसके अनुरूप उसे प्रतिष्ठा नहीं मिलती। जाहिर है इसका एक कारण सामाजिक स्थिति का अंतर भी है। मगर नर्मदा के अंदर कहीं पर श्रेष्ठताबोध अथवा जोहिला के प्रति प्रतिस्पर्धा भाव प्रकट नहीं हुआ है।
लेखक ने कथा का माध्यम जोहिला को बनाया है मगर हम कह चुके हैं पूरे उपन्यास में नर्मदा व्याप्त है। घटनाक्रम की नाटकीयता और प्रेम का द्वंद जो उपन्यास के आखिरी हिस्से में है वह सहज नहीं जान पड़ता। नर्मदा के कहने पर जोहिला का शोण को देखने जाना और प्रथम मिलन में ही प्रेम में पड़ जाना तथा हमबिस्तर हो जाना उतना सहज नहीं जान पड़ता जितना उपन्यास में उसका औचित्य सही सिद्ध करने का प्रयास दिखाई पड़ता है।
जोहिला का शोण को देखकर उसके मनुहार पर पिघलते जाना और आंतरिक रजामंदी कहीं गहरे उसके नर्मदा के प्रति अव्यक्त प्रतिस्पर्धा का प्रकटीकरण लगता है जिसकी झलक कई बार उसके अपने रुपाकर्षण के प्रकटीकरण से मिलती है। अवश्य उसमे हल्का सा द्वंद्व और 'अपराधबोध' दिखता है मगर वह उसके शोण के प्रेम निवेदन के आगे कुछ भी नहीं है। इससे विचित्र स्थिति शोण की है। वह कोमोमण्डल का राजकुमार है। अवश्य जागीर छोटी है, मगर है तो जागीर। वह रूपवान योग्य युवक है। नर्मदा के स्वयंवर की शर्त बकावली पादप लाने को कठिन परिस्थितियों में वह पूरा करता है। पूरी विवाह की तैयारी हो जाती है बरात नर्मदा के घर तक आ जाती है। शोण के मन मे कहीं कोई असमंजस या द्वंद्व नहीं दिखाई देता, जिससे लगे कि इस विवाह में उसके लिए कहीं कुछ गलत भी है। मगर जैसे ही वह जोहिला को देखता है। उसके रूप सौंदर्य पर मोहित होता है और तब नर्मदा के प्रति उसके बहुत से असमंजस प्रकट होने लगते हैं।
शोण जिसे प्रेम कहता है वह सामंती अभिरुचि से गंभीर रूप से ग्रस्त है। वह प्रथमतः जोहिला को नर्मदा के साथ भी पाने को तैयार है, उसके लिए यहां कोई दुविधा नहीं है। उसका यह प्रथम दृष्टि का प्रेम दरअसल 'प्रकृतवाद' से प्रभावित है जो प्रथम मिलन में ही यौन सम्बन्ध से प्रकट हो जाता है। शोण अपने नर्मदा के प्रति असहजता के लिए जो तर्क गढ़ता है, वह बेहद लचर है। ये सारे तर्क जोहिला को.पाने के भ्रान्त तर्क प्रतीत होते हैं। वह कहता है नर्मदा के परिवेश और व्यक्तित्व और उसके परिवेश में काफी अंतर है जिसका कारण वह नर्मदा और उसके पिता के साम्राज्य की विशालता और अभिजात्य परिवेश को बताता है और स्वयं उससे कमतर मानता है। फिर आगे अपनी कद-काठी को नर्मदा की अपेक्षा कम जानकर हीनता महसूस करता है। आश्चर्य है उसे ये बातें पहले ध्यान नहीं आती! फिर क्या दाम्पत्य में छोटी-मोटी असमानताएं नही होती? फिर यह बात शोण स्वयंवर जीतने के बाद स्पष्ट कर सकता था जिससे नर्मदा को इस तरह विवाह मंडप में आहत नहीं होना पड़ता। इस सम्बंध में शोण का तर्क कि "जब मैं बकावली लाने के लिए निकला, तब तक मैंने इस सम्बंध में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं सोचा था!बाद में जब जब इस ओर गया, तब तक बहुत विलंब हो चुका था।" दूसरे के जीवन से खिलवाड़ की कीमत पर यह असमंजसता कमाल का है!
शोण के इस तर्कजाल का अगला तर्क यह है; वह जोहिला से कहता है "आप ही मेरे व देवी नर्मदा के मध्य आजीवन सेतु का कार्य कर सकती हैं"। नर्मदा से दूर भी रहना है और नर्मदा जैसी स्त्री(जोहिला) की चाह भी है! आगे वह जोहिला से कहता है "क्या यह सत्य नहीं कि मेरी भांति आप भी मूलतः जनकन्या हैं"? एक छोटा सामंत भी अपने को आमजन कह सकता है! इसमे बुराई नहीं लेकिन आगे का तर्क "क्या यह भी सत्य नहीं कि हमारी जोड़ी भी आदर्श होगी, क्योंकि मैं आपसे तनिक लंबा हूँ" कमाल का तर्क है दाम्पत्य के लिए पुरूष का स्त्री से कद में लंबा होना जरूरी (आदर्श)है! कहाँ प्रेम का उदात्त रूप जहां वर्ण, जाति, शारीरिकता, खत्म हो जाता है, और कहाँ यह शारीरिक नाप-जोख!
इस तर्कजाल में जोहिला का भी बराबर सहयोग है। कहती है "अपनी दुर्दशा के लिए नर्मदा परोक्षतः स्वयं दायी थी। मैने उसे कितना समझाया था कि विवाह जैसे नितांत व्यक्तिगत मसले को लोक कल्याण का उत्स न बनाये।....अब उसे आघात लगा तो वह उसका कारण खोजने के लिए स्वयं के अंतर में झांकने के बदले मुझे कोस रही थी...सोन के जीवन मे मैं नहीं आती तो कोई अन्य आता।" इन सब बातों का ध्यान जोहिला को सोन से मिलने के पहले नही आया! माना विवाह व्यक्तिगत मसला है, मगर नर्मदा इसे जनकल्याण से जोड़कर कभी द्वंद्व में नहीं रही थी। वह अपना नायक जननायक चाही तो इसमे बुराई क्या है?फिर जिसने स्वयम्वर जीता उसे उसने सहज स्वीकारा। कहीं कोई दुविधा नहीं।न ही यह कोई बनावटी उपक्रम था। इसे बनावटी बताने का उपक्रम शोण और जोहिला कर रहे हैं। आगे एक स्थल पर जोहिला कहती है "यह यह ठीक था कि उसने(नर्मदा) अपने ही द्वारा पैदा की परिस्थिति का सामना ना कर उससे पलायन किया था, किंतु यह पलायन तो उसके जुझारू व्यक्तित्व के अनुरूप न था।" गजब का तर्क है अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध करने के लिए दूसरे पर दोषरोपण कर दो! यह परिस्थिति नर्मदा के कार्य से नहीं जोहिला और शोण के परस्पर यौनाकर्षण से पैदा हुई थी।
त्रासदी होनी थी, हो गई। जोहिला और शोण मिल गए। आहत नर्मदा उनसे दूर चली गई।जोहिला स्वीकारती भी है वह चाहती तो दोनों को नुकसान पहुंचा सकती थी, मगर उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि एक तरह से उनके रास्ते से हट गई। उसके व्यक्तित्व की उदात्तता कहीं क्षीण नहीं होती। केवल एक जगह दोनो को अंतरंग सम्बन्ध में बंधे देखकर कर आवेशित होती है और अपशब्द कहती है, जो परिस्थितिवश बहुत असामान्य नहीं है।
हमने ऊपर शोण और जोहिला के 'सहज प्रेम' के दावा को प्रश्नांकित करने का प्रयास किया है और 'प्रकृतवाद' से प्रभावित कहा है तो सम्भव है किसी को हमारे विवेचन में 'नैतिकतावाद' हावी दिखाई दे। इस सम्बंध में हमारा कहना है कि अवश्य प्रेम नैसर्गिक होता है, वह कहीं भी किसी से हो सकता है, मगर हर तात्कालिक आकर्षण जरूरी नहीं की प्रेम भी हो, उसमे ठहराव भी जरूरी है। प्रेम से शरीर जरूर अलग नहीं किया जा सकता मगर स्त्री-पुरूष के हर यौनाकर्षण को प्रेम नहीं कहा जा सकता। फिर मनुष्य ने अपने सामाजिक विकास के क्रम में उसके साथ कुछ मूल्य भी जोड़े हैं मसलन परस्पर समर्पण, त्याग, कर्तव्यबोध जो उसे और भी उदात्त बनाते हैं। अवश्य कई नकारात्मक मूल्यों ने सहज प्रेम में बाधा भी पैदा किया है, जिनके विरुद्ध प्रेमियों का संघर्ष हमेशा रहा है। हमारी समझ मे शोण और जोहिला का संघर्ष इन नकारात्मक मूल्यों के प्रति न होकर यौनाकर्षण अधिक है। आमुख में अनामिका जी ने लिखा है "पूर्णता का आदर हो सकता है पर उससे प्रेम पाना आसान नहीं, न ही उसके प्रेम का पात्र हो पाना आसान है। कहीं तो कुछ अधूरा हो तभी तो समर्पण की आस जगे। दो अर्धगोले ही मिलकर प्रेम का ग्लोब पूरा करते हैं-जैसे शोण और जोहिला ने किया।" इससे हमारी सहमति है मगर उपन्यास में नर्मदा का चरित्र उदात्त होकर भी मानवीय है और वह मानवीय आकांक्षाओं से भरी हुई है।अवश्य उसमे एक गरिमामय गोपन है। मगर विवाह के समय उसकी उत्सुकता उसकी मानवीयता को ही उजागर करती है।उसके व्यक्तित्व में ऐसी 'पूर्णता' नहीं है जिसमे कुछ भरा ही न जा सके और वह मानवीय आकांक्षाओं से परे हो।
लेखक ने संक्षिप्त कथा को औपन्यासिक रूप देने का बेहतर प्रयास किया है और उसमे सफल भी है। नर्मदा के चरित्र में उदात्तता है मगर उसका चित्रण मानवीय है। सिर्फ एक जगह भविष्यवक्ता साधु के संदर्भ में इसके दैवीय रूप की झलक मिलती है जो हमारी समझ मे कथा-प्रवाह के लिए सहज नहीं है। इस तरह नर्मदा के दैवीय रूप दिखाने से आगे की उसकी त्रासदी 'लीलामात्र' प्रतीत हो सकती है क्योंकि इससे वह भूत-भविष्य की जानकर प्रतीत होने लगती है।
बहरहाल लेखक लोकमान्यता की सीमाओं से बंधा है, उसे उपन्यास का विस्तार उस दायरे में ही करना है, बावजूद इसके उसने कथानक का विस्तार बेहतर ढंग से करने का प्रयास किया है।पाठकों का संवेदनात्मक जुड़ाव भिन्न-भिन्न अभिरुचि, व्यक्तित्व और संस्कार के अनुरूप भिन्न-भिन्न पात्रों से हो सकता है।
कृति- मैं जोहिला(उपन्यास)
लेखक-प्रतिभू बनर्जी
प्रकाशन- नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
● कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320
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