बारसठ की उम्र में भी
मास्साब के चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी । एक उम्मीद की किरण लिए वो गाँव में सबको
सुनाया करते ," पिछले साल बहू को अपेंडिक्स का ऑपरेशन
हुआ ,इसलिए बबुआ का गाँव आना टल गया । उसके गए साल बबुआ के
फार्म हाउस में आग लग गई तो नुकसान की भरपाई करने में कुछ ज्यादा ही खर्च हो गया
और फिर वो यहाँ नहीं आ सके ।"मास्टर साहब पिछले पाँच साल से बेटे के इंतज़ार
में पलकें बिछाए बैठे थे । हर साल की समाप्ति में वे ऐसे ही खुद को समझा लिए करते
कि इस बार बेटे – बहू का गाँव नहीं आने का क्या कारण हो सकता है ।
कम्प्युटर – मोबाइल के
ज़माने में भी मास्टर साब चिट्ठियाँ लिखा करते थे । तीन साल पहले जब मोतियाबिंद का
ऑपरेशन हुआ और उसके बाद भी आँख की रोशनी कुछ खास नहीं बढ़ी , तब उन्होने स्वयं लिखना छोड़ दिया । फिर वह अपने विद्यार्थियों से पत्र
लिखवाते । शाम के समय अपने मिट्टी के घर के दालान पर मास्साब एक खटिया पर बैठ जाते
और हम पाँच दोस्त उनको घेर कर गोबर से लिपे फर्श पर । सोम और विप्लव की लिखावट
मास्टर साहब को पसंद नहीं थी ,तो उन्हे नहीं लिखने दी जाती ।
उन पर लाड़ दिखते हुए कहते , "नाक कटा देंगे ये दोनों ,इनकी लिखाई देख कर बबुआ कहेगा ," छि , पापा ने कभी इन्हें सिखाया नहीं क्या ? "
प्रेम और शिव आधा लिखते – लिखते ही ऊबने लगते । जैसे ही वे पूछते,"और कितना लिखाओगे आप ,हाथ दुख गया , " तो मास्टर साहब तिलमिला जाते ,कहते ,"अभी तो बबुआ को यह बताना बाकी ही है कि भूरी गाय बच्चा देने वाली है , गोदाम घर का छत मरम्मत हो गया और कहता है कि हाथ दुख गया !! "शिव से
वो थोड़ा चिढ़ते भी थे , कारण , शिव उनके
मुँह पर खरी – खरी सुना देता कि अब बेटे का मोह त्याग दो ,
आने नहीं वाले हैं भइयाजी ,उनको परदेस की धरती भा गई है । पर
मास्टर जी पुरजोर विरोध करते और कहते ," मेरा लाल है ,विद्यालय के दो हज़ार बच्चों को
संस्कार सीखाता हूँ ,और मेरा ही बेटा संस्कार से वंचित हो
गया है क्या ?देखना, अबकी बरस बबुआ
ज़रूर आएगा । " बचा मैं ,यानि कुलवंत ,मस्साब का प्यारा कलुआ
जो बिना किसी ना – नुकुर के उनकी हर बात
लिखते जाता । जितना लंबा पत्र लिखवाना चाहते , लिखवा लेते ।
पहले हरेक साल तीन महीने में एक ,फिर छह महीने और अब साल मेँ
दो बार , एक सावन के दौरान और एक पूस माह में। बुवाई से पहले
और कटनी के बाद ।
आज फिर मजलिस जमी । "कलुआ
, लिख" और मैं आज्ञाकारी बालक की
तरह कागज – कलम ले कर बैठ गया । बाकी दोस्त अगल – बगल ।
मेरे प्राणों से प्रिय
बबुआ ,
ईश्वर की कृपा से सब ठीक
है । ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि तुम सब भी सदा सुखी रहो । सोम ने टोका,"ई का दो – दो बार ईश्वर लिखवा रहे हैं ,आशा
करता हूँ ,लिखवाइए ।"
"चुप रह ,अपनी औलाद के लिए यमराज तक की आज्ञा को टलवा देते हैं माता – पिता , और एक ये है ,कहता है कि आशा करता हूँ ,लिखवाइए ," मास्टर साहब चिढ़ कर बोले । लिख , आगे ।
"सावन की घटाएँ छा
रही हैं । पिछले बार तो अनावृष्टि से सारा फसल जल गया पर इस बार अच्छे आसार हैं ।
माँ ने चाचा को भेज मजदूर बुलवा लिए हैं । गाछी भी खरीद ली गई है । कल से धान की
रुपाई शुरू हो जाएगी ।तुझे याद है , जब तू छोटा था , एक बार धान के खेत में उतर गया ,वहाँ इतना पानी था
कि तेरे गर्दन तक पानी भर गया था । तू चिल्लाने लगा तो फिर सोमवा की माई ने गोद
में लेकर तुझे बाहर निकाला । "
"अरे , मास्टर जी ,चिट्ठी लिखवा रहे हो कि संस्मरण ?काम की बातें लिखवाइए । बड़के भैया के पास इतना टाइम नहीं है कि इतनी लंबी
चिट्ठी पढ़ें । "शिव ने टोका । मास्टर साहब की बूढ़ी आँखों में तैरता अतीत जैसे
ठहर चुका था । बमुश्किल ऐसे समय में उन्हे वापस लाना पड़ता था । कई बार तो चिट्ठी
लिखने का काम पूरा ही नहीं होता और मास्टर
साहब की आँखों से गंगा – यमुना की धारा बह निकलती जो रुकने का नाम ही नहीं लेती ।
हम सब आहत हो जाते । उनको दुख हम सब को विचलित कर जाता । बात – बात पर उनकी खिंचाई
करने वाला सोम तो सबसे ज्यादा दुखी हो जाता । हम पाँचों मित्र का भरसक प्रयास होता
कि मास्टर साहब अंदर से इतने मजबूत बनें कि पुत्र के मोह- माया का बंधन धीरे – धीरे त्याग कर स्थिति
से समझौता कर लें । स्कूल में हमें इतिहास पढ़ाने वाले मास्टर साहब में हम किसी
क्रांतिकारी की ही झलक पाते थे । उनकी यह छवि पुत्र – मोह के आगे खंडित हो जाती थी
जो हमें किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं थी ।
अच्छा लिख ... ,अचानक मास्टर साहब बोल पड़े ," छोटकी चाची की
पतोह को टी बी हो गया है । इलाज चल रहा है । कहती थी , एक
बार बबुआ आ जाता तो बड़े शहर में जा कर इलाज करवा लेती । तुम सोचना इस पर ।
तुम्हारी माँ भी कह रही थी कि कटनी के समय आ जाते तो एक बार घर के अनाज का खाना खा
लेते । कितना दिन हो गया बबुआ को मड़ुआ के आटे की रोटी खिलाये । परदेस में तो ई सब
कोई जानता भी नहीं होगा । और , देखो सीढ़ी घर के नीचे मरम्मत
काम चल रहा है । तुम्हें याद है न , वहीं पर पुआल रख दी जाती
थी और तुम अपने दोस्तों के साथ खेलते- खेलते
दुपहरिया में वहीं सो जाते थे । "
बोलते – बोलते मास्टर साहब
की आँखें फिर नम होने लगीं ।आवाज़ भर्राने लगी तब विप्लव ने बात संभाली ,"अरे , मस्साब , इतना
काहे भावुक हुए जा रहे हो ? भैया का बड़ा कारोबार है , जैसे ही काम कुछ कम होगा , यहाँ ज़रूर आएंगे । पिछले
दो साल से मास्टर साहब का धैर्य जवाब दे गया था । पूरी चिट्ठी भी नहीं लिखवा पाते
थे । अंत हम खुद ही सोच – समझ के कर देते , जैसे परीक्षा में पिता का बेटे के नाम पत्र लिखते समय रटा - रटाया वाक्य
लिखते थे । शिव ने कहा ,"हाँ तो लिख , यहाँ का सब समाचार ठीक है । किसी बात की चिंता नहीं करना । हमलोग और गाय –
गोरू सब ठीक हैं । अपना और बहू का ख्याल रखना । पोते का नया फोटो भेजना ।
तुम्हारा .... "अरे , रुको ,अचानक मास्टर साहब पूरा जतन कर के बोल पड़े ।
इतनी जल्दी कैसे बंद कर रहे हो ?लिखो ,"
छोटके चाचा के घर टी वी देखते समय हमने देखा था कैलिफोर्निया में भीषण समुद्री
तूफान आया था । बहुत क्षति पहुंची है । तुम्हारे फार्म – हाउस में भी भयंकर नुकसान
हुआ है । घर – परिवार चलाने के साथ कर्मचारियों को वेतन देने में भी दिक्कत आ रही है । तुम चिंता नहीं करना , तालाब के पास वाली ज़मीन बेच कर जल्द ही पैसे भेज दूंगा । अति शीघ्र । और भी कोई मदद की दरकार हो तो
बताना , जब तक तुम्हारा बापू ज़िंदा है ,तुम्हें फिक्र नहीं करनी है ।""
अब बंद कर दो",मास्टर साहब ने कहा और धोती के कोर से
आँख पोछते हुए उठ कर अंदर जाने लगे । इतना उदास हमने मास्टर साहब को कभी नहीं देखा
था । आज पहली बार शिव या सोम ने उनकी खिंचाई नहीं की । वरना ये दोनों अक्सर उनको
चिढ़ाते हुए कहते ," अब तो स्थिति से समझौता कर लो चाचू , भैया जी को भारत आने का मन नहीं
करता। वह विरोध करते हुए कहते ," मेरा खून ऐसा नहीं
करेगा । वो इस साल ज़रूर आएगा ।"
मास्टर साहब को भी अंदर – अंदर यह
चुहलबाजी अच्छी लगती ,तभी तो वो केवल प्यार भरी झिड़की हमे
सुनाया करते , नाराज़ नहीं होते ।
मास्टर साहब दालान पार
करते – करते अचानक रुक गए । पीछे हम सब को देखते हुए थरथराती आवाज़ में कहा ," तू ठीक कहता था सोमू, तेरे भैया का कारोबार
इतना बढ़ गया है कि वह अब गाँव आने की
स्थिति में नहीं है । उसके पास वक़्त की कमी है । क्या पता चिट्ठी भी पढ़
पाता है या नही, क्योंकि अब तो मेल का ज़माना है । यह तो महज़
एक कागज़ का टुकड़ा है । छोड़ , फाड़ दे इसे । " मास्टर साहब ने हाथ उठा कर हमे इशारा किया जैसे
हमें इतिहास पढ़ाते समय कभी शाहजहाँ तो कभी राणा प्रताप की मुद्राओं में उस किरदार
को जीवित कर देते थे । आज भी लग रहा
था मानो विश्व विजेता सिकंदर अपने सैनिकों
को आदेश दे रहा हो ," वापस लौट जाओ सैनिकों , ये जीते हुए देश ,धन और सम्पदा कुछ न अपने साथ
जाएगी । सब यहीं छोड़ कर जाना है । तुम खाली हाथ आए थे , खाली
हाथ जाओगे ।मोह – माया सब विनाश की जड़ है । क्या तेरा , क्या
मेरा !कोई किसी के काम नहीं आएगा ,वर्तमान में जीना सीख । "
मास्साब अंदर चले गए थे और चिट्ठी को फाड़ते हुए हम अपने घरों की ओर । एकबारगी इस
निर्णय पर दुख हुआ ,पर एक संतुष्टि का आभास भी ।
(
लेखिका व शिक्षाविद्)
प्रकाशन-दोकविता संग्रह (लक्ष्यऔर कहीं कुछ रिक्त है )प्रकाशित। एक निबंध संग्रह (सुविधा में दुविधा),एक ग़ज़ल संग्रह
(बिखरे हुए पर) प्रकाशित। दससाझाकविता संग्रहऔर आठ साझा ग़ज़ल संग्रहप्रकाशित।हंस,परिकथा,पाखी,वागर्थ,गगनांचल,आजकल,मधुमती,हरिगंधा,कथाक्रम,साहित्य अमृत,अक्षर पर्व और अन्य साहित्यिक
पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार
निरंतर प्रकाशित । दैनिकसमाचारपत्र - पत्रिकाओंऔर ई -पत्रिकाओंमेंनियमितलेखन । राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित। झारखंड विमर्श पत्रिका की
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