एक लंबे अरसे के बाद उन दोनों भाइयों को आज फिर एक साथ, एक स्थान पर
देखा गया। उनका एक साथ दिखना इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि जिस तरह से
किसी महापुरुष का अवतार दर्शनीय होता है, ठीक उसी प्रकार मैं भी उनका दर्शन
कर पाया - " गोलदीघी मोहल्ले के कॉफी हाउस के एक कोने में दोनों एक-दूसरे
से धक्का- मुक्की के अंदाज में सटे बैठे थे।
मैं भी जानबूझकर उन दोनों के उस कोने में ही जाकर बिल्कुल उनके पास
की मेज के करीब इस तरह बैठा, जैसे कि उनकी देह से बिल्कुल लगकर बैठा होऊँ।
मुझे देखकर हर्षवर्धन ने ठीक हर्षद-ध्वनि न करते हुए आधे परिचित और आधे
अपरिचित व्यक्ति की तरह बस इतना ही स्वागत भाषण किया - " अरे वाह ! क्या
खूब आए !"
बस, इतनी सी औपचारिकता निभाकर, फिर मुझे बिल्कुल भुलाकर अपने भाई के साथ बातचीत करने में वह मशगूल हो गया।
अनगिनत दिनों बाद आज अचानक ही उन दोनों का दर्शन - साक्षात्कार हुआ
है। ऐसे में उनका व्यवहार देखकर मुझे ऐसा लगा, जैसे कि वे दोनों मुझे
भलीभाँति पहचान नहीं सके हैं; अथवा फिर यह भी हो सकता है कि पहचानने को तो
वे मेरी नस-नस, मेरा रोयाँ रोयाँ पहचानते हैं; और हो सकता है कि इसी वजह से
! अन्यथा इतने दिनों बाद मिलने पर भी बस, इस तरह के केवल दो सूखे शब्दों
का संभाषण भर, सो भी इतनी बेरुखी से ! इतनी कम मात्रा में बातचीत हर्षवर्धन
के स्वभाव के पूरी तरह विपरीत है, परंतु उन सबके इस व्यवहार पर और अधिक
माथा-पच्ची न करके मैंने अपनी मेज पर आ पहुँची कॉफी की प्याली पर अपना
ध्यान लगा दिया। साथ ही अपना कान उन दोनों के बीच ही रहे वार्त्तालाप की ओर
लगा दिया।
“समझ गया न, गोबरा ! ठीक इसी प्रकार का एक और कॉफी-हाउस कलकत्ते के
सबसे नामी-गिरामी इलाके 'चौरंगी' में भी है। परंतु सावधान, उस कॉफी-हाउस
में भूलकर भी कभी मत जाना!"
“क्यों ? ऐसी हिदायत क्यों दे रहे हो, उस 'कॉफी - हाउस' में मैं भला
क्यों नहीं जाऊँगा?" कान खड़े कर सुननेवाला भाई अपने माथे पर शिकन लाते
हुए पूछ बैठा, “वहाँ जाने से आखिर होता क्या है ?"
“अरे! वहाँ गए कि मरे ! उसकी अपेक्षा तो यही कॉफी - हाउस हजार गुना
बेहतर है, क्योंकि इसमें तो बस 'बंगाली - ही - बंगाली' भरे रहते हैं। केवल
बंगाली - भद्रपुरुषों, सभ्य लोगों के नौजवान छोकरे और छोकरियाँ ही यहाँ आते
हैं। अतएव यह जगह हर प्रकार से पूरी तरह निरापद है। किसी भी प्रकार का,
कहीं से कोई खतरा यहाँ नहीं है। परंतु वहाँ के ‘कॉफी-हाउस' में बाबा रे
बाबा! जो महा मारा-मारी का माहौल है।” इतना कहकर मारधाड़ कर खत्म कर देने
की खूनी घटना का भाव अपने मुँह पर लाते हुए उसने अपने दूसरे भाई की आँखों
की ओर निहारा ।
" मारकर खत्म कर देने जैसी मारात्मक स्थिति किस प्रकार की वहाँ है ? जरा इसके बारे में मैं भी तो कुछ सुनूँ!”
" वहाँ पर आती हैं- 'अंग्रेज मेम साहिबाएँ।" हर्षवर्धन ने अपनी बात का और खुलासा किया, “ अंग्रेज मेमें साक्षात् दर्शन देती हैं।"
" देती हैं, तो दें। उससे क्या आता-जाता है ? अंग्रेज मेम तो कोई बाघ नहीं हैं कि वह मुझे निगल जाएँगी।"
"हाँ, यह बात तो ठीक है कि अंग्रेज मेम बाघ नहीं हैं, परंतु उससे भी
अधिक सही बात यह है कि वे बाघ से भी अधिक खतरनाक हैं, क्योंकि बिना निगले
ही वे आदमी को हजम करके बाहर फेंक दे सकती हैं, तभी तो मैं तुम्हें सावधान
किए दे रहा हूँ । अन्यथा फिर कुछ बोलता क्या ? माई रे माई ! उस दिन एक
अंग्रेज मेम साहब के पल्ले में जा पड़ा था। उसने तो मुझे जकड़ ही लिया था। "
"क्या कुछ कर दिया था तुमने ? "
“कुछ भी नहीं रे! कुछ भी नहीं। बस, अभी-अभी मैं वहाँ घुसा ही था और
लक्ष्य कर रहा था कि कहीं कोई एक कुरसी खाली है अथवा नहीं? फिर जैसे ही
देखा कि एक मेज के पास एक कुरसी खाली है, वहाँ जाकर बैठ गया । 'कॉफी-हाउस'
के उतने बड़े लंबे-चौड़े हॉल में आदमी ठुसे पड़े थे। बंगाली, पंजाबी जैसे
इस देश के निवासियों के अतिरिक्त चीन देश के नागरिक और यहाँ तक कि इस देश
के मालिक अंग्रेज साहबों तथा उनकी मेमों से पूरा हॉल ठसाठस भर गया था। उस
हॉल के लगभग बीचोबीच एक खंभे से सटकर जो एक मेज पड़ी थी, उसी के पास बस दो
कुरसियाँ खाली बची थीं। उन्हीं में से एक कुरसी पर जाकर मैं बैठ गया और
सामने जो छोटी सी मेज थी, उसको ठीक-ठाक ढंग से दुरुस्त कर लिया था कि तभी
उसके तुरंत बाद ही, एक अंग्रेज मेम वहाँ आई । आकर मेरे सामने की उसी कुरसी
पर बैठ गई । "
'अच्छा, तो तुम इसी को जकड़ना या धर-दबोचना कह रहे हो कि उसने
तुम्हें अँकवार में धर लिया ? परंतु बड़े भैया ! उसने तुम्हें धरने के
अभिप्राय से ऐसा नहीं किया था, बल्कि चूँकि उस पूरे हॉल में बैठने के लिए
बस केवल वही एक कुरसी खाली थी, कोई और जगह खाली थी ही नहीं, इसी लाचारीवश
।” गोवर्धन अपना ऐसा ही अभिप्राय व्यक्त करता रहा; क्योंकि अपने बड़े भाई
हर्षवर्धन को वह किसी भी कन्या के द्वारा धरे जाने, लिपटा लिये जाने लायक
व्यक्तियों में गिनता ही नहीं था ।
“अरे, पहले मेरी पूरी बात तो सुन। पूरी बात को अच्छी तरह सुन - समझ
तो ले।" हर्षवर्धन ने गोवर्धन की बात को काटते हुए कहा, “अरे, उस मेम ने उस
कुरसी पर अभी अपना आसन जमाया भी नहीं था कि मेरी ओर देखकर बोल पड़ी
थी—‘गुड-ईवनिंग मिस्टर' (शुभ संध्या श्रीमान जी ) !' उसकी बात सुनकर मैंने
भी तपाक् से उसका मुँहतोड़ जवाब दिया, 'गुड नाइट मिस' ( शुभ रात्रि
सुकुमारी जी) । "
“ऐसी वेला में, उस विशेष मौके पर तुमने 'गुड नाइट' क्यों कहा? अरे
भैया ! 'गुड नाइट' तो लोग कहते हैं, एक-दूसरे से विदा लेने की वेला में। "
“धत् पगले! उस समय क्या ईवनिंग अर्थात् साँझ की वेला थी रे ? साँझ
की वेला तो जाने कितनी देर पहले ही बीत चुकी थी। घड़ी में आठ बजने को थे ।
मैंने तो ऐसा कहकर उस मेम की गलती को ही सुधार दिया था। परंतु जो सबसे
आश्चर्यजनक बात मैंने समझी, उसे अब क्या बतलाऊँ? मैं तो यही देखकर अवाक् रह
गया कि खास इंग्लैंड की अंग्रेज - मैडम मेम भी अंग्रेजी भाषा बोलने में
गलतियाँ करती हैं। कितने आश्चर्य की बात है न ? "
"तब फिर इसके बाद क्या हुआ ? तुम्हारी इस रहमदिली पर उसने क्या किया ?”
'अब उसके बाद उस अंग्रेज मेम ने जाने क्या-क्या तो कहा ? परंतु वह
सारा कुछ वह अपने उच्चारणों में, अपनी अंग्रेजी भाषा में ही कहती रही। उसका
तो एक घुणाक्षर ( संकेत भर) भी मैं समझ ही नहीं सका । "
“निश्चय ही तुम्हारे हिसाब से वह अशुद्ध अंग्रेजी भाषा में ही बोलती रही होगी, क्यों?"
“इस संबंध में अब मैं क्या जानूँ? हाँ, उसके बाद उस अंग्रेज - महिला
ने जो कुछ किया, उसका कुछ विवरण तुम्हें बतला दे रहा हूँ। उसने किया यह कि
अपने रुपए-पैसे रखने के बटुए में से एक नोटबुक बाहर निकाल ली, साथ-ही-साथ
एक छोटी सी बेशकीमती फाउंटेन पेन भी बाहर निकाली। फिर उसे मेज पर रखकर कुछ
देर तक जाने क्या तो उस पर लिखा । लिख चुकने के बाद उसने नोटबुक का वह
पन्ना मुझे दिखलाया ।"
"उसके हाथ का लिखा क्या तुम पढ़ सके ?"
“क्यों नहीं, क्यों नहीं ! उसे समझ क्यों नहीं पाता ? क्योंकि वह अंग्रेजी भाषा में तो था नहीं। वह तो था एक प्याला । "
'प्याला ? यह प्याला फिर किस देश की भाषा में लिखा था, बड़े भैया ?"
"अरे, प्याला तो बस यही प्याला है रे बेवकूफ । " कहते हुए हर्षवर्धन
ने अपने हाथ में पकड़े हुए कॉफी के प्याले को उठाकर उसके सामने रखकर
दिखाया, “अरे, यही प्याला, जिसे हम लोग बांग्ला में तश्तरी-कटोरी, बाटी,
प्याली या चशक आदि कहते हैं। बस, इतने ही तक की बात नहीं, बल्कि उस कागज पर
बनाए गए उस प्याले के चित्र को मेरे सामने रखते हुए वह अंग्रेज - छोकरी
मेरी ओर लगातार एकटक निहारती ही रही थी । जिसे लोग कहते हैं- 'सप्रश्न
नेत्रों से अथवा सवालिया निगाहों से देखना !' मतलब कि वह यह भी पूछ लेना
चाहती थी कि मैं उसकी इस कारगुजारी को समझ पा रहा हूँ या नहीं ?" हर्षवर्धन
ने खुश होते हुए कहा ।
"अच्छा, अब यह तो बतलाओ दादा ! उस पर तुमने क्या किया ?"
“मैंने अपने हिसाब से यही समझा कि वह अंग्रेज मेम मेरी ही तरह खुद
भी एक प्याला कॉफी पीना
चाहती है और उसी के लिए वह मेरी ओर इशारा कर रही है। उसे अपनी कारगुजारी को
दुहराने का मौका दिए बगैर मैंने भी तुरंत ही बैरे को बोलकर एक प्याला और
अर्थात् अपने लिए एक तथा उसके लिए भी एक, मतलब कि कुल दो प्याला कॉफी लाने
को कह दिया । "
" अच्छा भैया ! अब जरा यह तो बताओ कि देखने-भालने में वह अंग्रेज मेम कैसी थी ?"
“मेम-तो-मेम! अब उस पर से उसके बारे में यह क्या पूछना कि देखने में
कैसी होती है ? अंग्रेज मेम जैसी होती हैं, ठीक वैसी ही थी, वह गोरी
चिट्टी अंग्रेज मेम । हाँ, उम्र कुछ ज्यादा नहीं थी । यही हद- से- हद
पच्चीस या छब्बीस वर्ष की । बंगाली कन्याओं की तरह उतनी कमनीयता वाली न
होने पर भी, देखने -भालने में सुंदर ही कहलाने योग्य थी । "
“तो फिर वही बात कहो न !” गोवर्धन ने एक बहुत ही समझदार व्यक्ति की
तरह से अपनी मूड़ी हिलाई और चहककर बोल पड़ा - " प्रेम-प्रीति करने लायक
अंग्रेज सुंदरी ! तब फिर और कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ है ?"
“क्या तुम अनाप-शनाप बकने लगे हो ? ऐसी बात अगर तुम्हारी भाभी जान
जाए तो फिर क्या होगा ? ये फालतू बातें छोड़ आगे की सुनो कि फिर क्या हुआ ?
मैंने मन-ही-मन सोचा कि हमारे देश पर शासन करनेवाली अंग्रेज जाति की एक
कन्या को केवल खाली-खाली कॉफी भर पिला देना क्या कोई ठीक बात होगी ? अपने
मन को ही जाने कैसा खिच खिच सा लगाने लगा। बड़ा ही अटपटा सा दिखाई पड़ेगा।
अतः मैंने उसके हाथों से वह नोटबुक और कलम अपने हाथ में ले ली तथा उसके एक
पन्ने पर मैंने टोस्ट और कटलेट जैसी चीजों के चित्र बना दिए। फिर उसे उस
मेम के आगे रखते हुए दिखाया। उसे देखते ही वह हुलसकर बोल पड़ी, 'यस, यस –
थैंक्यू ।”
"'यस' का मतलब क्या हुआ ?" गोबरा ने जानना चाहा।
" उसका माने वही हुआ, जो तुम इस समय कर रहे हो । माने कि हाँ ।"
उसके बड़े भाई ने उसे बतलाया, “इतने बड़े होकर भी तू 'यस' माने भी नहीं
जानता है, रे बेवकूफ ! अब उसे समझ गया न ?
"और थैंक्यू माने..." इस बात को उसने दो गुने रूप में कहा ।
“सो तो जानता हूँ । उसे बतलाना नहीं पड़ेगा। इसका मतलब यह कि तुम्हारी बात पर उस मेम ने दो- दो बार हाँ, हाँ कहा । "
" करेगी क्यों नहीं ? बल्कि उसके बाद उस मेम ने किया क्या कि उसी
नोटबुक पर फिर एक जोड़ा
अंडे जैसा चित्र बनाकर मुझे दिखलाया । मैं समझ गया कि यह कटलेट और टोस्ट के
साथ-साथ उबाला हुआ अंडा भी खाना चाहती है। अतएव मैंने बैरे को अंडे लाने
के लिए भी कह दिया । "
'वाह्, बेहद मजे की बात है ।" कहकर गोबरा ने सुड़क - सुड़ककर कई बार जीभ चटकारी; जैसे लगा कि रस ही सुड़क रहा है।
“अंग्रेज मेम की चर्चा सुनकर ही तेरी जीभ से लार टपकने लगने लगी है, ऐसा साफ-साफ देख रहा हूँ।”
“मेम से नहीं रे! मेमलेट की चर्चा का अनुमान करके जी भइया! मेम ने मेमलेट खाने की इच्छा प्रकट नहीं की ?"
“जब वह अंडों को तोड़कर गटक चुकी तो उसके बाद उसके नोटबुक को मैंने
फिर अपने हाथ में ले लिया । लेकर एक पन्ने पर एक तश्तरी भर काजू-बादाम का
नक्शा बनाया, मगर उसके बाद उसने तुरंत ही चपटी - चपटी जाने कौन सी चीजें
खींच डालीं। मेरी समझ में आया कि उसका मतलब भुने हुए पापड़ों से होगा। बैरे
को बुलाकर जो दिखलाया तो उसने बतलाया कि उस 'कॉफी-हाउस' में भुने हुए
पापड़ नहीं बेचे जाते । हाँ, उसकी जगह अगर आलू- भाजा या आलूदम लेना चाहो तो
परोसा जा सकता है। फिर तो वह आलू-भाजा ही ले आया तथा उसके साथ-ही-साथ
काजू-बादाम का तला हुआ नमकीन भी। आलू-भाजे को पाकर उस अंग्रेज छोकरी के
मुँह पर हँसी की जो लहर उठते देखी, तब मैं समझ गया कि दरअसल वह आलू-भाजा ही
मँगवाना चाहती थी।"
"तो क्या आलू- भाजा और भुने हुए पापड़ों का चेहरा एक जैसा ही होता
है ?" गोबरा ने एक अत्यंत परिपक्व चित्रकला-समालोचक की तरह अभिनय करते हुए
एक उत्तेजक प्रश्नावाचक चिह्न खड़ा कर दिया, “ दोनों की आकृति क्या एक जैसी
ही होती है ?"
“सो कैसे होगी रे ? परंतु चित्र में खींची हुई आकृति को देखकर ठीक-ठीक समझ पाने का कोई निश्चित जुगाड़ तो नहीं है !"
“अरे, ओ महाशय ! मैं आपसे ही पूछ रहा हूँ !" अबकी बार हर्षवर्धन ने
मेरी ओर रुख करते हुए मुझी से सीधे-सीधे पूछा, “पदार्थों को फलकों पर आँकने
के विषय में आप क्या कुछ जानते हैं ? लगते तो काफी समझदार हैं, अतः
निश्चित ही जानते होंगे। तो फिर बतलाइए कि चीजों को अंकित करते, रेखांकित
करते अथवा चित्र बनाए जाने पर ऐसा क्यों हो जाता है ? भुने पापड़ के साथ
आलू-भाजा इस तरह मिल क्यों जाता है ?
“आँकने की वेला में जिस तरह किसी-किसी समय एकक मिल जाते हैं कि
नहीं, ठीक उसी प्रकार, और क्या? इसके अतिरिक्त आँकने की तरह ही कई बार वे
फिर आपस में मिलते भी नहीं । कोई बहुत अच्छा रेखाचित्रकार हुआ तो तभी वह
उन्हें एक-दूसरे से मिला सकता है। ऐसा मँजा हुआ कलाकार की आकृति ऐसी
कलाकारी से आँकेगा कि देखनेवाले को जान पड़ेगा कि वह चूहा नहीं, बल्कि हाथी
है । अपनी इसी चित्रकारी की कलाबाजी से वह शुर्तुर्मुर्ग को ऐसा रूप दे
देगा कि वह घर की मुरगी दिखाई देने लगेगी। ऐसी परिस्थितियों में ही तो
चित्रकार की कला की बहादुरी दिखाई पड़ती है।"
“क्या कुछ करने से उस तरह की करामात हो जाया करती है ?" दोनों
भाइयों ने एक साथ ही मुझसे उत्सुक आवाज में पूछा। दोनों के मुख के भाव ऐसे
लगे, मानो दो-दो बार हाँ-हाँ कहकर वे चैलेंज सा देते हुए पूछ रहे हों !
“ ये सभी कुछ प्रेस में छापने के लिए ब्लॉक बनानेवाले कारीगरों का
कमाल है, भाइयो । चित्र के रूप में कुछ भी आँक देने से तो कुछ भी नहीं होता
। चित्रांकन करनेवाला चित्रकार तो कागज के एक छोटे से टुकड़े पर कोई एक
चीज बस एक थोड़ी सी जगह पर आँक भर देता है । परंतु छापने के पहले उसका
ब्लॉक बनानेवाले जो कलाकार होते हैं, असली उस्ताद तो वे ही हैं, इस कला के।
वे ही अपना माथा लगाकर आगा-पीछा गंभीरतापूर्वक सोचकर जरूरत के मुताबिक उसे
मनचाहे रूप में बढ़ा लेते हैं अथवा छोटा कर लेते हैं। मतलब यह कि जिस
विशेष प्रकार के चित्र की जरूरत होती है, ठीक उसी प्रकार का ब्लॉक वे बना
देते हैं। उदाहरण के लिए, बस यही समझिए कि किसी कागज के फलक पर आपने एक
लीची के फल का चित्र अंकित किया, परंतु बाद में पता चला कि आपकी जरूरत तो
कटहल का फल अंकित करने की है । तब ब्लॉक बनानेवाले कारीगर उस लीची के फल के
चित्र को ही बड़ा करते-करते कटहल बनाकर उसका ब्लॉक तैयार कर सकते हैं। इसी
एक ही आकृति को छोटा करते-करते लीची और बड़ा करते-करते कटहल बना दिया जाता
है। "
"छोटा कर देने से ही लीची और बड़ा करने मात्र से ही कटहल ! वाह रे वाह ! " गोबरा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा ।
“इसका मतलब यह कि मैंने जो काजू-बादाम का चित्र बनाया था, ब्लॉक
बनानेवाले अगर चाहें, तो उस चित्र से ही काशीफल या कुहड़े का आकार बना सकते
थे ?"
“बिल्कुल बना सकते थे।"
“अब ये सब छोड़िए भी ।" हम लोगों की चित्रकला - विज्ञान की
तात्त्विक आलोचना में गोवर्धन ने बाधा पहुँचाई—“भैया ! अब तुम यह बतलाओ कि
उसके बाद आगे क्या हुआ ?"
"उसके बाद तो हम दोनों ने तरह-तरह की ढेर सारी चीजें मँगा- मँगाकर
खाईं। कमाल यह था कि एक-दूसरे से एक शब्द भी बोले बिना सभी कुछ बस केवल
चित्र बना-बनाकर ही हम चलाते गए। इस प्रकार लगभग पंद्रह रुपए का सामान निगल
गए। उसके बाद बैरे ने बिल लाकर मेरे हाथों में थमा दिया। तब मैंने उसके
हाथों में सौ रुपए का एक नोट थमा दिया। बाकी पैसे लौटाने के लिए बैरा उस
नोट को तुड़वाने के लिए ले गया। उसके बाद भी मैंने देखा कि वह अंग्रेज
छोकरी अभी भी ध्यानमग्न होकर अपनी नोटबुक के पन्ने पर कोई चित्र आँक रही
है। "
'ओह् ! मैं समझ गया, निश्चय ही वह अब तुम्हारे मुख का चित्र बनाने
लगी होगी ! कहो, ठीक बात है न ?" गोबरा ने एक अमार्जित हँसी अपने चेहरे पर
फैला दी।
“अरे! ये चेहरा कोई मामूली चेहरा नहीं है । इसकी आकृति बना पाना
किसी अंग्रेज मेम के बस की बात नहीं है। सो भी एक छोटी सी नोटबुक के पन्ने
पर ! हाँ, तेरे जैसा दुबला-पतला, रोगिहा- बेमरिहा चेहरा अगर होता, तब शायद
संभव हो भी पाता ! जो चित्र वह बना रही थी, उसे जब बहुत सावधानी से बनाकर
वह पूरा कर चुकी, तब उसने उसे मेरे हाथों में दे दिया । देकर फिर उसने
थोड़ी सी ऐसी हँसी बिखेरी, जिसे लोग लज्जावती, शर्मीली हँसी कहते हैं। ठीक
वैसी ही हँसी की फुहार उसने अपने चेहरे पर बिखेरी। "
"इसका मतलब यह कि वह चित्र उसने अपने खुद के चेहरे का ही बनाया था। मुझे तो भाई अब यही सूझ रहा है !"
शिवराम चक्रवर्ती
"नहीं रे! मैंने देखा कि वह किसी के भी चेहरे का चित्र नहीं था, बल्कि उसने तो उस पन्ने पर आँकी थी - एक खटिया ।"“खटिया! खटिया क्यों ? उस माहौल में भला खटिया कोई क्यों बनाएगा ?
खटिया क्या कोई खाने की चीज है ? नींद आने पर सोने की एक चीज तो है, यह तो
मैं जानता हूँ। " गोबरा अवाक् रह गया। फिर अचानक ही लाल-बुझक्कड़ का-सा भाव
दिखाते हुए बोला, “ओह ! अब मैं समझ गया। तुम्हें अभी और भी खटवाने का मतलब
कि तुमसे और भी ज्यादा काम करवाने का अभिप्राय था उस छोकरी के मन में।"
“मैं क्या कोई मच्छरदानी हूँ कि वह मुझे चारों तरफ से खटखटाएगी या
गिराएगी ? मेरे साथ ऐसा कुछ करना इतना आसान नहीं है। " हर्षवर्धन ने उसकी
बात पर एतराज किया, "परंतु इतना जरूर है कि मैं ठीक-ठीक उसका अभिप्राय समझ
नहीं पाया। इसी से मैं अवाक् होकर अंदर-ही-अंदर सोचता रहा उसने खटिया का
चित्र क्यों आँका ?"
“अच्छा, इस बात को जरा तुम मुझे तो बतलाओ कि उसने किस प्रकार की खटिया बनाई थी ? दूध के फेन की तरह धकधक सफेद किस्म की क्या ?"
अबकी बार मैंने उन दोनों भाइयों के वार्त्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए पूछा ।
“अरे, काफी लंबी-चौड़ी, बड़ी सी खटिया । जैसी कि पलंग जैसी भारी
खटिया हुआ करती है । परंतु खटिया के उस आकार की वजह से नहीं, मुझे तो यह
बात सोचकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ा कि खटिया का जन्मदाता तो मैं ही हूँ !
वस्तुतः हमारा तो काठ - बाँस का व्यवसाय ही है। हम तो लकड़ी और बाँस के
सामान बनाते ही रहते हैं । निश्चय ही उसमें खटिया बनाने का काम
महत्त्वपूर्ण स्थान रखता ही है। तो मुझे इस बात को लेकर ही भारी विस्मय हुआ
कि इस बात का पता वह अंग्रेज मेम छोकरी कैसे कर पाई ? सच कहता हूँ भाई !
इस रहस्य को मैं अभी भी आज तक समझ नहीं पा सका हूँ। मैं तो काठ मारे सा
कठुआया पड़ा रह गया हूँ, इस रहस्य का कोई तल न पा सकने के कारण समझ रहे हैं
न महाशय !"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें