प्रिया देवांगन "प्रियू"
"बिटिया रानी....! मैं सोच रहा हूँ कि तुम पढ़ाई करती रहो और
साहित्य सेवा भी; जिससे हमारी साहित्यसेवा बढ़ती रहे। साहित्य सृजन के जरिये
हमारी समाजसेवा भी होगी। मुझे तो अभी और आगे बहुत कुछ करना है। तुम क्या
सोचती हो इस बारे में ? क्या तुम सहमत हो मेरे इस बात से ?" एक साहित्यकार
पिता इंद्रजीत ने रूही के पास अपनी स्नेहपूर्वक बात रखी।
थोड़ी देर सोचने के बाद रूही बोली- हाँ... हाँ...! पापा क्यों
नहीं... ? मुझे आपके साथ अधिक से अधिक समय बिताने को भी मिलेगा; और एक साथ
कार्य करने में अच्छा भी लगेगा। रोज अखबारों के पन्नों में बड़े-बड़े अक्षरों
में आपके नाम के साथ मेरा भी नाम आएगा।".रूही की बातें सुन इंद्रजीत जी
हँस पड़े।
रूही मुँह बनाते हुए बोली-
"पापा ! इसमें हँसने वाली क्या बात है ? हम ऐसा कार्य करेंगे तो हम दोनों
का एक साथ नाम नहीं आएगा क्या ?"
इंद्रजीत
जी बोले- "बेटा, एक बात जिंदगी में हमेशा ध्यान रखना कि लोगों को नाम के
पीछे नहीं भागना चाहिए। कुछ ऐसा काम करो कि स्वयं तुम्हारा नाम हो जाय।
हमें लोगों को बताने की जरूरत नहीं पड़ना चाहिए कि हम ऐसा काम कर रहे हैं
या बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। जताने की जरूरत नहीं है।"
रूही अपना एक हाथ आगे करते हुए बोली- "बस .. बस... पापा जी हो
गया।" इंद्रजीत जी को रूही बिटिया का जरा सा रूठना समझ आ गया। बोले- "आज
तुम्हें मेरी बात समझ नहीं आएगी। जब तुम जिंदगी का मतलब समझोगी, तब तुम्हें
सब एहसास होगा।"
रूही बोली- "पापा जी, ये सब बातें
मेरी समझ से परे हैं। वैसे भी आप तो मेरे साथ हो ही हमेशा, तो मुझे किस बात
की फिक्र रहेगी ; भला बतताइए।" फिर इंद्रजीत जी बोले- " मेरी रानी....!
हमेशा तुम मेरे भरोसे मत रहा करो न भाई। कभी खुद भी कुछ कर लिया करो।"
"छोड़ो ना पापा जी, आप भी बस इन्हीं बातों को लेकर बैठ गए ? आप भला
कहाँ जायेंगे; बताइए ? चलिए, अब रात बहुत हो चुकी है। सोते हैं। कल सुबह
क्या करना है। इसकी योजना तैयार करेंगे। गुड नाईट पापा जी।" कहते हुए रूही
अपने बेडरूम में चली गयी।
अगली सुबह रूही
की आँखें देर से खुली। उठी। उसे इंद्रजीत जी नहीं दिखाई दिये। सोचने लगी कि
इतनी देर हो गयी आज पापा मुझे आवाज क्यों नहीं दे रहें है। थोड़ी भी देर
होती तो, वे रूही उठो न कितना सोओगी री लड़की। रात भर नहीं सोयी हो क्या।
जल्दी उठ कर व्यायाम करना चाहिए ना। कुछ भी नहीं।" रूही आज स्वयं उठ गयी
थी। इंद्रजीत जी को देख कर घबरा गयी। बोली- "क्या हुआ पापा जी, आप ठीक तो
है ना ? क्यों बार–बार पसीना आ रहा है आपको ? हाँफ क्यों रहे हैं आप ?
मम्मी... मम्मी...! पापा जी ठीक तो है ना ?"
इंद्रजीत जी बोले- "थोड़ी तबीयत ठीक नहीं लग रही है बेटा।" तभी मम्मी बोली- "चलिए डॉक्टर के पास चलते हैं।"
इंद्रजीत जी को डॉक्टर के पास ले जाने वाले ही थे कि पता नहीं रूही
की आँखों से आँसू रुक ही नहीं रहे थे। तभी इंद्रजीत जी बोले- 'मैं जल्दी
आऊँगा बेटा। डोंट वरी माय डियर।" इंद्रजीत जी ने कहा।
"नहीं पापा जी। मैं भी आपके साथ जाऊँगी।" रूही की जिद्द में
अनुरोध था। अंततः रूही का इंद्रजीत जी के साथ जाना नहीं हो पाया।
घर वालों को इंद्रजीत जी का इंतजार करते काफी समय हो गया। थोड़ी देर बाद खबर मिली कि वे अब कभी वापस नहीं आयेंगे।
साहित्यकार पिता इंद्रजीत जी की नयन बिछायी पुत्री रूही अब तक निः शब्द हो चुकी थी।
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राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
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