‘पंखा तको अबड़ दिन होगे, पोंछावत नइहे।’ सोनिया चाऊँरधोवा गंजी म नल ले पानी झोंकत कहिस। सुनिस धुन नहीं ते योगेश अपन सुर म गाड़ी धोते रिहिस।
‘डेना मन म भारी गरदा माड़ गेहे, पोंछ देते। बने ढंग के हवा आबेच नइ करय ...ऊपराहा म ये गर्मी लाहो लेवत हे।’
‘अरे ! पहिली एक ठिन बूता ल सिरजावन दे, ताहेन उहू ल कर देहूँ। तोर तो बस... एक सिध नइ परे राहय दूसर तियार रहिथे। मशीन नोहवँ भई मनखे औं। दू ले चार हाथ थोरे कर डारवँ।’
‘बतावत भर हौं जी, तोला अभीच करदे नइ काहत हौं।’ योगेश के भोगावत मइन्ता म झाड़ू पोंछा करत सोनिया सफई मारिस।
‘एकात ठिन अउ बूता होही, तेनो ल सुरता करके राखे रही। आज इतवार ये न, छुट्टी के दिन ल कइसे काटहूँ।’ - कंझावत कहिस अउ गुने लगिस योगेश - ’उल्टा के उल्टा छुट्टी के दिन अउ जादा बूता रहिथे बूजा हँ।‘
‘तोला तो कुछु कहना भी बेकार हे’ -सोनिया तरमरागे, चनचनाए लगिस अब - ‘दू मिनट नइ लगय, अतेक बेर ले घोरत हस घोरनहा मन बरोबर। एक घंटा ले जादा होगे, कोन जनि अउ कतेक नवा कर डरबे ते।’
’अरे ! तैं नइ समझस पगली ! मनखे बने बने पहिरे ओढ़े भर ले बने नइ होवय। लोगन सब ल देखथे। चेहरा बने हे त कपड़ा-लत्ता बने पहिरे हे कि नहीं। बने बने कपड़ा-लत्ता पहिरे त, गाड़ी बने साफ सुग्घर हे कि नहीं। गाड़ी साफ सुग्घर हे, त मुड़ कान म बने तेल-फूल लगे हे कि नहीं। तेल-फूल लगे हे, त कंघी-उँघी कोराए हे कि नहीं..... वोकर लमई ल सुनके सोनिया मुँह ल फारके गुने लगिस- ‘का होगे ये बैसुरहा ल आज।’
योगेश रेल के डब्बा कस लमाते रिहिस - ‘सुघराई सबो डाहर ले देखे जाथे। चिक्कन चिक्कन खाए अउ गोठियाए भर ले सुघरई नइ होवय। चिक्कन चिक्कन रेहे, खाए अउ गोठियाए भर ल दिखत के श्याम सुन्दर उड़ाए म ढमक्का कहिथे’ - अइसे काहत जोर से खलखलाके हाँस तको भरिस।
‘बात म तो ...... तोर ले कोनो नइ जीते सकय। गोठियाबे ते गदहा ल जर आ जही।’ सोनिया के मुँह थोरिक फूलगे।
मनाए के मुड म योगेश कहिस - ’कोन जनि हमरेच घर म अतेक कहाँ ले गरदा आथे, चीन्हे जाने अस।’ सोनिया ओकर गोठ ल सुनके कलेचुप रंधनीखोली कोति रेंग दिस।
योगेश जब गाड़ी धोथे त एक-डेढ़ घंटा लगि जथे। तरी-ऊपर, इतरी-भीतरी फरिया-अंगरी डार-डारके धोथे। सबले पहिली सादा पानी मारके धुर्रा-माटी ल भिंजोथे। फेर वोला शैम्पू पानी लगे फरिया म रगड़थे। तेकर पीछु साफ पानी म फेर कपड़ा मारके धोथे। तभे तो देखइया मन कहिथे -‘भारी जतन के रखे हस गा अपन गाड़ी ल ?’
कोनो कहिथे - ’अतेक दिन ले बऊरे तभो अभीन ले नवा के नवच हे जी।‘
अइसन सब सुनके योगेश ल गरब नइ होवय भलकुन कहइया मन ल वो खुदे कहिथे- ’गाड़ी हमर हाथ गोड़ होथे, एकर देखभाल बने करबोन त ये हली-भली हमर संग देही। इहीच ल बने नइ रखबोन त कतेक संग देही।’ बने तको ल कहिथे।
‘फरी पानी मारके बस तीरियावत रिहिसे। ओतके बेरा दुवार कोति ले सिटकिनी के आरो आइस। योगेश देखथे - बनवारी अउ सुनीता दुवार म खड़े हे।
बनवारी भीतर आवत हाँसत पूछिस -’अंदर आ सकथन नहीं वकील साहब।‘
’अरे ! आवव आवव‘ - योगेश आत्मीयता के पानी ओरछत कहिस - ‘अपने घर म तको पूछे बर लगथे ?’
बनवारी अउ सुनीता पहिली पइत योगेश घर आवत हे। योगेश जब गाँव म राहत रिहिसे त उहाँ इन्कर आना जाना होते रिहिसे। बनवारी के आए ले योगेश के मन म आसरा के बिरवा फूटगे -‘कहूँ इन केस के पइसा चुकाए बर तो नइ आवत हे।’
बनवारी के दसों ठिन केस चार सौ बीसी के। जेन बेरोजगार ओकर नजर म आइस उही ल चिमोटके पकड़िस।
‘मंत्रालय म मोर अबड़ जोरदरहा पकड़ हावय।’
‘तोला नौकरी लगा देहूँ।’
‘तैं तो घर के आदमी अस, तोर ले का पइसा लेहूँ। हाँ, साहब सुधा मन ल खवाए-पियाए बर परथे। जादा नहीं एक लाख दे देबे।’
आखरी म सब चुकुम, बिन डकारे सब्बो हजम। कतको झिन जिद्दी मनखे मन धरके कूट तको दीन। सबो केस ल योगेश ह निपटाइस। सबो म बाइज्जत बरी। तबले बनवारी योगेश तीरन आए जाए लगे हे। एक दू पइत फोन म तगादा करिस योगेश ह त कहि दे रिहिसे-‘तैं पइसा के टेंशन झन ले, मिंजई होवइया हे, बस पइसा हाथ आइस अउ मैं लेके आतेच हौं।’
एक पइत कहि दे रिहिस -‘चना मिंजा कूटागे हे भइया, दू चार दिन म बेंचके तोर जम्मो फीस ल चुकता कर देथौं।’
योगेश अब वकीली के पइसा म शहरे म घर बना डारे हावय। तीज-तिहार म गाँव आना जाना होथे। सुनीता -बनवारी वोकर दीदी भाँटो हरे। तीर के न, दुरिहा के। अतेक तीर तको नहीं जिन्कर बर कुकरी-बोकरा के पार्टी मनावय अउ अतेक दुरिहा तको नहीं जिन ल भाजी-भात तको नइ खवाए जा सकय।
फेर मया, जुराव अउ लगाव हँ रिश्ता नता के बीच के दूरी ल नइ नापय। अपन अउ बिरान ल नइ चिन्हय।
‘अइ ... घर कोति ले आवत हौ कि कोनो डाहर ले घूमत-फिरत आवत हौ’ - सोनिया पानी देके पैलगी करत पूछिस।
’घरे ले आवत हावन भाभी‘-सुनीता जवाब दिस। ननद भौजाई घर म निंग गे। योगेश अउ बनवारी अपन गोठियाए लगिन। उन्कर नहावत, जेवन करत ले मंझनिया अइसेनेहे निकल गे। संझा सारा-भाटो बाजार जाए बर निकल गे।
घरे तीरन नानकुल हटरी लगथे। योगेश उही मेरन घर के जम्मो जरूरत के समान बिसा लेथे। साग-भाजी, किराना, कपड़ा-लत्ता तको। घूमे फिरे के मन करथे, तभे बाहिर जाथे। नइते इही मेरन दूनों प्राणी संघरा घूम लेथे। तीर तखार म उन्कर बने मान सम्मान तको हवय। सब कोनो वकील-वकीलीन कहिथे।
किराना के दूकान म डायरी चलथे। साग भाजी ल हाल बिसा लेथे। सबो झिन चिन्हथे जानथे तेकर सेति चिल्हर नइ रेहे या कुछू कमी बेसी म साग भाजी तको उधार दे देथे। योगेश घलो काकरो हरे खंगे म संग निभा देथे। अपन अउ बिरान के लगाव-दुराव व्यवहार ले बनथे, रिश्ता -नता के जुराव भर ले नइ होवय।
’पाला भाजी का भाव लगाए हस पटैलीन ?’ -योगेश पूछिस।
’चालीस रूपिया ताय ले ले ... के किलो देववँ ?’ पटैलीन एक हाथ म तराजू बाट ल सोझिवत अउ दूसर हाथ म भाजी के जुरी ल उठावत कहिस।
’आधा किलो दे दे।’
’भाजी मन बने ताजा हावय।’ - बनवारी मुचमुचावत कहिस।
’हौ ..... मैं सरीदिन ताजा लानथौं .... पूछ ले वकील साहब ल ..... न वकील साहब’ - पटैलीन भाजी तऊलत योगेश ल हुँकारू बर संग जोरिस।
’इन्कर बहुत बड़े बारी हावय। आठो काल बारा महीना इमन इही बूते करथे।‘ योगेश, बनवारी ल बताए लगिस।
बाजू म बइठे बिसौहा कहिस - ’खीरा नइ लेवस वकील साहब !’
’पहिली फर आय तइसे लगथे, बने केंवची-केंवची दीखत हे‘ - बनवारी कहिस।
योगेश के मन तो नइ रिहिसे। बनवारी ल खीरा के बड़ई करत देख माँगी लिस -’ले आधा किलो दे दे।‘
’एक दे देथौं न .....‘ बनवारी के बड़ई ले बिसौहा के आसरा बाढ़गे रिहिस। योगेश इन्कार नइ करे सकिस -’कइसे किलो लगाए हस ?‘
’तोर बर तीस रूपिया हे, दूसर बर चालिस रूपिया लगाथौं‘.........बिसौहा खुश होवत कहिस - तैं तो जानते हस ... तोर बर कमतीच लगाथौं।’ अउ हें हें हें करत हाँसे लगिस।
एकात दू ठिन अउ साग भाजी लेके दूनों घर लहुट गे। सुनीता नान्हे लइका ल सेंक-चुपरके वोकर हाथ गोड़ ल मालिस करत रहय। वकील घर ठऊँका नान्हे लइका आए हवय। वोकरे अगोरा अउ सुवागत के तियारी के चलते गजब दिन होगे रिहिस सोनिया मइके नइ गे पाए रिहिसे। एक तो एकसरूवा मनखे उपराहा म नान्हे लइका के देखभाल, उहू फीफियागे रिहिसे। मन होवत रिहिसे दू चार दिन बर मइके जाए के। उन्कर आए ले वोकर बनौती बनगे।
‘दीदी मन आए हे त इन्कर राहत ले मइके होके आ जातेवँ कहिथौं।’ - रतिहा बियारी करे के पीछु सोनिया पूछिस।
’सगा-सोदर के सेवा सत्कार ल छोड़के, इन्करे मुड़ म घर के बोझा ल डारके मइके जवई नइ फभय भई।‘ -योगेश कहिस।
‘जावन दे न भैया, मैं तो हाववँ। कतेक मार बूता हे इहाँ, घर के देखरेख ल मैं कर डारहूँ।’
’हौ...बने तो काहत हे, सुनीता सबो ल कर डारही, नइ लगय।‘ बनवारी सुनीता ल पंदौली दीस।
बिहान भर सोनिया मइके गै। रहिगे तीन परानी - वकील, बनवारी अउ सुनीता। योगेश आन दफे कछेरी ले आवय त हटरी जाए के, कभू राशन के, त कभू अहू काँही लगेच राहय। सोनिया के जाए ले उल्टा दिन हली भली कटे लगिस। होवत बिहनिया नाश्ता पानी तियार करके सुनीता घर के जम्मो बूता ल सिरजा डारय। योगेश के कपड़ा लत्ता ल तको धो डारय। वोकर कछेरी के आवत ले बनवारी नवा-नवा, ताजा-ताजा साग भाजी लान डारय। जेवन बेरा म तियार मिल जाय गरमागरम। सुनीता रहय त कभू बाँचे भात के अंगाकर बना देवय, त कोनो दिन ओकरे फरा बना देवय।
योगेश कहय -‘तैं काबर तकलीफ करथस, मैं आतेवँ त साग भाजी ल ले लानतेवँ।’
’का होही जी, आखिर हमीच मन ल तो खाना हे।’ बनवारी टोंक देवय।
’एकेच तो आवय भैया ! तैं लानस कि इही लानय।’ सुनीता के गोठ सुनके योगेश के मुँह बँधा जाय।
हफ्ता भर कइसे कटिस पतेच नइ चलिस। शनिच्चर के दिन रतिहा सोनिया के फोन आगे -‘कालि लेहे बर आबे का ?’
‘नइ अवावय, सगा सोदर ल छोड़के मैं कइसे आहूँ तँही बता ? तोर भाई एक कनक छोड़ देही .... त नइ बनही।’
सुनीता कहिस -’चल देबे न भइया, हमूमन कालि घर जाबोन, अइसे तइसे पन्द्रही निकलगे, हमरो घर म काम बूता परे हावय।‘
‘तैं ओति चल देबे हमन गाँव कोति निकल जबो।’ बनवारी एक सीढ़ी अउ चढ़ गिस।
बिहान भर संझा योगेश सोनिया ल लेके लहुट आइस। चहा पानी पीके झोला धरके हटरी निकल गै।
‘अबड़ दिन बाद आवत हस वकील साहब, का देवौं बता ?’ पसरा लमाए बिसौहा कहिस।
‘ससुरार चल दे रेहेंव, उहाँ अबड़ अकन साग-भाजी जोर दे हावय, पताल, मिर्चा अउ धनिया भर दे।’
ओतके ल झोला म झोंका के पूछिस -’के पइसा ?‘
’अढ़ई सौ।‘
’अढ़ई सौ ?‘ योगेश मजाक समझ हाँसत चेंधिस।
बिसौहा फोरियाके बताइस -‘बीच म दमांद बाबू आवत रिहिसे न, ओकरे हाथ के तीन किलो खीरा, दू किलो करेला अउ भाँटा के पइसा बाँचे रिहिस।’
योगेश कुछु नइ बोलिस, बिसौहा के पइसा ल जमा करके रेंगे लगिस। बाजू म बइठे पटैलीन ओतेक बेर ल चुप रिहिसे। वोला रेंगत देखिस त चिचियाइस -‘मोरो ल देवत हस का वकील साहेब !’
‘तोर कतेक असन आवत हे ?’
‘जादा नइहे ... अस्सी रूपिया ताय।’
योगेश ओकरो चुकारा ल करिस। घर आके पूछिस -‘राशन दूकान थोरे जाए बर लगही। लगही त दे, ले लानथौ।’ सोनिया अपन काम म लगे रिहिस। कुछु आरो नइ मिलिस। वोह अपन गाहना गुरिया, चुरी चाकी ल हेरे-धरे, सहेजे-सिरजाए म लगे रहय। माईलोगन मन कतको दुरिहा ले आए रहय, कतकोन थके हन कहत रहय, फेर अपन घर दुवार के साफ सफई, गहना गुरिया के हेरई तिरियई करे बर थोरको थकास नइ मरय, न कभू बिट्टावय। योगेश वोकर परवाह करे बिगर झाँकत-ताकत रंधनी कुरिया म गइस अउ सब समान ल तलाशे-तवाले लगिस। ओला बड़ ताज्जुब होइस। रसोई के सबो समान उपराहा उपराहा रिहिस। काँहीच के कमी नइ रिहिसे। सूजी रवा, साबुनदाना अउ शक्कर तको पर्याप्त रिहिस। जबकि सुनीता बीच बीच म सूजी के हलवा, साबूनदाना के बड़ा अउ एक दिन खीर तको बनाए रिहिस। योगेश राशन दूकान के डायरी ल निकालिस।
डायरी ल देखिस त ओमा हफ्ता भर म तीन पइत ले समान आए रिहिसे। वो तीन पइत म कम से कम हजार भर के समान आए रिहिसे।
‘अतेक अकन समान कइसे अउ काबर आए रिहिस’ - योगेश इही गुणा भाग लगाते रिहिसे, ओतके म सोनिया के आरो आइस - ’कस जी ..... सुनत हस ?‘
‘हाँ, बता।’-योगेश मनढेरहा जवाब दिस।
‘मोर कान के झुमका, दूनो नवा पैरी अउ सोन के अँगूठी मन नइ दीखत हे, कहूँ तिरिया के रखे हस का ?’
’का ? मैंहँ तो गोदरेज ल तोर गए के बाद खोल के देखेच नइ हौं।‘ योगेश के मन म कुछ-कुछ शंका उभरे लगिस। वोकर समझ म हफ्ता भर के सबो घटना रहि-रहिके आए जाए लगिस। छाती के धुकधुकी बाढ़े लगिस।
’त सबो गहना मन गै कहाँ ?‘ अब सोनिया के बिफड़े के बेरा रिहिसे।
’पहिन के तो गे रेहेस न ..... अउ चाबी तको तोरे तीरन रहिथे।‘
योगेश के बात सुनके सोनिया के जी धक्क ले होगे -’सबो गाहना ल थोरे पहिनके गे रेहेंव..... अउ चाबी ल तको इहेंचे छोड़ दे रेहेंव, ........गोदरेज के ऊपर म .......।‘ वो रोवाँसू होवत चिचियाइस।
अब मुड़ धरे के बारी योगेश के रिहिसे-
‘निभगे रिश्तेदारी हँ।’
धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346
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