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शनिवार, 2 नवंबर 2024

अनदेखा



माड़ी के दरद म अरझे पत्नी के ध्यान ल बँटाय बर रस्ता म नाहकत हार्वेस्टर के बड़ाई करत रमेशर कहिथे- "रीपर अउ हार्वेस्टर के आय ले किसान बर एक तरह सहुलियते होय हे, पैसा लगथे त लगथे बिना हरहर-कटकट के झटकुन लुवा-मिंजा जथे। न ओसाय के कंझट न धूंके के फटफट, सिद्धो बोरा म भर अउ मंडी डहर लेग।" परछी ल बुहारत दुर्गेशरी अनदेखा के भाव ल समझ जथे, दू क्षण चुप रहिथे तहान कनिहा ल धरत चेहरा म दरद के चित्र उकेरत असहाय भाव म कहिथे-"मोर बात ल न तैं सुनस न ओ सुनिस। आप राज न बाप राज, ओतेक दुरिहा झन झा बेटा कहेंव नइ मानिस, गोड़ उठाइस अउ चल दीस। करजा-बोड़ी होइगे रिहिस त का ए मेर नइ छुटातिस? इही मेर अधिया-धोधिया कमा लेतिस त नइ बनतिस? दीया बारे के बेरा हो जथे, लइका मन ल देखे बर हमर आँखी तरसत हे अउ तैं याहा रीपर अउ हार्वेस्टर देखत हस।" दुर्गेशरी समेशर ऊपर गुस्सा देखाथे-  बेटा ल कभू नाँगर के मुठिया धराय होबे, जेन खेती-किसानी डहर चिभिक करही?" दुर्गेशरी के प्रतिउत्तर म रमेशर मेर बोले बर काहिंच नइ राहय वो चाहथे ये बात म इही मेर विराम लग जय काबर के ये विषय म भरपूर चर्चा हो गे रहिथे। धनतेरस पूरा कहच-सुनी म गुजरे रहिथे। दुर्गेशरी घलो चुप हो जथे उहू ल सब्जी-भाजी जतनना रहिथे। बाद म चिल्लावय झन कहिके साल ल ला के रमेशर के खाँध म मढ़ा देथे।


बारिश के बिदगरी बरोबर होयच नइ राहय जाड़ के दिन आ धमकथे। मौसम अउ मनखे के एके रास हे। मनखे घलो अपन पारी बर एक पाँव ल दँताय खड़े रहिथे, सामने वाला हटेच नइ राहय अपन बाजा-रूँजी मढ़ाय लगथे। कातिक म सोनहा रंग बड़ पसन्द करे जाथे। कहे जाय त चारो-मुड़ा सोनहा रंग छा जथे। धरती के ओनहा घलो सोनहा रंग के हो जथे। खेत-खलिहान, सराफा के दुकान, छानी-परवा, गउटनीन के गर, नाक अउ कान सबो जगह सोन रंग शोभे लगथे। सोन रंग के शोभच कहे जाय जेला देखे के लालच म बादर बिदाई ले बर कनुवावत रहिथे। वो का जानय किसान ओखर उपस्थिति ल घोर्रियई समझ जही। सोनहा धान बर वोकर दृष्टि ल कुदृष्टि समझ जही। भुला जही के बादर कोनो के अनदेखा नइ करय। वोकर दयादृष्टि ही सोन रंग ओखर भाग आय हे। अदमी खुद नइ सुहावय, समय अउ जरूरत वोला सुहवाथे। तभे तो बादर ल देख खुश हो के मँजूर कस नचइया किसान आज नाक मुँह सकेलत हे। बादर ल देख एक डहर दाई-महतारी मन छबई-मुँदई, लिपई-पोतई के संग बरी बनई के काम ल ओसरावत रहिथें त दूसर डहर हँसिया-टंगिया पजवाय के काम जोरों पर चलत रहिथे, या कहन मारामारी होवत रहिथे। मारामारी होबेच करही गाँव भर के औजार अउ एक झन लोहार। परोसी के बहुरिया ल अंगना दुवारी लिपत,चउँक पुरत,नान्हे-नान्हे नोनी मन ल रंगोली म रंग भरत देख रमेशर ल लइका मनके बहुते याद आय लगथे। अमावस के अँधियार ओखर हिरदे म समकेरहे खुसर जथे, वोला जिनगी अउ घर-दुवार निमगा बेरंग लगे लगथे। मनखे चाही कोनो होवय भूख अउ दुख ल अनदेखा नइ कर सकय।


सुरहुत्ती के उछाह भरे वातावरण के बीच रमेशर अपन परछी म सिसियाय अस बइठे रहिथे। बीच-बीच म नतनिन ल तियार दय- "बरदी आही त बछरू ल देखे रहिबे बेटी, सुट ले बुलक जही रकठा ह।" अवइया-जवइया ल देखय त कुछ देर मन ह हरू होवय तहान फेर खीझे लगय- "ठेकादार ह पैसा ल देइ देतिस त का होतिस? धनतेरस अउ देवारी ह का मजदूर-बनिहार बर नइ होवय, खाली धनवन्तच मन बर होथे? झोंक भले लिहीं पर दे नइ सकँय। एती भेव सो भँसड़ाते रइहीं अउ मुँह उचा के कहि घलो दिहीं- धन ह ओरिया के छाँव ए बिहनहा एती त सञ्झा ओती। ए दुमुहा मन कर भागले चाट्ठन मुँह नइये, होतिच त झन काह कहि देतिन। फलाना दिन ए नइ दँय, ढकाना दिन ओ नइ दँय त रातकन नून अउ हरदी नइ दँय। ठीक हे मान्यता होही पर हमर तो अनदेखा होगे। अपन जिनिस ल काहीं करँय, हमर कमाय ल तो देतिन।" रमेशर के हिरदे म भभकत आगी ह थोरक शान्त होथे, जब क्रोध के भाव ह उफना के भकभक ले गँवा जथे। बिना हुँकारू भरइया के कतेक ल गोठियावय, हारे जुवाड़ी कस खखौरी म हाथ ल चपक के बइठ जथे। सुरता आथे त साल ओंढ़थे।


मिनेश पढ़-पढ़ा के गांव के देवधामी मन म दीया मढ़ाय बर निकले राहय। मिनेश, रमेशर के मंझला भैया के नाती आय। पढ़ई-लिखई म हुशियार मिनेश के विनम्र व्यवहार ह कोनो बिरलेच होही जेखर मन ल नइ जीते होही। ददा ह बेटा ल ग्यारहवीं म राजधानी भेजहूँ कहिके मन बनाय रहिस, पर गरीबी पस्थिति के कारण नइ भेज पाय रहय। रमेशर ल देख के कहिथे- "पयलगी करत हँव बबा जय जोहार, दीया मढ़ाय बर नइ जाथस गो?" मिनेश ल देख रमेशर के चेहरा के उदासी ह ओ क्षण छू हो जथे। पाँव डहर लपकत मिनेश के हाथ ल पकड़ बड़े साहब बने के बड़ कन आशीर्वाद देथे। गमछा म बइठे के जघा ल बुहारत कइथे- "बइठ मिनेश बइठ बेटा, बइठ-बइठ। नइतो जात हँव ग, रेंगे घलो नइ सकँव अउ सबले जबरदत्त ओ बछरू। कखरो धान-पान म चल दिही त पाके धान कोन सइही बेटा?" 

"अउ दादी ह ग?"

"राँधे-पोय ल नइ लगही ग, बपरी आगी बारे होही।"

"कका-काकी मन तो आबो कहे रहिन का? कइसे नइ आइन?" मिनेश के प्रश्न ह रमेशर ल एक बेर अउ मौका दे देथे- "काला बताबे बेटा? फोन करे रहिसे। बतावत रहिस, भेव मननहा कोन ओकर खुटखुटहा ठेकादार हे, जे ह धनतेरस ए कहिके पैसा ल नइ दिस। बिना पैसा के कामा आवय? मन ल मारिस होही ग परदेश म झगरा थोरे करय,ऊपर ले बोलनहा नोहय,ऊबक के हमार तिर नइ बोले ए उन तो भला साहब-शुभा एँ। पैसा ल दे दे रतिस त गाड़ी चढ़ गे रतिन। काली चउदस के साँझ रात ले उतर गे रतिन।" बोलत-बोलत रमेशर के गला भर जथे केन्दरावत कहिथे "देश-देश के अदमी मन तिहार बार ए कहिके अपन-अपन गांव घर आ गँय। हमरे लइका मन टँगाय हें। बहू बपरी रहितिस त ये पाखा-भिथिया मन अइसने थोरे रहितिन।" समुन्दर के खारा पानी ल छूए के बाद पुरवाही के जुड़ स्वभाव ह अउ जुड़ हो जथे। रमेशर के आँखी म आँसू ल देख मिनेश के आँखी डबडबा जथे। जुड़ पुरवाही ओखर कोमल हृदय ल छू लेथे। देंह घुरघुरा जथे। मुँह ल अन्ते करके आँसू ल पोंछथे अउ बात ल आन डहर लेगत कहिथे- "नइ बबा, हमर भगवान राम ह इही सुरहुत्तीच के दिन लहुटे रिहिस न ग। सुवागत म अयोध्या नगरी जगमगा उठे रिहिस।" चश्मा ल हेर के आँसू पोंछत रमेशर उत्तर म कहिथे- "त नहीं बेटा, चउदा साल के बन थोरक होथे ग। एदे एके साल लइका मन नइयें त तिहार, तिहार कस नइ लगत हे। ओ तो चउदा-चउदा साल बन काटे रिहिस।"


बेरा ललियाय ल धर ले रहिथे। अवाज दे के पाँच ठन दीया मँगाथे अउ थोरकन पोनी, मिनेश के हाथ म थम्हावत कहिथे- "मैं नइ जाय सकहूँ बेटा, बाती ल थोर-थोर फिंजो देबे अउ बार के मढ़ा देबे बेटा, लेग जा ग।"  मिनेश हव बबा कहिके दीया ल झोंक लेथे अउ पोनी के बाती बनाय लगथे। वतकेच बेर बिरझू ह मुंह ल अंते करे नाहकथे अउ खेलत लइका मन ल जबरदस्ती के जोरदार फुसनाथे- "घूच के नइ खेलव रे लइका हो, बिता भर-भर मन बड़ फटाका फोरइया बाजे हव। फेंक-फेंक के फोरत हव, कखरो आँखी-कान तो फूट जही।" मिनेश ल लेके बिरझू के भाव मतलागे रहिथे। 

"एके संग पढ़त रहिन, ए लइका अव्वल आगे अउ वो लइका फैल होगे त एमा का ए लइका के गलती हे? लइका के हियाव करे ल छोड़ दिस अउ एमेर बान मारत हे। मोला तो एहू साल ठिकाना नइ दिखत हे। दिनरात मोबाईल म गड़े हे अउ निपोर-चँदोर ल खेलत हे। कापी-किताब ल निहारते नइये, करम ले पास होही। ददा तेन ददे हाल, जात हे एदे भट्ठी डहर।" बिरझू के अनजरी गोठ ल रमेशर समझ गे रहिथे। टार तिहार-बार ए कहिके मन म ही गोठिया के रहि जथे, काँही नइ काहय। 

समझदार मिनेश बबा के ध्यान ल बँटाथे- "दीया ल कोन-कोन मेर मढ़ाना हे बबा?" 

"जानत तो हस बेटा, तीन ठन ल तीनों देवता म, एक ठन ल डोलिया अउ एक ठन बाँचही तेन ल मुरदउली म।" मिनेश हव बबा कहिके झोरा उठा रेंगइये रहिथे तइसने रमेशर दीया जलाय के क्रम ल बेरा डहर नजर करत संसोधित करथे- "साँझ होगे हे मिनेश, अबेर हो जही बेटा पहिली शमशाने डहर ल मढ़ावत चल देबे।" मिनेश के हव बबा के जवाब म ले जा बेटा ले जा बेटा काहते रहिथे तइसने बरदी आ जथे। बछरू के कान ल नोनी पकड़ लेथे। रमेशर लकर-लकर जाथे अउ नोनी के पकड़ ल मजबूत करथे। रटपट-रटपट तीनो परानी घर भितर नहाक जथें। 


बहू के आय के बाद ले रंगोली बनइ छूट गे रहिथे। नतनिन संग दुर्गेशरी ल रंगोली बनावत देख रमेशर के आघू म जुन्ना दिन तैर जथे। बिते तीन दिन म पहिली बार रमेशर के चेहरा म खुशी झलके रथे। दुख के दहरा म सुख के एक तिनका बूड़े ले बँचा लेथे। दुर्गेशरी साग-भात ल राँध के फरा बर पिसान सानत रहिथे। रमेशर नतनिन ल पिढ़वा धोय बर तियारथे त सुरता आथे धान के बाली बर मिनेशे ल जता देना रहिस। दुर्गेशरी ए दरी नइ भड़कय, कहिथे- "राहन दे फरा ल बरन लगही, पिढ़वा बाद म धोवा जही। नरियर नइ लाय होबे त जा दुकान डहर, ले आ।" रमेशर उठते रहिथे तइसने मिनेश ठुक ले पहुँच जथे। धान के बाली अउ नरियर ल देख रमेशर खुश हो जथे। मिनेश के मुड़ अउ पीठ म आशीष के हाथ फेरत कहिथे- "हमर मिनेश बड़ चतुरा ए ओ, बबा के मन के बात बिन कहे जान लिस। तब न कहिथँव परवार के नाम रोशन करही।" सउँहे म अपन बड़ई सुन के मिनेश झेंप जथे। रमेशर के कनिहा ल रपोटत कहिथे।"अइसे बात नोहय बबा दादी बिहनहा चाउँर पिसे बर आय रिहिस, समझ गे रेहेंव परसाद के व्यवस्था होत हे कहिके।" " त महूँ समझदारेच तो कहत हँव रे भई।" नाती-बूढ़ा हँस डरथें। जगर-बगर अँजोर संग खुशी बगर जथे। दुर्गेशरी के रंगोली म माढ़े दीया ह रमेशर के मन के बात ल प्रकाश म लावत मानो कहे लगथे- अपन-अपन हिसाब ले सोच-विचार, मानना-मान्यता के निभना-निभाना चलते राहय पर यहू ध्यान रहय कोनो के जिनगी अउ जरूरत कभू अनदेखा झन होय पावय......।


-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर 'सौमित्र'

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

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