मार्त्तण्ड
अब तो जगो
भाग रहा है
भेड़ों का झुंड बदहवास
रौंदी गईं उनकी देह
उजाड़ी गई कोख
उतार दी गईं गोलियाँ
उनके सीनों पर
अंतहीन अमानुषिकता...
और तुम...आज भी
त्रिशंकु की तरह
आकाश में लटके हुए
बुदबुदा रहे हो
प्रार्थना के मंत्र ।
वे तुम्हारे ज़ख्मों पर
झूठी तसल्लियों की
पट्टियाँ बदल-बदल कर
मुग्ध भाव से
अपने सपनों के लालकिला पर
हर वर्ष, हर क्षण
तिरंगा लहरा रहे हैं
और तुम
अपने दुखों पर
निश्चिंत हो
उत्सव मना रहे हो।
अपनी पनीली आँखों का स्वप्न लेकर
कब तक जी सकेगी भेड़
हौसले की मीनार ध्वस्त है
शरणार्थी शिविर के घेरे में
उदास आँखों के फूल मुरझा गए हैं
बाहर खेल रहे
बच्चों की आँखों में
बाघ गुर्राता है।
यह समय मातम मनाने का नहीं
भेड़ियों के विरुद्ध
मुट्ठी बाँधने का है
बंद करो उजाले की प्रार्थना
जलाओ मशाल
और अंधकार के गुह्य लोक को
अपने पराक्रम से प्रकाशित कर दो
यह समय चुप रहने का भी नहीं
इस जंगल में
लोकतंत्र स्थापित करने जा है
समय के पहरुओं पर
अंकुश लगाने का है
जगो...अब तो जगो।
.............................. .
कविता 02
पेट की आग
पेट की आग को
तंग आकर मैं
टाँग आया हूँ
भूख की अरगनी पर
और असह्य दुखों को
रोप आया हूँ कतारों में
ताकि वे हँस-बोल सके
अपनों के बीच
बाँट सके दुःख-दर्द
और...
जी सके कुछ दिन और...।
नीड़ बनाने की कोशिश में
बिखर गया हूँ
तिनका-तिनका सा
धरती की तपन ने
इच्छाओं की नदी को
खारा बना दिया है
दूर-दूर तक फैली है
नागफणियों की चुभन
फिर भी
छूना चाहता हूँ इन्द्रधनु
पर, पेट की आग
यह होने दे
तब तो....?
यह आग हर ओर
क्यों बढ़ रही है निरंतर
है कोई उत्तर
किसी के पास...?
आश्वासनों की
खूँटी पर
टँगे रहना ही
हमारी नियति है क्या...?
प्रधान संपादक " संवदिया "
फारबिसगंज-854318 (बिहार)
मो. : 9973269906
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