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शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

कद रावण का बढ़ता है

 *🌹कद रावण का बढ़ता जाता🌹*

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राम  याद  आए  न  आए, याद  सदा  रावण आता है ।

रावण की करतूत आजकल, बहुतेरे जन को भाता है ।। 


सीख राम की  जिसने  मानी, वे  संकट में  पड़े हुए हैं ।

रावण को जिसने अपनाया, उन सबके घर भरे हुए हैं ।।


रावण  मूरत  जला रहे  पर, नित  नव  दुर्गुण  पाल रहे हैं ।

रावण के कद को ऊँचा कर, खुद में बद गुण डाल रहे हैं ।।


सुरा-सुंदरी  धन-बल-पद  हित, बहुतेरे  ने  जाल  रचे हैं ।

बिरले ही अपवाद मनुज गण, मद-मत्सर से शेष बचे हैं ।।


नीति-धर्म नित गौण हो रहा, मक्कारी फल-फूल रही है ।

फांसी  के   फंदे  पर  जैसे, सच्चाई   अब  झूल  रही है ।।


रामराज्य के दिवा स्वप्न ही, केवल हमें दिखाए जाते ।

रावण के उत्तम शासन को, आर्ष ग्रंथ में हैं पढ़ पाते ।।


रक्ष संस्कृति के ध्वज वाहक, लंकापति की प्रजा सुखी थे ।

सागर  परकोटा  से  रक्षित, पुर वासी  गण  नहीं दुखी थेे ।।


महादेव  का  परम  भक्त  वह, रावण  था  वेदों  के ज्ञाता ।

परमवीर राक्षस कुल रक्षक, हर संकट के भव भय त्राता ।।


भगिनी शूर्पणखा अपमानित, हुई जिस तरह लक्ष्मण द्वारा ।

उसका ही  प्रतिशोध  भुनाने, सीता  हर कर क्रोध निवारा ।।


सबसे सुंदर  और  सुरक्षित, बगिया में  सिय को ठहराया ।

शांत जहाँ हो जाता हर दुख, वो अशोक वाटिका कहाया ।।


प्रणय निवेदन करते लेकिन, मर्यादा को कभी न तोड़े ।

साम-दाम  सह दंड-भेद  से, सीय  मनाने  आते  दौड़े ।।


भालू-वानर  की  सेना  से, राम सेतु  निर्माण  कराया ।

पद्म अठारह यूथप वानर, सेना सँग प्रभु लंका आया ।।


अंगद को  प्रभु रामचंद्र  ने, दूत बना  रावण  ढिग भेजा ।

कहना, सीता को लौटा कर, निष्कंटक हो राज किए जा ।।


माल्यवान सह भ्रात विभीषण, कुंभकर्ण ने भी समझाया ।

भगिनी की  दुर्दशा  याद कर, रावण  यह  संदेश पठाया ।।


सिया कभी ना वापस दूँगा, शीश भले मेरा कट जाए ।

घुस ना पाओगे लंका में, जब लौं या तन प्राण समाए ।।


भीषण युद्ध हुआ दोनों में, रावण कुल का दीप बुझाया ।

लंकापति के मृत्यु बाद ही, राम-सैन्य लंका घुस पाया ।।


दशकंधर  को  रामचन्द्र  ने, मुक्ति  दिया  वैकुण्ठ  पठाया ।

राज विभीषण को प्रदान कर, लंका का अधिराज बनाया ।।


अग्नि परीक्षा ले सीता की, सीय लखन सँग कोशल आये ।

वानर-भालू  की सेना  भी, अवधपुरी  लख  अति हर्षाये ।।


ब्राह्मण कुल उत्पन्न दशानन, का वध कर रघुवर पछताए ।

हत्या  का  प्रायश्चित  करने, रघुकुल  भूषण  यज्ञ  कराए ।।


अट्टहास कर रावण सबसे, केवल इतना पूछ रहा है ।

मुझे जलाने वाले  बतला, तू कितना  निर्दोष रहा है ।।


मेरे पुतले  के बदले निज, अंतस के  रावण को  मारो ।

नारी की अस्मिता बचाने, खुद को पहले स्वयं सुधारो ।।


सिया सुरक्षित थी मेरे घर, यहाँ अरक्षित अबला नारी ।

साधू का  चोला  धारण कर, छुप कर बैठे अत्याचारी ।।


उन्हें पकड़ जिंदा दफनाओ, रावण खुद ही जल जायेगा ।

नारिशक्ति के  सहचर  बनिए, रामराज्य  तब ही आयेगा ।।


युगो-युगों से जला रहे हो, मैं रावण फिर भी जिंदा हूँ ।

दिल में अपने  बसा रखे हो, इससे  खुद मैं  शर्मिंदा हूँ ।।


*रचयिता- मोहन लाल कौशिक, बिलासपुर (छ.ग.)*

*दिनांक- 12/10/2024*

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