*🌹कद रावण का बढ़ता जाता🌹*
****************************
राम याद आए न आए, याद सदा रावण आता है ।
रावण की करतूत आजकल, बहुतेरे जन को भाता है ।।
सीख राम की जिसने मानी, वे संकट में पड़े हुए हैं ।
रावण को जिसने अपनाया, उन सबके घर भरे हुए हैं ।।
रावण मूरत जला रहे पर, नित नव दुर्गुण पाल रहे हैं ।
रावण के कद को ऊँचा कर, खुद में बद गुण डाल रहे हैं ।।
सुरा-सुंदरी धन-बल-पद हित, बहुतेरे ने जाल रचे हैं ।
बिरले ही अपवाद मनुज गण, मद-मत्सर से शेष बचे हैं ।।
नीति-धर्म नित गौण हो रहा, मक्कारी फल-फूल रही है ।
फांसी के फंदे पर जैसे, सच्चाई अब झूल रही है ।।
रामराज्य के दिवा स्वप्न ही, केवल हमें दिखाए जाते ।
रावण के उत्तम शासन को, आर्ष ग्रंथ में हैं पढ़ पाते ।।
रक्ष संस्कृति के ध्वज वाहक, लंकापति की प्रजा सुखी थे ।
सागर परकोटा से रक्षित, पुर वासी गण नहीं दुखी थेे ।।
महादेव का परम भक्त वह, रावण था वेदों के ज्ञाता ।
परमवीर राक्षस कुल रक्षक, हर संकट के भव भय त्राता ।।
भगिनी शूर्पणखा अपमानित, हुई जिस तरह लक्ष्मण द्वारा ।
उसका ही प्रतिशोध भुनाने, सीता हर कर क्रोध निवारा ।।
सबसे सुंदर और सुरक्षित, बगिया में सिय को ठहराया ।
शांत जहाँ हो जाता हर दुख, वो अशोक वाटिका कहाया ।।
प्रणय निवेदन करते लेकिन, मर्यादा को कभी न तोड़े ।
साम-दाम सह दंड-भेद से, सीय मनाने आते दौड़े ।।
भालू-वानर की सेना से, राम सेतु निर्माण कराया ।
पद्म अठारह यूथप वानर, सेना सँग प्रभु लंका आया ।।
अंगद को प्रभु रामचंद्र ने, दूत बना रावण ढिग भेजा ।
कहना, सीता को लौटा कर, निष्कंटक हो राज किए जा ।।
माल्यवान सह भ्रात विभीषण, कुंभकर्ण ने भी समझाया ।
भगिनी की दुर्दशा याद कर, रावण यह संदेश पठाया ।।
सिया कभी ना वापस दूँगा, शीश भले मेरा कट जाए ।
घुस ना पाओगे लंका में, जब लौं या तन प्राण समाए ।।
भीषण युद्ध हुआ दोनों में, रावण कुल का दीप बुझाया ।
लंकापति के मृत्यु बाद ही, राम-सैन्य लंका घुस पाया ।।
दशकंधर को रामचन्द्र ने, मुक्ति दिया वैकुण्ठ पठाया ।
राज विभीषण को प्रदान कर, लंका का अधिराज बनाया ।।
अग्नि परीक्षा ले सीता की, सीय लखन सँग कोशल आये ।
वानर-भालू की सेना भी, अवधपुरी लख अति हर्षाये ।।
ब्राह्मण कुल उत्पन्न दशानन, का वध कर रघुवर पछताए ।
हत्या का प्रायश्चित करने, रघुकुल भूषण यज्ञ कराए ।।
अट्टहास कर रावण सबसे, केवल इतना पूछ रहा है ।
मुझे जलाने वाले बतला, तू कितना निर्दोष रहा है ।।
मेरे पुतले के बदले निज, अंतस के रावण को मारो ।
नारी की अस्मिता बचाने, खुद को पहले स्वयं सुधारो ।।
सिया सुरक्षित थी मेरे घर, यहाँ अरक्षित अबला नारी ।
साधू का चोला धारण कर, छुप कर बैठे अत्याचारी ।।
उन्हें पकड़ जिंदा दफनाओ, रावण खुद ही जल जायेगा ।
नारिशक्ति के सहचर बनिए, रामराज्य तब ही आयेगा ।।
युगो-युगों से जला रहे हो, मैं रावण फिर भी जिंदा हूँ ।
दिल में अपने बसा रखे हो, इससे खुद मैं शर्मिंदा हूँ ।।
*रचयिता- मोहन लाल कौशिक, बिलासपुर (छ.ग.)*
*दिनांक- 12/10/2024*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें