कविता---- मोर गँवई गाँव
नीक लागे मोर गँवई गॉंव,
गुड़ी चँउक म पीपर के छाँव।
हरियर-हरियर खेती-खार,
परथें सब प्रकृति के पाँव।।
अइसन हवय संगवारी हो
मोर सुग्घर गँवई गाँव...
खो-खो, फुगड़ी, गिल्ली-डंडा,
खेलत लइका मन देथें दाँव।
तुँहर घर आही पहुना कहिके,
कउँवा करथे काँव- काँव।।
अइसन हवय संगवारी हो
मोर सुग्घर गँवई गाँव...
चउँर के चीला रोटी,
पताल चटनी संग खाँव।
दुकालू-समारू, मंगलू-झगलू,
जइसन रहिथे गा नाँव।।
अइसन हवय संगवारी हो
मोर सुग्घर गँवई गाँव...
नवा सुरुज के उवती बेरा,
चिरई करथे चींव- चाँव।
आनी-बानी के फल-फरहरी,
डोंगरी पहार ले चार-तेंदू लाँव।।
अइसन हवय संगवारी हो
मोर सुग्घर गँवई गाँव...
भरे लबालब तरिया नरवा,
बिहिनिया नहाय बर जाँव।
लागय सरग बरोबर जिहाँ,
पबरित मया-पिरित के छाँव।।
अइसन हवय संगवारी हो
मोर सुग्घर गँवई गाँव....2
मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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