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सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

मोर गंव ई गांव

 कविता---- मोर गँवई गाँव 



नीक लागे मोर गँवई गॉंव,

गुड़ी चँउक म पीपर के छाँव।

हरियर-हरियर खेती-खार,

परथें सब प्रकृति के पाँव।।

अइसन हवय संगवारी हो

मोर सुग्घर गँवई गाँव...


खो-खो, फुगड़ी, गिल्ली-डंडा,

खेलत लइका मन देथें दाँव।

तुँहर घर आही पहुना कहिके,

कउँवा करथे काँव- काँव।।

अइसन हवय संगवारी हो

मोर सुग्घर गँवई गाँव...


चउँर  के  चीला  रोटी,

पताल चटनी संग खाँव।

दुकालू-समारू, मंगलू-झगलू,

जइसन रहिथे गा नाँव।।

अइसन हवय संगवारी हो

मोर सुग्घर गँवई गाँव...


नवा सुरुज के उवती बेरा,

चिरई करथे चींव- चाँव।

आनी-बानी के फल-फरहरी,

डोंगरी पहार ले चार-तेंदू लाँव।।

अइसन हवय संगवारी हो

मोर सुग्घर गँवई गाँव...


भरे लबालब तरिया नरवा,

बिहिनिया नहाय बर जाँव।

लागय सरग बरोबर जिहाँ,

पबरित मया-पिरित के छाँव।।

अइसन हवय संगवारी हो

मोर सुग्घर गँवई गाँव....2



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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