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रविवार, 7 अप्रैल 2024

" जाकी रही भावना जैसी...."


   डॉ सूर्यकांत मिश्रा
 
               हम सब इस मृत्यु लोक में जीवन यापन कर रहे हैं । यहां हर दिन कुछ न कुछ नया होता रहता है । हर मनुष्य की सोच भी अलग तरीके से काम करती है । कोई सकारात्मक सोच का पुजारी होता है तो कोई नकारात्मकता की दुनिया में उलझा रहता है । मानवीय व्यवहार को बड़ी गंभीरता के साथ परखते हुए ही संभवत गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत पहले ही लिख दिया था: - " जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।" आज इसी विषय पर विचार करने बैठा तो बड़े अच्छे - अच्छे प्रसंग मन में उठने लगे । सोचा आज इसी पर अपने पाठकों के साथ उलझन दूर करने का प्रयास करूं । एक किस्सा याद आ गया , जिसे मैंने अपने अध्यापकीय कार्य के दौरान एक कार्यशाला में सुनाने का अवसर पाया था । उस कहानी में सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव केवल अर्धविराम के चलते सामने आया । एक उसी कहानी पर चर्चा कर पाठकों को ठहाका लगाने का अवसर देना चाहता हूं । एक बार एक कवि महोदय हलवाई की दुकान पर पहुंचे । उन्होंने दही - जलेबी ली और उसका लुत्फ उठाने वहीं बैठक जमा दी । इतने में एक कौआ कहीं से आया और दही की परात पर चोंच मारकर उड़ गया । हलवाई को इस पर बड़ा क्रोध आया और उसने एक पत्थर उठाकर कौए पर दे मारा । कौए की भी किस्मत खराब थी । पत्थर उसे लगा और उसके प्राण - पखेरू उड़ गए । 
                कौए की मौत के साथ ही दही - जलेबी खा रहे कवि का कविमन जाग उठा । उन्होंने वहीं से एक कोयले का टुकड़ा उठाया और अपनी भावनाएं कौए की मौत पर लिख डाली । वह कुछ इस तरह थी :-
        " काग दही पर जान गंवायो । "
अब इस कवि मन की भावना पर जो परतें चढ़ी वह सकारात्मक सोच को नकारात्मक में बदलती चली गई । कुछ ही देर में इसी हलवाई की दुकान पर एक लेखापाल पहुंचा ,जो दस्तावेजों में हेराफेरी करने के अपराध में निलंबित हो चुका था । कवि की पंक्तियों पर नजर पड़ते ही उसके मन के भाव भी जाग उठे । उसने कोयले का टुकड़ा उठाया और उसे कुछ इस तरह अपने दर्द के साथ बदल बैठा :- 
         " कागद ही पर जान गंवायो ।"
लेखापाल महोदय ने अपनी सोच को दर्ज कराने के बाद अपने घर की राह ली और वहां से विदा हो लिए । थोड़ी ही देर में एक प्यार का मारा असफल मजनू टाइप युवक वहां पहुंचा । उसे जब वह लाइनें दिखाई पड़ीं तो उसने सोचा इन लाइनों में कुछ तो गड़बड़ है और उसने भी कोयले का टुकड़ा उठाया । अब उसके मन के भीतर चल रहे विचार पुंज ने लाइनों को अलग तरह से लिख डाला :- 
        " का गदही पर जान गंवायो..।" 
इस तरह तीन अलग - अलग व्यथाओं ने पंक्ति को अपनी सोच के अनुसार शब्दों में परिवर्तन कर ढाल दिया । 
               मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों और संस्कारों के अनुरूप ही शिक्षा पाता है और प्रगति की राह तय करता है । चूंकि मैं स्वयं एक शिक्षक रहा हूं , तो एक कक्षा के वातावरण से वाकिफ हूं । मान लिया जाए एक कक्षा में कुल 40 विद्यार्थी पढ़ रहे हैं । शिक्षकों का वही दल उस कक्षा सहित दूसरी कक्षाओं को भी पढ़ा रहा होता है । विद्यार्थियों में से कोई अच्छा पढ़कर आई ए एस , आई पी एस बन जाता है , तो कोई चपरासी का काम करता दिखाई पड़ता है । इतना ही नहीं कुछ लोग बेरोजगार भी रह जाते हैं ! इसे भी हम उसी  " जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत देखी तिन तैसी .  से जोड़ सकते हैं । कारण यह कि शिक्षक द्वारा पढ़ाए गए अंश को किसने अपने  मस्तिष्क से कितना और कैसा समझा । उसे वैसा ही परिणाम प्राप्त हुआ । मुझे एक प्रसंग रावण की सभा का याद आ रहा है , जब अंगद - रावण संवाद चल रहा होता है । माता सीता को लौटाने का अनुनय करते हुए अंगद रावण से कहता है :- 
    " जौ मम चरण सकसि ठस टारी ।
       फिरहिं राम सीता मैं हारी ।।"
         इस चौपाई का भी अलग - अलग अर्थ विद्वानों ने लगाया है । कोई कहता है कि अंगद का कथन - यदि मेरा पैर कोई हटा दे तो श्री राम वापस चले जायेंगे और सीता माता को में हार जाऊंगा ! सोचने की बात यह है कि अंगद का सीता पर इतना अधिकार कैसे ? यही कारण है कि कुछ विद्वान कहते हैं कि अंगद का अर्थ फिरहीं राम और सीता , मैं हार मान लूंगा । अर्थात राम और सीता के इस प्रसंग में मैं खुद हार मानकर चला जाऊंगा ।
               इसी संदर्भ में एक और उदाहरण मेरे लेख की सार्थकता सिद्ध करता दिख रहा है । एक राजा को राज करते काफी वक्त हो चुका था । उसके बाल भी सफेद हो चुके थे । अर्थात वृद्धावस्था ने उस पर राज करना शुरू कर दिया था । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव का आयोजन किया । उत्सव में राजा के गुरु सहित मित्र देश के राजाओं को आमंत्रित किया गया । साथ ही उत्सव में चार - चांद लगाने राज्य की एक सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया । आगंतुकों के मनोरंजन के लिए सारी रात उत्सव चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त आते - आते नर्तकी का तबला वादक ऊंघने लगा । यह देख नर्तकी ने उसे सावधान करते हुए एक कविता कह डाली , ताकि नृत्य रुकने से राजा उसे दंड न दे दे । नर्तकी ने इस तरह सावधान किया :- 
 " बहु बीती, थोड़ी रही , पल -पल गई बिताए ।
    एक पल के कारने, न  कलंक लगि जाए ।। "
              नर्तकी के इस सावधानी सूचक दोहे का भी सदन में उपस्थित लोगों ने अपनी - अपनी सोच के अनुसार अर्थ निकाला । सबसे पहले वादक इशारा समझते हुए सतर्क हो गया । राजा के गुरु ने समझा कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखरी समय में नर्तकी का मुजरा देखकर साधना नष्ट कर रहा हूं । अतः राजा का गुरु अपना कमंडल उठाकर निकल पड़ा । राजा की लड़की ने समझा कि जल्द बाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही , क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ? राजा के लड़के ने अर्थ लगाया कि आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है । क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेटा है ? धैर्य रख ! अंत में राजा ने सभी से नर्तकी की लिखी लाइनों का अर्थ पूछा । जब सभी के विचार सामने आए तो राजा को भी आत्मज्ञान प्राप्त हुआ । राजा के मन में वैराग्य आ गया । उसने तुरंत फैसला लिया । लड़की की शादी करा दी । लड़के का राजतिलक कर खुद बैरागी बन गया ! नर्तकी की कविता तो एक ही थी , जिसका उद्देश्य तबला वादक को सचेत करना था , किंतु जिसने जैसा चाहा , वैसा ही अर्थ निकला । 
                        
                           राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
                            9425559291.

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