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रविवार, 7 अप्रैल 2024

आँखों में आँसू हैं कम

 

ग़ज़ल----
आँखों  में  आँसू   हैं कम।
और ज़ियादा  भीतर  ग़म।

अपने  मन   की  पीड़ाएँ,
जतलायें फिर कैसे  हम।

बादल  आकर  लौट  गए,
बदला है जब  से  मौसम।

यूँ  तो  सबसे  रिश्ता  था,
लेक़िन कौन हुआ हमदम।

पत्ता-पत्ता   ठहरी   जब,
कहलाई   बूंदे    शबनम।

साथ  समय  के  बदला है,
जीवन  में  सबका आलम।
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2

बातें  उनकी  आम  हुई  है।
गलियाँ जो  बदनाम  हुई है।

हम-आपस  में कानाफ़ूसी ,
करते- करते  शाम हुई  है।

बाज़ारों की साज़िश है सब,
चीज़ें  महँगे  दाम  हुई  है ।

रखकर सोचें बेमतलब की,
नींदे  रोज़ हराम   हुई   है।

खान-पान की बेबाक़ी  में,
तबियत सब बेक़ाम हुई  है।

सुनते-सुनते  भाषण - बाज़ी,
जनता  बोर  तमाम  हुई  है।
3

हमनें  जो अपना  समझा  है।
उसपर लेक़िन हक सबका है।

देखा   है  जागी   आँखों   से,
लगता फिर भी वो सपना  है।

इस  रस्ते   पर  चलने  वाला,
राही  वो   सबसे   पहला  है।

रखवाला  है   सारे  जग  का,
सबकी ख़ैरख़बर   रखता  है।

सूरज, चाँद , सितारें  जितने,
अक़्स सभी में बस उसका है।

रखता है  जो  हरदम  सब से,
रिश्ता   एक  वही  सच्चा  है।
4
ग़ज़ल---
जिसमें  है  हैरानी  थोड़ी।
लगती  है पहचानी थोड़ी।

समझी -बूझी बातों में भी,
रहती  है   बेमानी   थोड़ी।

रुख़ पर रहती  है मासूमी,
है  जिसमें  नादानी थोड़ी।

दिखलाती है डर आँखें वो,
जिनमें  है  शैतानी  थोड़ी।

भूल-भुलैया सी लगती जो,
गलियाँ  हैं  बेगानी  थोड़ी।

मक़सद है कहने, लिखने का,
बातें  हैं  समझानी  थोड़ी।

     ---नवीन माथुर पंचोली
          अमझेरा धार मप्र
            9893119724

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