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रविवार, 7 अप्रैल 2024

" माता - पिता " की कभी मृत्यु नहीं होती...

आज सुबह से ही मैं विचारधारा की अलग दुनिया में गोते लगा रहा हूं । इस बात को समझ रहा हूं कि जीवन , जन्म और मृत्यु का चक्र है । इस शाश्वत चक्र के बीच के समय में ही हम वह जीते हैं , जिसे जीवन कहा जाता है । यह अकाट्य सत्य है कि इस दुनिया में आने वाले को एक दिन जाना ही है । इसी जीवन की कड़ी में सबसे मजबूत रिश्ते की पहचान माता-पिता के रूप में हम सबके सामने आती रही है ।इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है की माता-पिता हमेशा हमारे साथ नहीं रहेंगे । यह विचार मेरे मन में आते ही मैं एक अज्ञात भय से कांप उठता हूं । दुःखी मन के साथ सोचने लगता हूं कि जब माता-पिता साथ न होंगे तब उनकी स्मृति , यादें ही साथ रहेंगी । उनके दिए संस्कार , जीवन जीने के तरीके ही सीढ़ियों के पक्के पायदान होंगे ,जो मुझे कामयाबी की ऊंचाई चढ़ने में मदद करेंगे । अब कुछ - कुछ ताकत का एहसास होने लगा है । वह संकल्प ठोस रूप लेता जा रहा है ,जो मुझे बार-बार यह कह रहा है कि आपके माता-पिता ने जो कुछ भी विरासत में दिया है उसे अंगीकार कर उनका नाम रोशन करने कोई कसर न छोड़ें । मैंने अपने पिता को 17 वर्ष पूर्व खो दिया । वहीं माताजी ने भी हम भाई- बहनों को लगभग तीन माह पूर्व छोड़ दिया । इस सच्चाई को स्वीकार करना बहुत ही कठिन है , किंतु मेरे माता-पिता की यादें इस कदर मेरे अंदर रच - बस चुके हैं कि मुझे ऐसा लगता ही नहीं कि वे मेरे साथ नहीं है ।

इस मृत्यु लोक में रहने वाला हर मनुष्य माता-पिता को खोने के बाद यही कहता है कि... उनकी मृत्यु हो गई है ! अथवा वे मौत की आगोश में समा गए हैं ! उनके जाने के बाद घर खाली-खाली दिखने लगता है । ऐसा लगता है मानों दुनिया समाप्त हो गई हो । मैं ऐसा नहीं मानता । कारण यह कि मुझे लगता है की माता-पिता कभी नहीं मरते । वे हमेशा जीवित रहते हैं । हमारे साथ ही रहते हैं । वह तो हम ही हैं जो उन्हें भूल जाते हैं ! यदि मैं अधिक भावुकता में न बहुँ तो तथ्यात्मक रूप में एक भाई के पास हमारे पिता की आंखें हुआ करती हैं । बहन का सुंदर रूप मां का प्रतिबिंब हुआ करता है । मां का स्नेह और दयालुता बहन के रूप में छलकता दिखाई पड़ता है । बड़ा भाई पिता की तरह मुस्कुराता है , तो बहन मां की तरह स्वादिष्ट भोजन बनाकर परोसती है । माता-पिता मरते नहीं । वे हमें कभी नहीं छोड़ते । वह हमारे बीच रहते हुए हमारे अंदर बसा करते हैं । हम बच्चे माता-पिता के प्रतिबिंब होते हैं । हमारे माता-पिता अपनी शारीरिक अनुपस्थिति के बावजूद हममें जीवित रहते हैं । जब कभी माता-पिता के न होने की कमी सताने लगे , तो हमें अपने भाई - बहनों को अपने पास इकट्ठा कर लेना चाहिए ।इससे हम अपने माता-पिता की मंत्र मुग्ध कर देने वाली मुस्कान , मधुर आवाज को अपने करीब महसूस कर सकेंगे ।
प्यार की वह बगिया जिस हमारे माता-पिता ने जन्म के समय से ही खून पसीने और आंसुओं से सींचा और विकसित किया है वह विपरीत मौसम के चक्र से प्रभावित हुए बिना खिलखिलाती रहेगी । कारण यह की भौतिक रूप में हमारे बीच न रहने वाले हमारे माता-पिता एक अदृश्य शक्ति के रूप में सदैव हम पर अपनी कृपा बनाए रखते हैं । जरूरी यह है कि हम अपनी व्यस्त जिंदगी में से अपने माता-पिता को याद करने कुछ क्षण जरूर निकालें । सुबह की पूजा - अर्चना के उपरांत अथवा बीच में माता-पिता को इस तरह प्रार्थना में शामिल करें जिस तरह ईश्वर को करते हैं । हमारे धर्म शास्त्रों में मनुस्मृति का स्थान सर्वोपरि है राजश्री मनु के विचार भारतीय मनीषा में सर्वमान्य है ।माता-पिता , गुरुजनों एवं श्रेष्ठ जनों को सदैव प्रणाम , सम्मान और सेवा के संदर्भ में मनुस्मृति का यह श्लोक अनुकरणीय है:-
 " अभिवादनशीलस्य नित्यम वृद्धोपसेविंनः।
    चत्वारि तस्य वर्धते आयुर्विध्या यशोबलम ।। "
अर्थात वृद्ध जनों यथा माता-पिता , गुरुजनों एवं श्रेष्ठ जनों का सर्वदा अभिवादन करने से आयु , विद्या , यश और बल की वृद्धि होती है । हमारे इसी धर्मशास्त्र मनुस्मृति में एक अन्य शोक में माता-पिता और आचार्य को अति महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए कहा गया है । दस उपाध्यायों से बढ़कर एक आचार्य होता है । सौ आचार्य से बढ़कर एक पिता होता है , और पिता से हजार गुना बढ़कर माता गौरवमयी होती है । हमारे शास्त्र कहते हैं की माता-पिता अपनी संतान के लिए जो कष्ट सहन करते हैं उसके बदले पुत्र यदि सौ वर्ष तक माता-पिता की सेवा करें , तब भी वह उनका ऋण नहीं चुका सकता है । माता-पिता की आराधना से हमारे धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं । फिर चाहे वह महाभारत हो , रामायण हो , गीता हो या फिर चारों मुख्य वेद ही क्यों न हों । माता-पिता के स्थान को उद्धृत करता यह श्लोक सभी को जानना चाहिए :- 
    " सर्वतीर्थमयी माता , सर्वदेवमयः पिता ।
  मातरम- पितरम तस्मात् सर्वयत्नेन पुजयेत।। "
अर्थात माता सर्व तीर्थ मयी और पिता संपूर्ण देवताओं का स्वरूप है । इसलिए सभी प्रकार से यत्नपूर्वक माता-पिता का पूजन करना चाहिए । जो माता-पिता का पूजन करता है ,उसके द्वारा सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो जाती है ।
माता-पिता हमारे जीवन से भले ही विदा हो जाएं , किंतु उनकी कृपा हम पर सदैव बनी रहती है। इसलिए यह कहा गया है कि - यथार्थ रूप में साथ न रहने के उपरांत अदृश्य होकर भी माता-पिता हमारे जीवन से दूर नहीं होते हैं   शाश्वत मृत्यु भी इस बात से इनकार नहीं कर सकती है कि माता-पिता की मौत कभी नहीं होती । हर पिता अपने बच्चों का जीवन दर्शन होता है ,जबकि मां जीवन का सार होती है । सागर की तरह शांत पिता , गंगा की धार की तरह प्रवाहित होने वाली मां को जीवन में उसी तरह सम्हाला करता है जैसे सागर नदी के मिलन को ! मां अगर हमें भटकन की स्थिति में राह दिखाती है , तो पिता अंधेरे मार्गों का उजाला बनाकर सहायक की तरह हमारे साथ चलता रहता है । कांटों के बीच खीलखिलाते गुलाब की तरह पिता अपने बच्चों को सुख प्रदान कर रहा होता है , तो माता उस फूल के अंदर बसी खुशबू को फैलाकर बच्चों का जीवन खुशगवार कर देती है ! इन सारी विशेषताओं से परिपूर्ण माता-पिता के साए को उनकी मौत की संज्ञा देना हमारी भूल हो सकती है । हमें यह याद रखना चाहिए कि माता-पिता की मृत्यु कभी नहीं होती ...केवल दूरियां बन जाती हैं ।
                          डॉ सूर्यकांत मिश्रा
                          राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
                           9425559291

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