आज के रचना

उहो,अब की पास कर गया ( कहानी ), तमस और साम्‍प्रदायिकता ( आलेख ),समाज सुधारक गुरु संत घासीदास ( आलेख)

शनिवार, 25 नवंबर 2023

राक्षस

 

राक्षस
यूं तो हरी सब्जियां घर के पास ही मिल जाया करती हैं किंतु सब्जी मंडी के नजदीक ही मेरा ऑफिस होने के कारण पत्नी चाहती थी कि आफिस से छुट्टी होने के बाद मै मंडी से ही प्रतिदिन ताजा सब्जी लेता आऊं. अब चूंकि इसमें कोई परेशानी वाली बात नहीं थी तो मैं रोज मंडी से ही ताजा सब्जी ले आता था. यहां सब्जियों के दाम भी बाहर से कम होते थे.
रोज सब्जी मंडी जाने से कुछ सब्जी बेचने वाले पहचानने लगे थे. मंडी में प्रवेश करते ही वे मुझे आशा भरी नजरों से देखने लगते. वहां कुछ दुकानदार ठेलों पर तो कुछ नीचे जमीन पर टाट की फट्टियां बिछा कर सब्जियां बेचते थे. नीचे दुकान लगाने वालों में अधिकतर महिलायें ही थीं.
प्रायः में मंडी की शुरुआत में ही बैठने वाली एक अधेड़वय महिला से सब्जी ले लिया करता था. मैंने उसकी उम्र का अंदाज अधपके बाल व चेहरे पर दिखाई देने लगी झुर्रियों से ही लगाया था.
- का लेने, बाबूजी - आत्मविश्वास भरे चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए वह बुंदेलखंडी भाषा में बोली.
- पालक क्या भाव है? - मैने दुकान में एक ओर रखे पालक के छोटे से ढेर की ओर इशारा करते हुए कहा.
- आज पालक न लेओ, काल की है - उसने दबी आवाज में कहा.
चूंकि आम तौर पर ऐसा होता नहीं है कि कोई दुकानदार ग्राहक को अपने सामान की कमी बताकर उसे बेचना न चाहे, इसलिए उसकी इस स्पष्टवादिता ने मुझे बहुत प्रभावित किया.
मैंने उस दिन उससे दूसरी सब्जी लेकर पैसे दिए और प्रशंसात्मक दृष्टि डालकर वापस लौट आया.
इस एक घटना के बाद से मैं उसी से सब्जी लेने लगा.
'और, ठीक हो बाई' से शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला ‘घर में कौन-कौन है‘ तक पहुंच गया। धीरे-धीरे सब्जी लेने के साथ-साथ उससे दो-चार बाते भी हो जातीं.
मेरी इस धारणा के विपरीत कि गैरजिम्मेवार आदमियों की औरतें ही इस मंडी में सब्जियां बेच रही होंगी, उससे मालूम हुआ कि पहले उसके पति ही सब्जी की दुकान लगाते थे। असमय उनकी मृत्यू हो जाने से दुकान बंद करना पड़ी। जमापूंजी कब तक बैठ कर खाते. फांकाकशी होने लगी तो उसने ही दुकान खोलने का निर्णय कर लिया।
अब तो कई वर्ष हो गये हैं। उसने बेटी की शादी भी कर दी। बेटा पढ़ रहा है। उसे उम्मीद है कि पढ़ाई पूरी करने के बाद बेटा कहीं नौकरी करेगा और उसे इस काम से मुक्ति मिलेगी। यह बताते हुए उसकी आंखें भीग आयी थीं।
एक दिन उसके बेतरतीब बालों और गंदी मुड़ी-तुड़ी साड़ी को देखकर मैंने बेहद अपनत्व से उससे कहा - यह कैसा हाल बना कर आती हो, बाई? -
- इते, इत्ते राक्षसन के बीच, बजार में बैठ के कमावो आसान नईंये बाबूजी - वह भीगे और गहरे स्वर में कहते हुए सब्जी तौलने लगी।
उसके एक वाक्य ने मुझे बाजार और बाजार के मनोविज्ञान को समझा दिया।
----
कमलेश झा
झांसी - 9450908514

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें