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शनिवार, 25 नवंबर 2023

जय चक्रवर्ती नवगीत,

जय चक्रवर्ती 

【1】
|| पाखण्ड की सत्ता ||
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क्या लिखा ! अब
ये, न पूछो सिर्फ-
लिखने के लिए हम लिख रहे हैं ।
रीढ़ की हड्डी रखी
दरबार में
गिरवी हमारी
हर जगह गिरकर
उठाने में
कटी है उम्र-सारी
आस्था से
अस्मिता तक
जी करे जिसका- खरीदे,
हम समूचे बिक रहे हैं ।
पक्ष कोई भी न अपना
दृष्टि में
पैबस्त भ्रम हैं
इधर भी हैं , उधर भी हैं
दरअसल-
हम पेण्डुलम हैं
गिरगिटों के
वंशधर हम,
सिर्फ़ दिखने के लिए ही
आदमी-से दिख रहे हैं ।
शीर्ष पर पाखण्ड
की सत्ता हमें
खलती नहीं है
आग सीने में हमारे
अब कभी
जलती नहीं है
पाश, नागार्जुन,
निराला और
कबिरा के लिखे पर
पोत हम कालिख रहे हैं ।
••
【2】
|| इतना बुरा न था ||
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वक़्त बुरा पहले
भी था, पर !
इतना बुरा न था ।
आसमान का
षड्यंत्रों से
गहरा नाता है
धरती के
दुःख पर सूरज
कहकहे लगाता है
ऊँचाई का अर्थ
हमेशा-
इतना गिरा न था ।
धर्मों की कारा में
बंदी -
शब्द प्रार्थना के
गूँज रहे हैं
मंत्र परस्पर
कुटिल-कामना के
प्रेम - प्यार का
राग कभी-
इतना बेसुरा न था ।
मसनद जिनकी है
मजलूमों के
कंकालों पर
जड़े उन्होंने
कदम-कदम
प्रतिबंध सवालों पर
सिंहासन का शीश
कभी, इतना
सिरफिरा न था ।
••

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