वागर्थ।
हम उदासी से भरे बादल!
हमारा क्या!!
भीड़ कोलाहल शहर में
बिजलियों का डर!
है खुले आकाश के नीचे हमारा घर!!
घुल गया है जंगली पन
आदमीयत में!
दर्द की जागीर पाई है
वसीयत में!
है बरसती आंख के काजल!
हमारा क्या!!
रोटियों में ही अभी तक
ज़िन्दगी उलझी!
लोग सुलझाते रहे
गुत्थी नहीं सुलझी!!
अब असर बाकी कहां
होगा दवाओं में!
घोल आए हैं जहर
जाकर हवाओं में!!
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