सीमा 'नयन '
भला है कौन ऐसा जो नहीं नश्तर चुभोता है
नहीं कोई किसी का आजकल दुनिया में होता है।
बिगड़ जाते हैं रिश्ते जो नहीं इस दौर में बनते
भला अब कौन टूटे हार को फिर से पिरोता है।
बड़ा मगरूर था कुछ वक्त ने ऐसा सितम ढाया
बशर वो बेतहाशा रात दिन सज़दे में रोता है।
अलहदा दौर है ये मुख़्तलिफ़ अंदाज़ कुछ इसके
यहां ख़ुद नाख़ुदा सागर में कश्ती को डुबोता है।
अग़र उम्मीद रखते हो किसी से बेवकूफी है
नहीं कोई ज़माने में किसी का बोझ ढोता है।
गुनाहों की सियाही इस तरह दामन पे फैली है
नयन वो बावज़ू हो आंसुओं से पाप धोता है।
नश्तर -सूई
सज़दे -पूजा
अलहदा -अलग
बशर-इंसान
मुख़्तलिफ़ -अलग तरह का
नाख़ुदा -मांझी
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