- जयप्रकाश मानस
20
सदी के उत्तरार्ध और 21 सदी के प्रवेश द्वार की तकनीक ने भाषा एवं साहित्य
को भी ग्लोबल बना दिया है । अब वह दौर लद गया जब कोई अपने सद्यःजात गीत या
कविता की पंक्तियों के लोक –विमोचन हेतु सबसे पहले अपने किसी रसिक मित्र
या किसी साहित्यजीवी के पास जा पहुचता था । वह क्षण एक तरह से रचनाकार के
आत्मसुख का प्रथम अवसर भी जुटाता था । इस अवसर को कोई रचनाकार शायद ही
त्यागना चाहता था । इसे मैं प्रसव पश्चात हर्ष का अवसर भी मानता हूँ । इस
सुख में नयी सृष्टि के गुण-अवगुण का अभिज्ञान भी एक नये आत्मविश्वास को
जगाता था । साहित्य की क्रियाशील दुनिया में इसे अनिवार्य माना जाता था ।
जो भी हो, तत्पश्चात प्रारंभ होता था उस सद्यः जात रचना के प्रकाशन में
गुणा-भाग का कर्म । कि रचना सहधर्मा संगी-साथियों के मध्य स्थापित हो ? कि
वह किसी पत्र-पत्रिका में कैसे शब्दाकार ग्रहण कर सके ? फिर वह मंचो में भी
कैसे स्थापित हो ? सृजन-कर्म की गति तेज है तो कुछ महीने या साल बाद कैसे
वह पुस्तकाकार भी हो जावे ? कोई प्रतिष्टित सगोत्री या आलोचक उस पर आमुख भी
कैसे रच दे ? रचनाकार का उद्वेग यहाँ भी विराम नहीं हो जाता । इसके बाद उस
पर चर्चा-गोष्ठी, फिर दो-चार पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा की भी व्यग्रता
होती थी। इन सभी मोडों से गुजर कर ही कोई सर्वमान्य रचनाकार के रूप में
समादृत हो पाता था । वैसे एक सत्य तो यह भी है कि सर्वमान्य होना भी
दृष्टि-सापेक्ष होता है ।
साहित्य, साहित्यकारों और
साहित्यरसिकों का अब न वैसा दौर रहा न ही माहौल । यह तकनीक के संजाल में
उलझी हुई नयी दुनिया की सीमा भी है । आज की दुनिया की सबसे बडी कमजोरी
धैर्य का अभाव और तीव्रता है । यह तीव्रता जीवन के सभी कर्मों में झलक रहा
है । अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की संप्राप्ति भी तीव्रता-बोध से बाधित है ।
प्रंसगवश मैं यह तुकबंदी कविता यहाँ रखना चाहता हूँ-
मनुष्य नयी सदी के गेट पर है ।
सब कुछ उसका नेट पर है ।।
इसके बावजूद अंतरजाल की उपस्थिति ने साहित्य के प्रसारण को कहीं अधिक संपोषित किया है । बिल्कुल नई शैली में ।
मूलतः
साहित्य भी “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः” का विस्तार है ।
साहित्यकार यदि सच्चा है तो वह सरोकार रहित कदापि नहीं हो सकता है । जिस
महाकवि तुलसी ने “स्वान्तः सुखाय ....... रघुनाथ गाथा” कह कर स्वयं को
रचनाकार श्रेष्ठ होने के लेखकीय दंभ से मुक्त किया था, क्या उनके समक्ष
तात्कालीन परिस्थियों की विद्रुपतायें मुहँ बायें नहीं खडी थी ? क्या उनकी
रचनाधर्मिता में समूचे समाज में उज्जवलता की पुनरस्थापना की जद्दोजहद का
दबाब सम्मिलित नहीं था ? बेशक था । आदि कवि वाल्मिकी की ओर निहार कर देखें ।
व्यथा या वेदना ही कविता की जन्मदात्री है । अन्यथा क्यों कर मिथुनरत
क्रोंच के वध को देखकर एक डकैत मानव जीवन की उदात्तता के उत्कर्ष तक जा
पहुँचता । क्यों कर वह अनपढ, गंवार या बनैला ईंसान शास्त्रीयता के लिए
समूचे काव्य जगत् में वंदनीय हो जाता ।
मैं फिर अपने मूल स्वरों
की ओर लौटाना चाहता हूँ कि अंतरजाल की उपस्थिति ने साहित्य की पहुंच को
विस्तारित ही किया है । (मेरा निहितार्थ यहाँ भारतीय भाषा हिन्दी पर
अभिकेंद्रित है । मैं अंतरजाल में लगातार अपनी शोध परियोजना के उद्देश्यों
की प्राप्ति के लिए पिछले 2 वर्षों से मौन साधना की शैली में भटकता रहा हूँ
। यद्यपि अपने इस भटकन को मैं व्यक्तिगत स्तर पर सिंहावलोकन भी कहना चाहता
हूँ और उसे कोई विहंगावलोकन का नाम देना भी चाहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं
होगी । अंतरजाल पर अंग्रेजी की बाध्यता और भारतीय भाषाओं या लोकभाषाओं में
संप्रेषण के अभाव व फोंट की असुविधा के कारण सबसे बडी हानि भारतीय साहित्य
को उठाना पडा है जो वह अपने वामन स्वरूप को विराट आकार दे सकती थी । अब
भारतीय भाषाओं या प्रत्यक्षतः कहें तो हिन्दी साहित्य का हस्तक्षेप लगातार
नेट पर हो रहा है । मैं यहाँ अपनी बात इसी अवलोकन के आधार पर रखना चाह रहा
हूँ)
हिन्दी के विविध बेबसाईट्स में या फिर ब्लॉगर्स के यहाँ एक
तरह की साहित्यिक गंभीरता का अभाव है । यहाँ इसके कारणों की मीमांसा में
जाना समय गंवाना होगा । मुद्दे की बात यह है कि कुछ ही साईट्स अंतरजाल पर
हिन्दी-खोजियों को गंभीर पाठ दे पाने में सक्षम हो सकी हैं । इस श्रृंखला
में बेब दुनिया, अभिव्यिक्ति, ताप्ती आदि साईट्स तथा नारद, रचनाकार आदि
ब्लॉग ही एक सचेत और गंभीर पाठक को अपनी ओर खेंच सकी हैं । उन्हें साधूवाद
दिया ही जाना चाहिए । इसमें जाने कितने नाम, जाने कितनी रचनाएं प्रकारांतर
से मुद्रित हैं । यहाँ भी जितने भी हिन्दी रचनाकार या उनकी रचनाएं एक
जागरुक पाठक को चौंकाने में सक्षम हैं, उनमें मानोशी चटर्जी भी एक हैं ।
उनकी गीतों में एक विशिष्ट चमक है । यह चमक हिन्दी की शास्त्रीयता की चमक
है । यह चमक हिन्दी की मूल प्रकृति और मूल प्रवृति की भी है । जब हम
प्रकृति और प्रवृति की बात करते हैं तो हमारे समक्ष दो विरोधी ध्रुव भी आ
डटते हैं । भारतीय काव्य में यह विरोधाभास कमोवेश कहीं नहीं झलकता है । जब
हम भारतीय काव्य परंपरा की पडताल करते हैं तो कुछ अपवादों को छोडकर सर्वत्र
प्रकृति और काव्यगत प्रवृति में द्वैत नहीं जान पडता । यह दीगर बात है कि
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की कविताओं और गीतों में भी नागरिकता के
अतिबोध, विश्व अर्थव्यवस्था में साम्राज्यवादी ताकतों के चौतरफा प्रभावों
और धार्मिकता की लगातार बदलती परिभाषाओं के उहापोह के कारण यह साम्य बिखरता
हुआ जान पडता है ।
इस सबके बावजूद सच तो यह है कि भारतीय
कविता कभी भी अपने मूल प्रवृतियों से विलग नहीं हुई है । भारतीय कविता को
जब हम भिन्न-भिन्न प्रवृतियों के आधार पर एक दूसरे से अलगाते होते हैं तब
हम कविता का वर्गीकरण नहीं कर पा रहे होते हैं । दरअसल वह कविता का
वर्गीकरण नहीं हो सकता । वह कविता के कालखंड का विभाजन भले ही हो । कविता
कभी भी सामाजिकता से परे नहीं जा सकती है । कविता समाज की उपज होती है । वह
समाज के लिए, समाज का और समाज द्वारा ही सृजित होती है । यह कविता का
प्रजातांत्रिक स्वभाव भी है । कविता का एकमात्र लक्ष्य मन की उदात्तता है ।
मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा ही है कविता का चरम सरोकार । वह मात्र मन का
उल्लास या विषाद नहीं है । उल्लास या विषाद के रुप में भी वह रचनाकार का
निजी बोध का प्रतिफल नहीं । वह व्यापक समाज या विश्व को अपने मान बैठने के
कर्तव्यबोध का परिणाम भी है । भक्तिकाल की जिन कविताओं या पदों को हम
विशुद्ध धार्मिक मान बैठते हैं वह दरअसल तात्कालीन परिस्थितियों के दबाब से
मुक्त होने का सामाजिक गीत था जिसमें शाश्वत अस्मिता से चूकते मनुष्य को
नयी उर्जा मिली । ऐसे समय जब संपूर्ण समाज नायक विहीन हो चुका था, राम या
कृष्ण का संपूर्ण कविता में छा जाना लाजिमी था । यही वे दो पूर्वज थे जिनको
लेकर सारा समाज लगभग एकमत था । श्रद्धावनत था । वे पहले से भी स्मृतियों
में रहते आये थे । राम या कृष्ण को हम सिर्फ भारतीय कविता के भक्तिकाल में
नहीं देखते हैं । वे तो वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, उपनिषद्, निबंध आदि
संस्कृत ग्रंथों तथा इससे भी कहीं ज्यादा लोक समाज की कथाओं, किवंदंतियों,
हाना (कहावतों), प्रथाओं,परंपराओं के माध्यम से भारतीय मन में गहरे धंसे
हुए थे । हिन्दी की रीतिकाल में, जिसे कुछ प्रगतिशील आलोचक रतिकाल भी कहते
हैं, की कविताएं भी सिर्फ देह के इर्द-गिर्द नहीं भ्रमण करती वहाँ भी
सर्वत्र एक शाश्वतिक मानवीय गरिमा और संज्ञान है ।
वीरगाथा काल को
भी हम इसी तरह मात्र चारण या भाट कवियों का समय कहकर नजरअंदाज नहीं कर सकते
हैं । इस दौर में क्या राज्य की सर्वमान्यता, राजा (वे प्रजापालक भी थे)
की सत्ता का नकार हो सकता था । क्या आज भी सयाने लोग समकालीन भारत पर ठंडी
साँसे छोडते हुए नहीं कहा करते हैं कि इससे तो राजा का जमाना ही ठीक था ।
कहते हैं ना । आधुनिक काल की कविता में विशेष कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
वाले दौर में भारतीय कविता गुलामी से मुक्ति की कविता हो गई । वहाँ देश
राग था । बलिदान की भावना थी । एक गरमाहट भी थी आजादी के लिए । क्या हम
कविता के भावों के आधार पर ही कविता को भिन्न-भन्न प्रकृति का कह सकते हैं ?
नहीं । कदापि नहीं । कवि होने का पहली शर्त है मन का द्वैध नहीं होना ।
सरल होना । तरल होना । जो सरल और तरल होगा निश्चित रूप से वह प्राकृतिक
होगा । जहाँ सब कुछ स्मूथली चलता रहता है वही प्रकृति है । प्राकृतिक होना
नियमित होना भी है । सूरज, चाँद, सितारे, जल, बादल, हवा वनस्पति पक्षी आदि
सभी नियमित होते हैं । वहाँ जो भी होता है उसी रुप में होता है । न वहाँ
राग होता है न ही विराग । यही कारण है कि प्रकृति अनिंद्य सुन्दर और
अकृत्रिम होती है । कविता जहाँ भी कृत्रिम होती है वहाँ वह शब्दों का समूह
तो जरूर रहती है पर कविता नहीं रह जाती है । प्रयोगवादी कविताओं को एक सरस
पाठक कदाचित् इसी नजरिये से देखता है ।
इतनी लंबी-चौडी पडताल के बाद मै
कहना चाहता हूँ कि मानसी चटर्जी की कविताएं (पाठक गण कृपया कविता को यहाँ
व्यापक अर्थों में ग्रहण करें, कविता का मतबल गीत या कोई अन्य पद्य विधा
नहीं होना नहीं होता है ) भारतीय कविताओं की परंपरा को संपोषित करने वाली
कविताएं हैं । उनकी अंतरजाल पर विद्यमान कविताओं को परखने से पता चलता है
कि उसमें हिन्दी कविताओं की मर्यादाओं का वही आग्रह है जो भारतीय परिवेश
में रह कर रचे जाने वाली हिन्दी कविताओं में होता है । उन्होंने ऐसी एक भी
कविता नहीं लिखी है जिसके आधार पर उन्हें प्रवासी कवि या उनकी कविता को
प्रवासी कविता कह कर दोयम दर्जे की कविता घोषित कर दी जाय । वे अभी भी अपनी
कविताओं (गीत या बाल कविता) में अपने मन की प्रकृति को बदल नहीं सकी हैं ।
सच्ची कविता कम से कम उसके रचयिता को तो मूल से कभी भी भरमने या भटकने
नहीं देती । जिस स्थानीयता बोध को कविता के लिए कभी आवश्यक कहा गया था वही
स्थानीयता का अभाव मानसी को हिन्दी की विधर्मी कविता रचने से भी बचाती चल
रही है । परदेश में निवसती हुईं भी वे हिन्दी की मूल आत्मा को पकडी हुईं है
। इसे चाहे कोई रूढ कविता कह ले, बासी कविता कह ले, मैं तो उसे हिन्दी को
ताकत देने वाली कविता ही कहना चाहूँगा । वहाँ कथ्य या भाव का टटकापन भले ही
न हो । भले ही वह स्वयं को कवि नही मानती हों । भले ही वे स्वयं को एक कवि
के रूप में परिचित नहीं कराना चाहती हों उनमें कविता को नया मोड देने की
दृष्टि तो लबालब है । यह उनके शिल्प, भाषा व प्रयुक्ति से पता चलता है ।
कहते
हैं रचना में रचनाकार का परिवेश कहता है । मानसी की कविता में भी उनका
परिवेश बतियाता है । पर यह परिवेश अब भी भारत या उनके मूल का है । भूगोल
बदल जाने से मन को परिवेश नहीं बदल जाता । किसी रचनाकार के परदेशी हो जाने
के बाद भी उसकी कविताओं का देशी बने रहना इस बात का प्रमाण है कि कविता कवि
को निर्मूल नहीं होने देती । यदि वे निर्मूलन करने वाली कविता रचती तो ही
ना उनमें विदेशी दृष्टि, दृश्य, मूल्य, मन, द्रव्य, परदेशी प्रकृति बोलती।
घडी भर के लिए उन्हें परदेशी सभ्यता के सौंदर्य के रस को आत्मसात करने वाली
कविता कह कर मानसी का पीठ थपथपा दिया जाता । कदाचित् उन्हें वैश्विक
भावबोध का कवि भी मान लिया जाता पर सच मानिये ऐसे वक्त वे यदि अपने अंतस्
की ओर निहारती तो स्वयं को अपनी जडों से कहीं दूर ही छिटकी पडी हुईं पाती ।
दरअसल होता क्या है, परिवेश भी एकाएक रचनाकार की कविता में (गद्य में भी)
नहीं पैठ जाती । रचनाकार भी एकबारगी परिवेश के गोद में नहीं जा बैठता ।
सभ्यता,
संस्कृति, भाषा, परंपरा, जीवन-शैली, मूल्य, दैनिक जीवन के परिदृश्यों,
संकेतो, प्रतीकों, बिम्बों में समूची तब्दीली के बावजूद मानसी के हिन्दी
मानस (वस्तुतः मनुष्य) में अपने मूल केन्द्र की परिक्रमा के लिए एक
जिद्दीपन भी है । उनकी यही जिद्दी कविता गढते वक्त रूप एवं विषयवस्तु के
चयन के समय उन्हें सीधे परदेश से अपने देश अपनी मिट्टी की ओर खेंच लेती है ।
इसे कवि के संस्कार की प्रतिबद्धता भी कहा जा सकता है । यहाँ संस्कार में
भाषा द्वारा मनुष्य का रचाव भी सम्मिलित है । मनुष्य को होना उसके भाषा में
होना होता है । कल्पना कीजिये कि आप भाषा विहीन हैं ।
सोचिये...........................।
शायद यह कहना बिषयांतर होना हो सकता है कि मनुष्य का अर्थ उसकी भाषा में
ही खुलता है । वह उसकी कोई भी मातृभाषा क्यों न हो । एक मायने में मनुष्यता
भाषा की उपज है । एक और अर्थ में भाषा मनुष्यता की फसल है ।
कितनी
अजीब बात है यह कि मानसी की कविताओं में उनका देशीपन भी उन्हें विश्वबोध के
समीप ला खडा करता है । स्वयं से दूर रह कर भी स्वयं को देखना भले ही
उलटबांसी लगे पर यह मानसी की कविताओं की विशेषता है ।
उनकी
कविताओं में वह सम्मोहन दिखायी देता हैं जिसके आग्रह में न केवल बाल पाठक
बल्कि प्रौढता बोध वाला पाठक भी ऐसे बाल गीतों या शिशुगीतों को गुनगुनाने
से स्वयं को रोक नहीं पाते ।
मैं कवि की एक रचना के उल्लेख के
साथ अपनी बात की पुष्टि करना चाहता हूँ- कुहरे की एक झीनी चूनर ने ढका
ज्यों पर्बत का बदनचंदा के मुख को चूम बदरी चली संग संग अपने सजनखेल ऐसे
देख दबे पांव आयी लाज छू गयी मेरा भी तनआंखों के बिछौने में नींद लडती रही
अपने आप सेमेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से यहाँ कविता के
समूचे बिम्ब पर जरा गौर से देखें । हो सकता है यह संयोगी-वियोगी चित्र
विदेशी भूमि की ही अनुप्रेरक वस्तु हो और वह रचनाकार के मन में गहरे तक पैठ
गया हो पर जब यह पीडा के बहाने एक स्पष्ट बिम्ब के रूप में मानसी की कविता
के कथ्य को और अधिक सघन और सुघड बनाती है तो संपूर्णतः रचनाकार के मूल
चरित्र के आधार पर अभिव्यक्त होती है ।
चूनर, चूनर का झीनी होना,
चंदा का मुख चूमना, बदली का सजन के संग-संग चलना ये सब के सब भारतीय जीवन
के सांस्कृतिक वस्तु हैं । इस कविता में (परिवेशजन्य)वे न तो अंग्रेजी
सभ्यता के पांरपरिक बिम्ब का चयन करती हैं न हीं कहन या कथ्य की तीव्रता को
सिद्ध करने के लिए अन्य भावभूमि अख्तियार करती हैं । जिस वेदना या
विप्रलंभता को कवि यहाँ शब्दों में समोना चाहता है उसके लिए उसका इसी रूप
में, इसी शैली में वर्णन वांछित है । जिसे कवि ने “ताप” कहा है उसकी
अनुभूति बिना भारतीय हुए नहीं की जा सकती है । वह ऐसी ताप है जिसे पश्चिम
देह का ताप ही मानती है । पश्चिम के लिए देह का ताप वर्ण्य है और हम पूरबी
लोगों के लिए मन का ताप । वस्तुतः यह ताप तन का ताप ही नहीं है । यह मन का
ताप ही है । इसे संताप कहना ही श्रेष्ठ कहना होगा । जिसकी आँच से स्वयं मन
व्यथित है । शब्द बन्द हैं । अधर चुप हैं । वह बन्द शब्दों में फैले हुए
भेद को कैसे भी बाँच सकता है । यहाँ प्रेम या प्रेमी के सानिध्य की बात
करके भी हम कविता की इतिश्री नहीं कर सकते । इस प्रेम में एक सांस्कृतिक
धरातल भी है जिसे समझने के लिए पूरब का मन होना जरूरी है । पश्चिम में
प्रेम का मतलब देह है । सेक्स है । हमारे यहाँ प्रेम का जो अर्थ है वह यहाँ
शुद्धतः व्यंजित हुआ है । जब हम मानसी की पंक्तियों को देखते हैं, उसके
शब्दों पर गौर करते हैं तो वह अनुशासन और मर्यादा भी दिपदिपाने लगता है ।
नींद का सुबह सिरहाने बैठना, किरन चुनना, बाती, चुपचाप नियम से जलना । ये
हिन्दी की बहुप्रयुक्त बिम्ब हैं जिसके बिना हिन्दी कविता का आस्वाद उनके
विकल्प के रूप में नहीं जगा सकता । यदि कोई वैकलिपक बिंब रख भी दें तो वह
सभी कोणों से अर्थ को नहीं खोल सकती । देखें कविता-
सुबह सिरहाने बैठ
एक किरण चुनती है नींद नयन से
प्रतिदिन शाम की बाती भी जलती है
चुपचाप नियम से
उस सुबह से शाम तक
के वही पुराने रंग ढंग में
चुलबुलापन देख कर भी
ढल गया सूरज चुपचाप से
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो
गुज़रा न हो उस ताप से
मानसी
की कविताओं का मूल स्वर (टोन) अनुरागी मन की अनगिनत तस्वीरों का स्मरण है ।
उनकी कविताएं व्यथित मन का संबल बनना चाहती हैं। उनकी कविताओं में नैराश्य
नहीं । न ही वे मात्र निराशा से जनमी रचनाएं हैं । वे कहती भी हैं-
लोग कमजोर समझ लेते हैं
दर्द आँखो में दिखाना नहीं ।
उनकी
कविताओं का शिल्प अभी यद्यपि सध नहीं सका है । अभी उनकी कविताएं यद्यपि
संप्रेषण के सभी औजारों से लैश भी नहीं हो सकी हैं । यहाँ जब मैं ऐसा कह
रहा हूँ तो उन्हें कलावाद की ओर मोडना नहीं चाह रहा हूँ । लेकिन केवल
शब्दों का ताना-बाना भी कविता नहीं है । कविता में एक सौंदर्य तो होता ही
है और यह सौंदर्य आता है अभिव्यक्ति की वक्रता से या शिल्प की ताजगी से ।
अन्यथा बतकही भी एक कविता है । तथापि वे हिन्दी की संभावनापूर्ण रचनाकार
हैं । शब्दों को पिरोने में एक जादूगर से कम नहीं हैं ने कवि के रूप में ।
प्रेम के प्रतीकों में जिस उद्दीपन, आलंबन, स्मरण का वे भाव जगाती हैं वह
सिर्फ नारी मन को ही स्पर्श नहीं करता बल्कि पत्थर सा पुरूष मन भी
पिघल-पिघल उठता है ।
हाल ही में उनकी एक कविता अंतरजाल पर सार्वजिनक हुई है-
तिनका-तिनका कर जो स्वप्न जोडे ।
इसे
पढकर मुझे महादेवी वर्मा की कवितायें स्मरण हो आती हैं । जहाँ सिर्फ पीडा
है । वेदना की पराकाष्ठा है । नारी मन की उदासियाँ हैं । पर इस सबके पीछे
है वह रहस्यवाद जिसके मूल में है उस प्रिय से मिलन की तीव्रता जिसे हम
बोलचाल में ईश्वर या पुरूष कहते हैं । महादेवी का विरह प्रकृति का विरह है
पुरूष के नाम । वहाँ परम प्रकृति और पुरूष एक हो जाना चाहते हैं । कबीर के
यहाँ भी यही भाव है । वे गाते हैं- राम मोर पीव मैं राम की बहुरिया । राम
बडे मैं छुटक लहुरिया ।। मानसी जी की इस कविता में संचित स्मृतियों का एक
बृहत्तर संसार है जहाँ बिलगाव की पीरा कुलबुला रही है। इस कविता में
केन्द्रीय कथ्य का निर्वाह अंत तक नहीं हो सका है । वैसे इसे यों भी कह
सकते हैं कि कई भाव-चित्र एक साथ आ धमकने से कविता भावों की कोलॉज की तरह
बन पडी है । अब यह अलग बात है कि रचनाकार जो लिख दे वही उसके लिए श्रेष्ठ
फार्म है पर यदि मुझे अनुमति होती या इस कविता को मुझे फिर से लिखने को कहा
जाता तो मैं जो लिखता वह कुछ इस प्रकार होता –
तिनका-तिनका स्वप्न जोडे
हवा के इक झोंके ने तोडे
आँखों से बह निकला पानी
नहीं समझना हरदम दुख है
पीडा अनंत फिर ज्यों मृत्यु
आह, खोने में क्या सुख है
दंश सघन दर्द बहुत गहरा
हृदय में ज्यों आजन्म ठहरा
बिखरे ओस के कण में घुलकर
कभी एकांत में वह सम्मुख है
आह, खोने में क्या सुख है
स्पर्श से अगिन राग उठी थी
जाने कितना तब वही जली थी
हुई तब मद्धम ज्योत में तब्दील
स्मृतियों के आँगन खुब पली थी
बुझ गई लो, शांति क्या अद्भुत है
आह, खोने में क्या सुख है
उनकी
बाल कविताओं पर कुछ भी नहीं कहना बेमानी होगी । यह हिन्दी वालों की
कृतघ्नता ही है जो बाल कविताओं को दोयम दर्जे का लेखन माना जाता रहा है ।
जबकि हिन्दी में तुलसी, सुरदास से लेकर ईधर सुभद्रा कुमारी चौहान,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, जयपक्राश भारती, कन्हैयालाल नंदन, प्रकाश मनु,
हरिकृष्ण देवसरे, शकुंतला सिरोठिया, नारायण लाल परमार, श्रीप्रसाद,
डॉ.भैरुलाल गर्ग, रमेश दत्त दुबे, अहद प्रकाश, शंभुलाल शर्मा वसंत, चंपा
मावले, डॉ.राष्ट्रबन्धु, प्रयाग शुक्ल, मालती वसंत, गिरीश पंकज,
डॉ.सुरेन्द्र विक्रम, सनत, हेमंत चावडा और भी जाने कितने नामों (स्वयं को
नहीं गिन रहा हूँ संकोचवश) को एक बाल साहित्यकार के रुप में जाना जाता है ।
उन्होंने पूरी तन्मयता एवं विश्वास के साथ हिन्द बाल साहित्य को समृद्ध
किया है । कर रहे भी हैं । विश्व के वरिष्ठतम् कवि होकर भी स्वयं गुरूदेव
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कई बाल उपन्यास एवं कहानियां रची थीं । एक बाल
साहित्यकार के रूप में मानसी की तीन बाल कविताओं से ही मै गुजर पाया हूँ ।
उसमें से एक अनुवाद है । उन्हें पढकर आश्वस्ति मिलती है कि वे बाल कविताओं
को अपना मुख्य विधा मान बना लें तो हिन्दी की एक बडी बाल साहित्यकार हो
सकती हैं । इन कविताओं में गेयता है । बाल सुलभ भावभूमि का ज्ञान है उन्हें
। सरस और सरल शब्दावली भी है उनके पास । इस दिशा में कुछ पंक्तियाँ
शुभ-श्रीगणेश की ओर संकेत करती हैं, जैसे-
ले लेता हूं उसके लिये गुडिया
अपने लिये कोई किताब बढ़िया
या
चाहे धूप या हो बरसात
हरदम देती मेरा साथ
बाल
कविता लिखने के कई खतरे भी हैं । उनमें से एक है तुक का सम्यक प्रयोग नहीं
होना। भाव में अति आदर्श या भाषणबाजी होना । बाल सुलभ मन इसे तत्काल नकार
देना चाहता है ।
अंतरजाल पर हिन्दी की रचनाएं तलाशने वालों को आने
वाले दिनो में मानसी की और बेहत्तरीन कविताएं पढने का मिलेंगी । वे स्वयं
को अतिक्रमित कर उत्कृष्ट रचनाओं से हिन्दी के संसार को समृद्ध करेंगी ।
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