प्रेमपाल शर्मा
भाव अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है गद्य | यूँ तो सभ्यता के प्रारंभिक
चरणों-से पद्य प्रधानता ही साहित्य सृजन का प्रमुख साधन रही है, जिस पर
हमारा आर्श साहित्य आधारित है; परंतु भाषा और बोली के विकास के साथ-साथ
गद्य का भी समानांतर महत्व बढ़ा | उज्जैन के ई-पेपर, शाश्वत सृजन के संपादक,
श्री संदीप सृजन कहते हैं- “मैं ख़ुद एक कवि हूँ बावज़ूद इसके यही कहूँगा कि
वर्तमान में काव्य उत्पादन की प्रचुरता के कारण उसका संरक्षण कठिन हो गया
है, ऐसे में गद्य की विशेष आवश्यकता है |” बलाघाट-से कवि श्री राजेंद्र
शुक्ल ‘सहज’ का कहना है-“प्रारंभिक विचार तो गद्य में ही आते हैं बाद में
कवि ह्रदय उसे अपनी सोच से काव्यात्मक रुप प्रदान करता है |” सिवनी के
वरिष्ठ साहित्यकार, श्री रमेश श्रीवास्तव ’चातक’ मानते हैं, “साहित्य में
विचारों को प्रस्तुत करने के लिए गद्य, भावों का ऐसा विशाल सागर है जिसके
माध्यम से लेखक बड़ी सरल भाषा में आम पाठक तक पंहुच जाता है |”
साहित्य वाटिका बहुमुखी गद्य-पुष्पों से महकती है | प्रथम कथेतर साहित्य,
जिसमें निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, समालोचना, अत्मकथा,
पत्र-लेखन, साक्षात्कार, समीक्षा, जीवनी, डायरी, रिपोतार्ज आते हैं | जबकी
द्वितीय कथात्मक साहित्य, जिसके अंतर्गत कहानी, उपन्यास, लधुकथा, एकांकी,
नाटक लिखे जाते हैं| इन्हीं के मध्य एक और विधा है जो इतहास के पन्नों में
कहीं खो सी गई थी, जिसका नाम है ‘कथालेख’| सिवनी निवासी कथेतर लेखक, श्री
अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादू भाई' के चिंतन-मनन और अथक प्रयासों से इस
विलुप्त विधा को नए स्वरूप में न केवल पुनः स्थापना मिली बल्की अखिलेश ने
कथालेख का परिष्कृत रूप आविष्कृत किया, जो निश्चित ही साहित्य को एक सुन्दर
उपहार है। साथ ही उनके साहित्य समर्पण भावों का साक्ष्य भी है | मेरा
अखिलेश जी से परिचय लगभग पाँच साल पहले उनके आलेख प्रकाशन के सिलसिले में
हुआ तब से हम समानुभूति भावों से जुड़े हैं|
सपरिवार माँ नर्मदा की
परिक्रमा के दौरान लेखन करते-करते अखिलेश ने रानी चेन्नमा पर एक लेख तैयार
किया, जिसकी विशेषता थी कि वो लेख होते हुए भी कथा शैली में व्यक्त था अतः
इसे नाम दिया गया ‘कथालेख’ | ऐसा लेख जिसमे लेख और कथा दोनों के गुण हों|
क्षण ख़ुशी के थे, संभवतः साहित्य में यह नवीन शैली का सूत्र पात था | अपनी
भार्या प्रतिमा अखिलेश, जो स्वयं एक सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं, के साथ दादू
भाई ने साहित्यिक परिवार में कथालेख के पहले से अस्तित्व में होने संबंधी
पूछ-ताछ की | सभी तरफ़ से एक ही उत्तर मिला “अभी तक तो ऐसा कुछ सुना नहीं |”
लिहाज़ा इस विषय को अविष्कारक के भाव से जबलपुर-से प्रकाशित होने वाली
पत्रिका ‘साहित्य संस्कृति’ में प्रकाशन के लिए भेजा गया | वरिष्ठ संपादक
श्री शरद अग्रवाल, संपादक श्री सुरेन्द्र पवार सहित पूरे संपादक मंडल ने इस
विषय पर बड़ी गंभीरता से विचार किया | वरिष्ठ संपादक का कहना था, शायद कहीं
न कहीं यह नाम पढ़ा है भले ही आतंरिक मैटर उस प्रारूप में न हो जैसा अखिलेश
सिंह श्रीवास्तव द्वार लिखा गया है | अतः पुनः खोज-बीन हूई| यहाँ तक की
कथा-कहानियों पर आधारित पत्रिकाओं के संपादकों से भी चर्चा की गई पर इस
विषय पर पूर्व लेखन अप्राप्त रहा | अंततः संपादकीय में अखिलेश सिंह
श्रीवास्तव का बतौर कथालेख अविष्कारक के रूप में उल्लेख के साथ पत्रिका
प्रकाशन को चली गई |
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यहाँ से शुरू होती है जो मेरी दृष्टि में लेखक की
साहित्यिक ईमानदारी का सुंदर भाव है | सब कुछ पक्ष में होने के बाद भी
अखिलेश, सपत्नीक इस बात की खोज में लगे रहे कि क्या कथालेख नाम पहले उपयोग
हो चूका है...? उत्तर पूर्ववत मिला ‘नहीं’| नैट सर्चिंग में भी कोइ जानकारी
नहीं मिली | अचानक श्रीमती प्रतिमा को एक साईट में सब-नोट मिला, जिसमें
कथालेख शब्द का प्रयोग दिखा| जब इसकी विस्तार से जाँच की तो पाया, मराठी
साहित्य में पहले थोड़े-बहुत कथालेख लिखे गए हैं जबकि हिंदी में तो बहुत की
कम हैं | यह बात आलग थी कि उनका फ़्रेम अखिलेश कृत कथालेख से अलग था, पर
शीर्षक की समानता तो थी | अखिलेश नें रात को ही संपादक महोदय को इस विषय
में जानकारी दी और संपादकीय में संशोधन की प्रार्थना की जो अब एक कठिन कम
था | लेखक को कुछ लोगों ने कहा कि जब इस विषय की जानकारी किसी को है ही
नहीं तो क्यों नाहक अपना नाम हटवा रहे हो ? पर वे नहीं मानें | दादू भाई का
साफ़ कहना था कि “भले ही कथालेख विलुप्ति की स्थिति में है, कोई इसे नहीं
जनता हो, उसकी आतंरिक संरचना में अंतर हो, पर उसका पूर्व अस्तित्व है अतः
यह मेरे द्वारा अविष्कृत नहीं परिष्कृत विधा मानी जाएगी, जो न्यायसंगत है
|” संपादक सुरेन्द्र पवार ने ससम्मान रातों-रात पृष्ठ परिवर्तन कराया |
कथालेख के विषय में जब अखिलेश सिंह श्रीवास्तव से पूछा तो उन्होंने इसके
प्रमुख बिन्दुओं से परिचित करते हुए कहा- “कथालेख की ख़ास बात है कि यह लेख
रूप में किसी सत्य घटना, चरित्र-चित्रण, कहानी अथवा रपट इत्यादि का कथा
शैली में, संवाद विहीन प्रस्तुतिकरण है | इसमें पात्र कोई संवाद नहीं करते |
विषय भावपूर्ण और सरलता के साथ कहानी जैसा आगे बढ़ता है | जबकी तथ्यात्मक
और आंकड़े संबंधी जानकारी ठीक वैसे ही लिखी जाती है जैसे सामान्यतः लेखों
में रहती है | विषय मध्य, प्रतीक-प्रयोगों एवं रिपोरार्जिक सौन्दर्य देने
से जहाँ एक ओर कथालेख में रोचकता बढ़ती है वहीं दूसरी ओर पाठ का निबंधात्मक
भरीपन भी समाप्त हो जाता है और पाठक आनंद के साथ जानकारी प्राप्त करता है
|” पारिभाषिक रूप-से समझें तो- “विचारों का लेख रूप में कथा शैली द्वारा
संवाद विहीन,भावपूर्ण चित्रण ही कथालेख है |” इस विधा पर उनके द्वारा और
क्या तैयार किया जा रहा है पूछने पर बताया, वे भारत के उन क्रांतिवीरों पर
कथालेख लिख रहे हैं जिन्हें इतिहास में वो स्थान नहीं मिला जो मिलाना चाहिए
था | अविष्कृत-से परिष्कृत करता की ओर स्वयं को मोड़ने के विषय मे उनका
कहना है, “मुझे नहीं पता कथालेख को कौन जनता है कौन नहीं, पर यह समय जनता
है कि वो मेरे द्वारा उपयोग किये जाने से पहले भी अस्तित्व में था, भले
उसका आतंरिक स्वरुप भिन्न हो | अमर साहित्य सदैव सत्य की आधारशिला पर
निर्मित होते हैं | झूठ के कितने दिन...! फिर जिसका साक्षी समय हो वो स्वयं
सिद्ध है |" कवि सहज जी का कहना है, “परिष्कृत करना भी उतना ही महत्वपूर्ण
है जितना अविष्कृत|” अखिलेश मानते हैं 'उनके लिए केथालेख कुछ अविष्कृत,
कुछ परिष्कृत विधा है |'
इस आलेख का मूल उदेश्य यह है कि यदी हमारे बीच, किसी साहित्यिक साथी ने
कुछ नया किया है तो हम उसका समर्थन करें, सहयोग और यथोचित स्थान दें | यह
आलेख उन साहित्यिक गड़बड़ी करने वाले लोगों के लिए भी सीख है कि ईमानदार
प्रयासों से ही अच्छे साहित्य का सृजन होता है | कथालेख गद्य विधा में एक
नए स्वरुप के साथ सामने आया है, चलिए हम भी जुड़ें कथालेख-से। दादू भाई को
अशेष शुभकामनाएँ।
प्रेमपाल शर्मा,
वरिष्ठ संपादक, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
(संबद्ध, साहित्य अमृत पत्रिका),
संपादक, सवेरा न्यूज़, नई दिल्ली।
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