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गुरुवार, 7 सितंबर 2023

चार खंडों का आत्मकथात्मक उपन्यास - लेकिन इतना ही सच नहीं!

डॉ. परदेशीराम वर्मा

    एक प्रसिद्ध कहावत है आजमाये को आजमाना मूर्खता है। समाज की अव्यवस्था, शासन में फैले भ्रष्टाचार, धर्म क्षेत्र में पसर रहे व्यापारिक ढंग-रंग, प्रगति के शोर के बीच ऊंच नीच की छबियाँ , समता के उद्घोष का उपहास उड़ाता विषम वर्तमान और हताशा, उन्माद, जड़ता से पी़डित नई पीढ़ी के सम्बन्ध में प्रायः हम उपन्यास कहानी, कविता पढ़ते हैं।
    दूसरों के दुख को जान और सुनकर शब्दों में पिरोने वाले बड़े साहित्यकार अपने वर्ग से उपर उठकर दलितों आदिवासियों पर भी प्रभावी लेखन कर यश प्राप्त करते हैं। लेकिन आज भी आदिवासियों के बीच से निकलकर कम ही लोग धीरज के साथ शब्दों की दुनियाँ में आकर पहचान ही नहीं बनाते बल्कि एक मानक भी बनाते हैं। इन दिनों एक ऐसे ही रचनाकार ने मुझे चार खंडों के जीवनी परक उपन्यास से प्रभावित किया है।
    वे हैं डा. सुखनंदन धुर्वे। बिलासपुर जिले के एक छोटे से गाँव में जन्मे सुखनंदन नंदन नाम से लेखन करते हैं। वे पिछले वर्ष ही केन्द्रीय विद्यालय धमतरी के प्राचार्य पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर मुक्त हुए हैं। कविता कहानी लेखन की निंरतंरता बनाए रखते हुए नंदन ने केन्द्रीय विद्यालयों में तबादलों की भार सहते हुए आगे की यात्रा की।
    अंततः अति तबादले और अस्त व्यस्त दिनचर्या से आजिज आकर नंदन ने लेखन के लिए स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर रायपुर में घर बना लिया। उसने एल. एल. बी. सम्भवतः इसीलिए किया था कि बावन तिरपन की जवान उम्र में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति हो तो रोजगार का कोई सुविधाजनक विकल्प भी हो।
    वे अब रायपुर में वकालत करते हैं और भिड़कर लेखन करते हैं। बिलासपुुर जिले के गाँव नगपुरा में 05 अक्टूबर 1969 को आदिवासी परिवार में जन्में नंदन की रचनाएं कथादेश, आकंठ, असुविधा जैसी पत्रिकाओं में छपती रही हैं। समकालीन कविता काव्य संकलन का उन्होंने संपादन भी किया है।
    दैनिक लेाकसदन समाचार पत्र में वे झांपी नामक छत्तीसगढ़ी विशेष पृष्ठ का साप्ताहिक संपादक कार्य भी सम्हलाते हैं। मूल रूप से वापंथी नंदन जनवादी लेखक संघ से भी सतत जुड़े रहे हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों में वे केन्द्रीय विद्यालय के शिक्षक के रूप में गए । नागालैंड, मिजोहिल्स, मेघालय, मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्र, झाबुआ, छत्तीसगढ़ के धुर आदिवासी जिला दंतेवाड़ा में वे सेवा देकर धमतरी जैसे चातर राज में आए और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के संकल्प पर अमल  करते हुए स्वतंत्र हो गए । नंदन ने आत्मकथात्मक उपन्यास के एक हजार पृष्ठों को डूबकर चार खंडों में लिखा है।
    हर खंड को एक नाम भी दिया है। अंकुरण, पल्लवन, पुष्पन और प्रसरण। प्रसरण चौथा खंड है। चौथे खंड को समाप्त करने पर ही मैने शीर्षक पर ध्यान दिया। पुस्तक “लेकिन इतना ही सच नहीं” शीर्षक से प्रकाशित है। सचमुच मुझे एक हजार पृष्ठ पढ़कर लगा कि पांचवें खंड से ही कथा की सही शुरूवात हो सकती है। चारों खंडों में नंदन ने गरीब आदिवासी घर में अपने जन्म, किसी तरह श्रमिक पिता और जिद्दी माँ की छाया में रहकर कठिन स्थितियों में की गई पढ़ाई। अभाव के बावजूद खुश रहकर हर परिस्थिति से लड़ते हुए आगे बढ़ने का हौसला, ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और पी. एच. डी. की डिग्री। केन्द्रीय विद्यालय में नौकरी। नौकरी के दौरान होने वाली परेशानी। निराधार तबादले। तरक्की के बंद रास्ते, विवाह, घर-गृहस्थी। गरीब परिजनों के बीच अपेक्षाकृत थोड़ी सी सम्पन्नता के कारण दाता बनने की कठिन भूमिका। स्वजातीय लड़की देखकर विवाह करने के फैसले से आहत, जिद्दी माँ, ईमानदार और हिम्मती पिता। सीधी सादी जीवन संगिनी, साथ देने वाले सहयोगी और षड़यंत्रकारी विभागीय साथी। बेहद ऊबाऊ, दूरदराज की यात्राएँ। अनजानी सी जगहों में पदस्थापनाएँ। संकटो से निजी कौशल से उबार और कामयाबी का आस्वाद लेखन इन चार खंडों में है। चारों खंड पढ़ने के लिए पाठक को सम्मोहित करते हैं। नंदन के पास आरूग भाषा है। छत्तीसगढ़ी का शब्द है आरूग।
    प्रख्यात कलाकार देवदास बंजारे की मेरे द्वारा लिखित जीवनी का शीर्षक है आरूग । उस जीवनी को मध्यप्रदेश शासन का माधवराव सप्रे सम्मान प्राप्त है। आरूग का अर्थ है पवित्र। अनछुवा, बेदाग । यही बेदाग आरूग भाषा नंदन के पास है । नंदन के पास कहने को बड़ी कथा है। यह किताब तो केवल भूमिका है। उसने जीवन ही ऐसा जिया है कि जीवन भर उसे लिखने के लिए विषय की कभी कमी शायद ही हो। नंदन ने जीवनी में यह बताया है कि वैचारिक दृष्टि से वामपंथी होते हुए भी किस तरह एक व्यक्ति समाज के आगे झुकने पर मजबूर हो जाता है। पाखंड से संचालित कर्मकांड, त्याग योग्य झूठी परंपरा, दिखावा, धर्मन्धता से उबर नहीं पाता।
    एक वैचारिक व्यक्ति या तो समाज परिवार से लड़कर अकेला हो जाय या इमानदारी का रास्ता छोड़कर वैचारिक साथियों के बीच ऊपहास का पात्र बने। उगलत-निगलत पीर धनेरी इसी स्थिति को कहते हैं। नंदन ने देश भर में विभिन्न प्रांतों में नौकरी की। पूरी साहस के साथ उसने स्थितियों का सामना किया। बाबरी मस्जिद को टूटते हुए देखकर उसके भीतर भी बहुत कुछ टूट सा गया। भाई चारे की गंगा-जमुनी तहजीब वाला यह सुन्दर देश धीर धीरे किस तरह धर्मान्धता की जकड़ में आकर हांफने लगा यह भी उसने महसूस किया। देश का कोई भी प्रान्त हो हर कहीं अंध क्षेत्रीयता, जातीयता, धर्म में उसका बँटा हुआ डरावना स्वाभाव हर कहीं उद्वेलित करता है । दिनकर की पंक्ति यहां याद आती है प्यारे स्वदेश खाली आऊँ या हाथों में तलवार धरूं।
    अब नंदन को जमकर लिखने का पूरा अवसर है उसने आर्थिक दृष्टि से मजबूत स्थिति बना लेने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लिया। चारों खंडों में छत्तीसगढ़ की पंरपरा, आदिवासियों की पंरपरा का खूब वर्णन है। हर छत्तीसगढ़ी व्यक्ति को दीगर प्रान्त में अपेक्षाकृत अधिक चतुर व्यक्तियों, समाजों का अतिक्रमण डराता है। छत्तीसगढ़ का न कोई देवता बड़ा है, न इसकी किसी नदीे को दर्जा प्राप्त है । न यहाँ का श्रम सराहनीय है, न छत्तीसगढ़ी सरलता को प्रशंसा की दृष्टि से देश देखता है।
    गहरी निराशा के बीच लिखने पढ़ने वाले वे लोग जो वामपंथ पर आस्था रखते हैं अपनी बात अपने ढंग से कहते हैं ओर ऐलान करते हैं लेकिन सचमुच में इतना ही सच नहीं है। गैर छत्तीसग़ढियों के द्वारा छत्तीसगढ़ को लूटने, धमकाने, डराने और उनका अकसर, सुख, सम्मान छीन लेने का लंबा इतिहास है। लेकिन अब राजनीति का क्षेत्र भी निरापद नहीं रहा। जो लोग क्षेत्रीयता की बात करते हुए सत्ता में आते हैं वे छत्तीसगढ़ी भी स्थायित्व और वर्चस्व तथा जीत के लिए कारगर, विजय मंत्र के जानकार बाहुबली बाहरी लोगों को लठैती कराने मे हिचकते नहीं  सत्ता अपने ढंग से अपना चेहरा चमकाती है लेकिन कमलेश्वर ने यूं ही नहीं कहा है कि सत्ता अपनी मृत्यु नहीं देख पाती। सत्ता अपनी मृत्यु इसलिए नही देख पाती क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि “इतना ही सच नहीं है।” सच्चाई ऐसी है जिसका खुलासा धीरे धीरे ही हो सकता है। जो सच्चाई को जानते हैं वे उसे बता नहीं पाते जो नहीं जानते वे झूठ को सच की तरह परोस कर अपनी कारीगरी पर इतराते र्हैं।
    नंदन के समकालीन साथी कविता कहानी उपन्यास लिखने में पूरे मन से लगे हैं। ऐसे समय में नंदन नें जीवनीपरक उपन्यास लिखकर एक लोकप्रिय और पठनीय विधा को समृद्ध करने का बीड़ा उठाया। इन चारों खंडों में पहला खंड बचपन पर दूसरा खंड, नौकरी मिलने और नौकर हो जाने के बाद की परेशानियों पर, तीसरा खंड नौकरी से बंधे रचनाकार के धुवांधार तबादले की धूप पर और चौंथा खंड समकालीन राजनीति, छत्तीसगढ़ की वर्तमान स्थिति, दक्षीणपंथी राजनीतिक चोचले और पिसते हुए गरीब समाज पर है।
    राजनीति ने किस तरह आम आदमी को केवल इस्तमाल की वस्तु बनाकर रख दिया इस पर गहरी टिप्पणियाँ इस खंड में है। नंदन का यह पहला साहसिक रचनात्मक प्रयास प्रशंसनीय है। यह आम छत्तीसगढ़ी या कहिए हिन्दुस्तानी नौजवान की कहानी है। नंदन ने बहुरंगे समाज और भलाई से भरे अपने आसपास के लोगों को देखा है तो अपनी कुंठा और गलत सोच के कारण लगातार पी़डित करने वाले करीबी लोगों के गुण दोष को भी खूब परखा है।
    मनुष्य न किसी जाति और परिवार में जन्म लेने के लिए स्वतंत्र है। न ही वह जिस परिवार में जन्म लेता है उससे बिलग होकर स्वतंत्र ढंग से विकसित होने के लिए मुक्त हैं। उसे घुट घुट कर अपने चारों ओर के दबावों के बीच ही जीना और विकसित होना पड़ता है यह नंदन के इस चार खंडों वाली कथा पढ़कर हम बेहतर ढंग से समझ पाते हैं।
    सर्वेश्वर जी ने लिखा है -
मैं सारी जिन्दगी सहारे की
तलाश में भटकता रहा
और अंत में मुझे अपनी हथेलियों से
बेहतर जगह दूसरी नहीं मिली ।
    अपने पुरूषार्थ से बिगड़ी बना लेने वालों पर गर्व करने का अवसर इस कथा से हम पाते हैं ।
    बहुत अधिक ब्यौरों के कारण ये चार खंड बने हैं। ब्यौरों और बारीक विवरणों से बचकर इस कथा को दो खंडों में भी समेटा जा सकता था। मगर मन भरने की बात है। प्रेमचंद ने लिखा है कोई रचना रचयिता के मनोभाओं का, उसके चरित्र का, उसके जीवनादर्श का आईना होती है।
    रचनाकार खुद से मुक्त होकर रचना नहीं कर सकता वह अपनी रचनाओं में ठीक उसी तरह रहता है जिस तरह मेंहदी के हरे पत्तों में रंग छुपा होता है।
अभी हमें नंदन से काफी आशाएँ हैं।
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आलोचक - डा. परदेशीराम वर्मा
पुस्तक - लेकिन इतना ही सच नहीं
चार खंड
मूल्य 600 प्रत्येक
प्रकाशन:
रूद्रादित्य प्रकाशन प्रयागराज
लेखक डा. सुखनंदन सिंह धुर्वे नंदन

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