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गुरुवार, 3 अगस्त 2023

राजनीति के मायाजाल को उजागर करती कविताएं…

          बुद्धिलाल पाल की कविताएं अपने समकालीन कवियों के बीच एक अलग ही अंदाज और मिजाज के साथ मौजूद है। जिसका अपना ही एक राजनैतिक स्टैण्ड और भाषिक मुहावरा है। इनकी कई कविताओं में राजा को प्रतीक बनाकर राजनीति का जो चरित्र प्रस्तुत किया गया है। उनसे उन राजनीतिक प्रवृत्तियों की शिनाख्त होती है। जिससे वर्तमान राजनीति का स्वरूप निर्मित है। इन कविताओं से उन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जटिलतों को भी समझने की दृष्टि मिलती है। जिसके माध्यम से वर्तमान राजनीति के चेहरे को साफ-साफ देखा जा सकता है। उसका सिंहावलोकन किया जा सकता है। यह कविताएं इस अंधेरे में उस ज्योति बिम्ब की तरह है। जो राजनीति में छिपे उसके मायाजाल को बहुत ही तीव्रता और सामर्थ्य के साथ उद्घाटित करती है - 'राजा यानि/राजा का प्रजामुख/सुख यानि/जय-जयकार के नारे/जय यानि/राजा का घमंड/घमंड यानि/जनता से व्यभिचार/व्यभिचार यानि/राजा का न्याय!
'वह राजा है/जादूगर की तरह/रस्सी पर चढ़ता है/हमें दिखाई नहीं देता है/दिखता है/सिर्फ उसका मायाजाल/उसके रोने/चीखने, चिल्लाने की/आवाज सुनाई देती है/जैसे कि वह/जनता के लिये/बहुत ही खतरे में हैं!'
'राजा का धनबल, बाहुबल/से सराबोर होता है/कूटनीति उसके चरित्र में होती है/राजा से उपजे/बाहुबल की पीड़ा/जनता हमेशा सहती है/राजा का खजाना/कुबेर का खजाना होना चाहता/धनपतियों को संरक्षण देता है/राजा की कूटनीति/जनता को छलना/राजा का यश फैलाना होती है।'
              यह कविताएं राजनीति की कूटनीति और संवेदनहीनता को जिस सहजता से पकड़ती और व्यक्त करती है उसका असर सीधा पाठक के हृदय पर होता है। यह कविताएं पाठ के स्तर पर अत्यंत संप्रेषणीय होने के बावजूद किसी मधुमति भूमिका में नहीं ले जाती न कोई रोमानी आश्वासन देती है बल्कि भीतर से बैचेन कर देती है। यह बैचेनी राजनीतिक विसंगतियों, विडम्बनाओं, जटिलताओं से उत्पन्न तनाव, विक्षोभ, अंतर्व्यथा और खीझ के रूप में कविता की अंतवस्तु में उभरती है। जो सत्ता के मंतव्य को स्पष्ट करते हुए उन राजकीय सम्मानों की पोल खोलती है जो वस्तुतः नैतिक दायित्व से विमुख कर दरबारी संस्कृति का पोषण करती है - 'दिल अवसाद से/भर जाता है/उन राजकीय सम्मानों से/जिसमें एक दरबारी/और बढ़ जाता है/राजा के रागदरबारियों में/और यह राजा के लिए/एक आर्दश स्थिति/राजा के डंका सी/राजा का ढोल पीटती!'
               दरअसल यह एक ईमानदार कवि के भीतर की बैचनी है जो अपने समय के संकट से लगातार जूझ रहा है और अपनी भूमिका के निर्वाह की निरर्थकता की अनुभूति में उबल रहा है। किन्तु इनकी कविता में कहीं भी कातरता नहीं है जो काल्पनिक या रोमांटिक यथार्थवादियों में मिलती है। वे अपनी प्रतिबद्धता को लेकर किसी भी स्तर पर कमजोर नहीं है। कवि की यही निष्ठा उनकी ‘निष्ठा’ शीर्षक कविता में उभरकर आती है- 'राजा पर संकट हो तो/जनता व्यथित होती है/जनता राजा के/हर दुख में शामिल होती है/जनता राजा के लिए/हमेशा ही दुआ करती है/पर क्या राजा भी कभी/जनता के लिए ऐसा ही होता है ?'
                यहां कवि की सबसे बड़ी चिंता इस सत्ताचक्र के बीच उस आम आदमी की प्रासंगिकता को लेकर है। जिसने कभी कोई सुख नहीं भोगा। नून, तेल, लकड़ी के लिए जो जीवन भर कोल्हू के बैल की तरह खटते रहे, जिनकी आंखें मृत्यु तक रोटी, लंगोटी के लिए ही भटकती रही है। यह चिन्ता ही इन कविताओं का मूल स्वभाव है। जिसे वे सीधे अपनी कविता में व्यक्त करते हैं- 'कबिलाई युद्धों में/कबीले के सरदार/राजा होते हैं/जातियों में उनके सामंत/राजा होते हैं/धर्मों में उनके महानायक/राजा होते हैं/इन सबके बीच/गरीब आदमी/कहीं नहीं होता।'
'जिनकी बांहों में/रात की रंगरैलियों में/पूरा शहर सिसकता रहा/जिनकी प्लेटों में/शेर का मांस तक/सजता रहा/जिनके कटोरों में/सिर्फ मदिरा का यौवन ही छलकता रहा/वे ही/हमारी किस्मत लिखते रहे/बार-बार/हर बार।'
               कवि यहां राजनीतिक यथार्थ की वास्तविकता को लेकर पूरी तरह स्पष्ट है। इसीलिए वह तथ्यों को कला के आवरण में छुपाने की कोशिश नहीं करता। उसकी संवेदनशीलता जिस विचार से जन्म लेती है। वह उसके प्रति पूरी तरह आश्वस्त है। यही कारण है कि इन कविताओं में ईमानदारी की महक को सहजता से महसूस किया जा सकता है।
              इस संग्रह की कविताएं जिस मानवीय जमीन से सृजित है वह बहुत ही उर्वर है। कवि की यही मानवीयता इतिहास के उन अभिजात्य मिथकों तोड़ने का प्रयास करती है। जिसने राजा की दुनिया को ही स्थापित करने में अपनी भूमिका निभाई। वे राजा की दुनिया कविता में कहते हैं-  'देवता/कभी भी नहीं रच सके/आदमी की दुनिया/उन्होंने/हमेशा ही रची एक राजा कीदुनिया/ इन्द्रलोक के/वैभवशाली सुख के लिये/वे करते रहे इंद्र की रक्षा/रखते रहे राजा को जिन्दा।'
             वह राजा जिसकी मूल व्यवस्था समर्थों की रक्षा करना और वर्चस्ववादी संस्कृति का पोषण ही रहा है। जिस व्यवस्था में सदा से ही जनता और जनता के हित नदारत रहे हैं। जहां जाति, धर्म, ईश्वर, पाखण्ड और भय का विस्तार वस्तुतः उसकी सत्ता के विस्तार के औजार के रूप में ही प्रयोग हुए है - 'वे कोई सूरमा नहीं थे/ऐसा कहने के लिए/उनके पास कुछ था भी नहीं/उनके पास थे/-ललचाने वाले दानों के कुछ चुग्गे/कुछ हथकण्डें कुछ हथकड़ियां/कुछ अनर्थ वाले भय/इन्हीं को उन्होंने/खूब फैलाया/और हमेशा ही अविजित रहे/किसी सूरमा की तरह।'
              इन्हीं विसंगतियों से निर्मित वर्तमान राजनीति आज विकृत और कुंठित होकर चारों तरफ बजबजा रही है। राजनीतिक आकांक्षायें आज इतनी अराजक, अमानवीय और क्रूर हो गई है कि कवि को कहना पड़ता है- 'राजा/और राक्षस में/फर्क सिर्फ इतना/राक्षस के सींग/दिखाई देते हैं/राजा के नहीं'
                 कवि की वैश्विक दृष्टि राजा की इसी प्रवृत्ति को वैश्विक स्तर पर भी देखती हैै। जिसका नया चेहरा नव साम्राज्यवाद, नवउपनिवेशवाद के रूप में आज हमारे समाने है। और वह नया राजा अमेरिका है। जो भूमंडलीयकरण, बाजारीकरण, उदारीकरण और सैन्यीकरण जैसे रास्तों से संपूर्ण विश्व को अपना उपनिवेश बनाना बनाना चाहता है। बोसनिया, बेरूत,अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, फिलिस्तीन, यूक्रेन आदि की तबाही  इसका जीवंत उदाहरण है। जिसे ’नया राजा‘ कविता में कवि  व्यक्त करते हुए लिखता है- 'देखो, वो देखो/आंधी की तरह धूल उड़ाता/चला आ रहा है वह/बम धमाकों के साथ/मानवाधिकार की दुहाई देता/हम सबका/हमारी पूरी दुनिया का नया राजा/सात समुन्दर पार से/पूरे ठाठ-बाट से।'
                जिसकी दुनिया का सर्वमान्य नियम प्रतिस्पर्था है। जिसका चिंतन ज्यादा लाभ, ज्यादा शोषण है। जिसकी घोषणा इतिहास और विचार का अंत है। यानि एक नये जंगलराज की शुरूआत है। जिसमें चिड़िया, कबूतर और आदमी के लिए कोई जगह नहीं हैं। यह चिंता अगर कहीं है तो बुद्धिलाल पाल जैसे ईमानदार और संवेदनशील कवियों की कविताओं में जो वर्तमान राजनीति की अमानवीयता, बर्बरता, हिंसा और क्रूरता के बरअक्स मानवीय संवेदना का प्रतिसंसार रचते है। उस सन्नाटे को तोड़ते हैं। जो जीवन को मुर्दा और इस जगत को मरघट में तब्दील करती जा रही है। वे इन सभी विसंगतियों और विकृत प्रवृत्तियों पर नकेल कसते हुए कहते हैं- 'मर्द जो औरत को/दोयम दर्जे की नागरिकता देता है/सवर्ण जो दलित को घृणा की नजरों से देखता है/अमीर जो गरीबों का शोषण करते हैं/अतिधार्मिक व्यक्ति जो/पृथ्वी को जकड़कर बैठे हैं/इन सबके नाक में/नकेल जरूरी है।'
            क्योंकि इन विसंगतियों को दूर किये बगैर एक बेहतर दुनिया की परिकल्पना करना संभव नहीं है।  इन कविताओं के भीतर  कवि की संवेदना की जड़े बहुत गहरी है जो अंधेरे से रस ग्रहण कर अंधेरे के विरूद्ध कविता को मजबूती से खड़ी करती है।
              इस दृष्टि से बुद्धिलाल पाल की कविताएं अपनी साफ वैचारिक राजनीतिक दृष्टि और संश्लिष्ठ संरचना में अनूठी है। क्योंकि सरल, सहज भाषा में संश्लिष्ठ कहना उन्हीं कवियों के लिए संभव हो पाता है, जो यथार्थ की वास्तविकता को पूरी समग्रता में स्पष्टता के साथ देख पाते हैं तथा जिनकी संवेदना विषयवस्तु के साथ एकाकार हो पाती है। वे कविता में मितकथन के कलात्मक आदर्श को न केवल शब्दों में चरितार्थ करते हैं बल्कि तीव्र व्यंग्यात्मक विरोध द्वारा जीवन के उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना भी करते हैं। इन कविताओं में व्यंग्य की धार इतनी तेज है जो यथार्थ के तल को भेदते हुए आत्मा में चुभ जाती है। कविता की लय-ध्वनि और शब्दों का चुनाव कुछ इस प्रकार है कि एक के बाद एक पंक्ति अगली पंक्ति को बल प्रदान कर प्रतिध्वनित करती चलती है। जिससे कविता अंत तक पहुंचते-पहुंचते अपनी पूरी शक्ति अर्जित कर यथार्थ की विसंगतियों पर तीखा प्रहार करती नजर आती है।
             जहां आज कवि बाजार में बने रहने के लिए कविता के आकर्षक मेनेफेक्चरिंग में लगे हुये हैं या फिर यथार्थ को अमूर्त करते जा रहे हैं। ऐसे मुश्किल समय में बुद्धिलाल पाल की कविताओं को पढ़ना किसी रचनात्मक अनुभूति से गुजरने से कम नहीं है। जिन्हें न तो पिछड़ जाने की चिंता है, न ही खारिज या  बाजार से बाहर कर दिये जाने का भय। जो आज भी सहज सौन्दर्यता के साथ कविता को सक्रिय बनाये रखने की जिद में कायम है। यह कविताएं कविता का वह रूप है जो पाठक को किसी आनंद लोक की अनुभूति में निमग्न नहीं करती बल्कि उसका वैचारिक एवं बौद्धिक विकास कर सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन में अहम भूमिका अदा करती है।
             कवि प्रतीकों के माध्यम से अतीत से लेकर वर्तमान राजनीति की जिस सच्चाई को उजागर करना चाहता है। वह सच्चाई इतनी बड़ी है कि उसे एक-दो कविता में व्यक्त नहीं किया जा सकता। इसलिए कवि यहां अलग-अलग कविताओं के माध्यम से राजनीति के यथार्थ  का कोलाज रचता है। जो उसकी सच्चाई को खंड-खंड में प्रतिबिम्बित करती है। जो अपने भीतर दो दुनिया को समेटे हुए है। एक दुनिया राजा की है तो दूसरी सदियों से वंचित और शोषित जनता की। जिसके पक्ष में ये कविताएं प्रतिपक्ष की भूमिका निभाते हुये विसंगतियों को उद्घाटित करने के साथ ही इतिहास और भविष्य कि प्रति विवेक संगत सजगता पैदा करती चलती है। क्योंकि कवि यह अच्छी तरह जानता है कि बुद्धिसंगत विवेक के निरंतर विकास के द्वारा ही इस भयावह दौर को अतिक्रमित किया जा सकता है।
              इस मायने में यह महत्वपूर्ण कविताएं है । इधर जिस तरह की स्वीकार्य, सुग्राह्य, सुपाच्य किस्म की कविताएं लिखी जा रही हैं। जो पढ़ने में तो अच्छी तो लगती है परंतु बदलाव के स्तर पर भीतर कोई बैचनी पैदा नहीं करती। या फिर यथार्थ को अपने कलात्मक शिल्प से ढंकने का प्रयास करती है। जी आंखों से गुजर जाती है दृश्य की तरह लेकिन भीतर कहीं ठहरती नहीं। उसे किसी हद तक यह कविताएं तोड़ने का प्रयास करती है।
              इस रूप में बुद्धिलाल पाल की कविताएं अपनी साफ वैचारिक राजनैतिक दृष्टि, जनता के साथ गहरी संपृक्ति रखने और सरलता का नया सौन्दर्यशास्त्र रचने वाली कविताएं है। जो इस भयावह समय की  जटिलताओ, विसंगतियों और अंतर्विरोधों के  यथार्थ को समझने की  दृष्टि  प्रदान करती हैं।
             - अंजन कुमार

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