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गुरुवार, 6 जुलाई 2023

पाँच पांडव

एक नजर उन वृक्षों पर अवश्य डालते, जिन्हें वे प्यार से "पाँच पांडव" कहा करते थे। उन पाँचों वृक्षों को अपने हाथों से ही लगाया था उन्होंने। बड़े प्यार से सींचते, सहलाते उनके कोमल पत्तों को। बिल्कुल अपने जाए बच्चे की तरह। रोज पुचकारते भी जाते थे… "जब तुम सभी बड़े हो जाओगे और मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा, तब शांत-सी दोपहरी में, तुम्हारी छाया में, एक खटिया डालकर लेट जाऊँगा और फिर हम सभी खूब बातें करेंगे।" सभी पौधे भी ऐसे झूमते मानों अपनी सहमति दे रहे हों।
हालाँकि सोसाइटी के गार्डेन की देखभाल के लिए माली की बहाली की गयी थी, परंतु मि. रस्तोगी को इन अशोक वृक्षों से विशेष स्नेह था और इनकी देखभाल की जिम्मेवारी उन्होंने स्वयं ले रखी थी। उनके प्राण बसते थे इनमें और यह बात सोसाइटी के सभी लोग जानते थे। अक्सर उन्हें छेड़ा भी करते,
"कहिए रस्तोगी साहब! कैसे हैं आपके बच्चे?"
रस्तोगी साहब भी बड़े उत्साहित होकर, उनके विकसित होने की, नए-नए पत्ते निकलने की कहानी सुनाने शुरू कर देते थे।
मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह से याद है जब मि. रस्तोगी ने उन अशोक वृक्षों को सोसाइटी में लाने की कहानी सुनायी थी। मुझे सोसाइटी में आए हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे। एक दिन शाम को , मैं गार्डेन में टहल रही थी तो देखा कि रस्तोगी साहब हाथ में खुरपी लिए गार्डेन में मिट्टी खोद रहे थे। पूरा शरीर, मिट्टी से सन गया था। मैं उत्सुकतावश उनके पास गयी और कहा,
"अरे भाई साहब! जब माली काका हैं ही तो आप क्यों परेशान हो रहे हैं? वे खोद देंगे मिट्टी और जो पौधा लगाना हो उनको दे दीजिए, वे लगा देंगे।"
"आप नहीं समझेंगी भाभी जी! ये पौधे नहीं, मेरी जान हैं…। वैसे भी माली के पास ढेरों काम हैं, ऐसे में ये उपेक्षित न हो जाएँ।" पौधे लगाने के बाद वे मिट्टी सने हाथों को धोकर गार्डेन में पड़ी बेंच पर बैठ गए। मुझे भी बैठने को इशारा किया और इन पौधों को सोसाइटी में लाने की कहानी सुनाने लगे। मेरी उत्सुकता भी काफी बढ़ गयी थी। मैं भी बड़े मनोयोग से उनकी कहानी सुनने लगी।
" किसी काम से कचहरी गया था। काम खत्म कर वापस लौट रहा था। पास में ही पौधों की नर्सरी थी। अपने प्रकृति-प्रेम के कारण, मैं खिंचा हुआ सा नर्सरी के अंदर दाखिल हुआ। इधर-उधर देख रहा था कि फूलों की कोई नयी किस्म दिखे तो ले जाऊँ। मेरे छत पर लगभग सभी किस्मों के फूल गमलों में लगे हुए हैं। कोई नया पौधा नहीं दिखाई दिया तो मैं वापस लौटने लगा। तभी मेरी नजर एक किनारे रखे हुए पौधों पर पड़ी। एक जैसे और एक ही लंबाई के अशोक वृक्ष के पाँच पौधे थे। लगा जैसे आशा भरी निगाहों से वे मुझे देख रहे हों। थोड़ा पास गया तो लगा, उनके कोमल -पत्ते जैसे मुझसे कह रहे हों… "हमें भी अपने साथ ले चलो न"!
पता नहीं कैसे मेरे अंदर एकदम से वात्सल्य भाव उमड़ पड़ा। परंतु मैं तो फ्लैट में रहता हूँ। गमले में इन पौधों का समुचित विकास नहीं हो पाएगा। यह सोच कर मैं भारी -मन से लौट आया। पर घर आकर भी मेरा मन उदास रहा। बार-बार उन पाँचों स्वस्थ पौधों की छवि, आँखों के सामने आती रही। एक आइडिया दिमाग में आया कि क्यों न उन्हें लाकर सोसाइटी के गार्डेन में लगा दूँ। इस ख्याल के आते ही सुबह के इंतजार में मैंने पूरी रात बेचैनी में काटी।
अगले दिन मैं सोसाइटी के आफिस में गया। सोसाइटी सेक्रेटरी मि. चड्ढा उस वक्त आफिस में बैठे हुए थे। मि. चड्ढा भी प्रकृति से प्रेम करते थे, उन्होंने बड़ी खुशी-खुशी गार्डेन में अशोक के पौधों को लगाने की अनुमति दे दी। उस वक्त मुझे इतनी खुशी हुई जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना कठिन है।
मैं दुबारा उस नर्सरी में गया। रास्ते भर यही प्रार्थना करता रहा कि वे पौधे बिके न हों। मैं सीधा उस जगह पर पहुँचा, जहाँ पिछले दिन पाँचों पौधे रखे हुए थे। पर उन पौधों को वहाँ न देखकर, मेरा दिल बैठ गया। मैं बदहवास सा नर्सरी के मालिक के पास काउंटर की ओर दौड़ पड़ा। नर्सरी के मालिक को देखते ही मेरे मुँह से निकला, "क्या वे पाँचों पांडव बिक गए?"
नर्सरी का मालिक हक्का-बक्का हो मुझे इस तरह देखने लगा जैसे किसी अजायबघर के पुतले को देख लिया हो। मैंने तुरंत अपने को सँभालते हुए कहा - "मेरा मतलब है कल मैंने वहाँ किनारे एक जैसे पाँच अशोक के पौधे देखे थे, पर अब वहाँ नहीं हैं, क्या उन्हें कोई खरीद कर ले गया?"
"अच्छा वो? नहीं साहब! बिके नहीं हैं। उधर किनारे पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा था, इसलिए मैंने इधर सामने लगा दिए हैं। परंतु आपने पांडव क्यों कहा?"
"भाई! मैंने कल पहली बार उन्हें एक साथ देखा तो मेरे मन में तुरंत पाँच पांडवों की छवि आ गयी। मैं इन्हें लेने आया हूँ और मैं इनका नामकरण भी पांडव भाइयों के नाम का ही करूँगा। आप इन्हें उठवा कर मेरी गाड़ी में रखवा दें। इनकी कीमत मैं अभी आपको दे देता हूँ।
अब ये मेरे पाँच पांडव हैं। इनके बनावट के हिसाब से मैंने इनका नामकरण किया है। देखिए कितने सुन्दर लग रहे हैं मेरे पाँचों पांडव, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। सभी मेरे पुत्र समान हैं। इस कहानी को सुनाते समय मि. रस्तोगी के हृदय में उमड़ रही वात्सल्य की धार से मैं स्वयं भी अंदर तक भीग गयी थी।
तब से मैं भी रोज शाम को टहलते समय उन अशोक के पौधों को अवश्य एक नजर देखती थी। मि. रस्तोगी सचमुच बड़े प्यार से, उनकी देखभाल कर रहे थे। देखते ही देखते सभी पौधे तरुणावस्था में पहुँच गए। गजब की तरुणाई चढ़ी थी उन पर। यह सब मि. रस्तोगी के अथक -परिश्रम और स्नेह का ही परिणाम था। पूरी सोसाइटी की शान बन चुके थे वे पाँचों- पांडव। पर एक मि. व्यास थे जिन्हें इन वृक्षों का बढ़ना अच्छा नहीं लगता था। इसका कारण भी था। उनका घर पहली मंजिल पर था। पेड़ों के ऊँचे और घने होने से उनके घर में रोशनी नहीं पहुँच पाती थी। कई बार दबी जुबान से उन को कटवाने का प्रस्ताव सोसाइटी की कमिटी में लाया भी था, पर मि. रस्तोगी के जुनूनी- प्रेम को देख कर कोई हिम्मत नहीं कर पाया।
अभी पिछले हफ्ते मि. रस्तोगी आफिस के काम से चार दिनों के लिए दौरे पर गए थे। मि. व्यास को यह अच्छा अवसर लगा और उन्होंने पेड़ों की व्यवस्थित छँटाई के नाम पर बाहर के किसी माली से लगभग पूरी तरह से ठूँठ बना दिया। कौरोना की वजह से किसी का निकलना नहीं हो पारहा था; जिसके कारण इस जघन्य -कार्य को होते हुए कोई नहीं देख पाया।
आज अचानक मि. रस्तोगी की चीख ने सबको हैरत में डाल दिया। हो-हल्ला सुनकर, मैं भी बाहर निकल आयी और मि. रस्तोगी के पाँचों पांडवों की यह हालत देख कर मुझे भी रोना आ गया। मि. रस्तोगी का क्या हाल हुआ था, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। मि. व्यास भी सर झुकाए खड़े थे। उन्हें इतना अंदाजा नहीं था कि स्थिति इस तरह की हो जाएगी। उन्हें लगा था कि पत्ते तो फिर आ ही जाएँगे। कोई जड़ से थोड़ी न कटवा रहा हूँ। पर मि. रस्तोगी की हालत को देख कर उन्हें बहुत पछतावा हुआ और उन्होंने मन-ही-मन नए अशोक के पौधे लाकर गार्डेन की दूसरी तरफ रोंपने का संक
ल्प किया। शायद यही उनका पश्चाताप था।
— गीता चौबे "गूँज"

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