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शुक्रवार, 26 मई 2023

महेश कुमार केशरी - लघुकथाएं

बाबूजी का बटुआ 

" रूचि मैं एक बात सोच रहा हूँ l " दीपक ने जूते के तस्मे बाँधते हुए कहा l 
" क्या ?  " 
" यार , पिताजी को चाय पीने और पान खाने की बहुत आदत है l  पेंशन और पी. एफ. का लगभग सारा पैसा उन्होनें घर बनाते समय ही खर्च कर दिया था l  आज जो हमारा शहर में इतना बड़ा घर है l वो , पिताजी के पी. एफ. और पेंशन के पैसों से ही तो बना है l नहीं तो इस मँहगे शहर में सिर ढँकने की जगह भी हमें नहीं मिलती l इस घर को बनाने में उन्होनें अपने जीवण भर की कमाई लगा दी l अपने मोटा-झोटा खा- पहनकर रहा l लेकिन हम बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया l बहुत किया है , उन्होनें हमारे लिये l अब हमें भी उनके लिये कुछ करना चाहिये l मुझे बचपन में याद है l मैं जब स्कूल जाता था l तो वो मुझे ,  रोज पचास पैसे देते थें l ये लो पचास का एक नोट ,  उनको दे देना l आखिर , इस उम्र में भला किससे माँगेंगे ? " 
" तुम सही कह रहे हो l लेकिन , बाबूजी बहुत स्वाभिमानी हैं l हमसे रूपये नहीं लेंगें l "
" फिर , क्या किया जाये ? रूपये तो उनको रोज देने ही हैं l तुम ही कोई उपाय बताओ ? "
" उपाय है l तुम रोज पचास रुपये का नोट मुझे दे देना l और , मैं , बाबूजी के बटुए में वो नोट रख दूँगी l " 
भृगु जी  आज नहा धोकर फिर से चौक की तरफ जाने को हुए l और अपना बटुआ संभाला l आज फिर से बटुए में पचास का नोट पड़ा था l
" दीपक  ,  मैं इधर दस दिनों से रोज देख रहा हूँ l  कि  मैं रोज शाम को बाजार जाता हूँ l और पूरे पैसे खर्च करके आ जाता हूँ l लेकिन , रोज सुबह मेरे जेब में पचास रूपये का एक नोट रखा मिलता है l क्या तुम मेरे बटुए में ये नोट रख जाते हो ? " 
" नहीं तो बाबूजी मैं नहीं रखता l मुझे तो इस बारे में कुछ  भी नहीं पता l " और दीपक तेजी से आॅफिस के लिये निकल गया l 
" बहू , क्या तुम रख देती हो , मेरे बटुए  में पचास  रूपये का नोट ?  " 
भृगु बाबू को याद आया l दीपक जब स्कूल जाता था l तो आॅफिस जाते हुए वो रोज याद से  पचास पैसे का एक  सिक्का दीपक को देते थें l लेकिन , पचास रूपये के नोट का रहस्य अब भी बना हुआ था l 
लेकिन  , तभी रूचि की हँसी छूट गई  l 
भृगु बाबू ने पूछा - " बहू , तुम हँसी क्यों  ? " 
"ऐसे ही , आपके पचास पैसे के सिक्के अब बड़े होकर आपके पास लौट रहें हैं l " 

भलाई
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" महावीर भाई आप हर शुक्रवार  को रेजगारी सिक्के ले जाते हैं l आखिर , क्या करते हैं आप  इनका ? "  दौलतराम ने रेजगारी देते हुए पूछा l
" क्या करोगे जानकर ? ऐसे ही ले जाता हूँ  l " 
" लेकिन,  हर शुक्रवार  को ही क्यों  ले जाते हैं ? " 
" कोई इन सिक्कों का इंतजार करता है , हर शुक्रवार  को l दरअसल , हर शुक्रवार  को मैं जरूरत मंदों को पचास रूपये के सिक्के बाँट देता हूँ l मेरा तो कुछ  नहीं जाता l अलबत्ता गरीबों का भला हो जाता है l " 

अपने - अपने मोर्चे
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गरीश और अज्जू अच्छे दोस्त थें l दोनों में दाँत काटी दोस्ती थी l बचपन के लंगोटिया यार  l गिरीश को कोई मार दे तो अज्जू लड़ने साथ आ जाता l अज्जू को कोई कुछ कहता तो गिरीश लोहा लेने लगता l आज  बहुत दिनों के बाद गिरीश और अज्जू मिले थें l अज्जू का लड़का रोहित बीमार था l  और वो गन्ने का रस लेने गिरीश की दुकान पर पहुँचा था l हाल- चाल जानने के बाद गिरीश बोला - " आज कल मेरे दिन बहुत ही खराब चल रहें हैं l " 
" क्यों क्या हुआ ? " 
" अरे , हम ठेले वाले को कोई कुछ समझता ही नहीं , भाई l  ऐसा लगता है l जैसे हमारी कोई इज्जत  ही नहीं है l गन्ने का रस सबको अच्छा  लगता है l लेकिन  , कचड़ा किसी को नहीं भाता l हर कोई हमें  खुजली वाला कुत्ता समझता है l कल मेरे बगल वाला  दुकानदार कह रहा था l गन्ने का छिलका  यहाँ मत फेंका करो l " 
मैनें पूछा - " क्यों  ? " 
" बोला तो यहाँ नहीं फेंकना है l मतलब नहीं फेंकना है l तुम गन्ने का कचड़ा फेंकते ही नहीं बल्कि उसमें आग भी लगा देते हो l " 
" लेकिन  , मैनें आग नहीं लगाई l " 
" जो भी हो l कल से कचड़ा यहाँ मत फेंकना l " 
"  साला.. लगता है , जैसे सारी जगह  उनकी ही  है l " 
" कल कचड़ा मैनें वहाँ , नहीं फेंका l बल्कि अपने घर के बगल में फेंका l मेरा पड़ौसी मुझ पर पिल पड़ा l अंट- शंट बकने लगा l मुझे बहुत भला - बुरा कहने लगा  l छठ पूजा में प्रसाद बनाने के लिये लोग इसी चेपुआ ( गन्ने से  निकले कचरे को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं ) को माँग- माँगकर ले जाते हैं l तब इनकी तबीयत नहीं बिगड़ती  है l आदमी का चरित्र  भी कितना दोमुँहा  होता है l  " 
अज्जू के  , मुँह से अनायास  निकला - " क्या करोगे दोस्त  l आदमी अवसरवादी होता  ही है l " 
कोई और मौका होता तो अज्जू  उससे झगड़े आदमी को सबक सिखा देता l लेकिन आज उसका खुद का लड़का बीमार था l 
अज्जू और गिरीश आज अपने - अपने मोर्चे पर अकेले लड़  रहें थें l 
मेघदूत  मार्केट  फुसरो 
बोकारो ( झारखंड  )
 

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