बाबूजी का बटुआ
" रूचि मैं एक बात सोच रहा हूँ l " दीपक ने जूते के तस्मे बाँधते हुए कहा l
" क्या ? "
"
यार , पिताजी को चाय पीने और पान खाने की बहुत आदत है l पेंशन और पी. एफ.
का लगभग सारा पैसा उन्होनें घर बनाते समय ही खर्च कर दिया था l आज जो
हमारा शहर में इतना बड़ा घर है l वो , पिताजी के पी. एफ. और पेंशन के पैसों
से ही तो बना है l नहीं तो इस मँहगे शहर में सिर ढँकने की जगह भी हमें
नहीं मिलती l इस घर को बनाने में उन्होनें अपने जीवण भर की कमाई लगा दी l
अपने मोटा-झोटा खा- पहनकर रहा l लेकिन हम बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया
l बहुत किया है , उन्होनें हमारे लिये l अब हमें भी उनके लिये कुछ करना
चाहिये l मुझे बचपन में याद है l मैं जब स्कूल जाता था l तो वो मुझे , रोज
पचास पैसे देते थें l ये लो पचास का एक नोट , उनको दे देना l आखिर , इस
उम्र में भला किससे माँगेंगे ? "
" तुम सही कह रहे हो l लेकिन , बाबूजी बहुत स्वाभिमानी हैं l हमसे रूपये नहीं लेंगें l "
" फिर , क्या किया जाये ? रूपये तो उनको रोज देने ही हैं l तुम ही कोई उपाय बताओ ? "
" उपाय है l तुम रोज पचास रुपये का नोट मुझे दे देना l और , मैं , बाबूजी के बटुए में वो नोट रख दूँगी l "
भृगु जी आज नहा धोकर फिर से चौक की तरफ जाने को हुए l और अपना बटुआ संभाला l आज फिर से बटुए में पचास का नोट पड़ा था l
"
दीपक , मैं इधर दस दिनों से रोज देख रहा हूँ l कि मैं रोज शाम को
बाजार जाता हूँ l और पूरे पैसे खर्च करके आ जाता हूँ l लेकिन , रोज सुबह
मेरे जेब में पचास रूपये का एक नोट रखा मिलता है l क्या तुम मेरे बटुए में
ये नोट रख जाते हो ? "
" नहीं तो बाबूजी मैं नहीं रखता l मुझे तो इस बारे में कुछ भी नहीं पता l " और दीपक तेजी से आॅफिस के लिये निकल गया l
" बहू , क्या तुम रख देती हो , मेरे बटुए में पचास रूपये का नोट ? "
भृगु
बाबू को याद आया l दीपक जब स्कूल जाता था l तो आॅफिस जाते हुए वो रोज याद
से पचास पैसे का एक सिक्का दीपक को देते थें l लेकिन , पचास रूपये के नोट
का रहस्य अब भी बना हुआ था l
लेकिन , तभी रूचि की हँसी छूट गई l
भृगु बाबू ने पूछा - " बहू , तुम हँसी क्यों ? "
"ऐसे ही , आपके पचास पैसे के सिक्के अब बड़े होकर आपके पास लौट रहें हैं l "
भलाई
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"
महावीर भाई आप हर शुक्रवार को रेजगारी सिक्के ले जाते हैं l आखिर , क्या
करते हैं आप इनका ? " दौलतराम ने रेजगारी देते हुए पूछा l
" क्या करोगे जानकर ? ऐसे ही ले जाता हूँ l "
" लेकिन, हर शुक्रवार को ही क्यों ले जाते हैं ? "
"
कोई इन सिक्कों का इंतजार करता है , हर शुक्रवार को l दरअसल , हर
शुक्रवार को मैं जरूरत मंदों को पचास रूपये के सिक्के बाँट देता हूँ l
मेरा तो कुछ नहीं जाता l अलबत्ता गरीबों का भला हो जाता है l "
अपने - अपने मोर्चे
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गरीश
और अज्जू अच्छे दोस्त थें l दोनों में दाँत काटी दोस्ती थी l बचपन के
लंगोटिया यार l गिरीश को कोई मार दे तो अज्जू लड़ने साथ आ जाता l अज्जू को
कोई कुछ कहता तो गिरीश लोहा लेने लगता l आज बहुत दिनों के बाद गिरीश और
अज्जू मिले थें l अज्जू का लड़का रोहित बीमार था l और वो गन्ने का रस लेने
गिरीश की दुकान पर पहुँचा था l हाल- चाल जानने के बाद गिरीश बोला - " आज
कल मेरे दिन बहुत ही खराब चल रहें हैं l "
" क्यों क्या हुआ ? "
"
अरे , हम ठेले वाले को कोई कुछ समझता ही नहीं , भाई l ऐसा लगता है l जैसे
हमारी कोई इज्जत ही नहीं है l गन्ने का रस सबको अच्छा लगता है l लेकिन ,
कचड़ा किसी को नहीं भाता l हर कोई हमें खुजली वाला कुत्ता समझता है l कल
मेरे बगल वाला दुकानदार कह रहा था l गन्ने का छिलका यहाँ मत फेंका करो l
"
मैनें पूछा - " क्यों ? "
" बोला तो यहाँ नहीं फेंकना है l मतलब नहीं फेंकना है l तुम गन्ने का कचड़ा फेंकते ही नहीं बल्कि उसमें आग भी लगा देते हो l "
" लेकिन , मैनें आग नहीं लगाई l "
" जो भी हो l कल से कचड़ा यहाँ मत फेंकना l "
" साला.. लगता है , जैसे सारी जगह उनकी ही है l "
"
कल कचड़ा मैनें वहाँ , नहीं फेंका l बल्कि अपने घर के बगल में फेंका l
मेरा पड़ौसी मुझ पर पिल पड़ा l अंट- शंट बकने लगा l मुझे बहुत भला - बुरा
कहने लगा l छठ पूजा में प्रसाद बनाने के लिये लोग इसी चेपुआ ( गन्ने से
निकले कचरे को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं ) को माँग- माँगकर ले जाते
हैं l तब इनकी तबीयत नहीं बिगड़ती है l आदमी का चरित्र भी कितना दोमुँहा
होता है l "
अज्जू के , मुँह से अनायास निकला - " क्या करोगे दोस्त l आदमी अवसरवादी होता ही है l "
कोई और मौका होता तो अज्जू उससे झगड़े आदमी को सबक सिखा देता l लेकिन आज उसका खुद का लड़का बीमार था l
अज्जू और गिरीश आज अपने - अपने मोर्चे पर अकेले लड़ रहें थें l
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