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शुक्रवार, 26 मई 2023

नवीन माथुर की गजलें

  ग़ज़लें
1
चलें फिर लौटकर अपनें घरों को।
परिंदे  कह   रहे  हैं  अब परों को।

तकाज़ा  नींद का  टूटा  है  जबसे,
समेटा  जा  रहा  है   बिस्तरों  को।

रहें  हैं  साथ  लेक़िन  दूरियों  पर,
निभाया  है  सभी  ने  दायरों  को।

अग़र  ये  इम्तिहाँ  जैसा सफ़र  है,
हटा   दो  रास्तों  से   रहबरों  को।

शिक़ायत वक़्त से कब तक रखेंगे,
भुलाया है कि जिसने अवसरों को।

निकाले काम के  बदले  चुकाकर,
बिगाड़ा  है  सभी  ने दफ़्तरों  को।

पते  की  बात भी  दम  तोड़  देगी,
सुनाई  जाएगी जब  मसखरों  को।

  2

आसाँ  और सफ़र  रहता  है।
साथ  अग़र  रहबर  रहता है।

हर    कोई   है  आगे   हमसे,
शक  ऐसा  अक़्सर  रहता है।

अंजानो  के  साथ चलो  ग़र,
पहचानों  का  डर  रहता  है।

बाहर  अक़्सर  दिख जाता है,
मसला   जो  अंदर  रहता  है।

जीत  उसी  के  आती   हिस्से,
जो  सबसे  बेहतर   रहता  है।

ढ़लता  है  हर  शाम  के आगे,
सूरज  जो  दिनभर  रहता  है।

नींद  वहाँ  तन   सहलाती  है,
नर्म  जहाँ   बिस्तर  रहता  है।

3

क्यों  हमको ऐसा लगता है।
हममें भी कुछ तो अच्छा है।

जितनाअब तक कर पाये हैं,
पहले  से  सोचा-समझा है।

बाहर को  तकती आँखों में,
भीतर  भी  रहता सपना है।

अपनाया  सबने  उसको  ही,
जो दिल,नीयत का सच्चा है।

किसकी  कितनी ज़िम्मेदारी,
यह तो आपस का मसला है।

वो ही  है अक़्सर मुश्क़िल में,
जिसने दिल पर ले रक्खा है।

4
    

सोच को सब उड़ान दूँ  कैसे।
हर किसी को ज़बान दूँ कैसे।

मैं  ज़मीं से  निबाह  रखता हूँ,
और  को  आसमान  दूँ  कैसे।

बात  जब  मानता  नहीं  कोई,
मुफ़्त  अपना बयान  दूँ  कैसे।

जीतकर हार  मान लूँ  लेक़िन,
रोज़  इक  इम्तिहान  दूँ  कैसे।

मामला है ये उनके आपस का,
बीच  पड़कर  निदान दूँ  कैसे।

तीर  जिनके  नहीं  निशाने पर,
हाथ  उनके   कमान  दूँ   कैसे।

-----नवीन माथुर पंचोली
         अमझेरा धार मप्र
          मो 9893119724

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