ग़ज़ल
ना तेरा एतबार रहा अब और ना रहा सत्त्कार।
खण्डित-खण्डित कर दिए हैं सब सज्जन-दुश्मन-यार।
तीखी जिहवा जब भी चलती ख़ून खराबे करती,
बेशक म्यान में बंद रहती है दो धरी तलवार।
शीतल आँसूयों के भीतर फूटे एक क्रान्ति,
लेकिन शांत समन्दर से ही उठता है मंझदार।
मोह ममता तो पंख लगा कर उड़ गई दूर कहीं,
हर एक रिश्ता मण्डी बन कर करता है व्यापार।
इस युग में नागफनी अभिवादन करती दर पर,
दिल के आँगन में फिर कौन उगाता है कचनार।
इत्रा बनाने की खातिर क्या-क्या मानव करता है,
शाखायों से तोड़ रहा है बस कच्चे आनार।
छिद्र पतलून अधर्् वस्त्रा केवल दीखावे मात्रा,
आज भी सुख और चैन है देता कुर्ता और सलवार।
इश्तिहार दो तो कूड़ा भी प्रकाशित हो जाता,
आचरण पक्ष से डूब चुकी हैं क्षेत्राीए अख़बार।
‘बालम’ गुस्से में भी थोड़ा तू हँस कर देख जरा,
मित्रों के भीतर होती है रेतीली दीवार।
ग़ज़ल
बाहर देखा, देखा अन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
सुन्दरता के लेकर मन्ज़र फिर भूखे का भूखा मन।
ध्रती, अम्बर, दौलत, शोहरत, प्यार-मुहोब्बत लेकर भी,
फिर ना मानें एैसा कंजर फिर भूखे का भूखा मन।
अपने दिल की हर एक इच्छा पूरी करके बैठा है,
फिर भी जाता है यह मन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
बस्ती अन्दर क¸त्त्ल हज़ारों करके फिर भी प्यासा है,
बगल में रखता है फिर ख़न्जर फिर भूखे का भूखा मन।
दुनियां इसने देखी सारी और पता नहीं क्या चाहे,
घूमें है घर बाहर कलन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
बूढ़ा होकर भी यह अदना एैसे रहता है जैसे,
मार टपूसी बैठा बन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
क्या-क्या पीता अगर बताऊँ, मुँह में उँगली आवे है,
शाम ढ़ले को भोले शंकर फिर भूखे का भूखा मन।
अंत्तिम साँसों में रह कर भी भौतिकता को फिर ढूँढ़े,
पी कर अमृत, ज़हर, समन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
‘बालम’ आँखों-आँखों से ही भिन्न-भिन्न सुन्दरता,
टुकता रहता जैसे छछून्दर फिर भूखे का भूखा मन।
ग़ज़ल
अक्षरों के सरदार लुटेरे हो गए हैं।
लगभग सब अख़बार लुटेरे हो गए हैं।
आँखों-आँखों में ही सब कुछ ले लेते,
आँखों के दीदार लुटेरे हो गए हैं।
दरियाओं के मांझी आपस में मिल गए,
आर लुटेरे पार लुटेरे हो गए हैं।
अर्चन पूजा में भी चोरी कर लेते,
सजदे के सत्त्कार लुटेरे हो गए हैं।
क्या-क्या रंग दिखाए देख सियासत ने,
दुश्मन-रहबर-यार लुटेरे हो गए हैं।
हर दरवाज़े वाले ताले तोड़ लिए,
घर के पहरेदार लुटेरे हो गए हैं।
अभिभावक अब वृ(स्थानों में रहते,
मोह ममता के प्यार लुटेरे हो गए हैं।
पुत्रों-बहुयों की मैं बात नहीं करता,
मापे रिश्तेदार लुटेरे हो गए हैं।
सूर्ख़ गुलाबी फूलों को भी नोच लिया,
रखवाले थे खार लुटेरे हो गए हैं।
अपनी भाषा भूल गए परदेशों में,
हाकम के संस्कार लुटेरे हो गए हैं।
सूर्ख़ गुलाबी होठों पर इक मक¸तल है,
हँसीं के किरदार लुटेरे हो गए हैं।
सज्जन ऐसी सच्चाई भी मत लिखना,
तेरे भी आचार लुटेरे हो गए हैं।
‘बालम’ भरत नहीं अब राम नहीं मिलते,
भाईयों के परिवार लुटेरे हो गए हैं।
ग़ज़ल
जब भी खंडित रिश्ते होते दुश्मन बनते यार।
खार कभी भी गुल नहीं बनते, गुल नहीं बनते खार।
जिसके पहले डंस ने सारा तन-मन ज़ख़्मी किया,
कीचड़ से उठा कर बिच्छू कर बैठे एतबार।
दीमक भांति ध्ीरे-ध्ीरे बंदे को खा जाता,
सौ बीमारी की जड़ जैसा होता है तकरार।
एतबार कभी ना करना तुम तेज़ हवा के ऊपर,
यह कोई इकरार नहीं करती ना करती इनकार।
गंदी जीभ यहां भी जाए झगड़े मोल उठाती,
म्यान में बंद ही अच्छी लगती दो धरी तलवार।
‘बालम’ बंदे का तो जीवन सांसों का मोहताज,
सिर्फ बहारों के आने से खिलता है गुलज़ार।
गीत
सासू के घर जाकर तेरा प्यार ना भूला माँ।
बापू की गोदी का वो दीदार ना भूला माँ।
बचपन की इक-इक याद अब भी बहुत तड़पाती,
बीते हुए लम्हों की इक रूत जाने क्या गाती।
भाइयों और भाभियों का सत्कार ना भूला माँ,
सासू के घर जाकर तेरा प्यार ना भूला माँ।
मुँह से इक बात कहती पूरी सौ-सौ बारी करती,
मेरी ठंडी साँसों में तू साँस अपने भी भरती।
तेरी दी हुई शिक्षा का इकरार ना भूला माँ,
सासू के घर जाकर तेरा प्यार ना भूला माँ।
गाँव की गलियों की इक-इक स्मृति है आवै,
पैर जवानी वाला फिर दिल में आग लगावै।
आँगन में उगा है जो कचनार ना भूला माँ,
सासू के घर जाकर तेरा प्यार ना भूला माँ।
शकुन-उमंगों से तूने विवाह मेरा किया था,
डोली जब बैठी थी तू घूँट सब्र का पिया था।
तेरी मीठी लोरी का संसार ना भूला माँ,
सासू के घर जाकर तेरा प्यार ना भूला माँ।
अपनी तू मरजी का इक ‘बालम’ सुन्दर ढूँढ़ा,
माँग के आँगन में खुशियों का मन्दिर ढूँढ़ा।
दुनिया में माँ जैसा किरदार ना भूला माँ,
सासू के घर जाकर तेरा प्यार ना भूला माँ।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाब
एडमिंटन, कनेडा वॉट्सऐप 98156-25409
मेल - balambalwinder@gmail.com
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