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सोमवार, 17 जनवरी 2022

बेटियां पराया नहीं होतीं

बलविन्दर च्बालमज् गुरदासपुर

चरण सिंह ने अब पक्का फैसला कर लिया था कि वह अपनी बेटी सुक्खी को नर्सिंग का कोर्स करवा देगा। उसने कई लोगों से सलाह मश्वरे किए थे कि वह अपनी बेटी को नर्सिंग का कोर्स करवाए या नहीं। कई मज़बूरियां उसके रास्ते में फनियर बन कर खड़ी थीं। सोच की दलदल में वह इस तरह ध्स्स गया कि न बाहर आ सके और न भीतर जा सके। कभी वह अपने स्वयं से सहमत होता तो कभी नहीं। द्वं( ने उसकी अक्ल मार दी थी।
चरण सिंह एक सरकारी स्कूल में चपड़ासी था। वह सैनिक विभाग से पैनशन भी ले रहा था। सर्टिफिकेट में उसकी आयु कम थी। होगा वह कोई ६२ वर्ष के करीब परंतु कागज़ों में अभी उसने सेवा निवृत होना था। अभी उसकी एक वर्ष की नौकरी रहती थी। वह अनपढ़ था और केवल दसतख़त करने ही जानता था।
बेटी सुक्खी को नर्सिंग का कोर्स करवाने का उसने फैसला ले लिया था परंतु अभी भी अपनी अन्तरात्मा से कोसों मील दूर भटक रहा था। उसका परिवारिक दायित्व बड़ा था। उसके तीन लड़के और दो बेटियां विवाहित थीं। लड़के फौज में थे। वह सोचता कि वह एक वर्ष के बाद सेवा निवृत हो जाएगा तथा बेटी को खर्च कहां से देगा? पांच बच्चों की शादियां करना कोई खेल नहीं है। लड़के अपने-अपने घर चला रहे थे। बाल बच्चेदार थे। वे चरण सिंह की कोई मदद नहीं करते थे, यहां तक कि आपस में बोल-चाल भी थोड़ा बहुत नहीं था। बेटियां जब अपने घर ब्याह कर चली जाती हैं तो अपनी घरेलू ज़िम्मेवारियों में व्यस्त हो जाती हैं।
बेटी सुक्खी सबसे छोटी थी। पढ़ाई में वह होशियार थी। चरण सिंह के लड़के, बेटियां-दामाद, साले तथा अन्य रिश्तेदार सभी कहते थे कि तू सुक्खी को कोर्स करवा के क्या लेगा? इसके हाथ पीले करके सुरखरू हो जा। बुढ़ापे में यह पहाड़ सी जिम्मेवारियां कहां निभाता रहेगा। बेटियां तो पराया ध्न होती हैं। कोर्स करवाएगा लड़की को, तुझे क्या फायदा? फायदा तो अगले घर वालों को ही होगा। और इतना खर्च कहां से करेगा। बुढ़ापे में ट्टण जान का दुश्मन बन जाता है। लड़की को नर्सिंग का कोर्स मत करवा, चार वर्ष बड़ा लम्बा समय होता है। यह सोच कि इसके हाथ पीले कैसे करने हैं? कोई ज़रूरत नहीं लड़की को कोर्स करवाने की। दूसरी लड़कियों ने कौन से कोर्स किए हैं। कुल मिला कर कोई भी रिश्तेदार, सगे संबंध्ी चरण सिंह के साथ सहमत नहीं था। उसके लड़के हाथ खड़े कर गए थे। उन्होंने कहा, बापू हमसे किसी किस्म की आशा मत रखना, हमारा तो पहले ही मुश्किल से गुजारा चल रहा है। बापू, तेरा तो बेजा ख़राब हो गया है जो बुढ़ापे में मुसीबतें मोल ले रहा है।य्
खैर! चरण सिंह ने अपने स्कूल के एक समझदार अध्यापक से सुक्खी के कोर्स संबंध्ी बातचीत की तो उस अध्यापक ने प्रसन्नता से कहा, चरण सिंहां, आव देख न ताव, अगर लड़की को दाखिला मिलता है तो शीघ्र ही लड़की को कोर्स में दाखिल करवा दे।य्
पर मास्टर जी, इतने पैसे कहां से लाऊंगा? साठ हजार रूपए डोनेशन मांग रहे हैं। नया नया कॉलेज खुला है। अंदर खाते पैसे उठा रहे हैं। पैसे भी उन लोगों से मांग रहे हैं, जो बच्चे सलैक्ट हुए हैं। फीस अलग देनी होगी। हजारों लाखों का खर्च है। एक वर्ष के बाद सेवा निवृत हो जाऊंगा। पहले ही घर की ज़िम्मेवारियों से कमर टूट चुकी है। पांच सात बच्चों का खर्च कोई थोड़ा नहीं होता। समझदार लोग सच ही तो कहते हैं मास्टर जी, बच्चा एक ही होना चाहिए। शौक से उसके चाव तो पूरे हो जाते हैं। इतने बच्चों से ज़िंदगी कोई ज़िंदगी नहीं होती। चलो लड़के तो थोड़ा बहुत पढ़ के फौज में भर्ती हो गए। लड़कियां भी थोड़ा बहुत पढ़ कर अगले घर चली गईं। परंतु मास्टर जी, सुक्खी बेटी पढ़ने में अच्छी है, आज्ञाकार है, कभी ऊंचा नहीं बोलती, अच्छी बेटी है मास्टर जी। मेरा दिल करता है कि ट्टण उठा कर कोर्स करवा दूं परंतु घर का कोई सदस्य मेरे साथ सहमत नहीं है। यहां तक कि सुक्खी की मां भी सहमत नहीं है। वह भी कहती है, क्या हम लड़की की कमाई खाने जाएंगे। ट्टण उठा कर जलूस निकाल लोगे, मेरी मानों तो जिस तरह सब कहते हैं उसी तरह कर लो, चुप करके लड़की के हाथ पीले कर दो और बुढ़ापे में सुरखरू हो जाओ।य्
देख चरण सिंह, लड़की को कोर्स करवाएगा समय तब भी चलता रहेगा, न करवाएगा, तो, समय तब भी चलते रहना है। समय व्यतीत कब होता है पता नहीं चलता। देख हमारी कितनी आयु हो गई है, ऐसे लगता है जैसे चुटकी से आयु बीत गई है। जो काम ज़िंदगी में रह गए हैं, उनका पश्चाताप अब भी है, अगर वह काम कर लेते तो अच्छा होता। वर्तमान का सूरज सबके लिए है, परंतु उसकी रौशनी का जो लोग फायदा लेते हैं, वे ज़िंदगी के दीपक में रौशनी भर लेते हैं, जिसका मज़ा भविष्य के सार्थक ख्वाबों में हकीकत बन कर लिया जाता है। सृजना की दास्तां जो कहते हैं वह ही अनवरत नदी की भांति बहते रहते हैं। पैसे तो आते जाते रहते हैं चरण सिंह। तेरे पास तो थोड़ी बहुत ज़मीन भी है। यहां इतना कुछ किया है घर के लिए, वहां लड़की को थोड़ा और कष्ट झेल कर कोर्स करवा दे। तुझे सारी आयु आशीषें देगी। किसी अच्छे घर ब्याही चली जाएगी। अगर लड़की पढ़ने में होशियार है तो फिर उसको ज़रूर कोर्स कोर्स करवा दें ट्टण तो उतर ही जाता है। ज़रा पेट को गांठ मार लेना और क्या है? मेरी मान तो लड़की को कोर्स करवा दे।य्
मास्टर जी, लड़की ने भी मेरी बहुत मिन्नतें की हैं, बापू आपका अहसान सारी उम्र नहीं भूलूंगी, मुझे जिस तरह भी हो कोर्स करवा दे।य् लड़की की आशा पूर्वक ललक पर भी मुझे तरस आता है।य्

चरण सिंह, पत्थर पर लकीर मार कर चल पड़, हौंसला मत छोड़ना। किसी की मत मानना। जिम्मती इन्सान समय को बांध् लेते हैं, जो समय को बांध्ते हैं वे इंसान तरक्की की मंज़िलें छूते हैं। प्रसन्नता, किलकारियां, उमंगे इत्यादि कहीं दूर नहीं, मनुष्य की उपलब्बिध्यों में ही ढूढे जा सकते हैं। यह समस्त ख्वाहिशें मनुष्य को स्वयं ढूढनी पड़ती हैं, तब ही नसीब होती हैं। लड़की की ख्वाहिश के फूल मत तोड़। जब भी यह फूल खिलेंगे तो देखना इनकी सुरभि दूर दूर तक समाज को सुगंध्ति करेगी। ध्ैर्य बांध् कर लड़की को कोर्स करवा दे। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताना, मैं भी आपकी मदद ज़रूर करूंगा।य्
बस मास्टर जी के अच्छे मश्वरे को मद्दे नजर रख कर उसने सुक्खी बेटी को कोर्स करवाने का पक्का मन बना लिया था। जो भी रिश्तेदार इत्यादि लड़की को कोर्स करवाने में सहमत नहीं थे, उसने उनकी बात को भुला लिया था। सभी का विरोध् होने के बावजूद चरण सिंह ने कर-करा के इध्र-उध्र से पैसे उठा कर बेटी को एडमिशन दिला दी थी। घर के सभी सदस्य उससे नाराज़ थे कि लड़की की वजह से यह घर को बेचने पर तुला है। इसकी अक्ल पर पर्दा पड़ गया है परंतु चरण सिंह अपने फैसले पर अटल रहा। किसी की भी परवाह न करते हुए उसने लड़की को दाखिल करवा दिया।
दिन, माह, वर्ष उड़ते चले गए। बेटी सुक्खी प्रथम वर्ष में अच्छे अंकों से पास हो गई। एक वर्ष के बाद ही चरण सिंह सेवा निवृत हो गया। उसकी पत्नी कुड़-कुड़ करती रहती। लड़के भी अच्दा नहीं जानते थे कि उसने हमारी किसी की भी नहीं मानी। रूखी-सूखी खा कर चरण सिंह ने दिन पूरे कर लिए।
आखि़र लड़की कोर्स करके घर आ गई। समय जब हक में होता है तो लोग तलवे चाटते हैं। विजय प्राप्त व्यक्ति के गले में कौर हार नहीं डालता? जलते दीपक की लौ अंध्ेरों की तक़दीर बदलती है। उपलब्ध्यिों को सलामें होती हैं। दुश्मन भी उगते सूरज को नतमस्तक होते हैं। सहय सही आने पर पतझड़ में भी फूल खिल जाते हैं।
अब बहनें-बहनोई, चाचे, मामे सब भीतर से प्रसन्न थे कि चलो उनके खानदान में कोई तो डाक्टरी पेशे से जुड़ा है। अब जब भी ज़रूरत पड़े, पड़ोसी रिश्तेदार, सगे-संबंध्ी सब सुक्खी से दवाई लिखवाते। अगर किसी बीमार को टीके की ज़रूरत होती तो उससे लगवाने आते। पहले गांव से दूर जाना पड़ता था टीका दवाई लेने के लिए। अब तो गांव में ही गंगा बहने लगी है।
सुक्खी को एक बड़े शहर के र्ध्मार्थ अस्पताल में नौकरी मिल गई थी। उध्र सुक्खी के विवाह के लिए कई रिश्ते आने लगे थे। उसको कुछ वर्ष ही नौकरी करते हुए थे कि अचानक चरण सिंह बीमार पड़ गया। उसकी छाती में दर्द उठा था। इध्र-उध्र से थोड़ा बहुत इलाज चलता रहा परंतु उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई। आखि़र सुक्खी की मां ने सुक्खी से फ़ोन पर बात की कि तेरा बापू ठीक नहीं है। यहां से दवाई बहुत खिलाई है परंतु ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा, तुझे पहले इस करके नहीं बताया कि तुझे क्यों परेशान किया जाए?
सुक्खी छुट्टेी वाले दिन अपने बापू तथा मां को अपने साथ ले आई कि यहां अच्छे डाक्टर हैं, उनको दिखाऊंगी। उसको वहां ही क्वार्टर मिला हुआ था। उसने बापू को एक अच्छे डाक्टर से चैकअप करवाया, कई टैस्ट करवाए तो पता चला कि उसकी छाती में जड़ों वाली रसौली है जो कैंसर जैसी बीमारी का रूप धरण कर चुकी है। हजारों, लाखों का खर्च था परंतु सुक्खी ने अपने बापू को कुछ नहीं बताया था, बस इतना कहा था कि छोटा सा आप्रेशन करना पड़ेगा, कोई घबराने की बात नहीं है।
परंतु चरण सिंह ने उदास मुद्रा में कहा, पुत्रा, कितने पैसे लगेंगे? अगर ज़्यादा खर्च है तो गांव से ही इलाज करवा लेते हैं, बाकी अकाल पुरख जो करेगा, ठीक ही करेगा।य्
सुक्खी भीतर से रो पड़ी थी परंतु उसने अपने आंसू कलेजे में ही दबा लिए, कहीं बापू को पता न चल जाए।
सुक्खी ने फ़ोन पर अपने भाईयों को तथा अन्य नज़दीकी रिश्तेदारों को बापू के आप्रेशन के बारे में बताया तथा सहायता के लिए कहा परंतु सब मुंह मोड़ गए। फिर भी सुक्खी ने अपने बापू को बचाने के लिए दिन रात एक कर दिए। वह अस्पताल के मालिकों से मिली, सारी स्थिति बताई। मालिक धर्मिक प्रवृति के सच्चे-सुच्चे इंसान थे। इंसानियत को प्यार करने वाले लोग थे। उन्होंने सुक्खी को कहा कि पहले आप जल्दी से अपने पिता का आप्रेशन करवाएं बाकी फैसले बाद में लेंगे। मालिकों ने संबंध्ति डाक्टरों को बुला कर विशेष रूप में समझा दिया। मालिकों ने सुक्खी से कहा कि बेटी आप हमारी कर्मचारी हो, आपके पिता जी हमारे पिता समान हैं, चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा।
चरण सिंह का आप्रेशन कामयाब हो गया। कई महीनों के बाद वह थोड़ा बहुत चलने योग्य हो गया था। वह आप्रेशन से पहले तथा बाद में भी सुक्खी से पूछता रहा कि इतना खर्च कहां से होगा क्योंकि सगे संबंध्ी तो बस हाथ खड़े कर गए थे। जो थोड़े बहुत उसके पास रूपए पैसे थे वह दवाई के लिए काफी नहीं थे परंतु सुक्खी ने बापू को कहा, आप चिंता मत करें, सब ठीक हो जाएगा।य्
चरण सिंह कुछ तंदरूस्त हुआ तो उसने फिर सुक्खी से पूछा कि इतना खर्च कैसे किया?
सुक्खी ने प्यार से बापू के मुंह की लार अपने आंचल के पल्लू से पोंछते हुए प्रसन्नचित मुद्रा में कहा, बापू, आज तेरा ट्टण मैंने मोड़ दिया है, तू कहता था न कि बेटियां पराया ध्न होती हैं। इनको पढ़ा-लिखा कर क्या लेना है? बापू, यह पढ़ाई का ही परिणाम है कि अस्पताल के मालिकों ने तेरा सारा खर्च मुआफ कर दिया है।य्
चरण सिंह ने आश्चर्यचकित होकर अकाल पुरख का ध्न्यवाद करते हुए बेटी को गले से लगा लिया और निर्झर की भांत उसके बहते आंसू जैसे यह कह रहे हों कि लोगों बेटियां पराया ध्न नहीं होतीं। बेटियों से ही सारे संसार में उमंगें हैं, त
रंगें हैं, ख़बसूरती है। लोगो, बेटों से क्यों प्यारी होती हैं, आज महसूस हुआ, आज महसूस हुआ...।
बलविन्दर च्बालमज् गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध
मोः ९८१५६-२५४०९

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