नज़्म सुभाष
बगुला यदि संन्यासी हो तो, समझो कुछ तो लफड़ा है।
मछली जल में प्यासी हो तो,समझो कुछ तो लफड़ा है।
जहाँ मध्यरात की महफिल, जिस्म, शराब में डूबी हो,
पसरी वहाँ उदासी हो तो , समझो कुछ तो लफड़ा है।
धवल चाँदनी पर मड़राएँ , नित्य कालिमा के बादल,
सहमी पूरनमासी हो तो , समझो कुछ तो लफड़ा है।
यदि साँसें अजनबी सरीखी ,दिल की धड़कन हो मद्धम,
पहला चुम्बन बासी हो तो , समझो कुछ तो लफड़ा है।
रिश्तों में सम्बोधन आखिर, कुछ महत्व तो रखता है,
अगर ज़बान प्रवासी हो तो, समझो कुछ तो लफड़ा है।
भूखी आँतों का कोलाहल, पलभर चैन न लेने दे,
मगर देह उपवासी हो तो, समझो कुछ तो लफड़ा है।
किंतु-परंतु, अगरचे, लेकिन ,होंठो पर मुस्काएँ और,
कथन विरोधाभासी हो तो , समझो कुछ तो लफड़ा है।
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