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मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

अपने-अपने ढंग से ही सब जीते हैं

 

जगदीश खेतान

अपने-अपने ढंग से ही सब जीते हैं।
जिसके पत्नी नहीं वे बिल्कुल रीते हैं।
जो हैं विधुर उन्हें भी सदा दुखी देखा
पत्नी बिना रो-रो उनके दिन बीते हैं।
जो भी आया उसने ज़ख्मी ही किया
उन ज़ख्मों को जैसे-तैसे सीते हैं।
रखते नाम लोग इन्नी, बिन्नी, निन्नी
नही द्रोपदी, सावित्री और सीते है।
पिज्जा, बर्गर मोमो कभी नहीं खाते
हम तो निसदिन खाते पके पपीते हैं।
लोग गटकते व्हिस्की, ब्रांडी या रम
हम तो सिर्फ चुकंदर का रस पीते हैं।
जंगल का दायरा रोज कम होने से
शहरों में अक्सर आ जाते चीते हैं।
पड़ोसी गर सुखमय जीवन जीता है
पड़ोसी ही उसमें लगाते पलीते हैं।
जुये में भी दांव लगाया कितनी बार
'खेतान' हारते ज्यादे,कम ही जीते हैं।

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