अछूती प्रकृति और खेत
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मैं खेतों में खड़े होकर
खेतों को देखता हूँ
हवा, पानी, मिट्टी, धूप
और पसीने का
वानस्पतिक रूप
अछूती प्रकृति में
निर्मल, शांत, मनोहर
जिसे देखते-देखते
पहाड़ पर चढ़ जाता हूँ
और पहाड़ पर चढ़कर देखता हूँ
फिर उसे
अपनी ज्यामिति में
हर खेत हरा
लेकिन हरेपन में भी
हर खेत
एक-दूसरे से भिन्न ज़रा
सबकी अपनी एक अलग पहचान
किससे जुड़ा है कौन किसान
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मैं खेतों में खड़े होकर
खेतों को देखता हूँ
हवा, पानी, मिट्टी, धूप
और पसीने का
वानस्पतिक रूप
अछूती प्रकृति में
निर्मल, शांत, मनोहर
जिसे देखते-देखते
पहाड़ पर चढ़ जाता हूँ
और पहाड़ पर चढ़कर देखता हूँ
फिर उसे
अपनी ज्यामिति में
हर खेत हरा
लेकिन हरेपन में भी
हर खेत
एक-दूसरे से भिन्न ज़रा
सबकी अपनी एक अलग पहचान
किससे जुड़ा है कौन किसान
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जाड़े की धूप
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जगत को
जगमग-जगमग
कर रही है धूप
पर इससे भी बढ़कर
जगत के प्राणियों के
शुष्क
मलिन
रिक्त
ठंडे रोम कूपों को
अपनी अमृतमयी
धवल
जीवनोष्मा से
भर रही है धूप
कोमल
कमनीय
और अनूप
जाड़े की धूप
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संतोष की बात
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जहां कंक्रीट और यंत्रों की
दुनिया का अंत है
दूब और काष्ठ की
दुनिया जीवंत है
दूब और काष्ठ की
जीवंत दुनिया के दरम्यान
जल की मृत और विकृत धारा
अफ़सोस की बात ज़रूर है
मगर वो जो घड़रोज, ये जो मयूर है
और खरगोश प्यारा
संतोष की बात ज़रूर है
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एस 2/564 सिकरौल
9415295137
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