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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

नवगीत : मृदुल शर्मा

 

नवगीत

        (1)

किसे खबर थी,
ऐसे दिन भी आएंगे।।

स्वर गूंजेंगे,
मै-मेरा, तू-तेरा के।
सुबह-शाम
संबंधों के होंगे फांके।

मुर्दे खुद ही, 
अपना बोझ उठायेंगे।।
किसे खबर थी,
ऐसे दिन भी आएंगे।।

जाति-धर्म के बाड़ों में
रहना होगा।
देख हवा के रुख को ही
बहना होगा।

राम-कृष्ण तक
बाड़ों में बंट जाएंगे।।
किसे खबर थी,
ऐसे दिन भी आएंगे।।

सूरज की किरणें 
गोदामों में होंगी।
सत्य-न्याय की
ध्वजा उठायेंगे ढोंगी।

बलिदानों को
हाट दिखाये  जाएंगे।
किसे खबर थी,
ऐसे  दिन भी आएंगे।।

        (2)

दिन कटे
नैराश्य-भय से लड़खड़ाते।

रात-दिन थे कैद घर में
सिर झुकाये।
भूत भय का
अभय हो आंखें दिखाये।

कर्म-सैंधव 
देह  में थे छटपटाते।।

हो रहा था
काल का अनवरत तांडव।
गीत गूंगे हो गये थे
मौन कलरव।

पास आते
स्वजन भी थे थरथराते।।

मुश्किलों के पांव
अब पीछे मुड़े हैं।
फिर पखेरू जीत के,
नभ में उड़े हैं।

आ गये दिन फिर
हंसी से खनखनाते।।

       (3)



मनमोहक, मादक,
मंजु, मुखर,
क्या कहने-
शरद-पूर्णिमा के।।

कण-कण में
फैला है उजास।
नभ से भू तक
मृदु चन्द्र-हास।
फूला न समाता
हरसिंगार,
है लुटा रहा
अविरल सुवास।

लावण्य धरा का
अनुपमेय,
दृग-कमल खोल
पोखर ताके।।
क्या कहने-
शरद-पूर्णिमा के।।

नभ-नील-स्वच्छ
अतिशय सुन्दर।
पीयूष झर रहा है
झर-झर।
चर-अचर मुग्ध
सौन्दर्य देख,
हो गई
समय की गति मंथर।

यामिनी
लजाती द्युति रति की,
गहनों में
शुभ्र ज्योत्स्ना के।।
क्या कहने-
शरद-पूर्णिमा के।।

        (4)

तोड़ निराशा के घेरे को
सुखिया दुख में भी हंसती है।।

चौका-बर्तन, झाड़ू-पोछा,
कई घरों के वह पकड़े है।
हाड़-तोड़ मेहनत करती पर,
दरिद्रता फिर भी जकड़े है।

उतर गले के नीचे पति के,
दारू रोज उसे डसती है।।
सुखिया दुख में भी हंसती है।।

राम, कृष्ण,शिव का सुमिरन कर,
रोज निकलती अपने घर से।
नहीं परिश्रम से डर लगता,
पर डरती है बुरी नज़र से।

नहीं बोल पाती मुंह से पर,
दांत भींच, मुट्ठी कसती है।
सुखिया दुख में भी हंसती है।।

सन्तति के उज्ज्वल भविष्य के,
सपने सुखिया पाल रही है।
नहीं संभलती देह मगर,
पूरा परिवार संभाल रही है।

बहुत सुखद सपनों की बस्ती,
उसकी आंखों में बसती है।।
सुखिया दुख में भी हंसती है।।

मो.9956846197


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