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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

छिपकली

श्‍वेता


मैं पंद्रह वर्ष की थी जब मैंने सिटी बस से कोचिंग जाना शुरू किया था। पंद्रह वर्ष, जब ज़िंदगी से लड़कपन जा सा रहा था और प्रतियोगी परीक्षाएँ पास नहीं तो ज़्यादा दूर भी नहीं थीं। पापा ने कहा था कि इस साल कोचिंग रहने दो। अगले साल से तो जाना था ही! और मैंने ज़िद की कि मेरे लिए स्कूटी ख़रीदने की जगह कोचिंग की फ़ीस भर दें। और खुद से ये ज़िद की कि घर पे कभी नहीं जताऊँगी अपनी परेशानी।

लाल सफ़ेद सलवार कुर्ते में लम्बे बालों की एक चोटी बनाए, चश्मे से झांकती आँखें किताब में गड़ाए अपने छोटे से शहर में मैं अकेली नहीं थी जो सपने देख रही थी। जब आप मध्यमवर्गीय, पारम्परिक परिवार से हों, तो लीक से हट कर सपने देखना इतना आसान नहीं होता। लेकिन ज़िद आसान काम करने की नहीं होती। और दादी की सुनें, तो ज़िद्दी तो मैं अपने बाप से भी ज़्यादा थी।

जोधपुर की गर्मी की दोपहर के बारे में कुछ भी रूमानी नहीं है।
एक ऐसी ही दोपहर ठसाठस भरी बस में मैं स्कूल के बाद कोचिंग के लिए जा रही थी। रातानाडा से पावटा का आधे घंटे का सफ़र पसीना पोंछते, कोहनी मार के जगह बनाते, अचानक से लगे ब्रेक पे खुद को सम्भालते ख़त्म हो गया होता अगर वो सब नहीं हुआ होता। बैठने की जगह इस समय कभी नहीं मिलती थी, और आज तो खड़े होने में भी दिक़्क़त थी। एक तरफ़ न्यू गवर्न्मेंट स्कूल के लड़के खड़े थे। अपनी पूरी अक़्ल लगा के मैं दूसरी तरफ़ खड़ी हुई जहां एक आंटी थोक में ख़रीदे कपड़ों की गाँठें लिए खड़ी थीं।
थोड़ी देर में आंटी के कपड़ों की गाँठें मेरे कुछ ज़्यादा ही पास आ गयीं। मैंने ध्यान नहीं दिया। पर ये ध्यान ना देना काम नहीं आया क्यूँकि अब ना सिर्फ़ वो गाँठे बड़ी होते हुए मेरी कमर तक पहुँचने लगीं, उनका बोझ भी बढ़ने लगा। कुछ बहुत अजीब सा था। मैं अचानक से अपने शरीर को ले कर सजग हो गयी। मुड़ के देखा तो आंटी को सीट मिल गयी थी और उनकी जगह एक ४५-५० साल के अंकल खड़े थे।
जितना मुमकिन था, उतनी दूर हट गई मैं। पर थोड़ी ही देर में एक बोझ पीछे से मेरे शरीर को निगलता सा जा रहा था।
मैं कोई छुइमुई लजीली लड़की नहीं थी। अपने स्कूल की प्रीफ़ेक्ट थी, डिबेट में सबके छक्के छुड़ा सकती थी और स्पोर्ट्स में तो लड़कों के कान काटती थी। लेकिन मैं जम गयी। गला सूख गया और पैर नौ मन के हो गए। पीठ पे अब छिपकली सी रेंग रही थी। ना जाने कितना समय निकल गया ऐसे। अंत में हिम्मत जुटा के रुँधे गले से बस इतना निकला कि, अंकल आपकी बेटी की उमर की हूँ मैं!
‘अंकल’ ने कहा “हमारी बेटियाँ ऐसे खुली बाहर नहीं फिरतीं!”
मैं पंद्रह साल की कोचिंग जाती ‘खुली’ बच्ची थी। उस दिन फिर मैं नहीं जा पाई क्लास। घर आके एक घंटा लगा था मुझे वो घिनौना अहसास खुद पे से धोने में। वो बदबू आज तक नहीं गयी। अपनी ज़िद में कभी ये बात किसी को बताई नहीं मैंने। उसके बाद पचासों बार ऐसा हुआ, लेकिन मैं तैयार थी। दिल्ली की बसों से लेकर न्यूयॉर्क के सबवे तक। हर जगह ऐसे अंकल मिले, और हर बार मेरी ज़िद जीत गयी। पर पहली बार की ज़िल्लत, घिन, और वो लिजलिजा अहसास आज तक नहीं गया है। आज भी कभी कभी सपने में मेरे पैर मेरा साथ नहीं देते और मैं जम जाती हूँ वहाँ जहां से मुझे भाग जाना चाहिए। आवाज़ नहीं निकलती मेरी जब मुझे चिल्लाना चाहिए।
ये तो बहुत छोटी बात थी ना? इसके बाद तो बहुत कुछ हुआ। कभी किसी अजनबी को तो कभी किसी बहुत करीबी को लगा कि मेरे शरीर पे उसका मुझसे ज़्यादा हक़ है। तो फिर क्यूँ मुझे वो पीठ पर रेंगती छिपकली आज भी सताती है?
क्या इसलिए कि जब मैं जवाब ढूँढ रही थी, वो अंकल मुझपे तोहमत लगा के निकल लिए अपनी बेटियों को चारदीवारी में क़ैद कर उनकी सुरक्षा करने। या इसलिए कि उसके बाद हर बार की घटना में घुम फिर के उसी की पुनरावर्ती होती रही।
और जब इतने साल नहीं बोला ये सब किसी को तो आज क्यूँ ये कहानी सुना रही हूँ?
आज मेरी दस साल की भतीजी की आँखों में वो डर दिखा है। ये छिपकली रक्तबीजा है! अठारह सालों में ये मुझसे ना हटी, और अब नन्ही की पीठ पे पसर रही है। सीख तो वो भी जाएगी बच के चलना। समय के साथ ये डर आँखों का लावा भी बन जाएगा। पर क्या कोई भी आँच, कोई भी ज़िद इस छिपकली की लिजलिज़ाहट ख़त्म कर पाएगी?

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