1
अशोक गुजराती
जब खुले आम एक हरिजन युवती पर कतिपय उच्चवर्गीय दबंगों ने नागझिरी के पास के खेत में ले जाकर बलात्कार किया तो श्रमण ने गुस्से में आकर इसके विरोध में शेगांव के ज़िले बुलढ़ाना में मोर्चा निकाला. इस माेर्चे में नारें नहीं लग रहे थे, बैनर पकड़े चुपचाप युवा कार्यकर्ता कलेक्टर आफ़िस की तरफ़ चले जा रहे थे. उनके इस शांति मार्च और बैनर पर लिखे दलितों पर अत्याचार के जुमलों ने लोगों का आह्वान कुछ यों किया कि सैकड़ों की तादाद में वे जुड़ते चले गये. जैसे ही ज़िलाधीश के दफ़्तर के परिसर में यह जुलूस रुका तो वहां इतनी भीड़ हो गयी कि पुलिस का बन्दोबस्त करना लाज़िमी हो गया.
इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे श्रमण और दाे अन्य प्रतिनिधियाें को कलेक्टर ने मिलने की अनुमति दी. श्रमण किसे ले जाये सोच ही रहा था कि एक युवती, जो थोड़ी देर पहले मोर्चे में शामिल हुई थी, बोली, ‘मैं चलूंगी आपके साथ.’
श्रमण उसको जानता नहीं था. उसे लगा कि एक लड़की संग रहेगी तो अच्छा प्रभाव पड़ सकता है। उसने कहा, ‘हां, चलो. और विश्वास, तुम भी आ जाओ.’ वे तीनों भीतर गये। भीतर वही हुआ जो ऐसी परिस्थितियों में होता आया है. एकदम सभ्य, सुसंस्कृत एवं धीर-गंभीर बनकर तदर्थ शिकायत को कलेक्टर सुनने का ढोंग करता है. इसके पश्चात प्रतिनिधियों को समझाने का दायित्व निभाता है. उनके आग्रह पर पूरी तहक़ीक़ात का आश्वासन किसी नेता की तरह देता है
श्रमण उसको जानता नहीं था. उसे लगा कि एक लड़की संग रहेगी तो अच्छा प्रभाव पड़ सकता है। उसने कहा, ‘हां, चलो. और विश्वास, तुम भी आ जाओ.’ वे तीनों भीतर गये। भीतर वही हुआ जो ऐसी परिस्थितियों में होता आया है. एकदम सभ्य, सुसंस्कृत एवं धीर-गंभीर बनकर तदर्थ शिकायत को कलेक्टर सुनने का ढोंग करता है. इसके पश्चात प्रतिनिधियों को समझाने का दायित्व निभाता है. उनके आग्रह पर पूरी तहक़ीक़ात का आश्वासन किसी नेता की तरह देता है
उसी वक़्त या तो एसपी को फ़ोन करता है या वह साेंची - समझी प्रणाली के तहत पहले से वहीं हाज़िर होता है. कलेक्टर उसको ज़ुबानी आदेश देता है कि इस घिनौने कृत्य के पीछे कौन-कौन हैं, उनको फ़ौरन गिरफ़्तार किया जाये. एसपी उठकर सैलूट बजाकर एक हफते का समय मांगता है, जो तुरंत कलेक्टर मान्य कर लेता है
प्रतिनिधि लौट जाते हैं कि फटाफट कार्रवायी का कलेक्टर और एसपी ने वादा किया है. यह बात और कि उन रेप के गुनहगारों का कभी कोई अता-पता ही न चले. यही है हमारे देश की व्यवस्था कितना समीचीन कमलश्वर ने एक बार कहा था कि हमको सरकार नहीं व्यवस्था बदलने की ज़रूरत है. बाहर आने के बाद उनके साथ गयी लड़की स्वस्ति लगातार श्रमण से बहस करती रही. ‘ये सारा नाटक है, कहीं कुछ नहीं होने जा रहा...’
श्रमण उससे सहमत था पर अभी के लिए इतना ही, कहना चाहता था - ‘तुम्हारा आक्षेप सही है पर हमें धीरे - धीरे चलना पडेगा. एकदम विद्रोह तो नहीं कर सकते...’ यह वही श्रमण था, जो कुछ दिनों पूर्व तक गुंडागर्दी का महारथी माना जाता था. शायद लोगों के दुख-दर्द निकट से देखने का असर हो अथवा भाई के खो जाने का, उसमें एक अलग परिपक्वता आ विराजी थी. ज्यों उसे जीवन का लक्ष्य मिल गया हो... स्वस्ति का आक्रोश अपने चरम पर था- ‘यह टालमटामेल हमारे लोकतंत्र की विशेषता बनता जा रहा है.’
‘इसका उपाय यह तो नहीं हम आक्रामक हो जाएं!..’ श्रमण ने उसे शांत करने का प्रयत्न किया.
- ‘नहीं, मैं अलग इलाज की पक्षधर हूं.’
- ‘अलग इलाज... वह क्या ? ’ श्रमण ने कौतूहल प्रकट किया.
स्वस्ति मुस्कराई- ‘क्यो न हम यहां एक तम्बू गाडकर अनशन पर बैठ जाएं ?’
श्रमण उससे सहमत था पर अभी के लिए इतना ही, कहना चाहता था - ‘तुम्हारा आक्षेप सही है पर हमें धीरे - धीरे चलना पडेगा. एकदम विद्रोह तो नहीं कर सकते...’ यह वही श्रमण था, जो कुछ दिनों पूर्व तक गुंडागर्दी का महारथी माना जाता था. शायद लोगों के दुख-दर्द निकट से देखने का असर हो अथवा भाई के खो जाने का, उसमें एक अलग परिपक्वता आ विराजी थी. ज्यों उसे जीवन का लक्ष्य मिल गया हो... स्वस्ति का आक्रोश अपने चरम पर था- ‘यह टालमटामेल हमारे लोकतंत्र की विशेषता बनता जा रहा है.’
‘इसका उपाय यह तो नहीं हम आक्रामक हो जाएं!..’ श्रमण ने उसे शांत करने का प्रयत्न किया.
- ‘नहीं, मैं अलग इलाज की पक्षधर हूं.’
- ‘अलग इलाज... वह क्या ? ’ श्रमण ने कौतूहल प्रकट किया.
स्वस्ति मुस्कराई- ‘क्यो न हम यहां एक तम्बू गाडकर अनशन पर बैठ जाएं ?’
( 2 )
सत्याग्रह ... गांधी जी के सत्याग्रह को काैन झुठला सकता है... क्याकि वह सत्य के लिए आगे रह होता है. सभी गोड़से तो नहीं होते...
- ‘देखो ऐसा है... क्या नाम है तुम्हारा... मैं पूछना ही भूल गया...’
- ‘स्वस्ति. मेरा नाम स्वस्ति है.’
- ‘देखो ऐसा है... क्या नाम है तुम्हारा... मैं पूछना ही भूल गया...’
- ‘स्वस्ति. मेरा नाम स्वस्ति है.’
- ‘ताे स्वस्ति, मैं आरपीआई का एक अदना - सा कार्यकर्ता हूं. मुझमें अपने नेता से इज़ाज़त लेनी पड़ेगीतुम
अपना फ़ोन नंबर मुझे दे दो.’ श्रमण ने उसकी सलाह मानते हुए कहा.
अनुमति मिल गयी. कलेक्टर आफ़िस के गेट के पास पेंडाल डल गया. इसमें रखे तख़्त की दरी पर पांच - छह युवा बैठे - लेटे हुए अपनी ज़िद पर अड़े हुए थे - जब तक नागझिरी के बलात्कारियाे को पकड़ कर प्रशासन कोर्ट में पेश नहीं करता, हम अनशन नहीं ताेड़ेंगे इन युवाआें में श्रमण, विश्वास, स्वस्ति और तीन अन्य शामिल थे, जिनमें स्वस्ति की एक स्थानीय सहेली इला भी थी. वे दोनों शाम को चले जाते थे कितने तो लापरवाह हमारे चुने हुए विधायक - सांसद... वे तब तक निष्क्रिय बने रहते हैं, जब तक ऊपर से आदेश नहीं आ जाता किंवा स्थितियां अपनी भीषणता के कारण उनको मजबूर नहीं कर देतीं.
एक दिन स्वयं प्रकाश जी अन्य नेताओं के साथ आये और समर्थन दके र उनका उत्साह बढ़ाया.
एक दिन स्वयं प्रकाश जी अन्य नेताओं के साथ आये और समर्थन दके र उनका उत्साह बढ़ाया.
अंततः गुनहगारों की होशियारी के सबब याकि गंभीर हाे रही परिस्थितिवश पुलिस के अचानक सक्रिय हो जाने की वजह से दो लड़कों को उन्होंने अपनी गिरफ़्त में ले लिया. यह बहस से परे कि वे असली मुजरिम थे भी या नहीं..
असली हो अथवा नक़ली , पुलिस उनसे जैसा चाहती है, बयान ले ही लेगी. कहीं काेई अपील नहीं की जा सकती. पुलिस ने अपराध की क़ुबूली के आधार पर इच्छानुकूल चार्ज़शीट बना ली है. सुबूत भी जुटा लिये हैं. गवाह तैयार कर लिये हैं. कोर्ट को यही सब देख्ना होता है. उसे क्या लेना - देना कि झूठ के आवरण में छिपा नग्न सत्य क्या है. सुबूत हैं, साक्षी हैं, तथाकथित आरोपियों की आत्म - स्वीकृति है. फ़ैसला तयशुदा है.यही हुआ था. पैसों के ज़ोर पर उन दबंगों की जगह उनके सुझाये - बताये गऱीब युवकों को पुलिस ने बन्दी बना लिया था. अब विधायक का रोल- उसने अनशनकारियों को समाचार दिया कि अपराधी पकड़े गये। स्वस्ति श्रमण के पास गयी और कानाफूसी के अंदाज़ में बोली, - ‘मुझे शक है, कहीं कोई घालमेल है.’
असली हो अथवा नक़ली , पुलिस उनसे जैसा चाहती है, बयान ले ही लेगी. कहीं काेई अपील नहीं की जा सकती. पुलिस ने अपराध की क़ुबूली के आधार पर इच्छानुकूल चार्ज़शीट बना ली है. सुबूत भी जुटा लिये हैं. गवाह तैयार कर लिये हैं. कोर्ट को यही सब देख्ना होता है. उसे क्या लेना - देना कि झूठ के आवरण में छिपा नग्न सत्य क्या है. सुबूत हैं, साक्षी हैं, तथाकथित आरोपियों की आत्म - स्वीकृति है. फ़ैसला तयशुदा है.यही हुआ था. पैसों के ज़ोर पर उन दबंगों की जगह उनके सुझाये - बताये गऱीब युवकों को पुलिस ने बन्दी बना लिया था. अब विधायक का रोल- उसने अनशनकारियों को समाचार दिया कि अपराधी पकड़े गये। स्वस्ति श्रमण के पास गयी और कानाफूसी के अंदाज़ में बोली, - ‘मुझे शक है, कहीं कोई घालमेल है.’
- ‘हो सकता है, लेकिन हमें अदालत के निर्णय तक अपना अनशन स्थगित करना होगा.’ श्रमण ने धीरे - से कहा. अन्य साथी भी इसी पक्ष में थे. विधायक ने परम्परानुसार उनको ज्यसू पिलाया. ‘फ़ोटू’ ले लिये गये, जिनको अगली सुबह अख़बारों में ‘फ़्लैश’ हाेना है ताकि जीत का सेहरा विधायक के सिर बांधा जा सके...
यह कब तक चलता रहेगा... विधायक - सांसदों में ही कितनों पर अदालत में एकाधिक अपराध, हत्या, भ्रष्टाचार आदि के केस अटके रहते हैं। क्या इस दूषित व्यवस्था का एकमात्र विकल्प क्रांति ही है- जैसी फ्ऱांस में हुई थी. विदा्र ही, नक्सलाइट और कामरडे या तो चुप्पे - डरे रहते हैं, बल - प्रयोग को ही अपना गंतव्य मान लेते हैं अथवा मार डाले जाते हैं. सच है, क्रांति वहां से नहीं उपजती, वह जन - जन के आक्रोश से जनमती है. इस रोष को केवल गांधी जी जैसे महात्मा ही शांति एवं सत्य का जामा पहना सकते हैं. धार्मि क लोग अवतारों की बात करते हैं, जो कुछ हद तक उनके अंधविश्वास को घटाकर गांधी जी के कृतित्व में देखी जा सकती है। प्रश्न फिर भी अनुत्तरित है कि कब ऐसा भगवत् रूप अवतरित होगा और कब..
0
0
स्वस्ति खामगांव में रहती थी. शेगांव का ताल्लुक़ा. आधे घंटे के रास्ते पर. उसने एमए किया हुआ था. वह ब्राह्मण परिवार से थी. इतना ही नहीं, उसके पापा की खामगांव में प्रसिद्ध होटल थी. कमाई अनाप - शनाप. उसे नौकरी करने की चिन्ता नहीं थी। राजनीतिशास्त्र में पढ़ाई की थी और उसका स्वभाव पहले से ही प्रतिरोधी था. वही, ग़लत चलन के विरोध का सिद्धांत उसे इस राह पर ले आया था. वह दलित स्त्री पर हुए बलात्कार से बहुत व्यथित हुई थी। कुछ करना चाहती थी. जैसेे ही उसे पता चला कि बुलढ़ाना में इस नृशंसता के ख़िलाफ़ मोर्चा
निकल रहा है, वह वहां पहुंच गयी थी. उसका मनोरथ था कि इस अनशन को ठोस कार्रवायी होने तक विस्तार दिया जाये. लाचारी में उसने अपनी अनुभवहीनता को परिलक्षित कर श्रमण के सुझाव का समर्थन कर तो दिया किन्तु वह सतत विकल बनी रही. उसने श्रमण से उसकी रिपब्लिकन पार्टी के दफ़्तर का पता ले लिया था. वह पुनः उससे मिलने शेगांव गयी. श्रमण आफ़िस में नहीं था. वह दलिताें की बस्ती में गया हुआ था. उसके
सहायक से जानकारी लेकर वह वहां के लिए निकली वहां मालमू हुआ कि श्रमण अमुक झोंपड़ी में है. स्वस्ति सीधे उसमें प्रवेश कर गयी लेकिन अंदर के दृश्य को देख वह स्तंभित थमी रह गयी. एक बीमार बूढी औरत काे श्रमण दवाई पिला रहा था. वह बूढ़ी तेज बुख़ार में कराह रही थी. श्रमण ने पास में रखे कटोर के पानी में कुछ चिदियों काे भिंगोया,निचोड़ा और उसके कपाल, चेहरे आैर हाथों - पैरों काे उनसे पोंछने लगा. वह अनभिज्ञ था कि पीछे खड़ी स्वस्ति अपलक उसका अवलोकन कर रही है. वह ताे अपने छाेटे भाई को खोने की ग्लानि काे इस सहृदयता से पाटने के यत्न में लगा था. स्वस्ति इस प्रत्यक्ष संवेदनपूर्ण व्यवहार से इतनी अधिक अभिभूत हुई कि श्रमण के हाथ से गिली पट्टियां लगभग छीनकर उस बूढ़ी के ताप को शीतलता प्रदान करने में ऐसे जुट गयी ज्यों वह बूढी उसकी अपनी मां हो । श्रमण इस प्यार भरी छीना - झपटी से हतप्रभ एवं भावाकुल होकर कुछ फ़ासले पर खड़ा इस नवीन उपाख्यान को समझने में लगा हुआ था। ज्यो ही स्वस्ति थोड़ी थकी - सी लगी, उसने आगे बढक़र गिली पट्टी बूढ़ी की पेशानी पर रख कर उसकी बगल में साथ लाया थर्मामीटर लगा दिया. देखा तो बुख्रार उतर चुका था. लेकिन बुख्रार वास्तव में चढ़ गया था. थर्मामीटर का रीडिंग स्वस्ति ने देखा और भरे नैनों, मुस्कराते होंठों के संग पलटी. वह अपने जज़्बात पर क़ाबू नहीं रख पायी. बेहिचक श्रमण को बांहों में लेकर चूम लिया। यह क्षणिक भावनात्मक उत्तजे ना थी, जिसका असर दूर तक अपने - आप जाना था। श्रमण
और स्वस्ति धीरे - धीरे में आपस में खुलने लगे. इसके पृष्ठभाग में श्रमण में आया अहम परिवर्तन था, जिसकी मिसाल नहीं दी जा सकती. कहां तो गुंडागर्दी आैर नशे के फेर में उसके दिनमान व्यतीत हाेते थे और कहां उसका वर्तमान... उन भटकावों से वह आहिस्ता - आहिस्ता विमुख होता रहा इस अलिप्तता ने उसके नादीद दृगों में अपने भवितव्य के प्रति एक अनादेखी ज्योत प्रज्वलित कर दी थी। इसका न्यनू तम सही, श्रेय स्वस्ति के पाले में निश्चित ही जाता था. स्वस्ति को जब ज्ञात हुआ कि जनाब ने महज़ दसवीं तक तालीम ग्रहण की है, उसने उसे ज्यों उसकी मां बनकर डांटा, डपटा, समझाया. उसे उकसाया कि वह आगे दूर-शिक्षा के अंतर्गत शिक्षण पूरा करे। जब आप किसी को अपना हृदय हथेली पर रखकर समर्पित कर देते हैं तो उसकी प्रत्यके सदाशयता को उसी हथेली से स्वीकार कर अपने मस्तिष्क को अंतरित कर देते हैं. श्रमण की क्या हस्ती थी कि वह अपने प्रेयस् की वाजिब हठधर्मिता काे टाल जाता.
लो भाई, यह भी अचिह्ना बदलाव उसके पोर - पोर को लगन की विचार - वीथी में गमन हेतु प्रेरणात्मक ऊर्जा देने में यशस्वी हो गया... इतने वर्षों का अंतराल था कि यशवंतराव चव्हाण ओपन यूनिवर्सिटी ने उसके बारहवीं की परीक्षा के आवेदन को मंज़ूरी दे दी. मुश्किल था, लेकिन स्वस्ति का मार्ग दर्शन और हौसला उसे इस मंज़िल तक ले जाने में क़ामयाब होने ही थे. उसने बारहवीं पास कर ली.
इस बीच यह नहीं कि वे चुपचाप बैठे रहे. आंदोलनों में शरीक़ होते रहे. उनकी पृच्छा का ही परिणाम था कि अंततः उस दलित युवती के बलात्कार के असली मुज़रिम पकड़े गये थे. वे न केवल हाथ में हाथ मिलाकर अनीतियों के विरोध में अग्रसर होते रहे बल्कि अपने एकांत में हाथों के साथ ही अन्य अंगों को भी मिलने से बरदख़ल नहीं किया, विशिष्ट अंगों का परहेज़ करते हुए. वैसे स्वस्ति की जानिब से किसी आचार - संहिता का कड़ा अनुशासन नहीं था. मनुष्य को जीवन में सुयोग्य दिशा की पहचान मिलते ही उस दौड़ - भाग में वह ज़रा संयमित होता जाता है. यही वजह हो कि श्रमण अपनी सरहद को अस्थायी पड़ाव के स्तर पर स्वीकार कर रहा था. उसके जैसे युवा से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, उसके भूतपूर्व लक्षणों पर दृष्टिपात करते हुए, मगर था ऐसा ही. है तो यह किमिया से परिपूर्ण ही कि किसी के विषय में हम कुछ भी निर्धारण कभी अंतिम रूप से नहीं कर सकते। मानव है ही ऐसा विचित्र जीव! वक़्त तो एक परिन्दा है. उड़ान काे तत्पर. हमेशा. ज्यों ढलान पर पानी का बहाव रुकता नहीं. बल्कि मिट्टी, पत्थर, खरपतवार ही नहीं; सैलाब की शक्ल ले ले तो किसी को बख़्शता नहीं. समय भी सारे सुख - दुख किसी पुष्पक विमान - सा निष्पक्ष उड़ा ले जाता है तो ज्यों बरसात का भेस धरकर सारा अस्तव्यस्त - सा लौटाता भी जाता है. सुख की जगह दुख और दुख की जगह सुख या कहीं भी कुछ...
0
नारायण राव धड़ल्ले से घर मं े घुसे. ज़ोर की आवाज़ लगायी- ‘सुमी... सुमित्रा.. कहां हो?’
स ुमित्रा जी किचन से पसीना पा ेंछत े हुए त ेज़ी स े बैठक में आयीं. नारायण राव बेहद ग ़ुस्से में थे-
‘क्या हो रहा है ये.. तुम.. तुमसे अपनी बेटी भी सम्भाली नहीं जाती..!’
स ुमित्रा जी ने बदहवासी में म ुश्किल से तीन शब्द उच्चार े- ‘हुआ क्या है...’
नारायण राव क्रोध म ें तिलमिलाये- ‘हुआ क्या है..! क्या नहीं हुआ... तुम्हारी बेटी हाथ से निकल गयी
और पूछ रही हो, क्या हुआ?..’
सुमित्रा जी ने अपनी बौखलाहट से जूझते हुए पुनः अनभिज्ञता जतायी- ‘ये ता े बताओ.. आख़िर ऐसा
क्या कर दिया बाली ने...’
‘क्या कर दिया बाली न!े .. और आज़ादी दो उसे. मैं पहले से कहता रहा कि उसकी शादी का सा ेचोनहीं...
तुम तो उसे और-और पढ़ाना चाहती थी, राजनीति करने से रोकती न थी... मैं अपने होटल के
काम में व्यस्त रहता हूं तो क्या मुझे पता नहीं चलेगा कि वह क्या-क्या ग ुल खिला रही है..’
‘ऐसा क्या किया उसने... मुझे मालूम तो हो...’ सुमित्रा जी अपने पर लगे आरोप से व्यथित हो बोलीं.
‘क्या किया!.. वह एक हरिजन के साथ... क्या कहूं... मैंने उस पर विश्वास किया कि वह अपने
ब्राह्मणत्व की मर्यादा का सम्मान कर ेगी. लेकिन उसने...’ नारायण राव अति उदासीनता के चलते
बोलते-बोलते च ुप हा े गये.
स ुमित्रा जी उनके नैराश्य से विचलित हुईं परन्तु वे उनके कथन के मर्म तक नहीं जा पा रही थीं-
‘हरिजन के साथ... अरे! वह ता े किसी राजनीतिक दल का एक अदना-सा कार्य कर्ता है. क्या किया
उसने?’
नारायण राव आक्रोश में ऊंचे स्वर की हद लांघ गय-े ‘उस दलित के बच्चे को आये दिन शेगांव
मिलने जाती है वो... पता नहीं कौनसी खिचड़ी पक रही है दोनों के बीच...’
‘क्या कह रहे हैं... ऐसा कुछ ग ़लत हो रहा है तो मैं उसका े आज ही पूछू ंगी.’
‘पूछने की घड़ी बीत च ुकी है. म ैंने तुमका े बताया तो था कि मेर े मित्र नांदे जी के बेटे स े हम सम्बन्ध
जोड़ सकत े हैं. उनके बेट े को पुणे में विप्रो की कंपनी म ें बढ़िया पैकेज़ मिल रहा है.’ नारायण राव
असली मुद्दे पर आये- ‘मैंने थोड़ी देर पहले उनसे फ़ाइनल बात कर ली है. वे तैयार हैं.’
सुमित्रा जी सारे उलाहनों को भूल एकदम प्रसन्न हो गयीं- ‘वाह! यह तो बहुत अच्छी ख़बर है. मैं
5
बाली को आते ही बताती हूं.’
‘बिलकुल नहीं.’ नारायण राव ने सुमित्रा की उत्तेजना की रासें खींची- ‘उस पर पाबन्दी लगा दने ी
है. वह कहीं बाहर न जाये, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है. मैंने सब तय कर लिया है.’
‘क्या?’
‘यही कि नांदे का बेटा अभी छुट ्टियो ं म ें यही ं आया हुआ है. पांच दिनों बाद ला ैटने वाला है. इस
दरमियान यह श ुभ कार्य निपटा देना है.’
‘इतनी जल्दी?..’ सुमित्रा जी ने चिन्ता प्रकट की.
‘हां. बाली के और बहकने से पूर्व यह करना आवश्यक हो गया है. नांदे जी को भी मंज़ूर है.’
स ुमित्रा जी के उछाह म ें से शंका बाहर आयी- ‘लेकिन... शादी की तैयारी?.. कैसे कर ेंग े इतने कम
समय में...’
नारायण राव आत्मविश्वास से लबालब थे- ‘सब हो जाय ेगा. तुम मुझ पर छा ेड़ दा े. पैसा क्या नहीं
करता! मैंने ना ंदे जी की सहमति से भागवत वाड़ी बुक कर ली है. भोजन का ठेका प्रसिद्ध कैटरर जा ेशी
जी को दे दिया है. आठ फ़रवरी की तिथि अपने पांडे पंडित ने शुभ बतायी है, तीन दिन बाद.’
स ुमित्रा जी ज़रा नाराज ़ र्हुइ ं- ‘इतना सब कर लिया और मुझे बताया तक नहीं...’
‘सारा कुछ आज ही निश्चित किया है. तुम नहीं जानती, मुझे विश्वस्त्र स ूत्रों से जानकारी मिली कि
बाली उस नालायक अछूत के जाल मे ं बुरी तरह फंस च ुकी है. बात बिगड़ने से पहले यह करना ज़रूरी
हो गया था. तुम बिलकुल फ़िकर मत करा े. मैं सब कर लूंगा. तुम्हें बस इतना ही करना है कि बाली को
अगले दो दिन घर से बाहर निकलने नहीं देना है. उसका मोबाइल कहीं छिपा कर रख दो. बाक़ी मैं
सारा सम्भाल लूंगा.’
यह वार्तालाप चल ही रहा था कि ड्राइंग रूम में स्वस्ति ने प्रवेश किया. उसके हाथ म ें मोबाइल था-
कानों की लवें छूता हुआ. वह अपनी रौ म ें बोलती चली गयी- ‘श्रमण, तुमसे कहा न, मैं कल शेगा ंव आ
रही हूं. यह मसला हम तभी...’ अचानक उसकी नज़र अपने पापा पर पड़ी. वे इस वक़्त कभी घर पर
नहीं होते. उन्हें दख्े ा वह बोलते-बोलते रुक गयी और मोबाइल बन्द करने लगी.
‘वो तेरा मोबाइल म ुझे दे.’ नारायण राव ने उसके हाथ से मोबाइल लेकर कहा, ‘यह मेरे पास ही
रहेगा. और तू किसी श्रमण-भ्रमण से मिलने नहीं जायेगी. समझा?’
स्वस्ति अपने प्रिय पापा की इस अनपेक्षित हरकत से आश्चर्यचकित हकलाई- ‘प..पापा...’
‘चुप!’ नारायण राव ने क्रोधित हो उसे डपटा. ‘मुझे तरे ी सारी घुमक्कड़ी के बारे में मालूम हो चुका
है. अब न यह मोबाइल वापिस मिलेगा और न ही त ू कही ं बाहर जाय ेगी. बंगले के सिक्युरिटी गार्ड को
मैंने वैसी हिदायत दे रखी है.’ एकाएक वे द्रवित हो उठ-े ‘बाली बेटे, मैं यह तेरे भले के लिए ही कर
रहा हूं.’
स्वस्ति ने मामले की तह तक जाने के प्रयत्न में अपनी मम्मी का रूख़ किया- ‘मम्मा, यह क्या हो
रहा है... पापा ऐसे तानाशाह क्यो ं बन रहे हैं?..’
मम्मी ने उसे अपन े नज़दीक बैठाया- ‘बाली, यह आज न कल होना ही था. पापा जा े कह रहे हैं,
वही तुझे मानना है.’
‘और नहीं माना ता े मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!’ नारायण राव ने अंतिम च ेतावनी दी और झटके से
उठकर बाहर निकल गय ेस्वस्ति
की आंखों में आंसू आ गय-े ‘मम्मी.. मम्मी...’
सुमित्रा जी ने उसे अपने आगोश में लेते हुए कहा, ‘बाली, ये सब हमारे खानदान की मर्यादा बचाने
के लिए है.’ अश्रु भरे नैना ें से उन्होंन े उसे गले लगा लिया- तेर े पापा न े मुझ पर आरोप लगा दिया है
कि म ैं तुझे बिगाड़ रही हूं... इसलिए तू अब अच्छी बेटी बन मेरे संग-साथ बनी रहेगी.‘
‘लेकिन क्यों? मैं पढी़ -लिखी लड़की क्या घर में बन्द रहूंगी.. और अचानक यह क़ैद क्यो?’
6
स ुमित्रा जी अन्दर की सच्चाई बताने से स्वय ं को रोके हुए थीं- ‘जल्द ही तुझे पता चल जायेगा.’
‘कब? मम्मी, मुझे तुम न भी बताओ तो भी मेरे अनुमान में चूक नहीं हो सकती. मैं कोई बच्ची नहीं
हूं.’ स्वस्ति थोड़ा आवेश मं े आ गयी- ‘मॉम, तुम्हारे भय को मैं जानती हूं- पापा का कहा कभी नहीं
टालोगी. पर मैं तुम्हारी दक़ियानूस पीढ़ी की नहीं हूं. अपना निर्णय ख़ुद ले सकती हूं.’
सुमित्रा जी में अपनी विवशता से उबरने का कोई सांकेतिक साहस भी नहीं था. वे जीवन भर पति
की आज्ञाकारी पत्नी बनी रही थीं. नई पौध से उनका मानसिक मतैक्य था पर वे ख़ामोश ही बनी रहीं.
स्वस्ति का े यह सत्य अपनी समस्या के समाधान की ओर ले गया- ‘जान े दो मम्मी, मैं जानती हूं
आप पापा से हल्का-सा भी विद्रोह नही ं कर सकतीं. मैं एक सवाल पूछती हूं. आप उसका जवाब म ेरे
सिर पर हाथ रखकर ‘हा ं’ या ‘ना’ में दे सकती हों. क्या यह षडयत्रं मेरे विवाह के उद्देश्य से किया
जा रहा है?’
सुमित्रा जी मुसीबत में आ गयीं. स्वस्ति ने अपने सिर पर उनका हाथ रख लिया था. वे उससे भी
उतना ही प्यार करती थीं. अपनी दुि वधा से किसी प्रकार निकलीं वे- ‘हुं.’
स्वस्ति का अंदाज़ा सही साबित हुआ मगर उसे दुश्चिन्ता ने घेर लिया. वह श्रमण से मन-ही-मन
जुड़ चुकी थी. अपने प्रेम का े क़तई नकार नहीं सकती थी. लेकिन... परिस्थितिया ं उसके विपरीत ही नहीं
जा रही थीं, अपित ु उसे अपने पापा के ज़िद्दी स्वभाव का पूरा अंद ेशा था. उन्होंन े उसकी चौकसी का
हर तरह से सरंजाम कर लिया होगा. वह अब शायद ही घर से बाहर जा सके.
वह अपने कमरे मे ं गयी, जो पहली मंज़िल पर था. बिस्तर पर लेटकर वह इस झ ंझावात का सामना
करने की युक्ति सोचने लगी. वह श्रमण के प्रेम के लिए शंकाकुल नही ं थी लेकिन वे प्यार के उस
मुक़ाम तक नहीं जा सके थे, जब एक-दूसर े के वास्त े जान देने के लिए तत्पर हो जाएं. हा ं, देह से
बाह्य तौर पर जुड़ते-जुड़ते उनके मन भी मिल गये थे. फिर भी कहीं किसी वादे अथवा वचन से बंधन े
से पूर्व यह तूफान आ गया थाप्रेम
ऐसा दार्शनिक मुद्दा है जिस पर किसीका वश नहीं होता. लेि कन आजकल की पढ़ी-लिखी
लड़कियां वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ने के अनन्तर बेहद सतर्क रहती हैं. प्रेमी का च ुनाव भी वे बिना
सोच े-विचारे नहीं करतीं.
स्वस्ति को इस बात का पूरा अहसास था कि श्रमण के पास न नौकरी है न वह पढ़ा-लिखा है. वह
तो उसीके कारण बारहवीं तक कठिनाई से पहुंच सका है. उसमं े ऐसी क्षमता फ़िलहाल तो है नहीं कि
विवाह के उपरांत वे दोनों साथ रहकर कोई भी सुख-सुविधा जुटा सकें. कमसकम दा े पहर का भोजनस्वस्ति
भी दख्े ाा जाये तो बेरोज़गार ही है. क्या करे... स्वस्ति सोच के भंवर मं े फंसी पलायन के
दुस्साहस को प्रभुत्व नहीं दे पा रही थी. वह लगातार अकेले रो-रोकर बेज़ार हुई जा रही थी.
संया ेग से एक दिन बाद बुलढ़ाना की सहेली इला उससे मिलने आ गयी.
इला स े उसकी बरसो ं पुरानी मित्रता थी. तहसील खामगांव और उसका ज़िला बुलढ़ाना बहुत दूर भी
नहीं थे. वे इस-उस बहाने मिलते रहते थे. इसकी वजह उनकी आपसी विश्वसनीयता ही थी; कि वे
चाहे जो हो, एक-दूसरे के ख़िलाफ़ कभी नहीं जायंगे े. इसके पीछे उनकी समान विचारधारा थी. वे दोनों
कुछ करना चाहती थीं, हाशिये पर धकिया दिये गये लोगों के लिए, दुखियारों-पीड़ितों के विकास हेतु-
अपने वर्तुल के केन्द्र मे ं रहकर. मित्रता की पहली शर्त होती है- पूर्ण रूप से समझने और बर्दाश्त करने
की. सहनशीलता आड़े आनी न थी क्या ेंकि उनकी वैचारिकता फ़र्क़ नहीं थीस्वस्ति
ने इला को अपने वर्तमान संकट के विषय में बताया. इला उसकी अंतर्कथा सुनते हुए मौन
बनी रही. सामयिक आयामों पर मन-ही-मन चिन्तन करती रही. फिर उसने उत्तर जानते हुए भी एक
प्रश्न स्वस्ति के सम्मुख रखा- ‘बाली, तू बालिग़ है. त ू श्रमण के संग भागकर का ेर्ट में विवाह कर ले तो
कोई व्यक्ति या क़ानून त ुझे रा ेक नहीं सकता. इसमें म ैं तेरी मदद भी करूंगी.’
स्वस्ति इस आक्रमण के लिए स्वयं को उद्यत नहीं कर पा रही थी. वह बोली, ‘इला, तुझे पता है कि
7
हमने कोई क़समें-वाद े परस्पर किये नहीं हैं. बस इतना स्वयं-प्रेषित है- पत्थर की लकीर जैसा -कि,
हम प्यार में हैं.’
‘तब?’ इला ने जान-बूझकर पेचिदा सवाल किया.
‘तब भी भाग कर जाने की हिम्मत करना कठिन इसलिए लगता है कि श्रमण और मैं जायेंगे कहां,
करेंग े क्या- हम दोनो ं की का ेई निश्चित आय नहीं है. इस े तुम मेरा स्वहित कह लो या भविष्यत् के प्रति
सचेती- क्या होशो-हवास में एक अनजानी खाई में कूद जाना तुझ े उचित लगता है?’ स्वस्ति ने
तर्क-सम्मत प्रतिप्रश्न कियास्वस्ति
के इस संगत संवाद का आशय इला बख़ूबी ग्रहण कर रही थी. वह अपने अनुभव से जानती
थी कि अंधी छलांग लगाने का मतलब क्या हो सकता है. उसने समर्थन की भंगिमा अपना ली- ‘बाली,
तू सही सोच रही है. हम बेवक़ूफ़ नहीं हैं कि बिना सोचे-विचारे कोई ऐसी उड़ान भरे कि हमारी
ज़िन्दगी ही बरबाद हो जाये. लेकिन...’
‘ल ेकिन... मैं अपन े प्रेम को कैसे झुठला द ूं?’ स्वस्ति की आंखें डबडबा आयीं- इला, मैं श्रमण को
चाहने लगी हूं.’
इला के पास इसका अंतिम उपाय था- ‘अगर ऐसा है ता े इस प्यार की लाज तुझ े रखनी ही होगी,
बाली!’
कैसे?’ स्वस्ति का असमंजस इस वैतरणी मं े कभी नाक-मुंह पानी की सतह के ऊपर तो कभी श्वास
लेने का े ऊब-डूब से आशंकित उसकी प्रज्ञा के हाथ-पैर को आंदोलित कर रहा था.
‘एकदम सरल है. चाचा जी ने कड़ा बन्दोबस्त कर रखा है. तू बन्दिनी है. ठीक है?’
‘हां. मॉम तो म ेरी रखवाली पर हैं ही; म ेरा मोबाइल छीन लिया गया है; म ेरी स्कूटी की चाबिया ं ज़ब्त
कर ली हैं और सिक्युि रटी के एक के बजाय दो बंदे परिसर में तैनात कर दिये हैं. मैंने खिड़की से इस
सख् ़ती का जायज़ा ले लिया है. कोई तमाशा खड ़ा करना म ैं नही ं चाहती.. यानी एक तरह से नज़रबन्द
हूं.’
‘तू चिन्ता मत कर. म ैं हूं न. एक-दूजे क े संग जीवन नहीं बिता सकते. ना सही. एकम ेक तो हो
सकते हैं. अपने प्यार की पराकाष्ठा को अर्जित कर ल ेना हमारा हक़ है. इस निर्दयी समाज को अंग ूठा
दिखाकर. विजयी होकर. जातपांत की बेडि ़यों का े तोड़कर. ऐसे विकट समय म ें प्यार को हथौड़े जैसा
इस्तेमाल करने के सिवा और कोई चारा नहीं हा ेता. एवरी थिंग इज़ फ़ेयर इन लव एंड वार!’
‘तू कहना क्या चाहती है?’
‘यही कि जो न मिल सके उसे हम ेशा के लिए हासिल कर लेना यदि हमारे बस में है, ता े इस मौक़े
को लूट लेना चाहिए.’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि त ू बंगले के बाहर नही ं जा सकती. कोई गिला नहीं. अगर का ेई तुझ े चाहता है तो
वह तेरे इस कमरे तक पहुंचने की जांबाज़ी ज़रूर दिखायेगा. क़बूल है?’
स्वस्ति अपनी मनोकामना की इतिश्री से क्योंकर इनकार करती. उसने थोड़ा लजात े, थोड़ा मुस्कराते
हुए गर्दन हिलाकर हामी भर दी.
‘तब ऐसा कर तू मरे े मोबाइल से श्रमण के सम्मुख अपना दिल खोलकर रख दे. ल े, मैं उसका नंबर
डायल कर रही हूं.’
स्वस्ति न े थरथराते हाथों में मोबाइल पकड़ा. उधर से आवाज़ आयी- ‘हैलो.’
‘म..म ैं... स्वस्ति.’
‘क्या हुआ. ठीक तो हो?.. इला के फ़ा ेन से क्यो ं बात कर रही हो...’
‘कुछ ठीक नहीं है श्रमण, ज़बरन मेरा विवाह किया जा रहा है. मैं तुम तक आ नहीं सकी, न आ
सकती हूं. इला त ुमसे मिलेगी. उसके कहे अनुसार तुम क्या म ुझसे आख़िरी बार जान जोख़िम में डाल
8
कर मिलन े आओगे?’ वह सिसकने लगी.
‘ज़रूर आऊंगा. तू रो मत. कब आना है?’
अपनी सिसकी को दबाते-दबात े उसकी वाचा फूटी- ‘य े.. ये सब इला तुम्हें बतायेगी.’ उसने इला
की ओर आश्वस्त होने हेतु देखा. इला उसके हाथ से मोबाइल लेकर श्रमण से बोली, ‘मैं यहां से निकल
कर त ुम्हार े आफ़िस आ रही हूं. वहीं रहना.’
श्रमण का सकारात्मक जवाब मिलते ही उसने फ़ोन बन्द किया और स्वस्ति से कहा, ‘मैं जा रही हूं
श्रमण से मिलने. आकर त ुझे बता दूंगी कि वह कब अपना अंतिम विदाई-प्रेम तुझे द ेने यहां आयेगा. मैं
जानती हूं. वह यह करेगा. वह हिम्मतवाला है.’
स्वस्ति को याद आया कि विदर्भ के राजा की बेटी रुक्मिणी पर भी ऐसी ही आफ़त आयी थी. उसने
दूत द्वारा अपने प्रेम का वास्ता दिया तो कृष्ण का ैंडिण्यपुर आ पहुंचे थे.
0
रात के दो बजे थे.
स्वस्ति के विवाह की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. महाराष्ट ª में शादी का आयोजन मात्र एक दिन का
ही होता है. ग ुजराती, मारवाड़ी या पंजाबी आदियों जैसा अधिक फैेलाव लिये नही ं हा ेता. सवेर े नौ-दस
के आसपास का मुहूर्त निकाला जाता है. दुलहा-दुलहिन अंतर्पट के दोनों ओर बैठे होते हैं. मगं लाष्टक
गाये जाते हैं. उपस्थित आमंत्रित प्रत्येक पद की ‘शुभ-मंगल सावधान’ पर समाप्ति होते ही उन्हें दीे गयी
अक्षत रूपी ज्वार उनकी ओर उछालते हैं. अंतिम पद के गायन के साथ पंडित के ‘सावधान-सावधान’
कई बार दोहराते ही बाजे बजने लगते हैं; बीच से परदा हट जाता है; वर-वधू एक-दूसरे को हार
पहनाते हैं और प्रेक्षक अक्षत की आख़िरी खेप अर्पित कर उनको आशीष एवं शुभ-कामनाएं देत े हैं. हो
गया लगन.
इसके पश्चात प्रायः सभी विद्यमान अपनी-अपनी भे ंट देने मंच की तरफ़ बढ़ते हैं. पास के हॉल में
पहले से खान े का इंतज़ाम किया होता है. लोगबाग खाना खाकर प्रसन्नचित्त इस समारोह को निष्पन्न
कर लौट जाते हैं. तत्पश्चात निकट संबंधियों की उपस्थिति मं े सात फेरे सम्पन्न होते हैं.
इस प्रथा का आरंभ कल सुबह होना था.
नारायण राव की बिल्डिंग के परिसर में दा ेना ें पहरेदार सतर्क थे. तीनों ओर चक्कर लगा रहे थे. पीछे
कम्पाउंड वाल से ही दीवार ऊपर उठी हुई थी. स्वस्ति का कमरा प्रथम तल पर वहीं बालकनी को
लगकर था. तीसरी मंज़िल से नीचे तक उधर ही गदं े पानी व मल की निकासी का मोटा पाइप नीचे
तक आकर सेफ़टी-टैंक तक चला गया था. अर्थात् होशियार इला ने यह सारी जानकारी श्रमण को दे
दी थी.
इतना काफ़ी था. श्रमण अपने स्कूल की मलख ंभ कवायदों का तहसील टुर्नामेंट तक प्रतिनिधित्व कर
च ुका था. किसी सीधे खम्भे पर चढ़ जाना उसके लिए मामूली क्रिया थी. फिर यहां तो उसके दिमाग़ में
अपने चरम को पा लने े की धुन थी. उसने बंगले की सर्विस लेन से जाकर उस पाइप को छुआ. ऊपर
देखा.
स्वस्ति उसकी प्रतीक्षा में पहले तल के बारजे में खड़ी थी. बारह-पन्द्रह फ़ुट की ऊंर्चाइ श्रमण के
वास्ते खेल ही था. वह किसी गिलहरी-सा सरपट ऊपर चढ़ गया. स्वस्ति के लटके हाथ का सहारा
लेकर वह पैरापेट को किसी बच्चे-सा लांघ गया. वह अपना संतुलन जमाय े उसस े पूर्व स्वस्ति ने उसे
अपनी बांहो ं की गिरफ़्त में जकड़ लिया, ज्यो ं ठंड मं े कोहरा काइनात पर छा जाये.
वे दा ेना ें एक-दूजे से चिपटे कमरे म ें गये आ ैर तीन घण्टे चिपटे ही रहे. अंतर इतना ही हुआ कि
पहले उनके वस्त्र दुश्मन बने रहे. फिर उन्हो ंने हौल-े हौले इन शत्रुओं को पराजित कर धराशायी कर
दियागगन
में उजास फैलने को था. उषा की लालिमा प्रतीक्षा में थी. उनके चेहरों पर छायी ललाई ओझल
9
होने को अभिशप्त थी. पनियाय े दृग परन्तु स्मित ओढ़ रहे अधरों से उन्होंन े अपन े प्यार का अंतिम विदाई
गीत देर तक गाकर अपनी भीतरी तहों तक संक्रमित किया. किसी तरह जुदा हुए.
श्रमण जिस रास्ते से आया था उसीसे स्वस्ति की उंगलियों का े चूमते हुए- भावी जीवन की बधाई
और शुभ-कामनाएं देते हुए नीचे उतरा. हाथ हिलाकर आख़िरी सलाम किया आ ैर ला ैट गयाकिसको
क्या प्राप्त हुआ यह तो भविष्य की धुंध में छिपा हुआ था. श्रमण ने इस विरह को अपनी
सहनशक्ति में जज़्ब कर यह फ़ ैसला ले लिया कि- ‘स्वस्ति, आज मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं तो क्या हुआ...
मैं भी ज़िन्दगी मं े तुम्हारे ही द्वारा अनुप्राणित उमंग व ऊर्जा को लक्ष्य बनाकर दिखा दूंगा कि तुम भी
कभी कहोगी- ‘यह पिछड़ा भी मेरे लायक़ हो गया..’
0
नौ महीन े, नौ दिन- जिसे मानक माना जाता है डाक्टरों द्वारा किसी भी गर्भ-धारिता की प्रसूति हेतु-
सटीक साबित हुआ स्वस्ति के लिए. उसने इस अवधि का े अपन े विवाह की रस्म के पश्चात अचूक
निबाह कर पुत्र को जन्म दियाउसका
पति श्लोक ही नहीं, उसके सास-ससुर-ननद इतने प्रसन्न हुए कि पुणे के बड़े होटल
‘रामा-कृष्णा’ म ें अपन े रिश्तदारो ं-परिचितों को निमंत्रित कर इस सौभाग्य को समारोहित किया.
आम तौर पर होता यह है कि विवाहिता का पहला प्रसव अपनी मां के यहां ही होता है. स्वाति के
माता-पता भी यही चाहते थे. नांदे जी ने अपने बेट े श्लोक की इच्छा से उनको अवगत कराया कि पुणे
के आदित्य बिड़ला हॉस्पिटल मं े इतने सुविज्ञ डाक्टर, उनका स्टाफ़ और मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध हैं
कि कहीं कुछ गड़बड़ी हो तो सारी सुरक्षा व्यवस्था है. दूसर े, इस प्रयोजन हेतु श्लोक का े अपनी कंपनी
से समूचा आर्थि क सहभाग भी मिलेगा.
यह जानन े के बाद स्वाति के मम्मी-डैडी ने न सिर्फ़ अपनी सहमति दी, बल्कि प्रस ूति की अन ुमानित
तारीख़ के दो दिन पूर्व वहा ं आ भी गये.
तीन माह बीते. बच्चा-जच्चा एकदम स्वस्थ थे. तब नारायण राव ने अपने समधि से अनुरोध किया
कि एक-डेढ़ मास तक यदि उनकी बेटी अपने मायके आकर रहे तो वे भी अपने नाती की बाल-सुलभ
शरारतों का आनन्द ले सकेंग े. फिर नांदे जी भी अपने बंगले पर उसे बीच-बीच मं े ले जा सकते हैं
अथवा नारायण राव के आवास पर कभी भी सपत्नीक आकर अपने पोते-बहू से मिल सकते हैं.
इस सुझाव में आपत्तिजनक कुछ था ही नहीं, ना ंदे जी ने बेटे स े कहकर तुर ंत इस े हक़ीक़त का
जामा पहना दिया.
उन्हें कहां पता था कि पराजित प्रेमी-युगल के लिए यह संचालन पुनर्मि लन का बायस बन सकता
है...
यही हुआ. अब स्वाति के मा ेबाइल पर कोई पाबन्दी नहीं थी. उसने एक दीर्घ अंतराल के उपरांत
अपने प्रियतम श्रमण को फ़ोन लगाया- ‘श्रमण, मैं खामगांव आयी हुई हूं. बाहर भी निकल सकती हूं
अपने तीन माह के बेटे को अंक में भरकर, लेकिन नहीं... मैं लोकापवाद की दृष्टि से यह ठीक नहीं
समझती..’
श्रमण ने पहले तो उसे बधाई दी- ‘सुनकर अच्छा लगा कि तुम मा ं बन गयी हो. तुम नहीं आ
सकती हो तो फ़िकर नॉट... मै ं तुमसे मिलने उसी चोर-रास्ते से आ जाऊंगा.’
‘मैं भी यही सोच रही हूं. तुम आओ. चुपचाप. मेरी ख़्वाहिश है कि बेटे स े तुम्हें मिलवाऊं...’
‘मैं आज ही रात उसी प्रेम-गली से होकर तुम तक आ जाऊंगा. अब तो सिक्य ुरिटी की भी उतनी
कड़ी हदबन्दी नहीं होगी?’
‘बिलकुल नहीं. तुम बेझिझक रात में बारह बजे अपने उसी गुप्त मार्ग से चढ़ आना. मं ै प्रतीक्षा
करूंगी.’
0
10
कहीं दूर बारह के घण्टे बजे. चारों तरफ़ सुनसान था. झिंग ुरों की कर्कश ध्वनि इसको भंग करने में
लगी र्हुइ थी.
श्रमण उसी निकासी पाइप के पास पहुंचा. स्वस्ति ऊपर से झांक रही थी. इसके बाद का दृश्य
अंग ्रेज़ी की कहावत सिद्ध कर रहा था- ‘हिस्ट्री रिपीट ्स इटसेल्फ़.
कमर े में एक नया बदलाव आ गया था. पूर्व के ख़ाली बिस्तर पर स्वाति का पुत्र सोया हुआ थाश्रमण
ने अन्दर घ ुसते ही यह देख लिया था. वह सीधा पलंग के निकट आ ठिठका. उस नाज़ुक बच्चे
के गालों को अधर स्पर्श कर वह उसे ग ़ौर से निहारता रह गया.
‘क्या हुआ श्रमण... क्या ताक रहे हो एकटक... उसकी मासूम सूरत के उतार-चढ़ाव?’
श्रमण चमत्कृत-सा पीछे घूमा- ‘स्वस्ति, तुम कहना क्या चाहती हो?’
‘वही, जो त ुम समझ रहे हा े.’
‘क्या?’
‘ऐसे भोले भी न बनो. तुम्हें उसकी शक्ल मं े कोई और शक्ल नज़र नहीं आ रही?’
‘क्यो ं नही ं आय ेगी?’ श्रमण ने उत्तर देने की अपेक्षा प्रश्न कर दिया, जिसका उत्तर दोनों को विदित
था. फिर उसका च ेहरा नादान मुस्कराहट स े खिल गया- ‘स्वस्ति, मेर े अंतिम उपहार को सहेज कर
तुमने रूढ़िवादियों को क़रारा थप्पड़ मार दिया है..’ उसने स्वस्ति को गले लगा लिया.
‘उसे अंतिम ना कहो, मेरे सखा!’ उसके अधरों से अपने गीले हो ंठों को ज़रा हटाकर स्वाति ने
गर्विली घोषणा कर दी- ‘मैंने, श्रवण, उन घोंघापंथियों को आधुनिकता का अंगठू ा दिखा दिया है. हम
हारकर भी जीत गये हैं, मेरे प्यार!’ स्वस्ति ने न केवल दोबारा होंठ मिलाय े, बल्कि एक दीर्घ च ुंबन में
उन प्रेमियों ने अपन े होश खो दियेस्वस्ति
ने सो रहे उनके बेटे को बांहों में उठाकर श्रमण को दिया. श्रमण ने भावातिरेक में उसके
ललाट पर अनेक च ुम्मे अंकित करते हुए अपनी छाती से लगाकर उसे अपने स े सटा लिया. बच्चा नींद
में सिहरा, मुस्कराया और अपना मुंह श्रमण के वक्ष से चिपकाकर ज्यों यह कह दिया- ‘हां पापा, मैं
आपका ही वंशज हूं!’
स्वस्ति न े उसे पालने में लिटाया और वे पुनः सर्जनात्मक हुए.
0
(सामयिक प्रकाशन स े लेखक क े शीघ ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘चहकार’ का एक महत्वपूर्ण अ ंश)
--
अशोक गुजराती, बी-40, एफ़-1, दिलशाद कालोनी, दिल्ली-110 095.
सचल: 09971744164. ईमेल: ंेीवाहनरंतंजप07/हउंपसण्बवउ
--
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें