1
कोई तो अपनी सोच-समझ, ख़यालात हों
अपना हुनर अजब हो, गज़ब करामात हों.
वो मन की बात कह चुके,मनमानी कर रहे
अब उनसे मुख़ातिब हमारे सवालात हों.
उनके हर एक झूठ पे बजती हैं तालियाँ
मेरे इक बयाने-हक़ पे मगर फ़सादात हों.
गायब वे सभी नाम उनकी फेहरिस्त से
जिनकी भी उनसे अलग सोच,जात-पाँत हो.
तब तक नहीं सरकारी मदद मिलेगी तुम्हें
जब तक न भारी वजन रखे कागज़ात हों.
रोशन हों शब तमाम उनकी कोठियाँ मगर
क्यों क़ैदे-तीरगी हमारे मकानात हों.
दरकार हमें क्या किसी की कृपादृष्टि की
'महरूम'अपना हाथ ही जब जगन्नाथ हो.
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2
पुरशाद ज़िन्दगी के वो नग़मे सुना रहे़.
अपने ज़हाने-दर्द में हम मुब्तिला रहे.
आमादा बेचने को हैं हर एक विरासत
हर शै को वो बाज़ारू बिकाऊ बना रहे.
करते हो आज तब्सिरा जिस दौरे-वक़्त का
आका ही उससे आपके थे अलहदा रहे.
सत्ता-ओ-सियासत की अंधी दौड़-होड़ में
आवाम को किस अंधकूप में गिरा रहे.
दिन-रात कोसते हो जिन्हें नाम लेके तुम
उनकी ही जमा-पूंजियों को बेच-खा रहे
चूसा किसी ने ख़ून कोई मांस खा गया
अब हड्डियां बची हैं उन्हें तुम चबा रहे.
मसलात- ए-आवाम सभी दरकिनार कर
'महरूम' हिन्दू-मुसलमान को लडा़ रहे .
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3
गाँव, कस्बा,शहर-शहर पानी.
ढा रहा चौतरफ कहर पानी.
पानी-पानी हुयी ज़मीं सारी
घर से बेघर गया है कर पानी.
उसका खूं भी सफेद हो जाये
जिसकी आँखों का जाये मर पानी.
हुआ क़ुरबां वतन की सरहद पर
नाम को कर गया अमर पानी.
पियें न गर तो प्यासे मर जायें
पियें तो कैसे है ज़हर पानी.
आदमी कुछ भी कर गुज़र जाये
जाये जब सर से है गुज़र पानी.
जिधर भी जाये है नज़र 'महरूम'
बेतरह आये है नज़र पानी.
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4
घूमें खुल्ले-आम लुटेरे अस्मत के.
करके चैन हराम लुटेरे अस्मत के.
बंदिश कैसी भी हो देते तोड़ उसे
मचा रहे कुहराम लुटेरे अस्मत के.
खौफ न इनको वर्दी-ओहदों का
रहते बिना लगाम लुटेरे अस्मत के.
पड़ जाते हैं ढीले तब कानून कड़े
बतलाते जब नाम लुटेरे अस्मत के.
रोशनियों में मुँह काला करते
छोड़ के शर्म तमाम लुटेरे अस्मत के.
क़ैद सलाखों के पीछे भी हों चाहे
करते कत्लेआम लुटेरे अस्मत के.
सत्ता और सियासत को भी 'महरूम'
करते हैं बदनाम लुटेरे अस्मत के.
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5
उस पर मेरे यकीं की ज़मी थरथरा गयी.
जब भीड़ बन के मौत मेरे घर में आ गयी
जिसकी जड़ों ने छोड़ दी अपनी ज़मीन ही
ज़रा तेज सी हवा भी वह शज़र गिरा गयी.
शब बह गया बारिश में पीढ़ियों पुराना घर
घर भर में जैसे आंसुओं की बाढ़ आ गयी.
जितना बढ़ी तादाद उनके तरफ़दारों की
उतना दिलों में ज़्यादा फ़ासले बढ़ा गयी.
तस्वीर रखी थी तेरी क़िताबे-याद में
वो हवा-ए-गर्दिशे-उमर ले उड़ा गयी.
आंगन में पंख सेंकती वो धूप की चिड़िया
गरमाई,फुरफुरायी औ छानी पर आ गयी.
अंदाज़-ए-नाहक़बयानी साहिबे-आलम
'महरूम' दिलफरेबों को ज्यादा ही भा गयी.
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6
सब 'ठीक-ठाक' चल रहा है सब को लग रहा.
ये जुमला ठग रहा था तब भी अब भी ठग रहा.
शब सो गयी चरागे-जगाहट बुझा के पर
कोई चरागे-ख्वाब है नींदों में जग रहा.
हर दौरे-वक़्त हमने गुज़ारा है साथ पर
मेरा तुझसे, तेरा मुझसे तज़ुर्बा अलग रहा.
कटता था मैं कितनी दफे नाखून था उसका
तू जिस अनामिका की अंगूठी का नग रहा.
'महरूम' पढ़ें क्यों कशीदे उनकी शान में
अपना ख़िलाफ़े-ज़ुल्मो-ज़बर हर इक पग रहा.
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7
किसी लानत-मलानत का असर उस पर नहीं होता.
कभी भी जगहँसाई का उसे कुछ डर नहीं होता.
किसी की आस्तीं या खाली घर में घुसके आ बैठे
कहावत है कि सांपों का अपना घर नहीं होता.
न कोई जाति,मजहब, कौम होती है गरीबी की
किसी का ग़म किसी से भी कभी कमतर नहीं होता.
जो ओहदे और दौलत के लिये बिकने को आमादा
उन्हें अपनी फ़जीहत का कभी भी डर नहीं होता.
कहीं से भी, कहीं को उड़, कभी भी जा पहुंचती हैं
इनअफवाहों के 'महरूम' पैर,पहिया,पर नहीं होता.
8
रिश्तों का ऋणभार उम्र भर.
हम न पाये उतार उम्र भर.
तुमसे क्या इकरार कर लिया
पाया नहीं करार उम्र भर.
उस संग़दिल को पा लेने का
टूटा न एतबार उम्र भर.
गलबहियों के हार लगे हैं
नाग़वार इक भार उम्र भर.
एक घूंट पीकर हम ग़ाफ़िल
उतरा नहीं ख़ुमार उम्र भर.
एक तार उतरा जो सुर से
बेसुर बजा सितार उम्र भर.
मर्यादा की देहरी 'महरूम'
की न हमने पर उम्र भर.
1315, साईपुरम कॉलोनी,
साइंस कॉलेज डाकघर,
कटनी;कटनी.4843501.म. प्र.
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