सुरेश सर्वेद की कहानी

बीते चालीस वर्षों तक लक्ष्मीनारायण अपने पिता से रुष्ट था। इसका कारण यह था कि उसका नाम लक्ष्मीनारायण क्यों रखा गया। उसका मत था कि लक्ष्मीनारायण उस व्यक्ति का नाम होना चाहिए जो वास्तव में लक्ष्मी का स्वामी हो। जबकि वह इतने दिनों तक मात्र नाम का लक्ष्मीनारायण था।
लक्ष्मीनारायण की गांव में किराने की दूकान थी। उसका लेन . देन साफ था। लोगों का उस पर पूरा विश्वास था। उसके साफ लेन - देन की वजह से आसपास के लोग भी उससे प्रभावित थे और आंख मूंद कर लेन - देन करते थे। लक्ष्मीनारायण शहर से वस्तु लाता। उसे बेचता। लाभ नहीं के बराबर निकालता। गाड़ी . भाड़ा और दो समय की रोटी के लायक ही लाभ कमाता था। लक्ष्मीनारायण के मन में कभी . कभी विचार उठता . वह अन्य व्यवसायियों की तरह मोटा ताजा क्यों नहीं बन पाया । इतने परिश्रम के बावजूद वह बंगला . कार . मोटर का मालिक क्यों नहीं बन पाया । धन भी संचय नहीं हुआ। रईसों का स्विस बैंक में खाता है उसका भारतीय बैंक में भी खाता क्यों नहीं है । इन सारे प्रश्नों का उत्तर ढूंढते . ढूंढते वह परेशान हो जाता।
लक्ष्मीनारायण जब भी शहर जाता। पूरे शहर की पदयात्रा करता। उसके कंधे पर बड़ी . बड़ी थैलियां होती। वह इस दूकान से उस दूकान जाकर सामान खरीदता। वह न तो होटल में खाता और नहीं विश्रांतिगृह में विश्राम करता। घर से निकलते समय उसकी पत्नी गंगोत्री जो भी भोज्य पदार्थ डिब्बे में डाल देती उसे वह खा लेता। कई बार उसकी इच्छा होटल में भोजन और विश्रांतिगृह में विश्राम करने की हुई पर उसकी इच्छा धरी की धरी रह गई। न तो वह पान . तम्बाखू खाता और न ही बीड़ी . सिगरेट फूंकता था। इतने त्याग के बावजूद वह कहने मात्र का व्यापारी था।
दान धर्म उसके जीवन का एक आवश्यक अंग था। कोई भी भिक्षुक उसके दहलीज से खाली हाथ नहीं लौटता। वह सत्यनारायण की पूजा करवाता और यज्ञों में भाग लेता। धार्मिकता की ओर झुकाव का कारण यह था कि वह अब तक पुत्र विहीन था। बिना पुत्र के मोक्ष असंभव है इस पर उसे अटल विश्वास था। वह पुत्र . प्राप्ति के लिए ही धार्मिक आयोजन में रुचि लेता था।
धर्म के प्रति झुकाव के कारण धर्म के ठेकेदार उसके घर पधारते। वे अपनी चिकनी . चुपड़ी बातों के द्वारा उसे फाँसते और मोटी रकम हड़प कर चले जाते। गला . थैली कटवाकर वह धर्म के ठेकेदारों का चरणामृत पान करता।
लक्ष्मीनारायण की पत्नी गंगोत्री उसकी ईमानदारी से चिढ़ी रहती। वह सदैव बाधा उत्पन्न कर देती। लक्ष्मीनारायण उसे ईमान और धरम की परिभाषा समझाता था । भविष्य में इनसे मिलने वाले फलों को बताता पर गंगोत्री की बुद्धि में उसकी बात नहीं समाती थी। गंगोत्री कहती . देखो जी, तुम इस तरह दोनों हाथों से लुटाते रहे तो निश्चय है हमें एक दिन भूखों मरना पड़ेगा''
- तुम व्यर्थ बातें करती हो गंगोत्री ।'' लक्ष्मीनारायण कहता।
- व्यर्थ नहीं सत्य कहती हूं। विश्वास न हो तो आजमा कर देख लो।''
- क्या मिलावट . बेईमानी करुं । नहीं, मुझसे ये सब नहीं हो सकता। मैं लोगों की आँखों में धूल नहीं झोंक सकता।''
- इसमें आँख में धूल झोंकने की क्या बात है । सभी व्यापारी लोगों की आंखों में धूल झोंकते हैं क्या ।''
- अन्य व्यापारी निर्वस्त्र नाचें इससे हमें क्या। मात्र रुपयों के लिए हम अपनी विश्वनीयता नहीं खो सकते।''
- फिर रहो जीवन पर्यन्त फिसड्डी की फिसड्डी। तुम कभी पनप नहीं सकते।''
गंगोत्री की यही भविष्यवाणी होती। लक्ष्मीनारायण उसकी बातों में नहीं आता। गंगोत्री झल्लाकर मौन धारण कर लेती।''
गंगोत्री तब फिर उग्र हो जाती जब लक्ष्मीनारायण दान करता। वह कहती . इन मुसन्डों को क्यों खिलाते . पिलाते हो । हमारी मेहनत की कमाई ये खाये मुझे पसंद नहीं।''
- ओहो, तुम समझती क्यों नहीं। इससे स्वर्ग का रास्ता खुलता है ।'' लक्ष्मीनारायण कहता।
- हूंह, स्वर्ग का रास्ता क्या खाक खुलेगा। हां, हमें भिखमंग्गों की भीड़ को प्रवेश कराने के लिए हमें दो चार दरवाजें और बनवाने होंगे।''
- तुम नासमझ हो,ये भिखमंग्गे नहीं, योगी है ज्ञानी है।''
- खूब समझती हूं, ज्ञानी . योगी हलूवा पूरी देखकर लार नहीं टपकाते।''
इस तरह दोनों में झड़पें होती रहती।
संयोग ही कहा जाए कि जिस वर्ष लक्ष्मीनारायण ने यज्ञ कराया, उसी वर्ष गंगोत्री गर्भवती हो गई। लक्ष्मीनारायण ने इसे यज्ञ की देन माना। पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। लक्ष्मीनारायण ने उसका नाम महायज्ञ रख दिया।
महायज्ञ का रंग लुभावना था। वह चंद्रमा की तरह बढ़ता गया। वह मेहनती निकला। पढ़ाई - लिखाई में भी होशियार था। उसने गांव की माध्यमिक शाला से आठवीं उत्तीर्ण कर ली। अब आगे की पढ़ाई करनी थी। अत: उच्च शिक्षा के लिए शहर चला गया।
शहर की गलियों में कदम रखते ही महायज्ञ को दुनियादारी की बातें मालूम होने लगी। लक्ष्मीनारायण जिन व्यापारियों से वस्तु खरीदता था उसके पुत्रों से महायज्ञ की जान पहचान हो गई। परिचय से मित्रता बढ़ गयी। महायज्ञ को जितने रुपए की आवश्यकता होती लक्ष्मीनारायण तत्काल भेज देता। महायज्ञ मित्रों के साथ भरपूर रुपयों का दुरुपयोग करता। जब लक्ष्मीनारायण को जानकारी हुई तो उसने तत्काल रुपये भेजना बंद कर दिया। अकस्मात् कटौती से महायज्ञ हड़बड़ा गया।
लक्ष्मीनारायण अब महायज्ञ से नाराज रहने लगा। दरअसल उसके कानों तक खबर पहुंच चुकी थी कि महायज्ञ पैसों का दुरुपयोग कर रहा है। वह पढ़ाई - लिखाई में कमजोर होते जा रहा है। वह कुछ - कुछ ऐसा व्यवसाय कर रहा है जिसे अवैध कहा जाता है । एक दिन महायज्ञ के पास जाकर उसे बहुत डाँटा . फटकारा। गंगोत्री को खबर लगी तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुई कि चलो, पति नहीं तो पुत्र तो रुपये कमाने का गुन सीख लिया।
महायज्ञ की बिगड़ती आदत से लक्ष्मीनारायण परेशान रहने लगा। उसकी आदत सुधर जाये यह विचार कर उसने पूजा . पाठ करवाया। दान - दक्षिणा दिया लेकिन महायज्ञ की आदत में परिवर्तन नहीं आया। अब लक्ष्मीनारायण का मन पुन: यज्ञ कराने की ओर गया।
लक्ष्मीनारायण चर्चित आचार्य का पता करने लगा। उन दिनों आचार्य सदानंद की खूब चर्चा थी। लक्ष्मीनारायण उनके चरण कमल में गिर यज्ञ कर देने की प्रार्थना की। सदानंद ने एक लाख रुपये की मांग की। एक लाख की बात सुन कर लक्ष्मीनारायण का कलेजा मुंह में आ गया। वह कुछ कटौती करने गिड़गिड़ाने लगा। आचार्य सदानंद अटल रहे। उन्हें तटस्थ देख लक्ष्मीनारायण अपना सा मुंह लिए वापस लौट गया।
इसकी खबर ग्रामीणों को मिली। लक्ष्मीनारायण सम्माननीय तो था ही ग्रामीणों ने चंदा एकत्रित कर आचार्य को बुलाने की सोची। इससे ग्रामीण भी अपना लाभ समझे कि धर्म के पन्ने पर उनका भी नाम अंकित हो जायेगा।
चंदा की रकम एकत्रित हुई। आचार्य सदानंद को गांव में लाया गया। उनका आदर सत्कार किया गया। उनके साथ चेले . चपाटों की भीड़ थी।
दिन . तिथि बांधी गई और निश्चित दिन से यज्ञ शुरु हो गया। यह यज्ञ सात दिनों तक चला। सातवें दिन आचार्य को दक्षिणा के रुपये दिए गए। इसकी खबर महायज्ञ को लग गई। वह ठीक समय पर गांव पहुंचा और उसने ऐसा नाटक खेला कि पूरा गांव दंग रह गया।
महायज्ञ आते ही आचार्य के चरणों पर गिरा फिर लक्ष्मीनारायण के चरणों पर गिरा। अपने कृत्यों के लिए क्षमा मांगी। कहा . भविष्य में मैं आपकी आज्ञा की अवहेलना नहीं करुंगा।'' लक्ष्मीनारायण ने इसे यज्ञ का प्रताप माना। उसने आचार्य को पांच हजार अलग से दान दिए।''
यज्ञ की अंतिम रात थी। ग्रामीणों ने आचार्य से अनुरोध किया . आप रात भर काट लें, प्रात: चले जाएं।'' बहुत ना . नुकुर के बाद आचार्य रुकने तैयार हुए। ग्रामीणों ने रात में उनसे भजन . कीर्तन सुनने की इच्छा व्यक्त की। पहले आचार्य ने साफ अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे मोटी रकम पा चुके थे। वे चाह रहे थे, तुरंत लौट जाएं। पर ग्रामीणों के बारम्बार अनुरोध ने उन्हें रात रुकने मजबूर कर दिया।
रात्रि का भोजन लक्ष्मीनारायण के घर बनाया गया। आचार्य चेले . चपेटियों के साथ भोजन पर बैठे। गांव के प्रतिष्ठित लोगों ने भी साथ दिया। आचार्य का ध्यान भोजन के समय भोजन पर कम रुपये से भरे बैग पर अधिक था। इसका अनुमान महायज्ञ ने लगा लिया। उसने कहा . आचार्य जी, आपका ध्यान भोजन पर कम, बैग पर अधिक है। आप बैग मुझे दे दीजिए। मैं उसे सुरक्षित स्थान पर रख दूंगा। वापस होते समय लौटा दूंगा।''
आचार्य ने अस्वीकार कर दिया। महायज्ञ चुप हो गया। भोजनोपरांत भजन शुरु हुआ पर आचार्य की स्थिति भोजन के समय की तरह ही थी। अब की बार लक्ष्मीनारायण ने रुपये को सुरक्षित स्थान पर रख देने की बात कही। ग्रामीणों ने भी आग्रह किया। सबकी एक राय सुनकर आचार्य उनकी बात मान गये। उन्होंने रुपये से भ्ारे बैग लक्ष्मीनारायण को दे दिए।
भजन सुबह खत्म हुआ । रात भर सब भजन में इतने भाव . विभोर थे कि उन्हें स्वयं की सुधि नहीं रह गई थी। सूरज की किरणों ने जब ग्रामीणों को स्पर्श किया तो वे आलस्य से भर उठे। उन्हें नींद सताने लगी। वे एक एक कर अपने . अपने घर लौट गए। अंत में आचार्य,उनके चेले, लक्ष्मीनारायण तथा दो . तीन ग्रामीण शेष रह गये।
आचार्य और चेलों ने स्नान . ध्यान किया। उनके लौटने का समय आया तो लक्ष्मीनारायण रुपये वापस लाने तिजोरी के पास गया। तिजोरी खुली पड़ी थी। यह दृश्य देखकर लक्ष्मीनारायण का कंठ सूख गया। वह घबराया आचार्य के चरणों पर गिरा। आचार्य हड़बड़ाये पूछा . क्या बात है लक्ष्मीनारायण....।''
- चोरी ......।'' लक्ष्मीनारायण इतना ही कह पाया।
चोरी की खबर गांव भर फैल में गई। अलसाये ग्रामीणों की निंद्रा उजड़ गई। खोजबीन की गई। अंत में पता लगा . महायज्ञ गांव से फरार है।
आचार्य ने इसे लक्ष्मीनारायण की चालाकी कहा। इससे ग्रामीण आचार्य पर बिगड़े। आखिर उनका लक्ष्मीनारायण की ईमानदारी पर अटूट विश्वास था। आचार्य की मन: स्थिति बिगड़ गई। उल्टा ग्रामीणों ने ही उन्हें चार सौ बीस की उपाधि दे डाली। ग्रामीणों ने आचार्य को चेले . चपाटियों समेत नजरबंदी बना लिया। वे मान बैठे कि आचार्य ने मंत्र के द्वारा महायज्ञ का अपहरण कर लिया है। साथ ही रुपये भी हड़प गये हैं, और पैसे पाने की लालच में आ गये हैं। आचार्य बड़ी आफत में फंसे थे। लक्ष्मीनारायण ने उन्हें फटकारा - मैं कुछ नहीं जानता, मेरा पुत्र वापस लाओ वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा ।''
आचार्य पर संकट का पहाड़ टूट पड़ा था। साथ ही चेलों पर भी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस पहाड़ को कैसे हटाया जाए । आचार्य ने ग्रामीणों से अनुरोध किया . पहले आसपास के गांव व महायज्ञ जिस शहर में पढ़ता था वहां पता कर लो फिर हम पर दोषारोपण करो।''
ग्रामीणों ने ऐसा ही किया। आसपास के गांव का चप्पा . चप्पा छाना गया। शहर के कोने . कोने में पता लगाया गया। यहां तक कि लक्ष्मीनारायण के संबंधियों के घर भी पता लगाया गया पर महायज्ञ नहीं मिला। अब ग्रामीणों को पूर्ण विश्वास हो गया कि महायज्ञ को आचार्य ने ही अदृष्य किया है।''
ग्रामीणों ने जिनका चरणामृत पान किया था उन्हें ही उल्टा . सीधा कहने लगे। उन्हें लातें मारी, दाढ़ी . मूंछ खींची। उन पर खूब अत्याचार किया गया। आचार्य तथा उनके चेले . चपाटे किसी तरह प्राण बचाकर वहां से भागे....।
इस घटना के कुछ वर्षों बाद महायज्ञ का एक पत्र आया। उसमें उसने अपनी उन्नति के संबंध में लिखा था। पत्र पढ़कर लक्ष्मीनारायण अचम्भित रह गया कि उसका पुत्र क्या से क्या बन गया। उन्नति के शिखर पर कैसे चढ़ गया । उसे पत्र पर अविश्वास हुआ लेकिन जब अपनी आंखों से देखा तो विश्वास करना पड़ा।
वास्तव में महायज्ञ बहुत विकास कर चुका था। उसके पास नौकर . चाकर थे। आवास के लिए भवन हो गया था। चार पहिया गाड़ी हो चुकी थी। वह करोड़पति बन बैठा था। लक्ष्मीनारायण ने उसके विकास के रहस्य को जानना चाहा पर महायज्ञ ने नहीं बताया।
दीपावली की रात्रि लक्ष्मीनारायण ने धनलक्ष्मी की खूब पूजा . अर्चना की। उसे प्रसन्न करने मेवा . मिष्ठान्न चढ़ाया। लक्ष्मी उसके सेवा भाव से प्रसन्न हो प्रकट हुई। लक्ष्मीनारायण ने हाथ जोड़ कर पूछा . हे लक्ष्मी मां ! मुझसे ऐसा अन्याय क्यों, मैंने जी - जान से सदैव तुम्हारी सेवा की पर तुमने मुझ पर कोई ध्यान नहीं दिया। आखिर मेरी गलती क्या है, मां। मुझसे नाराजगी क्यों ।''
- वत्स, तुम व्यापारी अवश्य हो लेकिन तुममें व्यापारिक गुण नहीं। इसीलिए मैं तुम्हारे घर प्रवेश नहीं कर सकी। और तुम ज्यों की त्यों रहे ।'' लक्ष्मी ने उत्तर दिया।
- तुम क्या कह रही हो मां, मुझमें कौन सा व्यापारिक गुण नहीं है।''
- तुम्हारे पुत्र को देख लो। मैंने सिर्फ कुछ ही वर्षों में उसे क्या से क्या बना दिया। मुझे पाने के लिए ईमानदारी नहीं, बेईमानी चाहिए। शुद्धता नहीं मिलावट चाहिए।''
- क्या ....।'' लक्ष्मीनारायण की आंखें फटी रह गई। मुंह आश्चर्य से खुला रहा गया।
- आश्चर्य में मत पड़ो वत्स, विश्वास करो। तुम मेरे बताए पथ पर चल कर तो देखो ....।'' और लक्ष्मी अदृष्य हो गई।
लक्ष्मीनारायण का होश ठिकाने पर आ गया था। वह धनलक्ष्मी के बताये पथ पर चलने लगा। उसके घर लक्ष्मी की बरसात शुरु हो गई। ग्रामीणों को लक्ष्मीनारायण पर पूरा विश्वास था। इसका लक्ष्मीनारायण ने भरपूर लाभ उठाया ....।
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