आज के रचना

उहो,अब की पास कर गया ( कहानी ), तमस और साम्‍प्रदायिकता ( आलेख ),समाज सुधारक गुरु संत घासीदास ( आलेख)

रविवार, 7 अप्रैल 2013

आशा से आकाश थमा है

सुरेश सर्वेद की कहानी


विजया अनुविभागीय अधिकारी के पद पर नियुक्त हुई तो वह प्रसन्नता से खिल उठी। उसने प्रयास करने के बाद भी नहीं सोची थी कि वह अनुविभागीय अधिकारी बन जायेगी। वह इतना प्रसन्न हुई कि अमित को भी भूल गई। यह वही अमित था जिसने उसे पढ़ाई के साथ - साथ प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने सदैव उत्साहित किया।
विजया अपने कार्य में व्यस्त हो गई। जब उसने पद भार ग्रहण किया तो उससे पुरुष अधिकारी वर्ग मिलने आने लगे। उसे शुरु - शुरु में थोड़ा संकोच हुआ फिर वह उस माहौल में ढलती चली गई। कुछ ही दिन बाद वह बेहिचक महिला या पुरुष अधिकारी से मिलने लगी।
जिन दिनों विजया को अनुविभागीय अधिकारी का पद मिला, उन्हीं दिनों अमित का स्थानांतरण अन्यत्र हो गया था । वह स्थानांतरण रुकवाने के चक्कर में विजया से मिल नहीं पाया। व्यवस्थित होने के बाद वह विजया से मिलने गया।
पूर्व में विजया,अमित को देखकर चिहुंक उठती थी।अब उसमें गंभीरता आ गयी थी। वह पूर्व की भांति चिहुंकने के बजाय अमित से बैठने का आग्रह करते हुए पूछा - बहुत दिन बाद आये। कहां चले गए थे ।''

विजया की गंभीरता को देखकर पहले तो अमित को लगा था.उसने यहां आकर ठीक नहीं किया। पर विजया के प्रश्न ने उसे राहत दी।हालांकि विजया ने सामान्य प्रश्न किया था पर अमित को लगा वह शिकायत कर रही है। नाराजगी व्यक्त कर रही है।उसने बताया - '' मेरा स्थानांतरण आदेश निकल गया था। उसे रुकवाने के चक्कर में तुमसे नहीं मिल सका। तुम मुझसे नाराज तो नहीं।''

- इसमें नाराजगी क्यों।''

अमित जब एक - दो दिन नहीं मिलता तो विजया उससे नाराज हो जाती। उसे मनाना पड़ता मगर आज महीनों बाद भी मिलने पर नाराज न होकर वह सहजता से न मिलने को ले रही थी। विजया के शब्द में वह अपनत्व दिखाई नहीं दे रहा था जो पहले दिखाई देता था। अमित को उस दिन का स्मरण हो आया जब उसका स्थानांतरण जबलपुर हो गया था, तब विजया की आंखें छलछला आयी थी। अमित को दूर भेजते हुए उसने प्रश्न किया था - अमित तुम मुझसे दूर जाकर मुझे भूल तो नहीं जाओगे।''

- नहीं, मैं तुम्हें कैसे भूल जाऊंगा ! हमें तो एक साथ जीवन जीना है।'' अमित ने उसकी आंखों के आंसू पोंछते हुए कहा।

तब से शुरु हुई पत्र की कड़ी। अमित चाह कर भी विजया के पास मिलने नहीं आ पा रहा था मगर वह पत्र में बराबर विजया को पढ़ाई करने और प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने कहता रहा। इसी का ही परिणाम था कि विजया आज प्रतियोगी परीक्षा में न सिर्फ सफल हुई अपितु वह अनुविभागीय अधिकारी भी बन गई । पूर्व के व्यवहार और वर्तमान व्यवहार में अमित को असमानता नजर आ रही थी बावजूद इसके उसने कहा - '' विजया, अब तुम्हारी भी नौकरी में लग गयी। क्यों न हम एक हो जाए।''
- हम आखिर अलग हुए ही कब है....।'' विजया का कहना था।

अमित को अच्छा लगा। उसने कहा - मेरा मतलब हम शादी कर एक हो जाए....।''
- अमित तुम्हारा कहना ठीक है पर इतनी जल्दी भी क्या है। मुझे आगे का पद प्राप्त करना है, बाद में इस संबंध में विचार करेगे।''

विजया के शब्दों में इंकार और स्वीकार का सम्मिश्रण था। इंकार और स्वीकार के इस शब्द में अमित को इंकार का भाव भारी लगा। वह वापस लौट गया। उसने दूसरी लड़की से शादी कर ली। इसकी सूचना भी उसने विजया को नहीं दी।

समयचक्र चलायमान था। विजया पूर्व में युवा थी। वह सामान्य जीवन से हटकर विशिष्ट जीवन जी रही थी। पद की महत्वाकांक्षा ने उन्हें अपने ही जीवन के विषय में कुछ सोचने नहीं दिया। समय कब सरका और उसने प्रौढ़ावस्था में कब कदम रखी, इसका भी अनुभव वह नहीं कर पाई।

जब वह युवा थी तब वह सोचती रही - मुझसे विवाह करने अनेक वरिष्ठ अधिकारी और उच्चवर्गीय पुरुष हाथ बढ़ाएंगें। लेकिन सब उनसे शिष्टाचार का व्यवहार करते। किसी ने यह साहस नहीं कर पाया कि वह विजया से नजदीकियां बढ़ाए और उसका हाथ मांगे।

विजया के कार्यालय में अक्सर महिला और पुरुष कर्मचारियों में छीना झपटी होती रहती।वे जान बूझकर एक दूसरे के शरीर को स्पर्श करते विजया ने पहले ऐसे कई दृश्य देखे पर उसने इन पर ध्यान हीं दिया,लेकिन उम्र के उतार ने उनका ध्यान इस ओर केन्द्रित कर दिया।

उस दिन कार्यालय बन्द करने का समय था। विजया अपने कार्यालय में बैठी थी। दूसरे कमरे से खिलखिलाहट की आवाज आयी। उस हंसी में स्वच्छंदता और उन्मुक्तता थी। हंसी ने विजया को अपनी ओर खींचा। विजया उस कमरे की ओर गई। उसने देखा - वहां रजनी और विकास थे। रजनी मुंह फूलाए थी,विकास उसे मना रहा था। रजनी मुंह बिचका रही थी मगर इस व्यवहार में न इंकार था और न घृणा थी अपितु प्रेम था। अपनापन था। इस प्रणय दृश्य ने विजया के ह्दय की धड़कन को बढ़ा दी। वह आगे का दृश्य नहीं देख सकी। वह अपने निवास में आ गई।

आज का दृश्य उनकी आंखों के सामने बार - बार आ रहा था। वह भावनात्मक अनुभूति से इतना उद्धेलित हो गई कि अपने शरीर पर विकास के हाथ का स्पर्श महसूस करने लगी। विजया दिन रात मानसिक उलझन में फंसी रहने लगी।उसे अक्सर अमित की याद आने लगी। वह एकांकी जीवन से उब चुकी थी। वह पारिवारिक जीवन जीने लालायित हो गई। वह अपने अहम को त्याग कर अमित से मिलने चल पड़ी।

अमित ने सामने विजया को देखा तो क्षण भर आश्चर्य में पड़ गया। वह सामने समर्पण भाव से खड़ी थी। विजया अमित की स्थिति को देखा,उनने पूर्व के अमित से मिलान किया। जो अमित ह्ष्ट.पुष्ट और आकर्षक था। अब वह जर्जर हो चुका था। उसके शरीर से हड्डियां झांक रही थी। उसकी शारीरिक स्थिति देखकर विजया दर्द से कराह उठी। कुछ क्षण वे पूर्व की यादों में उलझे रहे। विजया ने यादों से उबरते हुए कहा - अमित, उच्च पद की गरिमा और उच्च स्तरीय जीवन ने मुझे भ्रमित कर दिया। मुझे मान - सम्मान मिलता रहा तो मैंने स्वयं को अंधेरे में धकेल दिया। मैं अब तक अकेली हूं,मैं तुम्हारा साथ चाहती हूं।''

अमित की आंखों के सामने एक साथ कई बिजलियां कड़की। उसकी आंखों के सामने दिवंगत पत्नी सुषमा का चेहरा घूम आया। उसने एक बच्चें को जन्म देने के बाद इस संसार से विदा ले लिया था। सुषमा की मृत्यु हुई कि अमित रोगग्रस्त रहने लगा, स्थिति यहां तक पहुंची कि उसकी पौरुष क्षमता लगभग क्षीण हो गई।

अमित ने अपनी विवशता विजया के समक्ष रखी,तभी एक बालक दौड़ते आया। यह अमित का पुत्र आस्तिक था। अमित ने उसे अपनी गोद में ले लिया। आस्तिक ने विजया पर प्रश्न की दृष्टि टिका दी। अमित ने कहा - बेटा, यह विजया आंटी है। इसे नमस्ते करो।''

आस्तिक ने दोनो हाथ जोंड़कर ' नमत्ते ' कहा। उसकी तोतली भाषा और चंचलता ने विजया को प्रभावित किया। वह आस्तिक के पास पहुंची। उसे उठाया और सीने से लगा लिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें