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रविवार, 7 अप्रैल 2013

छन्नू और मन्नू

सुरेश सर्वेद की कहानी .



श्रीकांत को नये बैल खरीदने थे। वह आमगांव का बाजार गया। वहां उसने प्रत्येक . दावन . पर बैलों को देखा.परखा। निमेष के दावन में बंधे बैल उसे पसंद आ गये। बैलों के रंग धवल और शरीर भरा पूरा था । बैल व्यापारी निमेष ने बैलों की कीमत बीस हजार बतायी। कहा - '' इन्हें खरीद कर तो देखो ऐसे बैल कहीं नहीं मिलेंगे।''
श्रीकांत निमेष की बात से सहमत था। वह कीमत कम करवाने के चक्कर में था। निमेष ने छन्नू नामक बैल की पीठ ठोंकी। उसकी पूंछ ऐंठी। छन्नू ने ऊपर की ओर उचक कर अपनी फुर्ती दिखायी। निमेष ने पास ही बंधे बैल को मात्र स्पर्श किया। वह दोनों पैरों से खड़ा हो गया। निमेष ने कहा - '' इसका नाम मन्नू है। इन दोनों की पटती भी खूब है। अलग.अलग बाँध दूं तो दावन तोड़ देते हैं।''.
श्रीकांत की पारखी आंखों ने बैलों की कार्यक्षमता को भांप लिया था । मोल भाव हुआ और निमेष ने सोलह हजार में '' दावन ''  ठोंक दी।
श्रीकांत ने रुपये गिने और बैलों को लेकर गाँव की ओर चल पड़ा। छन्नू - मन्नू लम्बे - लम्बे डग भर रहे थे। श्रीकांत का उनके साथ चलना असंभव हो गया। उसने कांसरा बैलों के गले में लपेट दिया। रास्ते में भाटागाँव पड़ा। एक स्थान पर कुछ व्यक्ति खड़े थे। उन्होंने बैलों को देखकर पूछा - '' ये बैल कहाँ से ला रहे हो कितने में खरीदा । ''
- आमगाँव के बाजार से, पूरे सोलह हजार पड़े हैं।'' श्रीकांत का उत्तर था।
- सस्ते में पा गये।'' दूसरे ने कहा।
- सस्ते में कहाँ,सोलह हजार यहीं पर पड़े तो नहीं है।'' श्रीकांत ने हंसकर जवाब दिया।
- चिंता क्यों करते हो । ये सोलह के बत्तीस हजार कमा कर साल भर में ही दे देंगे।'' ग्रामीणों ने भविष्यवाणी भी कर दी।
ग्रामीणों के प्रश्नों का उत्तर देते श्रीकांत का मुंह नहीं थक रहा था। उसकी स्वयं की इच्छा थी - लोग बैलों के विषय में पूछते रहे। और वह उत्तर देता रहे।
श्रीकांत को गाँव पहुंचने की जल्दी थी। गांव के करीब पहुंचते ही उसने बैलों का कांसड़ा संभाल लिया। लोगों ने बैल देखे तो देखते ही रह गये। घर के दरवाजे पर पहुंचते ही श्रीकांत की पत्नी सुनंदा लोटा भर पानी ले आयी। दरवाजे में ओरछी। आरती लायी। बैलों की आरती पूजा की। उनके माथे पर चांवल गुलाल लगाया। नारियल तोड़ा। लोगों को प्रसाद दिया। फिर बैलों को आंगन में ला खूंटे से बांध दिया। उनके सामने हरी - हरी घास डाली। बैल घास खाने लगे।
अनेक ग्रामीण बैल देखने आये थे। उनमें से कुछ को प्रसन्नता हो रही थी तो कुछ को जलन। ग्रामीणों ने श्रीकांत से नये बैल खरीदने के उपलक्ष्य में पार्टी देने को कहा। श्रीकांत के कहने पर सुनंदा व्यंजन बनाने भिड़ गयी। अभी ग्रामीण बैल देख ही रहे थे कि अमित आया। उसने मनीष से कहा - तुम यहां श्रीकांत के बैल देख रहे हो और उधर तुम्हारी गाड़ी नाले में फंस गयी है। तुम्हारे बैल गाड़ी को खींच नहीं पा रहे हैं।''.
- तो दूसरों के बैल मांग कर क्यों नहीं ले जाते ।'' मनीष ने कहा।
- गाँव के प्राय:सभी बैलों से कोशिश की जा चुकी है पर गाड़ी टस से मस नहीं होती।'' अमित का उत्तर था।
मनीष ने श्रीकांत से कहा - श्रीकांत , तुम अपने बैलों को दे दो। उनकी कार्यक्षमता की परीक्षा भी हो जायेगी।
- नहीं रे भइया, ये अभी थके हैं। इन्हें सुस्ताने दो।'' श्रीकांत ने कहा।
- तो क्या इन्हें दिखाने लाये हो। लगता है ये भी गाड़ी को नहीं खींच पायेंगे।''
श्रीकांत को यह बात चुनौती जैसी लगी। उसने बैलों को खोल दिया। बैलों को नाले के पास ले जाया गया। गाड़ी में धान भरा था। वह नाले में चढ़ते समय अटक गयी थी। बैलों को गाड़ी में जोता गया।
बैल एक दो पग चढ़ते कि फिर पीछे हो जाते। मनीष को अवसर मिला उसने कहा - तुम्हारे बैलों का कार्य दिख गया। थोड़े से चढ़ाव को भी पार नहीं कर पा रहे हैं।''
छन्नू - मन्नू को क्रोध आया। उन्होंने सामने के पैरों के घुटने को मोड़ा। पीछे के पंजों से बल दिया फिर सामने के पैरों को शीघ्र उठाया और आगे की ओर चल पड़े। वे हांफने लगे। उनके मुंह से झाग निकलने लगा मगर उन्होंने गाड़ी ऊपर खींच ही ली। मनीष को बैलों को शाबाशी देनी थी। पर वह कुछ कह नहीं पाया। उसने बैलों की परीक्षा लेनी चाही थी। बैल उसमें सफल हो गये थे। मनीष ने उनकी कार्यक्षमता स्वीकार ली थी।
श्रीकांत ग्रामीणों सहित अपने घर आया। भोजन तैयार हो चुका था। पहले दो थालियों में निकाल कर छन्नू - मन्नू को दिया गया फिर ग्रामीण पेट भर खाये।
श्रीकांत प्रतिदिन प्रात: उठते ही बैलों को दानापानी देता। उनके सामने हरी - हरी घास डालता। दोपहर को तालाब ले जाकर रगड़ -  रगड़ कर नहलाता। प्रात: संध्या कोठे को साफ करता। मच्छर देखता तो कंडा जला कर उसे भगाता। कभी आलस्य के कारण छन्नू या मन्नू सुस्त दिखते तो श्रीकांत तुरंत पशुचिकित्सक को बुला लाता। जब तक छन्नू मन्नू फुर्ती नहीं दिखा देते तब तक श्रीकांत का मन अस्थिर रहता।
उस दिन श्रीकांत बाहर गया था। बैलों की देख भाल की जिम्मेदारी सुनंदा पर आ गयी थी। सुनंदा बैलों को घास देने गयी। अचानक छन्नू के पैर से सुनंदा का पैर दब गया। सुनंदा बिलबिला गयी। वह छन्नू को गालियाँ देती हुई घास वापस ले गयी। मन्नू को छन्नू पर क्रोध आया। उसने कहा - अब मरो भूखे। एक तो मालकिन हमारी सेवा करती है और तुमने उसे चोंट पहुंचा दी।''
- तुम तो गलत अर्थ लगा बैठे यह तो धोखे से हुआ।'' छन्नू ने कहा।
- झूठ, मुझसे धोखा क्यों नहीं हुआ''
छन्नू ने अपनी सफाई दी। लेकिन मन्नू पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। छन्नू ने अपनी लापरवाही के लिए क्षमा माँगी मगर मन्नू रुठा ही रहा।
दोपहर बीत गयी थी। छन्नू - मन्नू को न पानी मिला था न घास। क्षुधांतुर छन्नू ने मन्नू से कहा - मित्र मुझे जोरों की भूख लगी है। अब तो मान जाओ। मालकिन मुझसे नाराज है। तुम्हीं घास माँगो।''
बहुत विनय - अनुनय करने पर मन्नू माना। वह हम्मा - हम्मा चिल्लाने लगा। जिसका अभिप्राय सुनंदा समझ गयी। उसने कहा - मरो भूखे,मैं घास नहीं दूंगी यानि नहीं दूंगी।''.
यह निश्चय हो गया कि श्रीकांत के आये बिना उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। वे मनौती मनाने लगे कि श्रीकांत जल्दी आये।
संध्या समय श्रीकांत आया। वह आते ही सीधा बैलों के पास गया। बैल मुंह लटकाये बैठे थे। श्रीकांत घबरा गया। उसने छन्नू को सहलाते हुए पूछा - तुम चुपचाप क्यों बैठे हो। तुम्हारी तबियत तो खराब नहीं।''
जिसकी गलती के कारण उन्हें अब तक भूखे रहना पड़ा था उसी को सहलाते देख मन्नू को क्रोध आया। उसने जोर से अपना सिर हिलाया। श्रीकांत ने उसे पुचकारा कहा - इतनी नाराजगी क्यों, मालकिन ने तुम्हें तंग तो नहीं किया ?''
श्रीकांत ने कोठे पर दृष्टि दौड़ाई। वहाँ घास नहीं दिखी। कोटने को देखा। उसमें पानी नहीं था। श्रीकांत ने सुनंदा को आवाज दी। सुनंदा लंगड़ाती हुई आयी। श्रीकांत ने पूछा - क्या तुमने इन्हें खाने को कुछ नहीं दिया ?''
- नहीं, घास डालने गयी तो इसने मेरे पैर को चोट पहुंचायी।'' सुनंदा ने छन्नू की शिकायत की।
श्रीकांत उल्टा सुनंदा पर गुस्सा हो गया। कहा - तुम्हें थोड़ी सी चोट क्या लगी, इन्हें कठोर दंड देने पर उतारु हो गयी। तुम बड़ी क्रूर हो।''.
सुनंदा चुपचाप लौट गयी। श्रीकांत ने घास लाकर डाली। बैलों से खाने को कहा। बैल स्थिर रहे। पानी दिखाया। उस पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं। श्रीकांत ने बैलों से कहा - अगर तुम नहीं खाते तो मैं भी भूखा रहूंगा।''
मन्नू ने छन्नू की ओर देखा। वे एक दूसरे की भाषा समझ गये कि देखते हैं यह कब तक नहीं खायेगा ?'' .
भोजन तैयार हो चुका था। सुनंदा ने श्रीकांत को भोजन करने आवाज दी। श्रीकांत चुपचाप बैठा रहा। छन्नू - मन्नू ने श्रीकांत की प्रतिज्ञा को साकार करते देखा तो एक दूसरे से कहा -  मालिक हमसे बेहद प्यार करते हैं। हमें खा लेना चाहिए,वरना ये भूखे ही रहेंगे। छन्नू -  मन्नू घास पर टूट पड़े। श्रीकांत प्रसन्न हो भोजन करने चला गया।
उस दिन अमित आया। श्रीकांत को चुपचाप बैठे देखकर कहा - श्रीकांत,तुम यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे हो। बजरंगपुर में '' बैल दौड़ '' प्रतियोगिता है। वहां छन्नू - मन्नू को ले चलो।''
- बजरंगपुर में एक से एक बढ़कर बैल आते हैं। वहां हार गये तो मेरी नाक कट जायेगी।''
आवाज छन्नू - मन्नू तक पहुंची। उन्हें श्रीकांत की अविश्वनीयता पर क्षोभ हुआ। उन्होंने हुंकार भरी। पैरों से जमीन को खुरचा और सिर को हिलाये। अमित ने बैलों की प्रतिक्रिया भांप ली। श्रीकांत से कहा - श्रीकांत, तुम यहां पीछे हट रहे हो। तुम्हारे बैल प्रतियोगिता के लिए उतावले दिख रहे हैं।''
श्रीकांत का बैलों पर विश्वास जम गया। वह बैलों को लेकर प्रतियोगिता में भाग लेने चला गया। प्रतियोगिता शुरु हुई। बैल जोड़ी मैदान में आयी। सीटी बजते ही बैल मालिक बैलों को दौड़ाने लगे।
छन्नू - मन्नू अन्य बैलों से बहुत पिछड़ गये थे। श्रीकांत को उन पर क्रोध आया। उसने कहा - आखिर तुमने मेरी नाक कटवा ही दी न !''
मन्नू ने छन्नू को आँख मारी। दोनों की चाल बढ़ गयी। श्रीकांत उनके साथ दौड़ने में असफल हो गया। वह घिसट कर गिर गया। कांसड़ा उसके हाथ से छूट गया। छन्नू - मन्नू निश्चित स्थान पर सबसे पहले पहुंचे। अमित ने श्रीकांत से कहा - तुम्हें बैलों पर विश्वास नहीं था। ये तो प्रथम पुरस्कार पा गये। इस खुशी में मुंह मीठा कब कराओगे ।''
श्रीकांत मुस्कराने लगा।
दिन सरके। छन्नू -  मन्नू को श्रीकांत के घर आये दस वर्ष हो गये। उनकी पसलियां चमड़े से ऊपर जा चुकी थी। आंखें धंस गयी थी। श्रीकांत नये बैल खरीदने के चक्कर में था मगर अरुण के कहने पर वह ट्रेक्टर खरीद लाया।
अब खेतों की जुताई,फसलों की मिंजाई एवं समानों की ढुलाई ट्रेक्टर से होने लगी। छन्नू - मन्नू को एक कोठे में छोड़ दिया गया। वहां गंदगी का साम्राज्य था।
छन्नू - मन्नू गंदगी के बीच थे। उनके अंग कीचड़ से सन चुके थे। पूंछ में मिट्टी का गोल बंध गया था। पूंछ हिलाना भी उनके लिए कष्टदायक था। महीनों से उन्हें नहलाया नहीं गया था। उनके शरीर में जुंए के छाते बन गये थे। मच्छर उन्हें क्षण भर भी चैन की सांस नहीं लेने देते थे।
छन्नू - मन्नू देखते - '' जो खर्च उनके दानापानी के लिए किया जाता था,वह ट्रेक्टर के डीजल के लिए हो रहा है। पहले उनकी बीमारी को दूर करने चिकित्सक आता किंतु अब मिस्त्री बुलाया जा रहा है। जो मालिक दिन रात उनकी सेवा करता,वह ट्रेक्टर के पीछे पागल है।''
मन्नू की जिव्हा नीली पड़ गयी थी। उसे '' तड़कफाँस '' की बीमारी हो गयी थी। वह घास खाने में असमर्थ हो गया था। भूखे होने के कारण वह निढाल पड़ गया । छन्नू उसे चाटता रहता। एक दिन मन्नू मर गया। मन्नू के मृत शरीर को निर्ममता पूर्वक घसीटकर निकाला गया। यह देखकर छन्नू की आत्मा रो पड़ी।
छन्नू - मन्नू एक साथ जीवन जिये थे। सुख - दुख साथ काटे थे। अब कोठे में छन्नू अकेला रह गया था। अविस्मरणीय यादों ने छन्नू को पागल सा बना दिया था। वह बार - बार उठता बैठता। कभी दरवाजे तक आता तो कभी कोने में विचलित खड़ा रहता। वह कोठे में स्वयं से लड़ रहा था।
गांव में कालू आया था। वह कम कीमत पर बूढ़े अशक्त और अपंग जानवरों को खरीदता। उन्हें बूचड़खाने में बेच आता। आय होती उससे अपनी जीविका चलाता। श्रीकांत ने सोचा - छन्नू को उसके पास बेच ही दूं। यह घर में पड़े - पड़े धन तो देगा नहीं। हाँ , पैरा भूसा में रुपये व्यर्थ खर्च हो जाते हैं। श्रीकांत कालू को बुला लाया। छन्नू को देखकर कालू ने उसकी कीमत एक हजार आंकी। सौदा तय हुआ और श्रीकांत पन्द्रह सौ रुपये में छन्नू को बेचने तैयार हो गया।
श्रीकांत को कालू ने रुपये दिये। वह छन्नू के पास आया। छन्नू बैठा था। कालू ने उसकी पूंछ ऐंठ कर उठाना चाहा। छन्नू बैठा ही रहा। कालू ने छन्नू पर प्रहार करने मोटी लाठी उठाई ही थी कि श्रीकांत की आंखों के सामने वे सारे दिन घूम आये जो उसने छन्नू मन्नू के साथ काटे थे। श्रीकांत को लगा - वह स्वार्थ में इतना अंधा हो गया कि अपने अशक्त निर्बल लाचार बाप को कसाई के हाथ बेच रहा है। लाठी छन्नू पर गिरती इससे पूर्व ही श्रीकांत ने उसे रोक दिया। कालू अवाक रह गया। श्रीकांत ने कहा- कालू,तुम मुझे भले ही बेईमान कहो पर मैं छन्नू को नहीं बेचूंगा । ये रखो तुम अपने रुपये --------।
और उसने पन्द्रह सौ रुपये कालू को लौटा दिये।

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