ईरानी कहानी
नुसरत मासूरी
1960 ई. में तेहरान में पैदाहश, खोर्रमाबाद से अंग्रेज़ी अदब की डिग्री ली। पत्र- पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
अनुवाद - सुरेश सलिल
उसने चादर से पेट ढँक लिया। नर्स ने कहा, मैं जल्दी ही तुम्हें सुला दूँगी, फिर कुछ भी तुम्हें महसूस नहीं होगा।
कितना वक़्त लगेगा? बेड पर अपनी टाँगें मोड़ते हुए उसने पूछा।
हद से हद पंद्रह मिनट। छोटा-सा तो है, जल्दी ही सब कुछ हो लेगा।
हाँ छोटा-सा ही है। बहुत छोटा-सा।
उसे डॉक्टर आता दिखाई दिया, सफ़ेद वर्दी में। हाथों में दस्ताने और चेहरे पर सफे़द नक़ाब।
सब्ज़ पुतलियों वाली सिर्फ़ दो आँखें भर नज़र आती थीं उसके चेहरे पर। हाथ में वह एक सलाई लिये हुए था।
उसके पेट की मांसपेशियाँ तन गईं।
क्या डर लग रहा है?
कुल जमा इक्कीस दिन का है।
सियह तो अच्छी बात है। आसानी से निकल जाएगा। ज़्यादा दिन का होता, तो ज़्यादा मुश्किल होती।
उसे अपने भीतर सलाई की नोक से होने वाली जलन महसूस हुई। सिहर उठी वह, और हाथ की उँगलियाँ भिंच गईं। लगा, उँगलियों के नाख़ून गदेली में घुस जाएँगे।
कंधे पर उसने अपने आदमी के हाथ का दबाव महसूस किया। कुछ नहीं, कुछ नहीं डियर!
बस्स, थोड़ा-सा बर्दाश्त कर लो! आदमी की नीलगूँ सब्ज़ पुतलियाँ आँखों में इधर-उधर चल रही थीं।
डॉक्टर के क्लीनिक के भारीपन में वह घुटन से भर उठी। दरवाज़े की संध से उसने डॉक्टर को देखा। वह बरामदे में चला गया था और चमेली के झाड़ की बग़ल में खड़ा था।
उसने आदमी की तरफ़ उड़ती नज़र देखा और अपना हाथ पेट पर रखा। आदमी ने कहा, मैंने कहा न, उस तरफ से ध्यान हटा लो! हालाँकि मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारे लिए मुश्किल है।
उसने अपना चेहरा घुमा लिया। डॉक्टर चमेली की फूल सूंघ रहा था। नीलगूँ सब्ज़ पुतलियाँ उसकी आँखों में तेज़ी से इधर-उधर हो रही थीं। इधर कमरा घुटन से भरा था।
नर्स ने उसके माथे का पसीना पोंछा और आदमी से मुख़ातिब होकर कहा, सर, प्लीज़ आप बाहर जाइए।
उसने देखा कि डॉक्टर ने टेन्न् में से कुछ औजार उठाये और उन्हें उसके भीतर डाल रहा है। उसे कोई दर्द नहीं महसूस हुआ। बेड के सिरे पर की रोशनी उसकी आँखों को परेशान कर रही थी। बाक़ी कमरा अँधेरा था। बाहर चलती हवा की सरसराहट उसे सुनाई दे रही थी। दरख़्त की शाख़ों की आपसी भिड़ंत भी। दो सब्ज़ आँखें उसके भीतर ख़ूँरेज़ी में मशग़ूल थीं, जिसकी ताईद सफ़ेद दस्तानों का सुर्ख़ रंग कर रहा था। लग रहा था जैसे कोई भारी वज़न उसके भीतर से लटक रहा है।
दरवाज़े की संध से उसने दरख़्तों का झुकना-झूमना देखा। उनका शोर भी उसे सुनाई दे रहा था। पसीने की एक बूँद उसके चेहरे से ढुलकी और उसकी आँखों की पलकें भारी हो उठीं।
नर्स ने पूछा, क्या गर्मी महसूस हो रही है?
उसने सिर हिलाया। लगा कि उसके जिस्म को बेतरह खींचा जा रहा है। यह खिंचाव तब तक जारी रहा जब तक यक्-ब-यक् उसे छोड़ नहीं दिया गया। लगा, सिर घूम रहा है और वह किसी कुएँ
में गिरने-गिरने को है। वह हवा को पकड़ने की कोशिश कर रही थी और गिरती भी जा रही थी।
तक़रीबन सब कुछ निबट गया। बस्स थोड़ा-सा और अपने को साधे रहो।
उसने आँखें खोलीं। दो सब्ज़ रोशनियाँ आँखों में चुभती-सी महसूस हुईं। देखा, डॉक्टर का हाथ उसके अंदर दाखिल हो रहा है। उसने सुर्ख़ नाड़ियाँ लटकती कोई चीज़ बाहर निकाली। उँगलियों की चुटकी से पकड़े वह उसे देख रहा था।
डॉक्टर का कहना है कि बस्स, ख़ून का एक थक्का ही तो है... ख़ून का एक थक्का, बस्स।
आदमी की आवाज़ उसके कानों से टकराई।
डॉक्टर नर्स से बातें कर रहा था। हँसते हुए बातें कर रहा था। उस हँसी की आवाज़ से उसके कान पुर गये। वह किसी पहाड़ पर चढ़ रही थी और वे आवाज़ें उस पहाड़ पर गूँज रही थीं। रुक कर उसने चारों ओर का जायज़ा लिया। आवाज़ें उसके सिर पर चोटों पर चोटें किये जा रही थीं। अब वह अपने आप से अलहदा हो गई थी। कुछ और ही हो गई थी। एक कराह सुनाई दी, जिसे सुनकर उसकी आँखें खुल गईं। नर्स उस पर झुकी हुई थी और सुर्ख़ काँटे उसे भीतर से छेद रहे थे। वह फिर पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने लगी। उसे ठंड महसूस हुई। बर्फ उसके पैरों के नीचे चरमरा रही थी। बर्फ की फुहियाँ हवा में उड़-उड़कर उसके चेहरे पर आ रही थीं। वह फिसली। हवा को उसने पकड़ना चाहा, लेकिन उसके हाथ आया बर्फ का एक टुकड़ा। वह बेतरह सिहर उठी।
मैं जमी जा रही हूँ... जमी जा रही हूँ मैं! अपनी ही कराह उसके कानों से टकराई। मत्थे पर एक हाथ की छुअन महसूस हुई, और एक आवाज़ सुनाई दी। बस्स! अब हो ही गया सब कुछ!
फिर मुँद गईं उसकी आँखें। ठंड का असर पहले-सा ही था। पहाड़ एकदम वीरान। बर्फ की फुहियाँ उसके चेहरे से टकरा रही थीं। पैरों के नीचे एक गहरी घाटी का दहाना खुल गया था। आवाज़ ने कहा, शांत होइए! शांत होइए!
उसने देखा डॉक्टर के हाथ हरकत में हैं। उसके चेहरे पर से सफेद नक़ाब गिर गई थी और वह हँस रहा था।
फिर उसने खुद को फिसलता महसूस किया, और यह कि उस खाई में गिर रही है। उसने अपने हाथ फैलाये। सामने आदमी नज़र आया। वह हँस रहा था, हमारे सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं था, डियर! कोई भी दूसरा रास्ता....
वह मुस्कुरा रहा था। उसने अपने सीने पर कुछ भारी-भारी-सा महसूस किया। देखा, नर्स उसके दिल पर, जगह बदल-बदल कर, आला लगा रही है। अपना हाथ वह सीने के जानिब ले गई।
वह हिल रहा था और रह-रह कर झटके खा रहा था। लगा, सीने के नीचे कोई चीज़ बढ़ रही है। बढ़ रही है और गुब्बारे की तरह फूल कर बड़ी और बड़ी होती जा रही है। उसका समूचा जिस्म हिलने लग पड़ा। मानो पूरा जिस्म एक बड़े-से दिल में तब्दील हो गया हो! दिल बढ़ रहा था- बढ़े जा रहा था-
बड़ा!... ख़ूब बड़ा!... फिर ख़ूब-ख़ूब बड़ा! और उसका इस तरह बढ़ना तब तक जारी रहाः जब तक वह फट नहीं गया।
उसका हाथ हवा को अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश कर रहा था, कि तभी वह फिसली और पैरों के नीचे की गहरी खाई में जा गिरी!
ख़त्म!... सब कुछ ख़त्म!! बहुत दूर से एक आवाज़ आई।
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