मृणाल शहर से
लोकप्रशासन की पढ़ाई पूरी कर गाँव आया। उसे लगा कि गाँव अब भी वैसा ही है,
जैसा गाँव से शहर जाते समय था। मन बड़ा दुखी हुआ। न गाँव में सड़कें थीं, न
ही बिजली। पानी का अब भी रोना था। सड़क के दोनों ओर मक्खियों की दावत
रहती। चार साल बाद मृणाल शहर से गाँव आया तो उसे लगा था कि गाँव की सारी
परेशानियाँ खत्म हो गई होगी। पहले जैसा नहीं होगा किंतु यहाँ तो कुछ और ही
था। यह देखकर मृणाल मन ही मन आग बबूला होने लगा। मृणाल अपने पिता जी से
बोला- पिता जी, आप लोग किसे वोट देते हैं; और क्यों? मुझे समझ नहीं आता। अब
हमारे गाँव के हर नागरिक साक्षर हो गए हैं फिर भी....। पिता जी ने कहा– इन
सब बातों को छोड़ो और बताओ तुम्हारी तबीयत कैसी है? नहीं पिता जी; मुझे यह
ठीक नहीं लग रहा है। मैं लोकतंत्र की पढ़ाई करने गया था। और मेरा ही
गाँव.....! शर्म महसूस हो रही। मृणाल रूऑंसा स्वर में बोला। देखो बेटा;
चुनाव का समय आता है तो नेता, जनता को कई प्रकार से प्रलोभन दे कर अपनी ओर
आकर्षित कर लेते हैं, हम एक से भला क्या होता है? बात तो सही है पिता जी।
मृणाल ने अपना सिर हिलाया,और शांत हो कर कमरे की ओर बढ़ा। अगले दिन चौपाल
में कुछ वृद्धजन बैठे किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। मृणाल वहाँ पहुँचा।
उनकी बातें सुनी; लेकिन किसी का चरण स्पर्श नहीं किया। वृद्धजन हैरान नजरों
से मृणाल की तरफ देखने लगे, और आपस में बोलने लगे वाह! बेटा मृणाल; आज शहर
जा कर संस्कार शहर में ही छोड़ आए। मृणाल बिना कुछ बोले वहाँ से निकल गया।
वह गाँव के किसी भी लोगों से सीधे मुँह बात नहीं करता था।पता नहीं क्या
करता है ये लड़का; बस! इधर से उधर मंडराता रहता है, कभी तालाब के किनारे
मछुवारे संग बैठा रहता है, कभी अकेले बगीचे में घूमता है, समझ नहीं आता,
कौन जाने शहर में क्या–क्या गुल खिलाया होगा।बात करना तो दूर देखता तक
नहीं। कहीं ये.....! इन सब बातों से मृणाल को कोई फर्क नहीं पड़ता था। अपने
में ही मस्त रहता था। एकाएक गाँव में बदलाव आने लगा। हर घर रौशनी फैलने
लगी। पानी की परेशानी भी लगभग कम हो रही थी। गाँव के सरपंच महोदय आकाश जी
कुछ युवाओं के साथ बातें करते दिखाई दिए। मृणाल भी वहीं पहुँचा, क्या बात
है सरपंच जी! अब धीरे–धीरे विकास होने लगा है, इस गाँव में बरसों बाद अच्छे
से दीवाली मनाई जाएगी। उनकी प्रशंसा की मानो मृणाल पुल बाँधने लगा। सरपंच
जी की बाॅंछे खिल उठी। झूठी मुस्कुराहट के साथ सरपंच जी बड़े खामोश रहते।
मृणाल उनकी ठिठोली करते नहीं थकता। एक दिन नेताजी और कुछ साथीगण, सरपंच
महोदय का सम्मान करने और अपनी तारीफें बटोरने गाँव में आये। सभी इस आयोजन
से खुश तो थे ही लेकिन हैरान भी थे। अचानक बदलाव कैसे आ रहा है! सरपंच जी
कुछ बदले–बदले नजर आ रहे हैं। मंच में नेता और उनके सहयोगी जो सिर्फ
चापलूसी करते थे; सभी आए। नेता जी का गजमाला से सरपंच महोदय ने स्वागत
किया। नेता और गाँव के सरपंच जी एक ही थाली के चट्टे–बट्टे थें। एक–दूसरे
की तारीफ करते नहीं थकते। गाँव के विकास के बारे में नेता जी ने सरपंच को
धीरे से कान में पूछ ही लिया। क्या बात है! आकाश जी आखिर आप अचानक विकास की
ओर कैसे बढ़ गए? अपने जेब से पैसा लगाते हैं या..... कुछ और इरादा है....!
सरपंच जी ने हैरानी से नेता की तरफ देखा। यही बात तो मैं आपसे पूछने वाला
था! आखिर कौन है? जो विकास करवा रहा? कुछ दिनों से जेब खर्च के भी पैसे
नहीं मिल रहे। जेब में चवन्नी तक नहीं है, सरपंच जी ने नेता के कान में
फुसफुसाते हुए कहा। माइक पकड़ कर नेता जी ने सरपंच को शाबाशी दी। मृणाल और
उनके पिता जी चैन-ओ-सुकून से बैठे भाषण सुन रहे थे लेकिन सच्चाई भी सामने
लाना जरूरी था। मृणाल मंच में पहुँचा; नेता और सरपंच जी को मक्खन लगाते हुए
बधाई दी और बोले वाह! आकाश जी आपके कार्यों की तो दाद देनी पड़ेगी। ये सब
आपने किया है? मैं बता नहीं रहा बल्कि, आपसे पूछ रहा हूँ।मृणाल ऊँचे स्वर
में बोला।इतने सालों से इस बंजर धरती में हरियाली कैसे नहीं आ रही थी; क्या
गाँव वालों ने कभी इस ओर ध्यान दिया? नहीं न! आएगी भी कैसे, सरपंच जी की
बुरी हालत कैसे हो गई? किसी ने सोचा है? गांँव विकास की ओर बढ़ रहा है ये
तो खुशी की बात है न! सरपंच जी का पसीना निकलना शुरू हो गया। कार्यों के
पैसे कहाँ जाते थे? क्या करते थे?किसी ने जानने की हिम्मत नहीं की; तो फिर
अगली बार इन्हें वोट देने का कोई अधिकार नहीं है। सरपंच की पोल खुली। गाँव
वालें आपस में खुसुर–फुसुर करने लगे। नेता जी भड़क उठे; कौन हो तुम? तुमको
हमारी बेइज्जती करने का हक किसने दिया? मृणाल ने दो टूक उत्तर दिया- मैं इस
पूरे जिले का "नया सी.ई.ओ." (मुख्य कार्यपालन अधिकारी) हूँ। नेता जी को
जैसे साँप सूॅंघ गया। और सच्चाई सामने आ ही गई।
प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
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