डॉ मृदुल शर्मा
पिपरगांव के ग्राम प्रधान चौधरी शिव बरन सिंह और उनकी पत्नी श्रीमती रमा
सिंह को जब इस बात की जानकारी हुई कि उनकी पुत्रवधू गर्भवती है तो उनकी
खुशी का ठिकाना नहीं रहा। चौधरी शिव बरन सिंह अपने पैतृक मकान की साफ-सफाई
कराने में जुट गये। वह रात को लेटते तो मन ही मन
बच्चे
का जन्म होने पर भोज देने की योजना बनाते। कौन कौन से गांव के किस किस को
निमंत्रण देना है, कुल कितने लोग हो जायेंगे, खाने का मीनू क्या होगा आदि
विषयों पर वह विचार करते। उनकी इस भोज व्यवस्था में व्यस्तता देख कर
निद्रा देवी उड़न छू हो जातीं और चौधरी साहब रात रात भर करवटें बदलते रह
जाते। उधर उनकी पत्नी रमा देवी ने पौत्र प्राप्ति की कामना से प्रत्येक
सोमवार को व्रत रहना प्रारंभ कर दिया। चौधरी साहब को जब पता लगा कि उनकी
पत्नी पौत्र की कामना से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए व्रत रखती है
तो वह बहुत प्रसन्न हुए। मगर चौधरी साहब ने यह खुशी अपनी पत्नी पर प्रकट
नहीं होने दी। बल्कि हंस कर उनसे बोले -" तू तौ बावली हो गई है त्रिभुवन की
मां। तेरे पुत्र की पहली संतान जन्म लेगी तो पुत्र हो या कन्या, क्या फर्क
पड़ता है। अगर कन्या ही हो गई तो अगली बार भगवान पुत्र दे देंगे। कौन
तुम्हारे इकलौते पुत्र के चार-चार कन्या हो चुकी हैं जो पुत्र के लिए
परेशान हो रही है।"
शुभ शुभ बोलो चौधरी सा' ।
जिंदगी को कोई ठिकानो है? पके फल की का बिसात, कब हवा को लकूरा आवै और फल
चू परै। पोता खिलाय लें तौ म्हारी आखिरी तमन्ना पूरी हो जाये।"- श्रीमती
रमा सिंह ने गदगद स्वर में उत्तर दिया।
दीपावली
के अवसर पर जब चौधरी साहब का इकलौता पुत्र अपने माता-पिता के पास त्योहार
मनाने आया तो उसकी मां ने उसे डांटते हुए कहा -" बहू को लेकर क्यों नहीं
आया?"
" अम्मा उसने कुछ दिन अपनी मां के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की थी तो मैं उसे उसके मायके छोड़ता हुआ यहां चला आया।
-त्रिभुवन ने सफाई पेश की।
" ठीक है। जल्दी ही बहू को यहां पहुंचा जाना। ऐन टेम पर गर्भवती महिला को
यात्रा नहीं करनी चाहिए।"- मां ने बेटे को समझाया और फिर बच्चे के जन्म से
संबंधित सारी तैयारी और योजनाओं की जानकारी त्रिभुवन को दी। त्रिभुवन यों
तो किसी मल्टीनेशनल कंपनी में बहुत बड़ा अधिकारी था, मगर अपनी मां रमा सिंह
के सामने वह उनका भोलाभाला 'लला' ही था सो वह बेचारा शर्म से सिर झुकाए
अपनी मां की बातें सुनता रहा।
त्रिभुवन जब पिपरगांव
से वापस बैंगलौर लौटा तो बड़ी द्विविधा में था। वह जानता था कि उसकी पत्नी
सांभवी बच्चे के जन्म के समय पिपरगांव में रहने हेतु किसी भी दशा में राजी
नहीं होगी और पिपरगांव में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के घोर अभाव को देखते
हुए यह उचित भी है। मगर अम्मा बाबू की बच्चे के जन्म को लेकर की जा रही
तैयारियां और योजनाओं को देखते हुए वह यह भी सोच रहा था कि जब सांभवी
कोपिपरगांव भेजने से मना करेंगे तो उन्हें बहुत दुख होगा।
एक सप्ताह बाद जब सांभवी अपने भाई के साथ मायके से बैंगलोर वापस लौटी तो
एक दिन त्रिभुवन ने अपनी उलझन सांभवी को बताई। उसकी बात सुनकर सांभवी बोली
-"पिपरगांव में डिलीवरी? पागल हो गए हो क्या?" डिलीवरी के समय तुम मुझे
गाजियाबाद भेज देना। वहां पर मम्मी -पापा सुरक्षित डिलीवरी हेतु सारी
व्यवस्था कर लेंगे।"
निर्णायक स्वर में सांभवी
द्वारा कही गई बात को सुनकर उस समय तो त्रिभुवन चुप हो गया। मगर धीरे धीरे
उसने सांभवी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि डिलीवरी बैंगलोर में होगी और
उन दिनों त्रिभुवन अपने माता-पिता को बैंगलोर बुला लेगा तथा सांभवी और
नवजात शिशु की उचित देखभाल की व्यवस्था हेतु वह एक सप्ताह तक अवकाश पर
रहेगा।
गर्भस्थ शिशु के जन्म के कुछ दिन पूर्व
त्रिभुवन ने फोन पर अपने माता-पिता को बताया कि सांभवी के शरीर में खून की
कमी है। डाक्टरों ने अस्पताल में ही डिलीवरी कराने की सलाह दी है। अतः वह
दो दिन बाद उन लोगों को बैंगलोर ले जाने के लिए पिपरगांव आयेगा।
बहू की बीमारी के विषय में जानकारी मिलने पर उसके माता-पिता चिन्तित हो
गये। उन्होंने अपने पड़ोसी सुरेश को बुलाकर कहा-" सुरेश, हम लोग दो-चार दिन
में बैंगलोर जा रहे हैं। तुम घर का तथा हमारे जानवरों का ख्याल रखना। भैंस
दूध दे रही है। उसके खाने के लिए दाना और चोकर भी भूसे वाली कोठरी में है।
उसकी सेवा के साथ ही दूसरे जानवरों के खाने पीने का भी पूरा ख्याल रखना।
भैंस दोनों टाइम दो-दो लीटर दूध देती है। खूब छक कर तुम लोग दूध पीना और घर
की अच्छे से रखवाली करना।"
सुरेश सिर झुका कर बोला -" आप निश्चिंत होकर जाओ चौधरी सा'। हम शिकायत का मौका नहीं देंगे।"
चौधरी साहब और उनकी पत्नी त्रिभुवन के साथ बैंगलोर आ गये। बैंगलोर के
पाश एरिया में कंचन जंघा हाइट्स में उसने टावर नंबर आठ में फ्लैट नंबर 1204
किराए पर ले रखा था।
चौधरी शिव बरन सिंह और उनकी पत्नी श्रीमती रमा सिंह बेटे का घर देख कर खूब हंसे। श्रीमती रमा सिंह बोलीं -" भइया
यह
घर है या पिंजरा। न औरतों के लिए आंगन, न मर्दों के लिए चबूतरा। अगर
ढोर-डांगर रखने का शौक हो तो कहां रखे? पंछी के नाम पर सिर्फ कबूतर ही
दिखाई देते हैं।"
वहां रहते हुए ग्रामीण दम्पति
ने देखा कि यहां तो कोई किसी से बोलता ही नहीं है। चौधरी साहब ने बातचीत
शुरू करने के उद्देश्य से सामने पड़ने पर कई लोगों को 'राम राम' बोला मगर
कोई दूसरी ओर देखने लगा और किसी ने प्रत्युत्तर में धीरे से सिर हिला दिया।
सर्दियों के दिन थे।उन्होंने देखा कि कालोनी में रहने वाले पुरुष और
स्त्रियां सुबह-शाम कालोनी के किनारे और पार्क के चारों ओर बनी सड़कों पर
टहलते हैं। स्त्रियां भी पुरुषों के जैसे ही जीन्स और जैकेट पहनती हैं।
बहुत सवेरे ही अनेक लड़कियां और औरतें काम करने के लिए बाहर से कालोनी में
आती हैं। वे सब दोपहर में बारह बजे से दो बजे के बीच कालोनी में स्थित
पार्क में धूप में बैठ कर भोजन करती हैं।
दोपहर
में त्रिभुवन के माता-पिता भी पार्क में जाकर टहलते थे। धीरे-धीरे इन लोगों
की उन कामवाली स्त्रियों से बातचीत होने लगी। उन्होंने बताया कि यहां हर
घर में झाड़ू -पोछा करने, बर्तन धोने, कपड़े धोने और खाना बनाने के लिए के
लिए, छोटे बच्चों को संभालने के लिए बाहर से काम वाली आती हैं।
"फिर यहां रहने वाली औरतें दिन भर क्या करती हैं"- रमा सिंह ने आश्चर्य से पूछा।
"वे सब कार से मार्केट जाती हैं, बच्चों को स्कूल से लातीं हैं, टी.वी. देखती हैं।"- एक महिला ने उत्तर दिया।
फिर कुछ रुककर बोली -" जिस दिन खाना बनाने वाली नहीं आती है, उस दिन
जोमैटो को खाना लाने का आर्डर दे दिया जाता है, या रेस्टोरेंट में जाकर वे
लोग खाना खा आते हैं।"
चौधरी साहब ने वार्ता में
सम्मिलित होते हुए कहा -" यहां तो कोई किसी से बोलता ही नहीं। ये पड़ोसियों
के सुख दुख में भी क्या शामिल होते होंगे।"
उनकी बात सुनकर एक बूढ़ी स्त्री बोली -" अब तो लाश उठाने के लिए भी मजदूर मिलते हैं। वही मुर्दे को श्मशान पहुंचाते हैं।"
"हे भगवान, कैसे हो गए हैं शहर के पढ़े-लिखे, धनी-मानी लोग।"- चौधरी साहब ने हंस कर कहा।
"सबमें अहंकार की गैस भरी है, वही झुकने नहीं देती है।" - रमा सिंह ने मुंह बिचकाकर कहा।
धीरे-धीरे त्रिभुवन के माता-पिता से उन कामवाली स्त्रियों से नेह-नाता
जुड़ गया। उन्होंने इन स्त्रियों से रोज ही बातें करते देख एक दिन सांभवी
ने कहा -" हम लोग इन छोटे लोगों को ज्यादा मुंह नहीं लगाते हैं।"
इतना सुनते ही चौधराइन भड़क गईं -" यह क्या बात हुई बहू? यही तो समाज की
सुंदरता है। छोटे -बड़े सभी अपनी सीमा के अनुसार एक -दूसरे की सहायता हेतु
तत्पर रहें, तभी साथ-साथ रहने -बसने का कोई लाभ है। हमारे गांव में देखो,
जो गरीब है वह हाथ-पैर से सेवा-सहयोग हेतु तत्पर रहता है और जो धनी है, वह
उदारता पूर्वक उसकी आर्थिक सहायता करता है। दोनों की जरूरतें एक-दूसरे से
पूरी हो जाती हैं।"
इसके बाद सांभवी का साहस नहीं हुआ कि वह अपनी सास से इस संबंध में बहस करे।
त्रिभुवन के पुत्र का जन्म अस्पताल में हुआ। इस उपलक्ष्य में उसे फोन
पर बधाइयां मिलीं, कई बुके भी डिलीवरी ब्वाय दे गए। मगर सशरीर बधाई देने
हेतु कोई उपस्थित नहीं हुआ।
एक माह बाद त्रिभुवन के माता-पिता को वापस पिपरगांव
जाना था। उन्होंने बातचीत के दौरान अपने जाने की तिथि और समय इन कामवालियों को बता दिया।
जिस दिन त्रिभुवन अपने माता-पिता को पिपरगांव पहुंचाने जा रहा था, नीचे
लिफ्ट के पास अनेक कामवाली स्त्रियां, ड्राइवर और सिक्योरिटी गार्ड उन्हें
विदा करने के लिए खड़े थे। ड्राइवर और गार्डों ने चौधरी साहब को पैर छूकर
विदा किया तो महिलाओं ने सिसकते हुए त्रिभुवन की मां के पैर छूकर उन्हें
विदा किया। जब एक लड़की त्रिभुवन की मां के पैर छूने के लिए झुकी तो वह उसे
गले लगा कर बोलीं -"कुंवारी कन्या देवी सरूप होत हैं, उनसे पांव नाय छुआए
जात।"
उन्होंने उन सभी महिलाओं को बीस बीस रुपए
दिए।जब एक महिला ने रुपए लेने से मना किया तो वह बोलीं -" बड़े -बुजुर्गों
के आशीर्वाद को लेने से मना नहीं करते।"
यह सुनकर उस महिला को बीस रुपए का नोट लेना ही पड़ा।
कालोनी के लोग भीड़ को देखकर अपने अपने फ्लैट की बालकनी में आकर आश्चर्य से यह विदाई का दृश्य देखने लगे।
उनमें से कुछ ने बुदबुदाते हुए कहा -"कैसे कैसे लोग हैं दुनिया में।"
इधर कालोनी के वासिन्दों के विषय में सोचते हुए पिपरगांव के चौधरी और चौधराइन भी यही वाक्य मन ही मन दोहरा रहे थे।
डॉ मृदुल शर्मा
569क/108/2, स्नेह नगर
आलमबाग, लखनऊ -226005
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