नरेंद्र कुमार कुलमित्र
युवा कवि और आलोचक अजय चंद्रवंशी का यह पहला काव्य संग्रह है। इससे पहले "भूख" शीर्षक से उनका एक गजल संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनकी दोनों किताब साहित्यिक विधा (कविता और ग़ज़ल) की दृष्टि से अलग-अलग है मगर दोनों ही विधा में भावों और विचारों की समानता है। किसी भी रचनाकार के लिए विधा महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उनका कहन या वैचारिक दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता है। जब कोई युवा रचनाकार रचना प्रारंभ करता है तो सामान्यत: शेरो शायरी, गजलों या कविताओं से ही प्रारंभ करता है।
अजय जी अपनी रचनाओं में चाहे गजल हो या कविताएं अपने जीवन की अनुभूतियों एवं अनुभव को बिना लाग लपेट के सीधे सरल भाषा में लिखते हैं। मुझे निजी तौर पर मुक्त छंद की कविताएं अपनी बातों को यथावत कहने के लिए उपयुक्त नजर आती हैं। इस संग्रह की कविताओं में भावों की विविधता देखी जा सकती है। उनकी कविताओं में प्रेम है,आत्माभिव्यक्ति है किसानों और मजदूरों की पीड़ा है,कहीं हताशा है तो कहीं उम्मीद है,उनके अपने लोग और उनकी अनुभूतियां हैं, देश समाज और आसपास की विसंगतियां हैं,व्यवस्थाओं के लिए खीझ है साथ ही तीखा व्यंग है। कुल मिलाकर उनकी कविताएं जीवन की सच्चाई से लबरेज है । पूर्णतः यथार्थवादी हैं। उनकी कविताओं में कहीं भी झूठे आदर्शवाद और वायवीय दुनिया की छाया नहीं ढूंढ सकते। उनके शब्द जितने साधारण और सरल हैं उतने ही तीखे भी हैं जो तथाकथित आदर्श वादियों को सुई की नोक की तरह चुभनेवाले हैं। वे अपनी कविताओं में पारलौकिक आध्यात्मिक बातें नहीं करते बल्कि जीवन से जुड़ी जरूरी बातें करते हैं। उनकी कविताओं में जरा भी हवा हवाई बातें नहीं है बल्कि पूरी जमीनी हकीकत है। कविताओं में शब्द है मगर शब्दजाल नहीं है,शाब्दिक चमत्कार नहीं है। कविताओं में उनके कहन की सादगी चमत्कृत करती है।
मैं बचपन में अपने स्कूली दिनों में भगवतशरण उपाध्याय जी का एक निबंध पड़ा था शीर्षक था "मैं मजदूर हूं"। निबंध में लेखक ने मजदूरों को सारे संसार के विकास का सर्जक बताया है। सचमुच दुनिया मजदूर के कंधों पर ही होती है। धन दौलत वाले सब मिट जाते हैं मगर मजदूर कभी नहीं मिटते। इस कविता संग्रह की शीर्षक कविता जिंदगी आबाद रहेगी इस बात की तस्दीक करता है। पंक्तियां दृष्टव्य है--
"जिंदगी आबाद है
फुटपाथ पर कपड़ा बेचते उस बुजुर्ग के चेहरे में
ग्यारह बजे तक भी काम ना मिले उन मजदूरों की उम्मीदों में
जिस्म झुलसाती इस दोपहरी में ठेला पेलते पैदल चलते
जद्दोजहद करते इन लोगों में
तुम फैलाओ नफरत, नफरत के सौदागरों
जिंदगी आबाद रहेगी तुम्हारी जात,मजहब को ठोकर मारती ।"
बेबस लोगों की बेबसी एक संजीदा कवि ही समझ सकता है। वरना यहां धनवानो,व्यवस्थादारों को इतनी फुर्सत कहां कि वह उनके हालात पर एक नजर डाल सके। "शिकायत" कविता की बानगी देखिए--
"तुमको शिकायत है कि
मैं कुछ नहीं कहता
मगर ये पथराई आंखें
ये सूखे होंठ डगमगाते कदम ये जिस्म को छुपाने में
नाकाम कपड़े
रीढ़ को छूता पेट
बहुत कुछ कह रहे हैं
काश तुम समझ पाते।"
इस संग्रह की अधिकांश कविताएं मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। कवि जहां एक ओर गरीब किसानों मजदूरों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते दिखते हैं तो दूसरी ओर उनके शोषण करने वालों के विरुद्ध आक्रोशित नजर आते हैं। वे अपनी कविताओं के माध्यम से किसानों मजदूरों को शोषण तंत्र के खिलाफ संगठित होकर आवाज बुलंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। "बेबसी"कविता का अंश दृष्टव्य है--
"मैं भी वही हूं
जो तुम हो
तुम्हारी आंखों की नमी
मेरी आंखों में है।"
××××××××××
"मगर मेरे भाई
यह हवा पानी ये जमीन हमारा भी है
हमें छीनना है उनसे
जो हमारा हक छीन कर बैठें है।"
उनकी कविताओं में आत्म स्वाभिमान का भाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी स्थिति विवशतापूर्ण भले ही हों मगर उस पर भी वे फक्र करते नजर आते हैं। कवि को अपनी यथास्थिति स्वीकार करने में कोई परहेज नहीं है। "कामन" कविता की पंक्तियां दृष्टव्य है--
"मगर हम नहीं करते अपनी दुनिया से घृणा
हमें नाज है
अपने अपने काम अपने घर अपने मोहल्ले और अपने
लोगों पर।"
यूं तो प्रेम करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। मगर गरीब के पास इतना सुभिता नहीं होता कि अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के लिए जी सके। उसकी जिंदगी समस्याओं से भरी होती है। रोजी रोटी के जुगाड़ और छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने में ही उसकी जिंदगी खप जाती है। "मौत" कविता का अंश दृष्टव्य है--
"आती होगी उनको सावन में
अपनी प्रेमिका की याद
हमें तो अपनी टूटी छानही की फिक्र सताती है।"
यह किसी से छिपा नहीं है कि आदिवासियों को सुविधा देने के नाम पर व्यवस्थादारों के द्वारा लगातार उनका शोषण किया जा रहा है। नगरीय अपसंस्कृति के दखलंदाजी से उनकी खूबसूरत प्रकृति और संस्कृति नष्ट होती जा रही है। बाजार के गिरफ्त में उनके जल जंगल और जमीन छीने जा रहे हैं। उनकी जिंदगी की असल समस्याएं अब भी ज्यों का त्यों है। "बकौदा के आदिवासी" कविता में सच्चाई की बयानी देखिए--
" यह नहीं आते तुम्हारी समस्याओं का हल करने
ये आते हैं यहां पिकनिक मनाने
अपने उबे हुए दिनों से कुछ राहत पाने
यह कैद करते हैं कैमरों में तुम्हारे नंगे जिस्म
और बेचते हैं बाजारों में,
या सजाते हैं अपने ड्राइंग रूम में
तुम इनके लिए एक तस्वीर से ज्यादा कुछ भी नहीं
हो।"
"जंगल का एक फूल" एक प्रतीकात्मक कविता है। इस कविता के माध्यम से आदिवासी अस्मत एवं अस्मिता को सुरक्षित रखने की अपील की गई है--
"बदलो अपनी नजर
अपने प्रतिमान
सम्मान करो उसकी अस्मिता का और फिर देखो
कितनी खुशबू है उसमें
तुम्हारे लिए भी।"
कवि अपने परिवेश और परिवेश के लोगों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यदि कवि किसी खास व्यक्तित्व से प्रभावित होता है तो वह उसके प्रति अपनी संवेदनशीलता शब्दों में व्यक्त करता है। कविता संग्रह की कुछ कविताओं में कुछ खास व्यक्तित्व को समर्पित करते हुए कवि ने उनके प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करते दिखते हैं, जैसे-वानगाग के लिए, गुरुदत्त के लिए (ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है), इजाडोरा के लिए, इमरोज के लिए (प्यार), साहिर लुधियानवी के लिए।
कविता संग्रह की कुछ कविताएं आकार में बहुत छोटी है किंतु उनमें भावनात्मक गहनता तथा व्यंग्यात्मक तीक्ष्णता बड़ी गहरी है। आकार में छोटी कविताओं में निर्मोही, मठ भंजक, एक जमीनी कवि, आलिंगन, सत्यवादी, सच्चे वीर, दर्द, बहस, राजनीति, निष्पक्ष, खुद्दार, अनुयाई, तटस्थ, किताबें आदि प्रमुख है। उनकी छोटी कविताओं के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है--
"वे मठों को तोड़ने आए थे
और उन्होंने एक नया मठ बना लिया।"(मठ भंजक)
×××××××××××
"वह राजनीति से दूर रहता है
मगर
दूर रहना भी
उसकी एक राजनीति है।"(राजनीति)
××××××××××××
"उसने गले लगाया..
मैं सहमा नहीं
चीखा !!"(आलिंगन)
××××××××××××
"वह किसी का
पक्ष नहीं लेता
सिवा खुद के।"(निष्पक्ष)
व्यंजना शैली में कही गई बातों को जानकार रचनाकार या सुधि पाठक ही समझ पाते हैं मगर सीधे तौर से अभिधामूलक भाषा में कही गई बातों को साधारण पाठक भी सहजतापूर्वक ग्रहण कर सकते हैं। "झूठे खुदा" नामक कविता में अभिधामूलक भाषा का स्वभाविक प्रयोग देख सकते हैं--
"जिन्हें रोटी की जरूरत थी
तुमने उन्हें मजहब दिया
जिन्हें रोजगार की जरूरत थी
उन्हें झूठा आदर्श दिया।"
तुमने उन्हें मजहब दिया
जिन्हें रोजगार की जरूरत थी
उन्हें झूठा आदर्श दिया।"
इसी तरह "एक सिविल सेवक के लिए" कविता में सिविल सेवक बनने के बाद सिविल सेवक की प्रवृत्ति में हुए बदलाव को सीधे शब्दों में कविता के माध्यम से रेखांकित करते हैं--
"अब वह चाय ठेलों में नहीं बैठता
अब फुटपाथ के समोसे उसे अच्छे नहीं लगते
एक ही ड्रेस को दो दिन पहने
इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते
उसके अंडर वियर तक हमारी कमीज़ से महंगे होते हैं।"
अब फुटपाथ के समोसे उसे अच्छे नहीं लगते
एक ही ड्रेस को दो दिन पहने
इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते
उसके अंडर वियर तक हमारी कमीज़ से महंगे होते हैं।"
कवि में दृश्य को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता है। उनके दृश्य चित्रण में दृश्य हमारे आंखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाते हैं।"पिता का कमरा" कविता से दृश्य चित्रण का अंश प्रस्तुत है--
"कमरे में एक टूटी कुर्सी है जिसे उन्होंने काम
चलाऊ बना लिया था
एक कूलर एक स्टूल
छत पर एक पंखा
एक बिजली बोर्ड जिसमें पीली रोशनी का बल्ब
जमीन में पलस्तर कई जगह उखड़ा उखड़ा।"
इसी तरह पहली बार मजदूरी के लिए आए एक किसान का दृश्य चित्रण "किसान मजदूर" कविता में देखिए --
"वह मजदूरों के ठीहे पर कुछ असहज से बैठा था
जैसे मजदूरों के बीच मजदूर न हो
पहनावा मजदूरों के ढंग का ना था
धोती कमीज पहने सिर पर पागा बांधे
वाह किसान लग रहा था।"
इसी तरह "हस्तरेखा बांचने वाला" कविता में दृश्य चित्रण देखते बनता है---
" उस उम्र दराज बुजुर्ग के पैर कांपते हैं
ठीक से चला नहीं जाता
उम्र की मार के आगे शरीर बेबस है
फिर भी बैठता है फुटपाथ पर
एक बोरी बिछाए
जिस पर होते हैं एक दो धार्मिक तस्वीर
और धुआं छोड़ते कुछ अगरबत्ती जलते रहते हैं।"
चलाऊ बना लिया था
एक कूलर एक स्टूल
छत पर एक पंखा
एक बिजली बोर्ड जिसमें पीली रोशनी का बल्ब
जमीन में पलस्तर कई जगह उखड़ा उखड़ा।"
इसी तरह पहली बार मजदूरी के लिए आए एक किसान का दृश्य चित्रण "किसान मजदूर" कविता में देखिए --
"वह मजदूरों के ठीहे पर कुछ असहज से बैठा था
जैसे मजदूरों के बीच मजदूर न हो
पहनावा मजदूरों के ढंग का ना था
धोती कमीज पहने सिर पर पागा बांधे
वाह किसान लग रहा था।"
इसी तरह "हस्तरेखा बांचने वाला" कविता में दृश्य चित्रण देखते बनता है---
" उस उम्र दराज बुजुर्ग के पैर कांपते हैं
ठीक से चला नहीं जाता
उम्र की मार के आगे शरीर बेबस है
फिर भी बैठता है फुटपाथ पर
एक बोरी बिछाए
जिस पर होते हैं एक दो धार्मिक तस्वीर
और धुआं छोड़ते कुछ अगरबत्ती जलते रहते हैं।"
कविता में शिल्प पक्ष का अपना महत्व होता है मगर कविता में अलंकार आदि का प्रयोग सायास किया जाए तो स्वाभाविकता खत्म हो जाती है। कवि अपने प्रेम की कविताओं में उपमा अलंकार का प्रयोग स्वाभाविक रूप से करते हैं--
"कितनी सुंदर लग रही थी आज तुम!
कितनी सादगी थी चेहरे पर
जैसे किसी नदी में होती है धरा से निकलते वक्त
जैसे किसी मासूम बच्चे के चेहरे पर होती है हंसते
वक्त।"
"साहिर लुधियानवी के लिए"लिखी कविता में प्रयुक्त उपमा अलंकार दर्शनीय है--
"जैसे कोई खंजर सीने में उतर गया हो
जैसे कोई बुझता शोला भड़क गया हो
जैसे पिंजरे में कैद परिंदा लोहा से बगावत कर दे
वही असर
तेरे गीतों,तेरी नज़्मों तेरे शेरों ने मुझ पर किया है।"
इसी तरह "तुम"कविता में सुंदर उपमानों का प्रयोग किया गया है--
"तुम
जैसे बच्चों की मुस्कान
जैसे सुबह-सुबह चिड़ियों की गान
जैसे दूर मंदिर में घंटियों की सदा
जैसे किसी मस्जिद की अजान "
कितनी सादगी थी चेहरे पर
जैसे किसी नदी में होती है धरा से निकलते वक्त
जैसे किसी मासूम बच्चे के चेहरे पर होती है हंसते
वक्त।"
"साहिर लुधियानवी के लिए"लिखी कविता में प्रयुक्त उपमा अलंकार दर्शनीय है--
"जैसे कोई खंजर सीने में उतर गया हो
जैसे कोई बुझता शोला भड़क गया हो
जैसे पिंजरे में कैद परिंदा लोहा से बगावत कर दे
वही असर
तेरे गीतों,तेरी नज़्मों तेरे शेरों ने मुझ पर किया है।"
इसी तरह "तुम"कविता में सुंदर उपमानों का प्रयोग किया गया है--
"तुम
जैसे बच्चों की मुस्कान
जैसे सुबह-सुबह चिड़ियों की गान
जैसे दूर मंदिर में घंटियों की सदा
जैसे किसी मस्जिद की अजान "
किसी कवि की सफलता इस बात पर निर्भर करता है कि कवि अपनी संवेदनाओं के माध्यम से पाठक से कितना जुड़ पाता है। यानी कवि और पाठक की संवेदनाओं का एक हो जाना कवि कर्म की सफलता मानी जाती है। चेतस रचनाकार वही माना जाता है जिसमें युगबोध की प्रवृत्ति होती है। युगीन परिस्थितियों और उससे उपजी विसंगतियों को उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। कवि अपने कविता संग्रह की अपनी बात में लिखते हैं,"कई संवेदनात्मक घटनाएं अनुभूति मान अपमान जब कभी मेरी संवेदनाओं को छूती है झकझोरती है तो कोई पंक्ति जेहन में उभर आती है।"सच्चा कवि कभी पलायनवादी नहीं होता वह जो देखता महासूसता है उसे शब्द देने का काम करता है, कवि ने ऐसा ही किया है। सद्य: प्रकाशित इस काव्य संग्रह की कविताएं निश्चित तौर से सहृदय पाठकों को प्रभावित करेगी।
कृति - "जिंदगी आबाद रहेगी" (कविता संग्रह)
रचनाकार - अजय चंद्रवंशी
समीक्षाक : नरेंद्र कुमार कुलमित्र वार्ड क्रमांक 08, मार्ग क्रमांक 3,
जी श्याम नगर, कवर्धा
जिला कबीरधाम छत्तीसगढ़-491995
मो. नं.- 9755853479
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें